वलनीः छब्बीस बरस की गवाही

यह कहानी है नागपुर तालुका के गांव वलनी के लोगों की। वलनी में उन्नीस एकड़ का एक तालाब है। वलनीवासी 1983 से आज तक वे अपने एक तालाब को बचाने के लिए अहिंसक आंदोलन चला रहे हैं। छब्बीस वर्ष गवाह हैं इसके। न कोई कोर्ट कचहरी, न तोड़ फोड़, न कोई नारेबाजी। तालाब की गाद-साद सब खुद ही साफ करना और तालाब को गांव-समाज को सौंपने की मांग। हर सरकारी दरवाजे पर अपनी मांगों के साथ कर्तव्य भी बखूबी निभा रहा है यह छोटा-सा गांव। योगेश अनेजा, जो अब इस गांव के सुख-दुख से जुड़ गये हैं, वे 26 वर्ष के इस लम्बे दांस्तान को बयान कर रहे हैं

हम सब कलेक्टर के पास अर्जी लेकर गए थे। उन्होंने कहा कि मैं तो यहां नया ही आया हूं। मैं देखता हूं कि मामला क्या है। अर्जी के हाशिए में कोई टिप्पणी लिखकर उसे एस.डी.ओ. की तरफ भेजते हुए कहा कि अभी तो मंत्रीजी आ रहे हैं, मैं उन्हें लेने हवाई अड्डे जा रहा हूं। आप बाद में मिलिए।

अगली बार फिर उन्नीस किलोमीटर दूर से अर्जी लेकर चार-पांच साथियों को किसी तरह मनाकर जुटाकर कलेक्टर साहब से मिलने पहुंचा तो पता चलता है कि वे तो अभी एक बैठक में हैं। आज नहीं मिलेंगे। किसी कोशिश में मिल भी जाएं तो फिर वही सुनने मिलता है: नया आया हूं। आप कागज छोड़ दीजिए, देखता हूं क्या हो सकता है। फिर एक साल दो साल में जब तक मामला इनको समझ में आना शुरू होगा, तब तक इनकी भी बदली हो जाएगी।

तब फिर हम जाते हैं एस.डी.ओ. के पास। एस.डी.ओ. फोन उठाते हैं, तहसीलदार को बताते हैं कि तुम कुछ करो। ये लोग बार-बार मेरे पास आते हैं। एस.डी.ओ. लिखकर कुछ नहीं देते। फोन पर बात करते हैं ताकि उनकी कलम न फंस जाए कहीं।

अब फिर हम जाते हैं तहसीलदार के पास। तो तहसीलदार जो ऊपर के अधिकारियों के दवाब के कारण गांव जाकर मौका चौकसी कर चुके हैं, कहते है कि मैंने मालगुजार को जनवरी 2009 में एक हजार रुपए का दंड किया है और सात दिन के भीतर अतिक्रमण हटाने का नोटिस भी दे दिया है। इससे ज्यादा भला मैं क्या कर सकता हूं। अच्छा हो, अब तो आप कोर्ट जाओ।

तहसीलदार ने मालगुजार को सात दिन में अतिक्रमण हटाने का नोटिस दिया। इससे एक बात तो साफ है कि गांव वाले सच बोल रहे हैं। तालाब सरकारी है। पर ये सात दिन कब पूरे होंगे भगवान जाने।

कलेक्टर कहते हैं कि मैं कुछ नहीं कर सकता। एस.डी.ओ. कहते हैं कि मैं कुछ नहीं कर सकता, तहसीलदार कहते हैं मैं कुछ नहीं कर सकता। यदि ये लोग कुछ नहीं कर सकते तो तनखा क्या ये घापा करने की लेते हैं। इन पच्चीस, छब्बीस लाइनों में जो वर्णन किया गया है, वह दो चार दिन का किस्सा नहीं है। चौंक न जाएं आप! यह छब्बीस बरस का किस्सा है।

आज जो गांवों की दयनीय स्थिति हम देखते हैं, उनमें बहुत बड़ा हाथ उन लोगों का है, जिनकी नीतियों ने गांव वालों की काम करने की शक्तिही छीन ली है। क्या पढ़ाई-लिखाई इसलिए जरूरी कही जा रही है कि जो पढ़े-लिखे नहीं हैं, कमजोर हैं, अपनी आवाज नहीं उठा सकते, उनको दबा दिया जाए। आखिर यह पूरा मामला क्या है?

