रायपुर. आंबेडकर
अस्पताल को भले ही राज्य का सबसे बड़े सुपर स्पेशलिटी हेल्थ सेंटर का तमगा
दिया जाने लगा है, लेकिन मरीजों को दी जाने वाली सुविधाओं के नाम पर
पुराना सिस्टम ही चल रहा है। गंभीर किस्म की बीमारियों के इलाज की उम्मीद
लेकर आने वालों को यह जानकार हैरानी होगी कि यहां एक मरीज पर सरकार रोजाना
केवल 1 रुपए 20 पैसे खर्च कर रही है।
राज्य शासन ने अस्पताल
का बजट 7 करोड़ तय किया है। मरीजों की दवा, उपकरण और मुफ्त बंटने वाले
भोजन का खर्च भी इसी बजट में शामिल है। ‘दैनिक भास्कर’ ने अस्पताल की
ओपीडी में आने वाले मरीजों और आईपीडी यानी वार्ड में भर्ती बीमारों की
संख्या से बजट का गुणा-भाग किया। उसी से एक मरीज पर किए जाने वाले खर्च का
चौंकाने वाला आंकड़ा सामने आया। अस्पताल के रिकार्ड के अनुसार पिछले साल
ओपीडी में तकरीबन 19 लाख मरीज अपनी जांच करवाने आए थे। आईपीडी में पूरे
साल भर 40 हजार मरीजों का इलाज हुआ। 7 करोड़ में इसी संख्या के आधार पर
इलाज का औसत खर्च निकाला गया।
सरकारी बजट और मरीजों की
संख्या ही यह स्पष्ट है कि शासन तंत्र मरीजों को कैसी सुविधा मुहैया करवा
रहा है। हालांकि सरकार हर साल बजट में 10-15 फीसदी बढ़ोतरी कर रही है,
लेकिन इसी अनुपात में मरीजों की संख्या बढ़ने के कारण अतिरिक्त बजट अपने
आप ही समायोजित हो जाता है। बजट की बढ़ोतरी का फायदा नहीं होता। पं. जवाहर
लाल नेहरु मेडिकल कालेज और अस्पताल प्रशासन उसी बजट पर सिस्टम को चला रहा
है। यही वजह है कि मरीज अभी भी कई तरह की परेशानियों में जूझ रहे हैं।
सरकार दरियादिली दिखाए तो..
शासन
यदि दरियादिली दिखाकर खजाने के मुंह खोल दे तो मरीजों की बल्ले-बल्ले हो
जाएगी। अस्पताल और कालेज के जिम्मेदार अधिकारी यह चाहते हैं कि गरीबी रेखा
और सामान्य मरीजों का मापदंड समाप्त कर दिया जाए। अस्पताल जाने वाले तमाम
मरीजों को सारी दवाएं मुफ्त में मिले। अभी मरीजों को कई दवाओं के लिए
भटकना पड़ता है। दिल खोलकर बजट मिलने के बाद सारी दवाएं यही मिलेगी। ऐसा
करने पर सरकार को बमुश्किल दो करोड़ अतिरिक्त खर्च करने होंगे, क्योंकि
पिछले साल अस्पताल प्रशासन ने जितने मदों पर शुल्क वसूल किया उनके जरिये
केवल इतना ही धन प्राप्त हुआ।
अस्पताल में बैठने की जगह नहीं
आंबेडकर
अस्पताल में मरीजों के परिजनों के बैठने के लिए कुर्सी टेबल नहीं है।
ओपीडी में 40-50 से ज्यादा लोग एक साथ नहीं बैठ सकते। ऐसी दशा में पर्ची
बनाने वाले लोग कतार में खड़े रहते हैं।
सबसे बड़ी जरुरत धर्मशाला
अस्पताल
में धर्मशाला की जरुरत शिद्दत के साथ महसूस की जा रही है। उन मरीजों के
रिश्तेदारों के ठहरने के लिए धर्मशाला नहीं है। गरीब मरीज के रिश्तेदार
परिसर में रहकर दिन गुजारते हैं। अर्से से शासन स्तर पर दोनों के प्रस्ताव
लटके हुए हैं।
मेडिकल कचरापरिसर में जलाया जा रहा
मेडिकल
कालेज और आंबेडकर अस्पताल से निकलने वाले मेडिकल वेस्ट यानी कचरे को परिसर
