हरियाणा और पंजाब से लेना होगा सबक

चंडीगढ़ [भारत डोगरा]। आज से चार-पांच दशक पहले हरित क्रांति के नाम
पर भारतीय कृषि में बड़े बदलाव हुए तो इनका सबसे बड़ा केंद्र पंजाब, हरियाणा,
पश्चिमी उत्तर प्रदेश की उपजाऊ पट्टी को बताया गया, जहां पानी की भी कोई
कमी नहीं थी। इस क्षेत्र को भारत के खाद्यान्न कटोरे के रूप में विकसित
करने पर बहुत निवेश हुआ और सिंचाई, रासायनिक खाद आदि व इनसे जुड़ी सब्सिडी
का अधिकांश खर्च यहीं हुआ। पर अब संकेत मिल रहे हैं कि सरकार भावी कृषि
विकास के लिए पूर्वी राज्यों की ओर अधिक ध्यान देगी और इस दृष्टि से
छत्तीसगढ़, पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, उड़ीसा व पश्चिम बंगाल की
कृषि संभावनाओं को आगे लाने में अधिक खर्च होगा।

विगत 9 और 10 जुलाई को कोलकता में एक महत्वपूर्ण दो दिवसीय कार्यशाला
का आयोजन किया गया। इस कार्यशाला के लिए तैयार किए गए केंद्रीय सरकार के
कृषि व सहकारिता विभाग के एक नोट में बताया गया कि पंजाब और हरियाणा में
जलस्तर बहुत तेजी से गिर रहा है। ऐसी स्थिति चलती रही तो बिजली और डीजल की
खपत वर्ष 2025 तक दो गुणा बढ़ जाएगी। इनकी भारी सब्सिडी को राज्य बिजली
बोर्ड बर्दाश्त नहीं कर सकेंगे। अब पूर्वी राज्यों के अपेक्षाकृत कम दोहन
किए हुए जल संसाधनों का उपयोग कर कृषि उत्पादन बढ़ाना चाहिए। अत: इन पूर्वी
राज्यों में कृषि विकास पर अधिक ध्यान केंद्रित होना चाहिए।

गौर करने वाली बात यह है कि ऐसा सरकारी स्तर पर तैयार किए गए नोट में
कहा गया है। इस बात से तो सभी प्रसन्न होंगे कि पूर्वी भारत के अपेक्षाकृत
उपेक्षित ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि विकास पर सरकार ध्यान दे और इसके लिए
अधिक आर्थिक संसाधन उपलब्ध करवाए। पर सवाल यह है कि किस तरह के कृषि विकास
के बारे में सरकार सोच रही है। इतना तो सरकार खुद मान रही है कि
पंजाब-हरियाणा में चार-पांच दशक की हरित क्रांति में भू-जल स्तर इतना नीचे
चला गया कि अब वहां कृषि विकास का आधार टिकाऊ नहीं रहा है। सवाल यह है कि
यदि जो गलतियां पंजाब-हरियाणा में दोहराई गई थीं, यदि वे ही पूर्वी भारत के
अधिक व्यापक क्षेत्र में दोहराई गई तो कहीं वहा भी तीन-चार दशक बाद यही
शिकायत न सुनने को मिले। तब हम किस नए क्षेत्र की तलाश में जाएंगे?

फिर सवाल केवल जल-स्तर का ही नहीं है। हरित क्रांति के आगमन के बाद
पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश के विभिन्न क्षेत्रों में मिट्टी का
प्राकृतिक उपजाऊपन भी तेजी से कम हुआ है। पर्यावरण का विनाश और इससे जुड़ी
स्वास्थ्य समयाएं इस कदर बढ़ गई कि अच्छी सेहत के प्रतीक रहे गांव नई और
गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं के लिए कुख्यात होने लगे। पंजाब से राजस्थान जाने
वाली एक गाड़ी में कैंसर के अधिक रोगियों को देखते हुए इसे लोग कैंसर
एक्सप्रेस कहने लगे। विशेषकर रासायनिक कीटनाशक, खरपतवार नाशक आदि के अधिक
उपयोग से जुड़ी स्वास्थ्य समस्याएं बहुत बढ़ गई। सवाल यह है कि हरित क्रांति
को पूर्व में ले जाने की जो चर्चा अब हो रही है तो उसकेसाथ बिगड़ते
पर्यावरण और स्वास्थ्य की यह अनचाही सौगात भी क्या पूर्व में पंहुचाई जाएगी
या फिर पंजाब-हरियाणाकी गलतियों से सीखते हुए इन समस्याओं से बचने के उपाय
भी किए जाएंगे?

