भुखमरी कैसे खत्म हो – सचिन कुमार जैन

भुखमरी आज के समाज की एक सच्चाई है परन्तु मध्यप्रदेश के सहरिया आदिवासियों के लिये यह सच्चाई एक मिथक से पैदा हुई, जिन्दगी का अंग बनी और आज भी उनके साथ-साथ चलती है भूख. अफसोस इस बात का है कि सरकार अब जी जान से कोशिश में लगी हुई है कि भूखों की संख्या कम हो. वास्तविकता में भले इसके लिये प्रयास न किये जायें लेकिन कागज में तो सरकार इस सफलता को दर्ज करने के लिये आतुर नज़र आती है.
गरीबी की रेखा की सूची ही राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून में पात्रता का आधार बनेगी. यह वही गरीबी की रेखा है, जिसे 6.52 करोड़ परिवार पकड़ पाये है पर 7.5 करोड़ परिवार इस सूची से बाहर कर दिये गये हैं. पहले योजना आयोग ने दावा किया था कि 28.3 प्रतिशत परिवार गरीब हैं पर बाद में उन्हीं के द्वारा स्थापित तेंडुलकर समिति ने बताया कि भारत में 37.5 प्रतिशत और गांवों में 41.8 प्रतिशत गरीब है.

भारत सरकार ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा स्थापित डॉ. एन.सी. सक्सेना समिति ने सिद्ध किया कि 50 प्रतिशत ग्रामीण गरीब हैं. 76.8 प्रतिशत को पूरा पोषण नहीं मिलता है और 77 प्रतिशत लोग 20 रूपये प्रतिदिन से कम में गुजारा करते हैं. पर सरकार केवल 28 प्रतिशत को ही गरीब मान रही है और उन्हें ही इस कानून का सीमित लाभ देने पर अड़ी हुई है.

सामाजिक बहिष्कार और सरकारी नीतियों के कारण देश की बहुत बड़ी आबादी भुखमरी की समस्या से दो-चार हो रही है. मसलन मध्य-प्रदेश की सहरिया आदिवासियों की हालत को ही देख लें. सहरिया एक पिछड़ी हुई जनजाति के रूप में परिभाषित हैं, जो पोषण और स्वास्थ्य की असुरक्षा के कारण संकट में हैं. आज भारत के कुल 623 आदिवासी समूहों में से 75 जनजातियों को पिछड़ी जनजाति की श्रेणी में रखा गया है.

बिहार में मुसहर रहते हैं. यह शब्द स्पष्ट करता है कि इनका ‘मूसक’ यानी चूहों के साथ कोई न कोई संबंध है. जी हां, आज भी कुछ इलाकों में मुसहर छोटे-मोटे शिकार, कंद-मूल और चूहों को खाकर ही जिंदा रहते हैं. वे चूहों के बिलों तक जाते हैं और उनके द्वारा इकट्ठा किये गये अनाज के दाने लाकर अपने लिये खाना बनाते हैं.

उड़ीसा, महाराष्ट्र और झारखण्ड के कई इलाकों में लोग गाय और भैंस का गोबर इकट्ठा करके लाते हैं ताकि उसमें से ज्वार और गेहूं के उन दानों को खोज सकें, जो जानवर के पेट से बिना पचे गोबर के साथ बाहर आ जाते हैं. उन्हें धोकर-खाकर अपनी भूख मिटाने की नाकाम कोशिश करने वालों की संख्या कम नहीं है.

आज भी भारत में 92 लाख शुष्क शौचालय के मानव मल ढोने का काम एक समुदाय विशेष सौंपा गया. यह एक जाति आधारित काम बन गया. आज भी तीन लाख से ज्यादा अति दलित लोग मानव मल ढोने की असहनीय पीड़ा को भोगते हैं क्योंकि उनके पास गरीबी और भूख से जूझने का कोई और साधन नहीं है.

जबलपुर जिले के मझगंवा गांव के गणेश बर्मन को यह नहीं पता चला कि पांच साल पहले क्यों उसका नाम गरीबी की रेखा की सूची से हटा दिया गया. शायदयह सरकार की उस नीति का परिणाम था, जिसके तहत सरकार गरीबी की विभीषिका को कम करने के लिये गरीबों की संख्या को घटा रही थी. उनकी एक एकड़ भरेल जमीन 7 हजार रूपये के एवज में 6 साल से गिरवी पड़ी है. दो हजार बीड़ी बनाने के एवज में उन्हें एक माह बाद ठेकेदार से 50 रूपये मिले. अक्सर भूखे सोना एक आदत सी बन गई थी. अब तो उन्हें उधार भी नहीं मिलता था.

उनका 26 साल का बेटा संतू मानसिक बीमारी का शिकार है और बेटी सुनीता भूखे रहते-रहते 12 दिसम्बर 2009 को जिन्दगी की जंग हार गई. सरकार की योजनाओं से वे बाहर हो गये क्योंकि गरीबी की रेखा की रस्सी उनके गले में फांसी का फंदा बनकर अटक गई.