में ही गुपचुप जलाने का खेल चल रहा है। ठेका लेने वाली संस्था के नुमाइंदे
उस कचरे को वहीं परिसर में जलाकर छुट्टी पा रहे हैं।
केंद्र
सरकार ने मेडिकल वेस्ट को लेकर कड़े दिशा-निर्देश जारी किए हैं। शासकीय
अस्पताल में ही इस नियम की धज्जियां उड़ाई जा रही है। अस्पताल प्रशासन और
मेडिकल कालेज के अधिकारियों को इस बात की खबर है। दैनिक भास्कर को शिकायत
मिलने के बाद टीम ने सर्वे किया। अस्पताल के पिछले हिस्से में मरचुरी के
करीब खाली जगह पर दो लोग पीली और नीली पालीथिन से मेडिकल के कचरे वहीं
उड़ेलकर जला रहे थे।
उसका धुंआ पूरे परिसर में भरने के
बाद अस्पताल के वार्डो और मेडिकल कालेज हास्टल में घुस रहा था। मीडिया के
सामने मेडिकल छात्रों ने खुलकर शिकायत नहीं की अलबत्ता नाम न छापने की
शर्त पर बताया कि कई मर्तबा आला अफसरों को इस बारे में आगाह किया जा चुका
है। उन्होंने सुनकर भी अनसुना कर दिया। दिलचस्प बात है कि अस्पताल प्रशासन
ने ईटेक कंपनी को मेडिकल कचरा कलेक्ट कर कहीं और ले जाकर नष्ट करने का
ठेका दिया है। इसके बावजूद कंपनी नियमानुसार मेडिकल कचरे को नष्ट करना तो
दूर अलग से प्रदूषण फैला रही है।
नुकसान ही नुकसान
इस
तरह खुले में मेडिकल वेस्ट जलाने की वजह से स्वास्थ्य और पर्यावरण
प्रदूषित हो रहा है। पर्यावरणविद् डॉ. एआर दल्ला ने बताया कि मेडिकल कचरे
का नियमानसाुर नष्ट नहीं करने के खतरनाक परिणाम सामने आ सकते हैं। मेडिकल
वेस्ट की प्रकृति के अनुसार उसे अलग अलग तरह से नष्ट किया जाता है। कुछ
किस्म के मेडिकल कचरे को जलाने का प्रावधान है। कुछ को जमीन में दफन करने
के निर्देश हैं। मेडिकल कचरे को गलत तरीके से नष्ट करने पर इससे प्रभावित
होने वालों को दमा, अस्थमा, सांस, लीवर की बीमारियां हो सकती है।
ओपीडी में भी यही स्थिति है
डाक्टर
से परीक्षण करवाने के इंतजार में जितने लोग बैठे रहते हैं, उससे ज्यादा
खड़े रहते हैं। गायनिक ओपीडी में केवल महिलाओं को इंट्री दी जाती है।
गर्भवती महिलाओं के साथ आने वाले बाकी लोगों को ओपीडी के गेट पर रोक दिया
जाता है। मरीजों के परिजनों को रोकने वाले डाक्टरों ने यह सिस्टम बनाते
समय इस ओर ध्यान नहीं दिया कि मरीज के रिश्तेदार किस तरह इंतजार करेंगे।
इस सिस्टम का परिणाम यह हुआ है कि दर्जनों महिलाएं और बुजुर्ग गायनिक
ओपीडी के बाहर खड़े रहते हैं या फिर मजबूर होकर गंदे फर्श पर बैठना पड़ता
है। आईसीसीयू और मुख्य आपरेशन थियेटर के सामने भी यही नजारा दिखाई दिया।
यहां वार्ड के बाहर मरीजों के रिश्तेदारों के लिए बैठने की कोई व्यवस्था
नहीं है।
क्या कहते हैं अफसर
अस्पताल
की जरुरतों को ध्यान में रखकर हर साल अतिरिक्त बजट मांगा जाता है। मरीजों
की सुविधा बढ़ाने केलिएप्रशासनिक स्तर पर प्रयास हो रहे हैं। धर्मशाला
के प्रोजेक्ट को हरी झंडी मिलने के बाद एक बड़ी समस्या दूर होगी। अस्पताल
में दवाओं की किल्लत दूर करने के लिए भी शासन स्तर पर लिखा-पढ़ी की जा रही
है।
डा. सुनील गुप्ता, सहायक अस्पताल अधीक्षक