जहर का कारोबार- वंदना शिवा

भोपाल गैस त्रासदी मनुष्य जाति के इतिहास का भयावहतम औद्योगिक हादसा था,
लेकिन इसके शिकार हुए लोगों के साथ हुआ अन्याय भी किसी त्रासदी से कम नहीं
है। यूनियन कार्बाइड में ‘काराबिल’ नामक कीटनाशक बनाया जाता था, जिसका
इस्तेमाल मुख्यत: कपास की खेती में होता है। गैस त्रासदी के बाद ही मैंने
निश्चय किया था कि मैं जैविक खेती को बढ़ावा देने की कोशिश करूंगी और यही
विचार ‘नवधान्य’ की स्थापना का कारण भी बना। 1984 में ही मुझे यह अंदाजा
हुआ था कि खेती-किसानी अब किसी युद्ध की तरह हो गई है, जिसमें इस्तेमाल किए
जाने वाले कीटनाशक युद्ध के हथियार थे। कीटनाशक एक जहर है और इसीलिए
यूनियन कार्बाइड ने भी भोपाल की हवाओं में जहर घोल दिया।

मैंने महसूस किया कि हमें ऐसे जहरीले कीटनाशकों की जरूरत नहीं है। हमारे
पास कीटनाशकों से बेहतर विकल्प मौजूद हैं जैसे नीम। इसीलिए भोपाल हादसे के
बाद हमने यह नारा दिया था ‘नो मोर भोपाल, प्लांट ए नीम’। वर्ष 1994 में जब
हमें पता चला कि एक और अमेरिकी कंपनी डब्ल्यू आर ग्रेस ने कीटनाशक बनाने के
लिए नीम का पेटेंट करा लिया है और वह कर्नाटक के तुमकुर में नीम का तेल
निकालने का संयंत्र स्थापित करने जा रही है तो हमने इसकी मुखालफत की।

हमने 11 सालों तक अदालत में मुकदमा लड़ा और आखिरकार कामयाब हुए। इस दौरान
पुराना कीटनाशक उद्योग बायोटेक्नोलॉजी और जेनेटिक इंजीनियरिंग उद्योग की
शक्ल अख्तियार कर रहा था। जहां जेनेटिक इंजीनियरिंग को कीटनाशकों के विकल्प
के तौर पर बढ़ावा दिया गया था, वहीं कीटनाशकों का उपयोग बंद कर देने के
लिए बीटी कॉटन को पेश किया गया। बीटी कॉटन नाकामयाब साबित हुआ। जीएम बीजों
और कीटनाशकों की ऊंची कीमतों ने किसानों को कर्ज के दलदल में फंसा दिया।
कर्ज के बोझ तले दबे किसान आत्महत्या को मजबूर होने लगे। यह बड़े पैमाने पर
हो रहा कॉपरेरेट नरसंहार है।

अपने मुनाफे के लिए कंपनियां यह झूठ बोलने से भी नहीं चूकतीं कि यदि
कीटनाशकों और जीएमओ का इस्तेमाल नहीं किया जाएगा तो खाद्यान्न संकट पैदा हो
जाएगा। जबकि हकीकत इसके उलट है। भोपाल के बाशिंदों के साथ हुए अन्याय के
पीछे भी कॉपरेरेट हित ही हैं।

भोपाल गैस त्रासदी ऐन उसी मोड़ पर हुई थी, जब कॉपरेरेट जगत उदारीकरण की राह
तलाश रहा था। अमेरिकी केमिकल कंपनी डच्यूपोंट 1985 से ही गोआ में नॉयलोन
6.6 प्लांट डालने की फिराक में थी। ग्रामीणों के विरोध के चलते कंपनी ने
तमिलनाडु की ओर रुख किया। पर्यावरण मंत्रालय ने भी डच्यूपोंट को हरी झंडी
नहीं दी थी। दिसंबर 1991 में अमेरिका के ट्रेड प्रतिनिधि गाजा फेकेटेकुट्टी
विशेष यात्रा के लिए भारत आए। उनकी इस यात्रा का मकसद था डच्यूपोंट के लिए
दबाव बनाना।

उन्होंने नई उदारीकरण नीतियों का हवाला दिया और जनवरी 1992 में सरकार ने
प्रोजेक्ट को मंजूरी दे दी। औद्योगिक विकास अधिनियम की शक्तियों का
इस्तेमाल करते हुए सरकार ने चराई की जमीन का अधिग्रहण करना शुरू कर दिया।
इसके लिए स्थानीय पंचायतों से रायशुमारी करना भी जरूरी नहीं समझा गया।
विरोध का दौर शुरू हुआ और एंटी-डच्यूपोंटकमेटी गठित की गई। आखिरकार लोगों
को नाकेबंदी के लिए मजबूर होना पड़ा। पुलिस से हुई झड़पों में नीलेश नायक
नामक एक युवा को जान गंवानी पड़ी, जबकि कई अन्य घायल हो गए।

