समृद्ध वन्यजीवन वाले उत्तर प्रदेश के एकमात्र राष्ट्रीय उद्यान की सांस फूल रही है. हिमांशु बाजपे??

उम्मीदों का उजास और निराशा की स्याही दुधवा नेशनल पार्क के दो छोर हैं. इनके बीच में  ज़िंदगी के जितने रंग हैं, वे सब देखने को मिलते हैं. उत्तर प्रदेश के लखीमपुर-खीरी जिले में स्थित दुधवा की सैर करते हुए जल्दी ही अहसास हो जाता है कि पार्क में सब कुछ उतना ठीक नहीं है जितना पहली नजर में लगता है.

हरे-भरे दुधवा के वन्य जीवन  को पेड़ों की अंधाधुंध कटाई और आग ने सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया है

1977 में स्थापित दुधवा राष्ट्रीय उद्यान उत्तर प्रदेश का एकमात्र राष्ट्रीय उद्यान है. इसमें 68 फीसदी हिस्से में पेड़, 22 फीसदी हिस्से में घास और दस फीसदी हिस्से में दलदली इलाके हैं. 1987 में इसे प्रोजेक्ट टाइगर में शामिल किया गया. अगर आपकी किस्मत अच्छी है तो  दुधवा के टूरिस्ट जोन में घूमते हुए आपको सिर्फ बाघ और हिरन ही नहीं बल्कि हिस्पिड हेयर, हिमालयन सी वेट, लेपर्ड कैट और स्लोथ बेयर जैसी बेहद दुर्लभ प्रजातियों के दर्शन भी हो सकते हैं. इसके अलावा 400 से ज्यादा प्रजाति के दुर्लभ पक्षी, 35 प्रजाति के सरीसृप और कई दुर्लभ और खूबसूरत तितलियां भी देखने को मिल जाएंगी. जैव-विविधता और दुर्लभ प्रजातियों  के मामले में यह भारत के सबसे समृद्ध राष्ट्रीय पार्कों में से एक है.

लेकिन इसके बावजूद दुधवा कई चुनौतियों और मुश्किलों से जूझ रहा है. साखू, सागौन, खैर, शीशम और यूकेलिप्टिस आदि पेड़ों से भरे-पूरे दुधवा में चार नदियां, दो नाले और कई तालाब हैं. ऐसे में माना जा सकता है कि दुधवा में पानी चिंता का विषय बिलकुल नहीं होगा. लेकिन यहां चिंता का सबसे बड़ा विषय यही है. पार्क से होकर गुजरने वाली सुहेली नदी पिछले कुछ समय से बिलकुल सूखी नज़र आ रही है. इससे दुधवा के वन्य जीवन के लिए बड़ी मुश्किलें पैदा हो गई हैं.  सुहेली को दुधवा की जीवनरेखा कहा जाता है लेकिन इस जीवनरेखा को ही फिलहाल जीवन की दरकार है. इसमें भारी मात्रा में सिल्ट जमा हो गई है. इससे पानी का बहाव और नदी की गहराई दोनों कम हुए हैं. पहले गर्मियों में सुहेली में पर्याप्त मात्रा में पानी रहता था लेकिन अब हालात उलट हैं. इसी सिल्ट की वजह से गर्मियों में जो सुहेली सूखी नज़र आ रही है, बरसात में बाढ़ का ऐसा विकराल कहर बरपाती है कि पार्क में वन्य जीवन को बड़ा नुकसान होता है. सिल्टिंग ने इसे उथला बना दिया है, जिससे पानी अधिक होने पर नदी उफना जाती है और यही पानी बाढ़  का रूप ले लेता है. पार्क के अंदर काम करने वाले वीरेंद्र कुमार  बताते हैं, ‘यह नदी नेपाल से आती है, वहीं से यह पानी के साथ गाद लेकर चली आती है. नेपाल में इस पर बने बांध सिल्टिंग के लिए काफी हद तक जिम्मेदार हैं.’

