बांदा।
महुआ के फूल से बनी ‘डोभरी’ जंगल में बसे जनजातियों के लिए अब सपना हो
जाएगी। ‘डोभरी’ जनजातियों के जीवन का एक प्रमुख सहारा रहा है। कोलुहा जंगल
में पीढि़यों से बसे जनजातियों को अब भूखे पेट रात बितानी होगी। वन संपदा
पर दबंगों की हुकूमत व सूखे की मार से मुंह का निवाला छिन गया है।
उत्तर प्रदेश के बांदा जिले के फतेहगंज क्षेत्र के कोलुहा जंगल में
पीढि़यों से बसे जनजातीय परिवारों का जीवन पहले वन संपदा पर निर्भर था।
मध्य प्रदेश की सीमा से सटे बघोलन, बिलरियामठ, मवासीडेरा आदि आधा दर्जन
गांव घास-फूस की झोपड़ियों से आबाद हैं। सैकड़ों जनजातीय यहां अपने कुनबे व
पशुओं के साथ गुजर-बसर करते है। पहले खैरगर व मवासी कौम के लोग खैर के पेड़
से देशी कत्था बनाने का पुश्तैनी धंधा किया करते थे।
जनजातीय महिलाएं जंगल से बबूल की गोंद, शहद, तेंदू के फल, आचार, आंवले
का फल, करौंदी, मकोय व सूखी लकड़ी बीनकर आस-पास के कस्बों में बेंचती थीं
और घर का खर्च चलाती रही है। चैत्र मास में कुनबे के लोग तड़के जंगल कूच कर
जाते है और महुए के फूल बीन कर घर लाते है। यही जनजातियों की रोजमर्रा की
जिंदगी रही है। इस महुए के फूल से जनजातीय नाना प्रकार के व्यंजन बनाते
रहे है।
जनजातीय लोग महुए के फूल को छाछ और गेंहू के आटे में मिला कर मिट्टी
की हांड़ी में उबालकर ‘डोभरी’ बनाते रहे है। यह व्यंजन मेवे से कम
स्वादिष्ट व ताकतवर नहीं होता। इसी महुए के फूल से लाटा, मुरका, दलमहुआ,
काची, लप्सी व हलुवा आदि कई प्रकार के भोजन जनजातीय कुनबों के कई सामाजिक
व धार्मिक कार्यक्रमों में भी परोसे जाते रहे है, लेकिन अब ये व्यंजन उनके
बीच से बिदा होने के कगार पर है। वजह साफ है, वन उपज पर वन माफिया हावी
है।
शासन ने 75 साल से आबाद जनजातियों को कुछ भूमि पर स्वामित्व देने का प्राविधान किया है, वह भी अधिकारियों की कृपा पर निर्भर है।
डीएफओ बांदा नुरुलहुदा का कहना है कि बांदा जिले के वन क्षेत्र में एक
भी पात्र नहीं पाया गया। वन उपज्ज पर वनवासियों का अधिकार अब भी बरकरार
है। जबकि समाजसेवी व स्थानीय पत्रकार राकेश माहुले ने बताया कि फतेहगंज
क्षेत्र के आधा दर्जन गांवों में करीब डेढ़ सौ साल से सैकड़ों परिवार आबाद
हैं, जिनकी जिंदगी पूर्णरूप से वन उपज व वन भूमि पर निर्भर है। फिर भी ऐसे
लोगों को अपात्र घोषित करने पर ताज्जुब होता है।
मध्य प्रदेश के इन सीमांत गांवों में माफियाओं की मर्जी के खिलाफ वन
क्षेत्र में प्रवेश करना वर्जित है। इनका यह भी कहना है कि यह शासनादेश भी
वन अधिकारियों व कर्मियों की कमाई का स्त्रोत बन गया है। इस क्षेत्र के
जनजाति मंगल, गुलाब व मुस्तरी का कहना है कि वनवासी समुदाय विशेष कर महुए
के फूल पर साल का आधा समय गुजारता है, लेकिन लगता है अब ‘डोभरी’ को तरस
जाएंगे।