देहरादून। वर्ष 2008-09 में उत्तराखंड की कृषि विकास दर ऋणात्मक रही
है। इसकी प्रमुख वजह सूखा और तकनीकी सुधार में खामी को बताया जा रहा है।
आने वाले दो वर्षो में वर्षा की स्थिति पर राज्य की कृषि विकास दर निर्भर
करेगी।
ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना के मध्यवर्ती मूल्यांकन में ये तथ्य सामने
आए हैं। मूल्यांकन में बताया गया है कि राष्ट्रीय स्तर पर दसवीं पंचवर्षीय
योजना में कृषि के क्षेत्र में 2.5 प्रतिशत विकास दर अर्जित की गई थी।
ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना के लिए कृषि विकास दर का लक्ष्य चार प्रतिशत रखा
गया था। योजना के प्रथम तीन वर्ष में यह दर दो प्रतिशत के करीब दर्ज की गई
है। मूल्यांकन में यह बात सामने आई कि पहले वर्ष कृषि विकास दर अपेक्षा के
अनुरूप रही। उसके बाद वर्षा की अनिश्चितता के कारण इसमें कमी दर्ज की गई
है। इससे लगता है कि ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना में चार प्रतिशत की कृषि
विकास दर प्राप्त करना संभव नहीं हो पाएगा। हालांकि आने वाले दो वर्षो में
मानसून की स्थिति पर आगे की विकास दर निर्भर करेगी। उत्तराखंड में 2007-08
में कृषि विकास दर 1.2 प्रतिशत रही, जबकि वर्ष 2008-09 में यह ऋणात्मक हो
गई। इस वर्ष राज्य की कृषि विकास दर -0.1 प्रतिशत दर्ज की गई। कृषि सचिव
रणवीर सिंह का कहना है कि उत्तराखंड की 54 प्रतिशत कृषि पहाड़ों में है, जो
सिंचाई के साधनों के अभाव की वजह से सीधे तौर पर वर्षा से प्रभावित होती
है। वर्ष 2008-09 में पड़े सूखे के वजह से उत्तराखंड में कृषि विकास दर गिर
गई। आने वाले दो सालों में वर्षा पर उत्तराखंड की कृषि विकास दर निर्भर
करेगी। हालांकि कृषि विभाग ने कृषि विकास दर के ऋणात्मक होने की दो वजह
बताई हैं। पहला सूखे की वजह से ऐसा हुआ है। दूसरा कारण कृषि तकनीक में
अपेक्षित सुधार न हो पाना बताया गया है। विकास दर बढ़ाने के लिए कृषि के
क्षेत्र में तकनीकी गैप को भरने पर बल दिया गया है। जिससे मौसम तथा अन्य
कारणों से होने वाले नुकसान की भरपाई की जा सके। यह तय है कि पहाड़ी कृषि के
लिए तकनीकी विकास एक बार फिर से रोड़ा बनेगी। तराई के मुकाबले पहाड़ी खेती
में तकनीकी का समावेश न के बराबर हो पाया है। वैज्ञानिक संस्थाएं तथा
विश्वविद्यालय भी ऐसी कोई तकनीक विकसित नहीं कर पाए हैं, जिससे पहाड़ की
कृषि को लाभ पहुंचे। पहाड़ों को अब भी सिर्फ वर्षा पर ही निर्भर रहना पड़ेगा।