बाढ़ की सबसे बड़ी वजह होने  के बावजूद भी सिल्ट की सफाई फिलहाल नहीं हो रही है. 15 मई को सुहेली पर बने रेल पुल के नीचे रेलवे सिल्ट की सफाई करा रहा था,जिसे  वन-विभाग ने अधिकारों का हवाला देकर रोक दिया था. पार्क के एक कर्मचारी बताते हैं कि सिल्ट की सफाई के लिए पिछले दो सालोंमें करोड़ों रुपए दिए गए हैं लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात है. दुधवा के उपनिदेशक संजय कुमार पाठक भी सिल्ट जमा होने से चिंतित नज़र आते हैं लेकिन कहते हैं कि ऊपर से आदेश होगा तो सिल्ट की सफाई कर दी जाएगी.

दुधवा में गैंडों के संरक्षण के लिए 1984 में राइनो एरिया की स्थापना की गई थी. पार्क में करीब तीस गैंडे हैं. लेकिन  गैंडों के भविष्य पर एक बड़ा खतरा मंडरा रहा है. दरअसल, यहां के गैंडा परिवार में प्रभावी नर (डोमिनेंट मेल) एक ही है और पूरा परिवार उसी से आगे बढ़ा है.  एक ही पिता से हुई संतानें चार पीढ़ी तक पहुंच गई हैं जिन पर विशेषज्ञों के अनुसार अनुवांशिक प्रदूषण यानी अंतःप्रजनन -इनब्रीडिंग- का खतरा मंडरा रहा है. विशेषज्ञ कहते हैं कि अन्तःप्रजनन की विकट समस्या से निपटने के लिए यहां बाहर से किसी गैंडे को लाया जाना जरूरी है. पाठक कहते हैं, ‘हम मानते हैं कि इनब्रीडिंग एक गंभीर समस्या बन सकती है इसलिए जल्दी ही यह व्यवस्था की जाएगी.’ 

हरे-भरे दुधवा के वन्य जीवन  को जिन दो वजहों से सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचा है वे हैं पेड़ों की अंधाधुंध कटाई और जंगलों में लगने वाली आग. आग लगने की पहली वजह तो यह है कि रेलवे लाइन और बस-मार्ग जंगल से होकर गुज़रता है. मुसाफिर बीड़ी-सिगरेट पीकर फेंक देते हैं जिससे सूखे पत्ते अक्सर आग पकड़ लेते हैं. आग की वजह से जानवरों और पेड़ों को भारी नुकसान होता है. आग लगने की दूसरी वजह पार्क के कर्मचारी जगदीश हमें बताते हैं. वे कहते हैं, ‘आग मवेशी चराने वाले भी लगाते हैं और शिकारी भी. चरवाहे इसलिए आग लगा देते हैं ताकि सतह पर नई घास उग सके और उनके जानवरों को चारा मिल सके. शिकारी इसलिए लगाते हैं ताकि हम लोग आग बुझाने में लगे रहें और वे  अपना काम (शिकार और वन-कटान) कर सकें.’ वन-विभाग के सामने इस जंगल को कटान से बचाने की भी बड़ी चुनौती है. यहां कीमती लकड़ी वाले पेड़ हैं इसलिए तस्करों और जंगल के दूसरे दुश्मनों की निगाह इन पर लगी ही रहती है.  पाठक कहते हैं, ‘पेड़ काटने वालों पर हमारी कड़ी नज़र रहती है, लेकिन फिर भी चूंकि जंगल बहुत विशाल है और इसकी सीमा नेपाल से मिलती है, इस वजह से हमारी चुनौती बढ़ जाती है.’

इसी क्षेत्र में जंगल के बीच में थारू जनजाति के आदिवासियों के कई गांव हैं जिनका वन अधिकारों को लेकर वन-विभाग से आए दिन टकराव होता होता है. दुधवा नेशनल पार्क के कोर ज़ोन में बसे सूरमा गांव जाने पर वहां के लोग कहते हैं कि उन्हें जलावन के लिए लकड़ी भी मुश्किल से मिल पाती है और इसके लिए हर घर से एक कुंतल गल्ला (अनाज) उन्हें जंगलवालों को देना पड़ता है, तब कहीं जाकर उन्हें पतली-पतली लकड़ियां मिलती हैं. हालांकि उनके घर के सामने नजर आते मोटे-मोटे तने उनकी बात के उलट बताते लगते हैं. इस गांव के जंगल से विस्थापन के मुद्दे पर और वन-अधिकारों के लिए आंदोलन भी होता रहा है. कुछ ही दिन पहले इस गांव को रेवेन्यू स्टेटस मिला है. सूरमाऔरदूसरे वन ग्रामों के आंदोलन से जुड़े रहे रजनीश बताते हैं, ‘दुधवा क्षेत्र में बसे छियालीस गांवों से हर साल करोड़ों रुपए की गल्ला वसूली होती है. हालांकि वनाधिकार कानून के बाद इसमें कुछ कमी आई है. लेकिन अधिकारों को लेकर वन विभाग और आदिवासियों में आज भी टकराव जारी है.’ हालांकि पार्क से जुड़े कई लोग कहते हैं कि आज आदिवासियों को पहले की तरह जंगल से कोई लगाव नहीं रह गया है और इनमें से कई लकड़ी की चोरी और अवैध शिकार से लेकर पेड़ों की कटाई तक जैसी गतिविधियों में शामिल रहते हैं.

