नई दिल्ली। लोकपाल विधेयक पिछले 40 साल से संसद में पारित नहीं हो सका
है और राजनीतिक पार्टियां इसके लिए एक दूसरे पर दोषारोपण कर रही हैं।
कर्नाटक के मशहूर लोकायुक्त एन संतोष हेगड़े द्वारा वहां की सरकार पर
भ्रष्टाचार से लड़ाई के लिए बनी संस्था के साथ सहयोग नहीं करने के मुद्दे पर
इस्तीफा देने से एक बार फिर यह विधेयक सुर्खियों में आया है।
लोकसभा में आठ बार के प्रयास के बावजूद लोकपाल विधेयक पारित नहीं हो
सका है। देश के 17 राज्यों में लोकायुक्त हैं, लेकिन उनके अधिकार, कामकाज
और अधिकार क्षेत्र एक समान नहीं हैं। अकसर विधायिका को जानबूझ कर लोकायुक्त
के दायरे से बाहर रखा जाता है जो इस तरह की संस्थाएं बनाने के मूलभूत
सिद्धांतों के खिलाफ है।
जांच के लिए लोकायुक्त का अन्य सरकारी एजेंसियों पर निर्भर होना उनके
कामकाज को तो प्रभावित करता ही है, मामलों के निपटान में भी विलंब होता है।
भाजपा प्रवक्ता तरुण विजय ने इस बारे में पूछे जाने पर कहा कि पार्टी
ने इस विधेयक को लाने का ईमानदारी से प्रयास किया था। वाजपेई कैबिनेट ने
इसे मंजूरी दी और 2001 में लोकसभा में पेश किया गया। लेकिन यह पारित नहीं
हो सका। उस विधेयक में प्रधानमंत्री के पद को लोकायुक्त के अधिकार क्षेत्र
से बाहर रखा गया था।
कानून मंत्री वीरप्पा मोइली ने भी दावा किया कि संप्रग सरकार लोकपाल
विधेयक के प्रति गंभीर है और इस पर सर्वानुमति कायम होते ही विधेयक को संसद
में पारित कराने का प्रयास किया जाएगा।
यह विधेयक भ्रष्टाचार निरोधक संथानम समिति के निष्कर्षो का नतीजा था।
प्रशासनिक सुधार आयोग ने भी 1966 में अपनी एक रिर्पोट में लोकपाल गठित करने
की सिफारिश की थी। लोकपाल विधेयक सांसदों के भ्रष्ट आचरण के मामलों में
मुकदमे की कार्रवाई तेजी से संचालित करने का अधिकार देता है।
लोकपाल विधेयक हर प्रमुख राजनीतिक पार्टी के चुनावी एजेंडे में रहने के
बावजूद 40 साल से यह संसद में पारित नहीं हो सका। 2004 में प्रधानमंत्री
मनमोहन सिंह ने स्वयं स्वीकार किया था कि आज के समय में लोकपाल की आवश्यकता
पहले के मुकाबले कहीं ज्यादा है। उन्होंने वायदा किया था कि वह बिना देरी
किए इस संबंध में कार्यवाई आगे बढ़ाएंगे।
सिंह ने एक कदम आगे बढ़ते हुए इस बात पर भी जोर दिया था कि
प्रधानमंत्री के पद को भी लोकपाल के दायरे में लाया जाए लेकिन केंद्रीय
मंत्रिमंडल ने यह प्रस्ताव नामंजूर कर दिया।
दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग ने सिफारिश की थी कि लोकपाल को संवैधानिक
दर्जा दिया जाए और इसका नाम बदलकर ‘राष्ट्रीय लोकायुक्त’ किया जाए। हालांकि
आयोग ने भी प्रधानमंत्री को इसके दायरे से बाहर रखने का सुझाव दिया था।
इसी आयोग ने सांसद निधि जैसी स्कीमों को समाप्त करने की भी सिफारिश की थी।
गृह मंत्रालय से संबद्ध संसद की एक समिति ने हालांकि लोकपाल विधेयक को
‘आधा अधूरा’ बताते हुए कहा था कि इसमें कई गंभीर खामियां और असमानताएं हैं।
प्रणव मुखर्जी की अध्यक्षता वालीइस समिति ने कहा कि यह विधेयक केवल उच्च
पदों पर व्याप्त भ्रष्टाचार और रिश्वत पर केंद्रित है न कि सार्वजनिक
शिकायत पर।