झाबुआ। झाबुआ के आधा दर्जन गांवों में
कुपोषण व बीमारियों से तीन माह में हुई 43 बच्चों की मौत ने झाबुआ से लेकर
दिल्ली तक कोहराम मचा दिया है। प्रशासन व प्रदेश सरकार जहां इन मौतों से
पल्ला झाड़ एक सिरे से नकार रही है। वहीं यह मामला यूनिसेफ व संयुक्त
राष्ट्र संघ में गूंजने से केन्द्र सरकार भी सतर्क हो गई है। यही कारण है
कि आनन-फानन में केंद्रीय महिला बाल विकास मंत्री कृष्णा तीरथ ने तपती
दोपहरी में झाबुआ के दुर्गम आदिवासी गांवों में पहुंच जब पीड़ितों से मिलीं
तो वहां की असलियत जान मंत्री जी का दिल भी रो पड़ा। गोद सूनी होने से
दहाड़े मार-मार कर रो रही महिलाएं बता रही थीं कि न तो उन बच्चों के इलाज
के लिए कोई व्यवस्था है न ही कुपोषण दूर करने के लिए कोई पोषण आहार देने
वाली आंगनबाड़ी की व्यवस्था। इस पर केंद्रीय मंत्री कृष्णा तीरथ ने उन
मौतों के मामले में सीधे प्रशासन व सरकार को जिम्मेदार ठहराया है।
उल्लेखनीय है कि इन मौतों के बाद प्रमुख सचिव व संचालक भी इस क्षेत्र
का दौरा कर बच्चों की मौतों को नकार चुके है, लेकिन राष्ट्रीय व
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मौतों का मामला उठने से प्रशासन व शासन की
लापरवाही कटघरे में आ गई है। मप्र बनाओ यात्रा में मुख्यमंत्री शिवराज
ंिसंह चौहान भी जिले के गांव-गांव का दौरा कर रात बिता चुके है, लेकिन
इतने गंभीर मामले में किसी पर कोई कार्रवाई न होना बड़ा आश्चर्यजनक लग रहा
है। 15 अक्टूबर से 15 जनवरी यानी तीन माह की ंअवधि में झाबुआ जिले के
मेघनगर विकासखंड के मदरानी, अगासिया, परनाली एवं ओचका गांव में 43 बच्चों
की मौत के मामले में शासन-प्रशासन का झूठ अब उजागर हो गया है। लगातार
राष्ट्रीय स्तर के दबाव के बाद मध्यप्रदेश शासन ने भी मान लिया है कि अब
तक 28 बच्चों की मौत हो चुकी है। बाकी मौतों को अभी भी खारिज करने की असफल
कोशिशें जारी है। गौरतलब है कि ‘दैनिक जागरण’ ने सबसे पहले इन मौतों की
खबरों को प्रमुखता से उजागर किया था। इसकी असलियत उस समय भी दिखाई दी, जब
केंद्रीय मंत्री कृष्णा तीरथ ने उन गांवों में पहुंच पीड़ितों के दुखड़े
सुने तो उनका दिल भी कांप उठा।
अब जबकि केंद्रीय महिला बाल विकास मंत्री कृष्णा तीरथ सहित स्वयं
मध्यप्रदेश शासन ने यह मान लिया है कि मेघनगर ब्लॉक में बच्चों की कुपोषण
एवं बीमारी से मौतें हुई हैं, तब सवाल उठता है कि आखिर तीन माह की अवधि
में बच्चों की मौतें होती रही लेकिन प्रशासन के पास इसकी सूचना तक नहींथी
और जब सूचनाएं पहुंचनी शुरू हुई, तब पीड़ित क्षेत्र को राहत देने या मैदानी
अमले की जिम्मेदारी तय करने के बजाय झाबुआ जिला प्रशासन ने इन मौतों को
छिपाने या मौतों की खबरों को झुठलाने की कोशिशें शुरू कर दी। अब जब सभी
तरह की तस्वीर साफ हो गई है कि मौतें हुई हैं उसके बाद भी राज्य सरकार इन
मौतों की जिम्मेदारी किसकी है? यह बताने को तैयार नहींहै और न ही
जिम्मेदारों केखिलाफ अब तक कोई कार्रवाई हुई है।
अब सबसे बड़ा सवाल यहींकि तीन माह की अवधि यानी 90 दिनों के भीतर
बच्चों की लगातार मौतें हुई रही। क्षेत्र के मानव अधिकार कार्यकर्ता
लगातार प्रशासन को सूचना देते रहे और ‘दैनिक जागरण’ के साथ कुछ
इलेक्ट्रॉनिक चैनल इस मामले को उठाते रहे लेकिन इसके बावजूद भी कलेक्टर इन
इलाकों में नहींगए। कलेक्टर मदरानी क्षेत्र में जाने को तब मजबूर हुए जब
सुप्रीम कोर्ट के स्टेट कमिश्नर सचिन कुमार जैन का नोटिस उन्हें मिला। अब
क्या राज्य शासन कलेक्टर से पूछेगा कि वह आखिर महीनों तक इस क्षेत्र में
क्यों नहींगए?
