हल्द्वानी
[जासं]। किसानों को पता ही नहीं चल रहा और वे अपने ही हाथों जैव खजाने को
खाली करने में जुटे हैं। गेहूं काटने के बाद खेत में रह गए डंठल को खत्म
करने के लिए अगर आप आग लगाते हैं तो सावधान। यह आग आपकी त्वरित समस्या का
तो समाधान कर रही है, लेकिन सोना उगलने वाले खेत को बंजर भी बना रही है।
इसके अलावा पर्यावरण को प्रदूषित भी कर रही है। इसको लेकर कृषि और मृदा
परीक्षण विशेषज्ञ काफी चिंतित हैं, लेकिन बचाव का कोई कानूनी प्रावधान न
होने से वह भी मजबूर हैं।
कुमाऊं में इस वर्ष 2,29,123 हेक्टेयर क्षेत्रफल में गेहूं की बुवाई
हुई थी। मंडल के तीन जिलों के मैदानी क्षेत्रों में बड़े किसान धड़ल्ले से
गेहूं कटाई के लिए कम्बाइन का प्रयोग कर रहे हैं। कृषि विभाग के सूत्रों
के अनुसार ऊधमसिंह नगर जिले में 97,853 हेक्टेयर क्षेत्र में गेहूं की
बुवाई हुई। नैनीताल जिले के 26,850 हेक्टेयर गेहूं वाले क्षेत्र में से
करीब 14,500 हेक्टेयर मैदानी खेत हैं। चंपावत के टनकपुर क्षेत्र में भी
करीब डेढ़ हजार हेक्टेयर मैदानी क्षेत्र में गेहूं का हुआ है। मैदानी खेत
होने के कारण इन्हीं खेतों में बड़े किसान कम्बाइन से कटाई कराते हैं।
मैदानी क्षेत्र की कुल खेती की 50 से 60 फीसदी गेहूं कटाई कम्बाइन से
ही हो रही है। इससे कटाई के बाद खेतों में डंठल रह जाते हैं, जिन्हें
किसान बाद में आग लगाकर खत्म करता है। मगर वह ऐसा करते समय भूल रहे हैं कि
खेतों में फूंकने से उर्वरा शक्ति के लिए सर्वाधिक उपयोगी नाइट्रोजन का
नुकसान हो रहा है।
पंतनगर कृषि विवि के शस्य विज्ञान विभाग के डायरेक्टर रिसर्च डा. एसके
सैनी कहते हैं कि नाइट्रोजन खत्म होने और खेत जलाने से मित्र कीटों का नाश
होता है। इससे खेतों की उर्वरा शक्ति पर बुरा असर पड़ रहा है। लगातार ऐसा
होने से खेत बंजर हो जाएंगे।
पंतनगर विवि के ही पादप रोग विभागाध्यक्ष डा जे कुमार कहते हैं कि
खेतों में डंठल जलाने से जैव खजाना खाली होता जा रहा है। इसकी पूर्ति हरी
खाद से नहीं की गई तो स्थितियां प्रतिकूल होती जाएंगी।
खेतों को नुकसान पहुंचाने के साथ ही डंठल फूंकने से वातावरण को भी
नुकसान पहुंचता हैं। पर्यावरण प्रदूषण बोर्ड के क्षेत्रीय अधिकारी एसएस
राणा कहते हैं कि कार्बन घुलने के साथ ही वातावरण का तापमान भी बढ़ सकता
है। उन्होंने कहा कि फिलहाल अभी इस पर अंकुश लगाने का कोई कानूनी प्रावधान
तो नहीं है पर शिकायत मिली तो शासन से मार्गदर्शन लिया जा सकता है, जबकि
पीसीबी के पर्यावरण वैज्ञानिक डा डीके जोशी कहते हैं कि कम मात्रा में ही
सही खेतों का काला धुआं वातावरण को नुकसान पहुंचा रहा है।