भारत में सात प्रतिशत जनसंख्या किसी न किसी विकलांगता से ग्रसित है, जिन्हें सामाजिक और पारिवारिक स्तर पर बहिष्कार का सामना करना पड़ता है. उन्हें पोषण की सुरक्षा की जरूरत है परन्तु विडम्बना यह है कि इस वर्ग को कोई संरक्षण नहीं है. इसी तरह महिलाओं, बच्चों, दलितों को भी अलग-अलग स्तर पर खाद्य सुरक्षा के कानूनी हक की दरकार है.
इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने बार-बार वंचित तबकों के लिये संरक्षण की बात कही. न्यायालय ने खाद्य सुरक्षा को जीवन और समानता के मौलिक अधिकार के साथ जोड़कर परिभाषित करते हुये कहा – ”अदालत की चिंता यह है कि गरीब लोग, दरिद्रजन और समाज के कमजोर वर्ग भूख और भुखमरी से पीड़ित न हों. इसे रोकना सरकार का एक प्रमुख दायित्व है. इसे सुनिश्चित करना नीति का विषय है जिसे सरकार पर छोड़ दिया जाये तो बेहतर है. अदालत को बस इससे संतुष्ट हो जाना चाहिये और इसे सुनिश्चित भी करना पड़ सकता है कि जो अन्न भण्डारों में खासकर भारतीय खाद्य निगम के गोदामों में भरा पड़ा है, वह समुद्र में डुबोकर या चूहों द्वारा खाया जाकर बर्बाद न किया जाये.”

न्यायालय ने कहा कि ”भुखमरी की शिकार दरिद्र महिलाओं और पुरूर्षों, गर्भवती महिलाओं और दूध पिलाने वाली माताओं तथा दरिद्र बच्चों, खासकर उन मामलों में, जिनमें वे या उनके परिवार के सदस्य उन्हें पर्याप्त भोजन उपलब्ध कराने की स्थिति में न हों, को भोजन उपलब्ध करवाना सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है.” सरकार को न्याय के इस मंतव्य का सम्मान करना चाहिये.
इसी दौर में यह बात खुलकर सामने आ गई कि गरीबी की रेखा मापदण्ड वंचितों के भोजन के अधिकार के लिए एक बड़ी चुनौती है. सरकार ने खर्च के जिन मापदण्डों (गांवों में 12 रूपये प्रतिदिन और शहरों में 19 रूपये प्रतिदिन प्रति व्यक्ति से कम खर्च करने वालों को गरीब माना जा रहा है) को गरीबी की रेखा का आधार बनाया है, उससे भरपेट भोजन भी मिलना संभव नहीं है यह राशि हमारी थाली में जरूरत का एक तिहाई से भी कम भोजन लाती है.

भारत में दुनिया के सबसे ज्यादा कुपोषित बच्चे भी रहते हैं. यहां 360 अरबपति हैं परन्तु यहां की 93 प्रतिशत कार्यशील जनसंख्या असंगठित क्षेत्र मे है.

अर्जुन सेन गुप्ता और उत्सा पटनायक के आंकलन साफ बताते हैं कि 80 से 84 करोड़ लोगों को नियमित रूप से सस्ते अनाज, दाल औरतेलका अधिकार अब बेहद जरूरी हो गया है. भारत में हर दो में एक बच्चा कुपोषण और महिला खून की कमी की शिकार है. उन्हें सम्मानजनक जीवन का अधिकार तब तक संभव नहीं है जब तक कि उनकी खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित नहीं हो जायेगी.

विसंगतिपूर्ण गरीबी की रेखा की परिभाष और पहचान के तरीकों के कारण दो तिहाई लोग भूखे सोने को मजबूर हो रहे हैं. जब सरकार यह कहती है कि वह (विसंगतिपूर्ण और बहुत छोटी) गरीबी की रेखा के नीचे रहने वाले परिवारों को ही 25 किलो सस्ता राशन देगी तो हमें ‘सवर के महादेव’ इस सरकार में नजर आते हैं क्योंकि सरकार गरीबी और भूख के साथ जीने वालों की थाली को आधा ही भर रही है.

इसमें भी दालें, खाद्य तेल और दूसरे मोटे-पोषक अनाज शामिल नहीं हैं. ऐसे में पेट की थैली में कुछ पड़ तो जायेगा पर उनकी पोषण सम्बन्धी जरूरत पूरी नहीं हो पायेगी. इसलिये जरूरी है कि गेहूं ओर चावल की सूची में ज्वार, बाजरा, मक्का, रागी को शामिल करते हुये पात्रता को 60 किलो तक बढ़ाया जाये. इसके साथ ही सस्ती दर पर दाल और तेल का अधिकार भी तय हो.

आज राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून बनाने की पहल थोड़ा जोर पकड़ रही है. इस कानून की कवायद ऐसे दौर में की जा रही है जब भारत दुनिया की सबसे तेज गति से प्रगति करने वाली अर्थव्यवस्था और वास्तव में रोजगार विहीन और सामाजिक असुरक्षा पैदा करने वाली प्रगति मानी जाती है. इसी देश में दुनिया के सबसे ज्यादा कुपोषित बच्चे भी रहते हैं. यहां 360 अरबपति हैं परन्तु यहां की 93 प्रतिशत कार्यशील जनसंख्या असंगठित क्षेत्र में है. अनाज की कीमतें खूब बढ़ रही है, उत्पादन की दशा और दिशा बदल रही है. सरकार का संरक्षण किसानों, महिलाओं, विकलांगों से हट रहा है. भूख हमारे विकास के दावों को बार-बार सच का आईना दिखाती है पर सरकार उस सच से बार-बार मुंह फेर लेती है.

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