पूर्वी राज्यों में कृषि विकास के लिए अधिक संसाधन उपलब्ध करवाने से
क्षेत्रीय असंतुलन दूर होने के साथ पूर्वी क्षेत्र में उम्मीद की एक नई लहर
आ सकती है, लेकिन यह तभी संभव होगा, जब पंजाब-हरियाणा क्षेत्र में जो
गलतिया हुई, उन्हें दोहराया न जाए। पंजाब-हरियाणा ऐसा उपजाऊ क्षेत्र था,
जहां पांच-छह हजार वर्ष से खेती हो रही थी, लेकिन प्राकृतिक उपजाऊपन तो भी
बना रहा था।

दूसरी ओर हरित क्रांति की रासायनिक खाद और कीटनाशक दवाओं ने चालीस वर्ष
में ही यहां की मिट्टी का प्राकृतिक उपजाऊपन नष्ट कर दिया। मिट्टी में
मौजूद उसका भुरभुरापन और उपजाऊपन बनाए रखने वाले केंचुए व अन्य सूक्ष्म जीव
बड़े पैमाने पर मर गए या नष्ट हो गए। ऐसी भीषण गलती से पूर्वी क्षेत्र को
बचना होगा। ऐसा नहीं है कि पूर्वी क्षेत्र में रासायनिक खाद और कीटनाशक
दवाओं की पहुंच नहीं है। यहा भी इनका प्रवेश काफी समय से हो चुका है।

हा, इतना जरूर है कि पंजाब-हरियाणा की अपेक्षा यहां रासायनिक खाद और
कीटनाशक दवाओं आदि का उपयोग कम है। अब यहां खेती के लिए अधिक संसाधन मिलने
का अर्थ यह नहीं है कि इनके लिए सब्सिडी को बढ़ाया जाए या भूजल का क्षमता
से अधिक दोहन किया जाए। इन गलतियों के प्रति शुरू से ही सावधान होना चाहिए।
जरूरत इस बात की है कि पूर्वी क्षेत्र में टिकाऊ पर्यावरण की रक्षा और
अनुकूल, सस्ती व आत्मनिर्भर खेती पर जोर देना चाहिए। इसके लिए यहा की
परंपरागत खेती से बहुत कुछ सीखा जा सकता है। यहा की जो परंपरागत खेती है,
वह कई शताब्दियों के अनुभव का परिणाम है। उसमें कोई भी बदलाव सुझाने से
पहले सरकार के कृषि वैज्ञानिकों को पहले उसे समझने का प्रयास करना चाहिए।
स्थानीय परिवेश में उसकी उपयोगिता के महत्व को समझना चाहिए। परंरागत बीजों
को बचाना और उनकी विविधता, स्थानीय जलवायु की अनुकूलता का लाभ उठाना बहुत
जरूरी है। मिट्टी के प्राकृतिक उपजाऊपन और भूजल के संतुलन को बनाए रखना
बहुत जरूरी है।

अगर इन सब सावधानियों को अपनाया गया तो किसानों की लागत को कम रखते हुए
भी उत्पादन बढ़ाया जा सकता है। इस तरह किसान कर्जग्रस्त होने से बचेंगे और
जो उत्पादन बढ़ेगा। किसान वास्तविक खुशहाली ला सकेगा। खेती के साथ कुटीर
उद्योगों को भी गावों और कस्बों में विकसित करना चाहिए व यथासंभव गावों की
आत्म-निर्भरता को बढ़ाना चाहिए।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *