बड़े-बड़े दावों के बीच से कहीं यह उपलब्धि भी छूट न जाये कि मजदूरों के नाम पर उपकर के जरिये सरकार ने केवल राष्ट्रमंडल खेलों से जुड़ी परियोजनाओं से करीब 500 करोड़ रुपये उगाये हैं. और बदले में मजदूरों के कल्याण के लिए एक भी योजना को लागू नहीं किया है. और क्या आप यह भी जानते हैं कि राष्ट्रमंडल खेल निमार्ण स्थलों पर काम के दौरान अबतक सौ (श्रम संगठनों के मुताबिक दो सौ) से ज्यादा मजदूर मारे जा चुके हैं.
और उनमें से एक को भी मुआवजे के रूप में एक रुपया भी नहीं मिला है. इसी तरह के बहुत सारे तथ्यों, आक़ड़ों और घटनाओं के चलते कहीं यह राष्ट्रमंडल खेल अभी तक के सर्वाधिक शोषण करने वाले खेलों में भी तो शामिल नहीं हो जायेंगे?तीन अगस्त, 2006 को दिल्ली राष्ट्रमंडल खेलों में बुनियादी ढांचे के विकास पर अलग-अलग एंजेसियों द्वारा व्यय की गयी राशि का जिक्र करते हुए दिल्ली के वित्त एवं लोक निर्माण विभाग मंत्री एके वालिया ने कुल 26,808 करोड़ रुपये के खर्च का ब्यौरा दिया था.
तबसे अब तक दिल्ली को सुसभ्य राजधानी बनाने के चलते बजट में तो बेहताशा इजाफ़ा होता रहा है, मगर मजदूरों को उनकी पूरी मजदूरी के लिए लगातार तरसना पड़ा है. गुलाब बानो अपने शौहर मंजूर मोहम्मद के साथ दिल्ली विश्वविद्यालय परिसर स्थित राष्ट्रमंडल खेल निमार्ण स्थल में काम करती है. यहां आठ साल का बेटा चांद मोहम्मद भी उसके साथ है, और वहां पश्चिम बंगाल के चंचुल गांव में चांद से बड़े भाई बहन हैं.
गुलाब बानो कहती है, यह इतना छोटा है कि खुद से खा पी भी नहीं सकता है. कई जान-पहचान वालों ने हमें बताया था कि दिल्ली में काम मिल जाता है, सो इस (चांद) के अलावा बाकी सबकुछ वहीं छोड़ चले आये हैं. यहां ईंटों के ढेर से गुलाब बानो एक बार में 10-12 ईंटें सिर पर उठाती है, फ़िर उन्हें स्टेडियम की ऊंची सीढ़ियों तक ले जाते हुए राजमिस्र्ी के सामने उतारने के बाद लौटने का क्रम सैक़ड़ों बार दोहराती है.
जहां गुलाब बानो को 125 रूपए/दिन मिलते हैं, वहीं उसके शौहर को उससे थोड़ा ज्यादा 150 रूपए/दिन. मगर गुलाब बानो कहती है ठेकेदार के आदमी ने तो हमसे कहा था कि औरतों को 250 रुपये रोजाना और मर्दो को 300 रुपये रोजाना दिया जायेगा. 25 साल के बिरजू का डेरा राष्ट्रमंडल खेल गांव से लगे अक्षरधाम मंदिर के पास है.
बीरजू यहां मिला तो बोला, जब तुम लोग साइट पर आये थे तो काम से निकाल दिये जाने के डर के मारे मैं बात नहीं कर सका था. वैसे बाहरी आदमियों को वहां कम ही भटकने दिया जाता है. 15 महीने पहले जब बिरजू मध्यप्रदेश के कटनी स्टेशन से ट्रेन के सामान्य डिब्बे में सवार होकर दिल्ली आया तो उसने राष्ट्रमंडल खेलों केबारे में सुना भी नहीं था.
वह बताता है अगर कोई आदमी साइट पर आकर सुपरवाईजर से पूछे तो वह दिखावा करता है, कहता है कि हर मजदूर को 200 और राजमिस्र्ी को 400 रुपये रोजाना दिया जाता है, जबकि हमारा आधा पैसा तो बीचवालों की जेबों में जाता है. बिरजू के साथ के बाकी मजदूरों से भी पता चला कि मजदूरी के भुगतान में देरी होना एक आम बात है.
अगर ठेकेदार के आदमियों से पूछो तो वह कहेंगे कि पूरा पैसा तो अधर में ही अटका पड़ा है, फ़िर भी घर लौटने से पहले-पहले सभी का पूरा हिसाब-किताब जरूर कर दिया जायेगा. खुद बिरजू का बीते दो महीने से 4000 रुपये से भी ज्यादा का हिसाब-किताब बकाया है. इसमें से पूरा मिलेगा या कितना, उसे कुछ पता नहीं है.
फ़रवरी, 2010 को हाई कोर्ट ने दिल्ली राष्ट्रमंडल खेलों के निर्माण स्थलों पर मजदूरों की स्थिति का आकलन करने के लिए संयुक्त राष्ट्र के पूर्व राजूत अरुंधति घोष सहित कई सम्मानीय सदस्यों को लेकर एक समिति गठित की थी. इस समिति ने कानूनों की खुलेआम अवहेलना करने वाले ठेकेदारों के तौर पर कुल 21 ठेकेदारों की पहचान की थी. तब समिति ने मजदूरों का भुगतान न करने वाले ठेकेदारों के खिलाफ़ कठोर दंड के प्रावधानों की सिफ़ारिश की थी.
इसी के साथ समिति ने कई श्रम कानूनों को प्रभावशाली ढंग से लागू करने की भी मांग की थी. समिति के रिपोर्ट के आधार पर दिल्ली हाइ कोर्ट ने निर्देश भी जारी किये थे. इसके बावजूद यहां कानूनों के खुलेआम अवमानना का सिलसिला है कि रुका ही नहीं. 25 मई, 2010 को दिल्ली हाई कोर्ट ने केंद्र और राज्य सरकारों से कहा कि वह राजधानी के अलग-अलग निमार्ण स्थलों में दिल्ली भवन एवं अन्य निर्माण श्रमिक कल्याण बोर्ड के तहत पंजीकृत किये गये मजदूरों के अधिकारों को सुनिचित करें.
तब दिल्ली हाई कोर्ट का यह नोटिस नई दिल्ली नगर निगम, दिल्ली विकास प्राधिकरण और भारतीय खेल प्राधिकरण को भेजा गया था. इसी से ताल्लुक रखने वाला दूसरा तथ्य यह है कि दिल्ली हाइ कोर्ट में दायर एक जनहित याचिका के अनुसार, राष्ट्रमंडल खेलों से जुड़े कुल 11 आयोजन स्थलों पर 415,000 दिहाड़ी मजूर काम कर रहे हैं.(लेखक युवा ऐक्टविस्ट हैं)