इसके बाद मुख्यमंत्री को भी स्वीकारना पड़ा कि यदि स्थानीय रहवासी ही
प्रोजेक्ट का विरोध कर रहे हैं तो फिर हम इसके लिए जबरदस्ती कैसे कर सकते
हैं? भोपाल केस में हुआ अन्याय डच्यूपोंट निवेश की ही एक शर्त थी और 1984
के बाद से हर कदम पर अन्याय हुआ है। इसके जरिए कॉपरेरेट जगत को यह संदेश दे
दिया गया कि वे हत्या करके भी बच निकल सकते हैं। हमारे वरिष्ठ राजनेताओं
ने डाउ केमिकल्स को भी यही संदेश दिया है। अब भोपाल पर मच रहे हो-हल्ले को
कॉपरेरेट जगत में कारोबार में अड़ंगे की तरह देखा जा रहा है। 11 जून 2010
को अमेरिका-भारत सीईसी फोरम द्वारा दिए गए बयान का तो यही मतलब निकलता है।
प्रस्तावित न्यूक्लियर लायबिलिटी बिल के जरिए भी परमाणु प्लांटों की
जवाबदेहियों को ढांकने का काम किया जा रहा है। कभी भी किसी परमाणु हादसे
में हजारों लोगों की जान जा सकती है, लेकिन कॉपरेरेशन को इसकी कीमत नहीं
चुकानी होगी। जहरीली अर्थव्यवस्था के लिए लोगों की जान भी एक सब्सिडी बनकर
रह गई है।

भारत में जीएमओ (जेनेटिकली मोडिफाइड ऑर्गेनिज्म) पर भी खासी बहस हुई है।
देशभर में चली जनसुनवाई के बाद बीटी बैंगन के व्यवसायीकरण पर फिलहाल रोक
लगा दी गई। रोक के तत्काल बाद बायोटेक्नोलॉजी अथॉरिटी ऑफ इंडिया के लिए एक
बिल पेश किया गया, जो न केवल बायोटेक्नोलॉजी को उसकी जवाबदेहियों से मुक्त
करता है, बल्कि बिल का एक परिच्छेद तो सरकार को यह कानूनी ताकत भी देता है
कि जो व्यक्ति जीएमओ की जरूरत या उसकी सुरक्षा पर सवालिया निशान लगाए, उसे
गिरफ्तार कर लिया जाए या उस पर जुर्माना कर दिया जाए।

1984 से 2010 तक हमारे लिए दो सबक हैं। पहला है तकनीक का सबक। कॉपरेरेशन
अपने मुनाफे के लिए जहरीली तकनीकें बाजार में लाती हैं, लेकिन हमें यह जहर
नहीं चाहिए। दूसरा है कारोबार का सबक। कॉपरेरट जगत भारत जैसे देशों में
अपने कारोबार का जाल फैलाने की तैयारी में है। वे अपने उत्पादों का
वैश्वीकरण तो चाहते हैं लेकिन न्याय और अधिकारों का वैश्वीकरण नहीं। लगता
है तीसरी दुनिया के लोगों और पर्यावरण का अवमूल्यन ही उनके वैश्वीकरण का
लक्ष्य है।

ओबामा सरकार के वर्तमान मुख्य आर्थिक सलाहकार लॉरेंस समर्स 1992 की वर्ल्ड
डेवलपमेंट रिपोर्ट के कर्ताधर्ताओं में से एक थे, जिसने यह सुझाया था कि
प्रदूषणकारी उद्योगों को तीसरी दुनिया के देशों में भेज देना समझदारीभरा
फैसला होगा। इसके लिए समर्स ने तीन तर्क दिए थे। पहला यह कि चूंकि तीसरी
दुनिया के देशों में आय का स्तर काफी निचला है, लिहाजा वहां प्रदूषण की
आर्थिक कीमत कम चुकानी होगी। दूसरा यह कि इन देशों में फिलहाल प्रदूषण की
मात्रा काफी कम है, इसलिए लॉस एंजिलिस या मैक्सिको सिटी की तुलना में वहां
उद्योग स्थापित करना बेहतर होगा। और तीसरा भद्दा तर्क यह है कि तीसरी
दुनिया के गरीब देशों में यूं भी जिंदगीकीकीमत सस्ती ही होती है।

अमेरिकी अर्थशास्त्री यह तर्क अमीर उत्तर और गरीब दक्षिण के रूप में लागू
करते रहे हैं, लेकिन उन्हें पता होना चाहिए कि अमीर और गरीब, काले और गोरे
और पुरुष और महिला की जान की कीमत एक समान होती है। भोपाल से हमें यही सबक
सीखना चाहिए कि हम वैश्विक और साझा मनुष्यता के मूल्यों की पुन: स्थापना
करें। हम ऐसा जनतंत्र गढ़ें, जिसमें सभी समान हों और जिसमें जहर घोलने की
इजाजत किसी भी कॉपरेरेशन को न हो।

लेखिका जानी-मानी पर्यावरणविद् हैं।

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