दुधवा का जिक्र बिली अर्जन सिंह के बिना अधूरा रहता है. दुधवा को राष्ट्रीय पार्क बनवाने, इसके अंदर समृद्ध वन्य जीवन विकसित करने और इसे अंतरराष्ट्रीय फलक पर पहचान दिलाने में इस मशहूर वन्यजीव संरक्षक का योगदान भुलाया नहीं जा सकता. साल की शुरुआत में दुनिया को अलविदा कहने वाले बिली ने अपना पूरा जीवन दुधवा के अपने टाइगर हेवेन में रहकर जंगल की सेवा में गुज़ार दिया था.जब हम उनके टाइगर हेवेन की तरफ बढ़ते हैं तो रास्ते में लोहे का एक गेट रखा दिखता है जिस पर दो बोर्ड लगे हैं-एक टाइगर हैवेन सोसाइटी का और एक बिली अर्जन सिंह वन्य जीवन केंद्र का. गेट को पार करके जब हम उस जगह पर पहुंचते हैं जहां बिली की रिहाइश थी तो हमें टाइगर हेवेन में बड़े पैमाने पर हो रहा निर्माण कार्य दिखाई देता है. यहां लोगों की एक भीड़-सी दिखती है. इनमें से कई ऐसे भी हैं जो बिली के साथ हर वक़्त रहते थे. यहां हकीकत में बन क्या रहा है यह ठीक-ठीक कोई नहीं बता पाता. कोई बताता है कि बिली के भतीजे जयराज सिंह यहां एक रिहाइशी टाउनशिप बना रहे हैं तो कोई कहता है कि यहां विदेशी टूरिस्टों के लिए एक होटल बन रहा है. जयराज सिंह के बारे में पूछने पर बताया जाता है कि वे मुंबई में हैं और काफी ना-नुकुर के बाद उनका जो एक नंबर मिल पाता है वह भी गलत होता है. बिली जिस झोपड़ी में रहते थे वह अभी भी बाकी है. यह बात अलग है कि निर्माण कार्य से निकली मिट्टी का ढेर इतना ऊंचा हो गया है कि यह जगह पहले-पहल दिखाई नहीं देती. यहां मौजूद कुछ लोगों के पास बिली से जुड़ी हज़ारों स्मृतियां हैं. उनके करीबी रहे सियाराम बताते हैं, ‘हमसे ज्यादा उनकी कमी जंगल महसूस करता है. आज वे होते तो सुहेली सूखी नहीं होती. नब्बे साल की उम्र में भी वे जंगल जाकर जानवरों के लिए पानी का इंतजाम देखते थे. उनके जाने से जंगल अनाथ हो गया.’ सुहेली की सिल्ट की समस्या से निपटने के लिए बिली इसे कतरनिया घाट वाइल्ड-लाइफ़ सैंक्चुरी में बह रही गिरवा नदी से जोड़ने की बात कहते थे. इससे दुधवा में गंगाई डॉल्फिन और घड़ियाल भी आ जाते.

तराई की गोद में बसा दुधवा उत्तर प्रदेश का अकेला राष्ट्रीय पार्क होते हुए भी इसके समृद्ध वन्य जीवन का पुरजोश प्रतिनिधि है. यद्यपि इसके सामने चुनौतियां भी कम नहीं हैं. लेकिन चुनौती जंगल के कानून का तकाजा है और शायद इस वजहसे ही दुधवा इनके होते हुए भी अभी तक काफी
हरा-भरा नज़र आता है. 

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