नई दिल्ली [टी. ब्रजेश]। कनाडा के साथ भारत का परमाणु करार उन मुल्कों
को करारा जवाब है जो परमाणु अप्रसार संधि [एनपीटी] पर दस्तखत को लेकर
दिल्ली पर लगातार दबाव बनाते जा रहे हैं। पोखरण परमाणु परीक्षणों के बाद
भारत पर प्रतिबंध का शिकंजा कसने में सबसे आगे रहे कनाडा के साथ यह समझौता
कर भारत ने एनपीटी के नाम पर दोहरा मापदंड अपना रहे देशों को आइना दिखा
दिया है। वह भी खास कर ऐसे समय जब टोरंटो में जी-20 की बैठक से ठीक पहले
दुनिया के विकसित देशों के समूह जी-8 ने एक बार फिर भारत को एनपीटी का पाठ
पढ़ाने की भरपूर कोशिश की। फ्रांस, अमेरिका और रूस के बाद भारत के साथ
परमाणु करार करने वाला कनाडा इस समूह का चौथा मुल्क है।
गौरतलब है कि जी-20 शिखर सम्मेलन से पहले जब विकसित देशों ने आपस में
मिलकर रणनीति बनाई तो उसमें इस प्रस्ताव पर एक बार फिर मुहर लगा दी गई कि
एनपीटी से दूरी बनाए देशों से परमाणु कारोबार को एक सीमा के भीतर ही किया
जाए। लेकिन प्रस्ताव पर मुहर के चंद घंटों के बाद ही भारत ने कनाडा से
परमाणु संधि कर संदेश दे दिया है कि असलियत क्या है।
इस कुलीन समूह के एक सदस्य फ्रांस ने तो इटली में ऐसा ही एक प्रस्ताव
पारित करने के ठीक बाद भारत को संवेदनशील तकनीक देने का खुलकर वायदा कर
दिया था। भारत के साथ परमाणु कारोबार में किसी भी हद को लांघने की रूस की
तैयारी तो किसी से छिपी नहीं है। जी-8 का अहम देश अमेरिका खुद परमाणु
संवर्द्धन और पुन: प्रसंस्करण [ईएनआर] का अधिकार भारत को देने को तैयार
है।
अब वजह तलाशते हैं कि आखिर एनपीटी को लेकर ये सारे मुल्क भारत पर दबाव
बनाकर फिर पीछे हटने पर विवश क्यों हो रहे हैं। भारतीय कूटनीतिकार मानते
हैं कि इसकी पहली वजह तो परमाणु मामले में भारत की साफ-सुथरी छवि है। पोखरण
के बाद एकतरफा स्वैच्छिक पाबंदी [यूनीलैटरल सेल्फ मोरेटोरियम] का पालन
भारत ने जिस अनुशासन से किया वह इनका मुंह बंद कर देता है। दूसरा, एनपीटी
की वकालत करने वाले इन मुल्कों के गले भारत का यह तर्क उतर चुका है कि यह
संधि भेदभावपूर्ण और पक्षपाती है और विकसित देशों को फायदा पहुंचाने के
मकसद से ही इसका इस्तेमाल किया जाता है। तीसरा और काफी अहम कारण यह है कि
भारत में अब सभी मुल्कों को परमाणु कारोबार की बड़ी संभावनाएं नजर आ रही
हैं।