रातू
[चंद्रशेखर उपाध्याय]। सब पढ़ें, सब बढ़ें, यह उनकी दिली ख्वाहिश है। सो,
सारी उम्र लगा दी शिक्षा के प्रचार-प्रसार में। वह कहते हैं, शिक्षा अनमोल
रत्न है, पढ़ने-पढ़ाने का यत्न सभी को करना चाहिए। अलबत्ता, जीवन में ऐसे
दिन भी आते हैं, जब हम हताश हो जाते हैं, परंतु यह परीक्षा की घड़ी होती
है।
हम बात कर रहे हैं रातू चट्टी के डा लक्ष्मण उरांव की, जिन्होंने तमाम
विपरीत परिस्थितियों में मुकाम हासिल किया और आज लोगों के लिए रोल माडल बन
गए।
होश भी न संभाला था कि डा उरांव के पिता गुजर गए। घर का सारा बोझ मां
पर आन पड़ा। चार भाई-बहनों की देखरेख, पालन-पोषण बड़ी चुनौती थी। उन दिनों
मजदूरी भी बहुत मुश्किल से मिलती थी। मां गिट्टी व ईट के टुकड़े जमा करती
थी। शाम में दो रुपये मिलते थे, जिससे दाल-रोटी का जुगाड़ हो पाता था। मां
की लाचारी थी, डा. उरांव ननिहाल [सिमलिया] भेज दिए गए। मजदूरी भी करते और
पढ़ाई भी। दसवीं से छात्रवृत्ति मिलनी शुरू हुई।
बड़ी मशक्कत से 15 रुपये जमा किए, फिर पान की दुकान खोली और बाद में एक
जलपान गृह। डा उरांव प्लेट धोने से लेकर सारा काम करते। शाम तक 30 से 40
रुपये तक की बिक्री होती। उरांव जलपान गृह चलाने के साथ-साथ रांची कालेज
में पढ़ाई भी करते। तमाम विपरीत परिस्थितियों में उन्होंने पढ़ाई जारी
रखी। पहले राजनीतिशास्त्र में एमए और फिर एलएलबी।
इस बीच कार्तिक उरांव से मुलाकात हुई। यह मुलाकात रंग लाई। पहले उरांव
और उनके निधन के बाद कार्तिक उरांव की पत्नी सुमति उरांव के सहयोग से
उन्होंने लंदन से पीएमडी की डिग्री ली।
नौकरी को दरकिनार कर उन्होंने गरीब बच्चों को शिक्षा देने की शुरुआत
की। साधन के अभाव में पेड़ के नीचे शिक्षा-दीक्षा का कार्यक्रम शुरू हुआ।
दृढ़ इच्छा शक्ति ने उन्हें हजारों गरीबों का मसीहा बना दिया। रातू,
चान्हो प्रखंड के सुदूर क्षेत्रों में आज 24 विद्यालय व दो महाविद्यालय
इनके निर्देशन में संचालित हैं, जहां तकरीबन 15 हजार बच्चों की किस्मत
संवर रही है। लक्ष्मण कहते हैं, शिक्षा की जोत यूं ही जलती रहे, बस यही
इच्छा है।