यूनिसेफ एवं संयुक्त राष्ट्र संघ में भी मामला गूंजा
झाबुआ जिले में हुई 43 बच्चों की मौत से हड़कंप मचा हुआ है। राज्य
सरकार पूरे मामले में कटघरे में है। अब यूनिसेफ एवं संयुक्त राष्ट्र संघ
की मानव अधिकार इकाई ने भी भारत सरकार एवं मध्यप्रदेश सरकार से पूछा है कि
जब उनके द्वारा दी गई आर्थिक सहायता का बच्चों के स्वास्थ्य एवं जीवन को
बचाने के लिए इस्तेमाल ही नहींकिया जा रहा है तो आखिर वे आर्थिक मदद क्यों
दें? साथ ही भारत सरकार से भी यहींसवाल किया गया है, क्योंकि भारत सरकार
के साथ ही यूनिसेफ का करार होता है। भारत सरकार इस मामले में प्रदेश सरकार
को कटघरे में खड़ा कर रही है, स्वयं विभागीय मंत्री कृष्णा तीरथ, केंद्रीय
जनजातीय मामलों के मंत्री कांतिलाल भूरिया एवं प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष
सुरेश पचौरी इन मौतों को लेकर राज्य शासन की भूमिका को कटघरे में ला चुके
हैं। प्रदेश सरकार की किरकिरी हो रही हैं, लेकिन फिलहाल सरकार सिर्फ बचाव
की मुद्रा में नजर आती है।
नहींखुलती हैं आंगनबाड़ियां
दरअसल, मेघनगर क्षेत्र में हुए 43 बच्चों की मौत एक बानगी है, जो
सिर्फ चार गांवों पर निगाह रखने पर सामने आई। यदि झाबुआ जिले के 800
गांवों की एक हजार आंगनबाड़ियों की अगर बात करें तो 80 फीसदी आंगनबाड़ी के
ताले बमुश्किल सप्ताह में एक बार खुलते हैं। सांझा चूल्हा योजना जिले में
बुरी तरह ठप पड़ी है, कागजों पर समूह द्वारा पोषण आहार दिया जाना बताया
जाता है, लेकिन हकीकत यह है कि गांव के दबंगों ने स्वयं-सहायता समूहों पर
कब्जा कर लिया है। नतीजा आंगनबाड़ी कार्यकर्ता की उनसे लड़ने की ताकत नहींहै
और समूह ब्लॉक के अधिकारियों को सुविधा शुल्क देकर सब कुछ नियमानुसार
घोषित करवा लेते हैं। यहींकारण है कि यहां के आदिवासी बच्चों का वजन एवं
उनके परिवार की आर्थिक हैसियत कमजोर हो रही हैं और महिला बाल विकास के
अफसरों का वजन भी बढ़ रहा है साथ ही उनका बैंक बैलेंस भी।
बड़वानी में 53000 कुपोषित बच्चे
कुपोषण को दूर करने के लिए सरकारें विभिन्न योजनाओं के माध्यम से जिले
को कुपोषण मुक्त करना चाहती हैं, लेकिन जिला प्रशासन द्वारा जारी सरकारी
आकड़ों पर ही नजर डालें, तो अब भी हजारों बच्चे कुपोषण की गिरफ्त हैं।
जिले में लगभग 3.43 प्रतिशत यानि 5,647 बच्चे गंभीर रूप से कुपोषण की मार
झेल रहे हैं, वहीं 32.49 प्रतिशत बच्चे मध्यम कुपोषण की श्रेणी मेंदर्ज
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है, जिनकी कुल संख्या 53 हजार 372 है। प्रशासन ने विगत दिनों कुपोषित
बच्चों के आकड़े जारी कर यह स्वीकारा था कि बड़वानी जिले में हजारों बच्चे
कुपोषण की श्रेणी में है। जिले में कुपोषण को दूर करने के लिये करोड़ो
रुपये की योजनाएं क्रियान्वित होने के बाद भी आधे लाख से अधिक बच्चों के
कुपोषित होने से यह गंभीर चिंता का विषय बन गया है।
देवास में 4 हजार से अधिक गंभीर कुपोषित बच्चे
जिले में जनसंख्या वृद्धि के साथ-साथ कुपोषित बच्चों की संख्या भी
बढ़ती जा रही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा कुपोषित बच्चों की श्रेणी
