चहारदीवारी से आगे की दावेदारी

हरियाणा में केवल महिलाओं द्वारा चलाई जा रही एक पंचायत पुरानी रूढ़ियों को तोड़ते हुए कामयाबी की नई इबारत लिख रही है. नेहा दीक्षित की रिपोर्ट

महिलाएं, पुरुषों से कहीं अधिक श्रेष्ठ हैं.

-महात्मा गांधी

हरियाणा में मेवात जिले के नीमखेड़ा गांव के बीचों-बीच बना है गांव का पंचायत घर. साग-सब्जी की क्यारियों और नजदीक ही घूमती बत्तखों और कुत्तों के कारण पंचायत घर का माहौल काफी घरेलू लगता है. भीतर जाने के बाद दीवारों पर चार राइफलें, गोलियों की आठ पेटियां और हिरण की खाल जैसे मर्दानगी के प्रतीक नजर आते हैं. यहीं हमारी मुलाकात होती है 47 साल की आशुबी खान और नौ दूसरी पंचायत सदस्यों से. वे उत्साही स्कूली छात्राओं की तरह हाथ मिलाती हैं, हंसती हैं और बैठ जाती हैं. हम आशुबी को अपना परिचय देते हुए विजिटिंग कार्ड थमाते हैं तो वे इसे उलटा पकड़ती हैं. याद आता है कि आते हुए रास्ते में एक पुलिस अधिकारी तक ने संदेह के साथ कहा था, ‘औरतों की पंचायत? यह मेवात है. यहां तो यह नामुमकिन है.’
लेकिन यह सच है. नीमखेड़ा की पंचायत में सभी महिलाएं हैं. उन्हें अपनी क्षमताओं को लेकर कोई संदेह नहीं. पंचायत सदस्य 60 वर्षीया सकीना हमारा असमंजस भांपकर मुस्कुराते हुए कहती हैं, ‘हम सब अंगूठाटेक हैं. लेकिन हमने पंचायत के नियम-कायदों को याद कर लिया है और जहां जरूरत पड़ती है, हमारे बच्चे लिख-पढ़ देते हैं.’

जब 1992 में हुए 73वें संविधान संशोधन के बाद देश भर में एक तिहाई पंचायत सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित की गईं तो नीमखेड़ा की सीट भी आरक्षण के दायरे में आई. 2005 में गांव के मुखिया परिवार की बहू आशुबी सरपंच के रूप में चुनी गईं. सामंती परिवेश वाले यहां के समाज में उनका चुना जाना कोई खास बात नहीं थी, खास तो वह घटनाक्रम था जो उनके चुने जाने के बाद घटित हुआ. आशुबी याद करती हैं, ‘मुझसे पंचों को चुनने के लिए कहा गया. मैंने कहा कि मैं सिर्फ महिलाओं के साथ काम कर सकती हूं.’ गांव के पुरुषों ने इसपर एतराज जताया. लेकिन आशुबी ने अपनी बात मनवाने के लिए अपने रसूख का इस्तेमाल किया. उन्होंने सभी नौ ग्रामीण वार्डों से एक-एक महिला का चुनाव किया और इस तरह एक ऐसी पंचायत बनी जहां सभी सदस्य महिलाएं हैं.

शुरुआत में निरक्षरता के अलावा औरत होने को लेकर भी उनका मजाक उड़ाया गया. 56 वर्षीया सलमा बताती हैं, ‘मर्द हमारी हंसी उड़ाते हुए कहते कि औरतें केवल घरों के भीतर नाचने के लिए हैं. हमने कहा कि फिर हमसे क्यों खेतों, पानी खींचने और लकड़ी जमा करने का काम कराया जाता है? जब उन्होंने कहा कि पंचायत का काम तो दूसरी तरह का है तो हमारा जवाब था- बस इंतजार करो और देखो कि पंचायत का काम कैसे होता है.’ 54 साल की मुहम्मदी कहती हैं, ‘पंचायत सदस्य बनने से हमने बहुत-कुछ सीखा है. इसके पहले हम यह भी नहीं जानते थे कि पानी जैसी आम चीज के लिए भी पंचायत को नीतियां लागू करनी होती हैं.’ इस पंचायत की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि इसने दिल्ली से राजस्थान के बीच बहने वाली उजीनानहर से अपने गांव को जोड़ दिया है. 79 साल की असिनी पिछले 50 साल तक औरतों को दिन में दो बार दो किलोमीटर दूर एक तालाब से पानी ढोते देख चुकी हैं. वे कहती हैं, ‘और ऊपर से ये नासमझ मर्द अड़े रहते थे कि हम शाम को बुरका पहना करें.’

मेवात में पानी की बहुत कमी है, यहां सिंचाई नाममात्र को होती है और लोग पूरी तरह वर्षा पर निर्भर हैं. हालांकि अब गांव नहर से जुड़ चुका है, लेकिन पाइपलाइन का काम अभी बाकी है. आशुबी बताती हैं, ‘अफसर हमसे सीधे मुंह बात नहीं करते. हम उनकी खड़ी बोली (हिंदी) नहीं समझ सकते. हमारे अनपढ़ होने के कारण वे हमें बेकार समझते हैं.’ इसके बावजूद इन महिलाओं ने सिंचाई विभाग पर फाटक खोलने के लिए दबाव डाला है. उन्हें यकीन है कि उनके गांव के नल में पानी आएगा.

पंचायत ने अपनी सक्रियता को नया आयाम देते हुए यहां के खंड विकास अधिकारी को लड़कियों का एक जूनियर हाई स्कूल शुरू करने के लिए मंजूरी देने पर मजबूर कर दिया. 45 वर्षीया बख्तियार बताती हैं, ‘एक बार स्कूल खुल जाए तो बहुत-सारी लड़कियां पढ़ सकेंगी, जो पहले नहीं पढ़ सकती थीं.’ मेवात में लिंगानुपात बहुत कम- एक हजार मर्दो पर 893 महिलाओं का है, जो राष्ट्रीय औसत (एक हजार मर्दो पर 927 महिलाओं) से नीचे है. यह जिला भारत के उन जिलों में से है जहां बाल विवाह सबसे अधिक होते हैं और किशोरी माताएं बहुत हैं, यहां प्रसव के समय मांओं की मृत्यु दर भी बहुत अधिक है. यहां की 98 प्रतिशत महिलाएं कुपोषण की शिकार हैं और आबादी का आलम यह है कि औसतन हर परिवार में आठ सदस्य हैं.

गांव के प्राथमिक स्कूल को माध्यमिक स्तर का बना दिया गया है. इसमें नामांकन भी 97 से बढ़कर 800 तक पहुंच चुका है. प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, पक्की सड़क और सरकारी राशन दुकानों का भली-भांति संचालन दूसरी उपलब्धियां हैं. पंचायत ने 72 शौचालय भी बनवाए हैं. फिरदौस मजाक करती हैं, ‘शौचालय न होना अच्छा था, क्योंकि उस समय हम अपनी सहेलियों से मिलते थे. लेकिन जब पेट खराब हो तो शौचालय न होना बुरा है.’

गांव में प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रम भी रफ्तार पकड़ चुका है. सरपंच आशुबी कहती हैं, ‘आप अगले साल आएंगी तो शायद तब तक हम वह पढ़ने लायक हो जाएंगे जो आपने हमारे बारे में लिखा होगा, इसलिए हमारी तुलना राबड़ी देवी से मत कीजिए.’

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