पटना।
बिहार में आर्थिक रूप से विपन्न बच्चों की हालत चिंताजनक है। वह सरकारी
अफसरों, वकीलों एवं न्यायविदों के घरों में मजदूरी कर रह हैं। इतना ही
नहीं सचिवालय, अदालतों एवं जिलाधिकारी कार्यालय के परिसर में भी बाल
श्रमिक बहुतायत में हैं। इन्हें न्यूनतम मजदूरी का एक तिहाई भी नहीं मिल
रहा है।
बिहार राज्य बाल श्रमिक आयोग ने अपनी रिपोर्ट में यह दावा किया है।
रिपोर्ट के मुताबिक, देश में 2.5 करोड़ बालक एवं बालिकाएं खतरनाक उद्योग
में कार्यरत हैं। आंध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश एवं मध्य प्रदेश के बाद
बिहार चौथा राज्य है, जहा 11 लाख से अधिक बाल श्रमिक हैं। इन बाल श्रमिकों
को न्यूनतम मजदूरी का एक तिहाई, 20 से 25 रुपये, मुश्किल से दिया जाता है।
आयोग ने कहा है कि बालश्रम प्रदेश के लिए एक बदनुमा दाग है।
छोटे-छोटे बच्चे दो रोटी के लिए प्रदेश के बाहर काम करने जा रहे हैं।
खेद की बात है कि आयोग, मुख्यमंत्री, उपमुख्यमंत्री, विधानसभा अध्यक्ष तथा
मुख्य सचिव की अपील के बावजूद अभी भी अधिकांश सरकारी अधिकारियों, वकीलों,
न्यायविदों के घरों में बाल श्रमिक काम कर रहे हैं। इसके अतिरिक्त
सचिवालय, न्यायालय, जिलाधिकारी कार्यालय के परिसर में बाल मजदूर कार्यरत
हैं, जो चिंतनीय है।
आयोग ने दो साल पूर्व ही सूबे को बालश्रम से मुक्त करने के लिए धावा
दल का गठन किया था। इसके बावजूद इस समस्या पर अब तक काबू नहीं पाया जा सका
है। बाल मजदूरों का लगभग 80 प्रतिशत खेतिहर मजदूरों के रूप में काम करता
है जो शिक्षा से पूर्णत: वंचित है। आयोग का मानना है कि सर्वशिक्षा अभियान
के तहत 6 से 14 वर्ष के हर बच्चे को विद्यालय भेजने का लक्ष्य तब तक पूरा
नहीं हो सकता, जब तक बच्चे बाल मजदूरी करते रहेंगे। राज्य बाल श्रम आयोग
के सभी पदाधिकारियों का 31 मार्च को ही कार्यकाल समाप्त हो गया है।
निवर्तमान उपाध्यक्ष चंदेश्वर चंद्रवंशी ने बताया कि आयोग विभिन्न प्रकार
के सर्वे और आंकड़ों के आधार पर रिपोर्ट तैयार करता है।