में किए गए संशोधन के बाद यह संख्या और भी बढ़ेगी। देवास जिले में महिला
एवं बाल विकास विभाग द्वारा मिले आंकड़ों के अनुसार यहां पर कुल एक लाख 3
हजार 439 बच्चों में से सामान्य कुपोषित बच्चों की संख्या 46 हजार 436 है,
जबकि गंभीर कुपोषण के शिकार बच्चों की संख्या चार हजार 265 है। इन कुपोषित
बच्चों के लिए जिला कार्यक्रम अधिकारी नानसिंह तोमर के निर्देशन में जिले
के चार पोषण पुनर्वास केंद्रों में कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। इन पोषण
पुनर्वास केंद्रों पर कुपोषित बच्चों की जांच व देखरेख नि:शुल्क की जाती
है। ठीक इसके विपरीत गंभीर कुपोषित बच्चों के लिए अस्पतालों में जो
व्यवस्था की गई है, उसका लाभ भी इन कुपोषित बच्चों को नहीं मिल रहा है,
क्योंकि 10 बिस्तरों वाले यह केंद्र भी खाली पड़े हैं।
मौतों को लेकर आरोप-प्रत्यारोप
प्रदेश में कुपोषण एवं संक्रामक बीमारियों से होने वाली मौतों को लेकर
भी स्वास्थ्य विभाग व महिला एवं बाल विकास विभाग एक-दूसरे पर दोषारोपण
करने में पीछे नहीं है। महिला एवं बाल विकास के आंकड़े बताते है कि प्रदेश
में पिछले साल एक अप्रैल से सितंबर तक केवल 1360 बच्चों की मौतें हुई है।
इनकी उम्र पैदा होने से एक साल थी, जबकि एक से पांच साल की आयु के 490
बच्चों की मौत हुई। इधर स्वास्थ्य विभाग उक्त अवधि में साढ़े तेरह हजार
बच्चों की मौत होना बता रहा है। उसके आंकड़े यह भी कहते हैं कि पिछले साल
अक्टूबर से दिसंबर के बीच ही बच्चों की मौत का आंकड़ा अचानक बढ़कर 23,467
हो गया।
सरकार को देना होगा स्पष्टीकरण
दैनिक जागरण से चर्चा में महिला बाल विकास मंत्री कृष्णा तीरथ ने कहा
कि झाबुआ आकर उन्हें तस्वीर बेहद निराशाजनक लगी है। उन्होंने स्पष्ट कहा
कि वे तीन बिंदुओं पर प्रधानमंत्री कार्यालय को अपनी रिपोर्ट सौंपेंगी,
जिसके माध्यम से राज्य सरकार से पूछा जाएगा कि आखिर तमाम संसाधनों के बाद
भी इतनी बड़ी तादाद में बच्चों की मौतें क्यों हुई? दूसरा बिंदु यह होगा कि
इतनी बड़ी तादाद में मौतों के बाद आखिर राज्य सरकार ने जिम्मेदार किसकी तय
की है? और तीसरा आगे से ऐसी परिस्थितियां नहीं बने और आंगनबाड़ियों का
ईमानदारी से संचालन हो, इसके लिए राज्य सरकार क्या कदम उठाएगी? इस पूरे
मामले में विडंबना देखिए कि आदिवासियों के 43 बच्चे कुपोषण एवं बीमारी से
मारे गए, लेकिन राज्य सरकार की ओर से इन प्रभावित इलाकों में न तो
मुख्यमंत्रीगए और न ही उनके मंत्री और प्रदेश के आला अफसर भी तभी इन
गांवों में गए जब कृष्णा तीरथ तीखे तेवर लेकर इन गांवों में पहुंचीं। जब
इन गांवों में मौतों की खबरें उजागर हुई थीं तब मुख्यमंत्री शिवराजसिंह
चौहान दो दिवसीय दौरे पर झाबुआ में ही थे। उनके स्वास्थ्य राज्यमंत्री
महेंद्र हार्डिया झाबुआ जिले के प्रभारी है लेकिन वह एक भी दिन इन
प्रभावित गांवों में नहींपहुंचे। इतना ही नहींपड़ोस के जिले से महिला बाल
विकास मंत्री रंजना बघेल आती है। लेकिन उन्होंने ने भी आज तक इन प्रभावित
इलाकों में जाने की जेहमत नहीं उठाई। स्थानीय स्तर पर ग्रामीण खुलकर कह
रहे हैं कि यह आदिवासियों के प्रति प्रदेश सरकार की संवेदनहीनता की
पराकाष्ठा है।