गांव का हक मार रहा शहर

लखनऊ [अजय श्रीवास्तव]। शहर के अंग्रेजी स्कूल का पढ़ा बच्चा और गांव
के साधनहीन विद्यालयों के पढ़े बच्चे यदि एक ही साथ परीक्षा में बैठें तो
पास होने की अधिक सम्भावना किसकी है?..और अगर परीक्षा में 75 प्रतिशत सीटें
ग्रामीण पृष्ठभूमि के बच्चों के लिए हों लेकिन इस पर भी शहरी बच्चे
जालसाजी से बैठें तो?. साफ है कि गांव का हक मारा जाएगा।

ग्रामीण बच्चों के लिए खुले नवोदय विद्यालयों में पढ़ाई ही नहीं, आवास,
स्टेशनरी व ड्रेस की सुविधा भी नि:शुल्क होती है। यही लालच शहरी बच्चों को
इन विद्यालयों की ओर खींच रहा है।

राजधानी और आसपास के इलाकों में नवोदय विद्यालयों की प्रवेश परीक्षा
में शहरी बच्चों के बैठने की शिकायतें ‘दैनिक जागरण’ को कुछ समय से मिल रही
थीं। यहां अपने कोटे यानी 25 प्रतिशत का तो शहरी बच्चे लाभ ले रहे हैं,
साथ ही जालसाजी और फर्जी अभिलेखों के सहारे ग्रामीण बच्चों के लिए आरक्षित
75 प्रतिशत सीटों पर भी सेंधमारी कर रहे हैं।

सच्चाई का पता लगाने के लिए नवोदय विद्यालय के प्रधानाचार्य डा.जय सिंह
चौहान और नवोदय विद्यालय समिति के क्षेत्रीय कार्यालय लखनऊ संभाग के उप
निदेशक देवानंद हजारिका से बात की तो इन अधिकारियों ने भी ऐसी शिकायतों की
पुष्टि की है। वे स्वीकारते हैं कि प्रवेश पाने के लिए शहरी बच्चे ग्रामीण
इलाकों में रहने व शिक्षा का फर्जी अभिलेख तैयार करा लेते हैं। ऐसे मामले
पकड़े जाने पर कार्रवाई भी की गई थी।

लखनऊ में पांच और दूसरे जिलों के सात शहरी बच्चों को चिह्नित कर उनका
प्रवेश रद किया गया। बस्ती में भी एक मामला सामने आया है। इस बारे में
बेसिक शिक्षा विभाग को पत्र लिखा गया है।

केंद्रीय मानव संसाधन मंत्रालय द्वारा संचालित जवाहर नवोदय विद्यालय
राजधानी स्थित सरोजनीनगर के पिपरसंड में भी है, जहां चार सौ छात्र व दो सौ
छात्राएं पढ़ती हैं। देश के 550 जिलों में इसकी शाखाएं हैं।

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