वन विभाग का जंगल राज- आवेश तिवारी

पनारी गांव के परशुराम बैगा को 4 साल पहले तेज रफ़्तार ट्रक ने मार डाला था, अब उसके आठ साल के बेटे और पत्नी शांति को भूख मार रही है.
पति के मरने के बाद जंगल विभाग ने जबरिया उसकी छोटी-सी जोत की जमीन पर बबूल के कांटे छिड़क उसे बंजर कर दिया. वहीं शांति के खिलाफ वन अधिनियम की धारा 5/16 के तहत जंगल की जमीन पर जबरिया कब्जे का आरोप लगाकर मुकदमा पंजीकृत कर उसे अदालत का चक्कर काटने को मजबूर कर दिया गया.

शांति की यंत्रणा का दौर यहीं ख़त्म नहीं हुआ. हद तब हो गयी जब वनाधिकार कानून के तहत प्रस्तुत किये गए उसके दावे को ये कहकर निरस्त कर दिया गया कि जेपी एसोसियेट के भूमि संबंधी दावों के निस्तारण के बाद ही उसके दावे पर विचार किया जायेगा.

अब शांति भीख मांगती है और उसका छोटा बेटा पिता के बनाये तीर धनुष से खेलता है.

जीपीएस के सहारे कानून का कत्ल
ये सिर्फ चोपन, सोनभद्र के पनारी गांव के शांति की एक छोटी-सी कहानी नहीं है, बल्कि उत्तर प्रदेश में वनाधिकार कानून के तथाकथित क्रियान्वयन को लेकर दलितों की सरकार के द्वारा की जा रही कवायद का भी सच है. ये सच साबित करता है है कि बुतों के शहर में लकीरों और पसीनों से भरे चेहरों का का मोल नहीं होता, शायद इसलिए आज तक उत्तर प्रदेश में वनाधिकार कानून के तहत प्रस्तुत किये गए लगभग 85 फीसदी दावों को निरस्त कर दिया गया.

न तो आदिवासी गिरिजनों की इन दावों के निरस्तीकरण को लेकर कोई अपील सुनी गयी, न ही कानून के संबंध में कोई प्रचार प्रसार किया गया. इतना ही नहीं , अगर किसी आदिवासी समुदाय ने आवाज उठाने की हिमाकत कि भी तो प्रशासन उस पर जंगल जमीन पर जबरन कब्ज़ा करने का आरोप लगाकर पील पड़ा.

जिन 10-15 फीसदी फीसदी लोगों के दावों का निपटारा किया भी गया, उन्हें न सिर्फ उनके दावों से बेहद कम जमीन दी गयी, बल्कि उन्हें भी जी पी एस सर्वे के बाद ही भूमि अधिकार देने का झुनझुना थमा दिया गया.

हालत ये हैं कि टैक्स वसूलने और मुक़दमे लड़ाने की मशीन बन चुका वन विभाग, आदिवासियों की इस कानून से जुड़े अधिकारों तक पहुँच को लगातार मुश्किल बना रहा है. विभाग द्वारा जान बूझ कर गाँवों में झगड़े का माहौल बनाया जा रहा है. वहीं सरकार, जनजातियों को अगड़ी जातियों-सा तिरस्कृत कर हाथ पर हाथ धरे बैठी है.

झुठे आंकड़ों के कुतुबमीनार
पिछले माह राज्य निगरानी समिति की बैठक में प्रस्तुत की गयी जनजाति विभाग की रिपोर्ट के अनुसार राज्य में अब तक 73,756 दावे ग्राम सभाओं में पेश किए जा चुके हैं. जिनमें से 12,139 अधिकार पत्र जारी किए हैं और 57,681 दावे निरस्त किए जा चुके हैं. इस प्रकार कुल मिला कर 12,139 दावे सरकार के अनुसार निस्तारित किए जा चुके हैं.

मतलब ये कि अपने तरीके से काम करने वाली सरकार ने अपने आंकड़ों में अब तक प्राप्त दावों को शत प्रतिशत निस्तारित मान लिया है.

जनजाति बहुल सोनभद्र जनपद की स्थिति और भी अजीब है. प्रदेश में कुल प्रस्तुत दावों में से अकेले सोनभद्र मेंही 64571 दावे प्रस्तुत किये गये. जिसमें से केवल 8691 दावे ही निस्तारित हुये हैं. शेष 55980 दावे यानि कुल दावों का लगभग 90 फीसदी हिस्सा कथित तौर पर ग्राम वनाधिकार समितियों द्वारा आपसी सहमति से निरस्त किया जा चुका है.

कानून की ऐसी-तैसी
आश्चर्यजनक तथ्य ये है कि किसी भी वादी को उसके दावे के निरस्त होने की न तो लिखित सूचना दी गयी और न ही उसे उपखंड स्तरीय समिति और जिला समितियों में अपील करने का अवसर दिया गया. सोनभद्र के संबंध में दावों के निरस्तीकरण में की गयी बरजोरी का अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि आधा दर्जन ग्राम सभाओं के लगभग 21 हजार वादों को इसलिए निरस्त कर दिया गया, क्योंकि मायावती सरकार के चहेते जेपी एसोसियट ने संबंधित जंगल जमीन पर अपना दावा ठोंक रखा है.

ग्राम सभा कोटा के रामनरेश गोड़ कहते हैं- “हमें जमीन पर मालिकाना हक तो दिया नहीं गया उल्टे जेपी के गुंडे हमें बची खुची जमीन से बेदखल करने की रोज बरोज धमकी दे रहे हैं.”

अति-नक्सल प्रभावित सोनभद्र, चंदौली और मिर्जापुर के इलाकों में वन विभाग और जिला प्रशासन ने जिन लोगों को दावेदारी सौपी हैं, उनके साथ भी जम कर मनमानी की है. सबसे चिंताजनक बात यह है कि उनमें से अधिकतर अधिकार पत्र, दावेदारों की वास्तविक कब्जे की भूमि से बहुत ही कम भूमि के दिए गये हैं. अपनी आजीविका के लिए आज भी वनोपजों पर पूरी तरह से निर्भर आदिवासी किसानों को दी गयी जमीन इतनी कम है कि उससे उनके आजीविका का कोई स्थायी हाल निकलने की सम्भावना नहीं है

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