लीजिए सुनें पूरा किस्सा। नागपुर तालुका के गांव वलनी में उन्नीस एकड़ का एक तालाब है। 1983 में गांव के लोगों को पता चला कि जिस तालाब को वह अपना समझते हैं, वास्तव में वह उनका नहीं है। मालगुजार का है। पूर्व दिशा का पांच एकड़ तालाब मालगुजार ने किसी नागपुर वाले को बेच दिया। पश्चिम का नौ एकड़ एक और नागपुर वाले को बेच दिया और बीच का पांच एकड़ सरकारी है। गांव वालों की भोली बुद्धि ने सच समझकर इसे मान लिया और फिर से दो जून की रोटी के जुगाड़ में लग गए।

लेकिन गांव के कुछ लोगों को यह बात हजम नहीं हुई। तालाब के बीच में कोई दीवार तो है नहीं। फिर इसके तीन हिस्से हुए कैसे? तालाब की तरफ देखकर आंखें यह तय नहीं कर पा रही थीं कि तालाब कहां से कहां तक बिक गया है और कहां से कहां तक सरकारी है।

किसका कितना पानी है? तालाब में होने वाली मछली पर किसका कितना हक है? अब यह मछली तो सरकारी कागजात नहीं जानती। वह तो पूरे तालाब में कागजों पर बनी सीमाओं को तोड़ते मस्त इधर से उधर घूमती रहती है। तालाब की देखरेख का, उसकी मरम्मत का, कौन कितना जिम्मेदार है? गांव वालों को ये प्रश्न दिन रात सताने लगे।

एक आम आदमी को जो अधिकार दिया गया है, उसका इस्तेमाल कुछ गांव वालों ने करने की योजना बनाई। एक प्रार्थना-पत्रा लिखा गया और फिर शुरू हुआ न्याय पाने के लिए सरकारी दफ्तरों के चक्करों का एक और अंतहीन सिलसिला। न्याय की उम्मीद में कलेक्टर, एस.डी.ओ., तहसीलदार के पास पहुंच जाते व न्याय की फरियाद करते। लेकिन आप जानते ही हैं कि सभी सरकारी काम गोपनीय होते हैं। इसलिए गांव वाले इस आश्वासन के साथ कि जांच जारी है, वापिस गांव लौटा दिए जाते।

फिर एक दिन आया अण्णा हजारे का सूचना का अधिकार। कुछ गांव वालों ने इसका प्रयोग करना सीखा। प्रयोग किया तो तालाब के पुराने रेकार्ड तहसीलदार को मजबूरन देने पड़े। इसमें तो साफ लिखा था कि तालाब की मालिक सरकार है और पूरे गांव को इसके पानी पर हक है। पहले सिर्फ कुछ लोग ही इस तालाब की लड़ाई लड़ रहे थे। अब कागजात सामने आने के बाद पूरे गांव में जाग्रति आ गई और सचमुच यहां तो बच्चा-बच्चा यह कहने लगा कि यह तालाब हमारा है।

लेकिन जिन रेकार्ड ने पूरे गांव की आंखें खोल दीं, वे कागज सरकारी अधिकारियों की आंखें नहीं खोल पाए। तब हम सब क्या करते? कागज रखे एक तरफ और हमने खुद काम शुरू किया। अब वलनी गांव के लोग इस तालाब को पिछले पांच वर्ष से स्वयं के बलबूते पर खोद रहे हैं। हर वर्ष गर्मियों में तालाब के सूख जाने पर एक जे.सीबी. व चार टिप्पर किराए पर लिए जाते हैं। तालाब की मिट्टी खोदी जाती है।

साद किसानों के खेतों में डाल दीजातीहै। प्रति टिप्पर चार सौ रुपए का खर्च आता है। जिस किसान को खेत में जितनी मिट्टी चाहिए हो, उतनी उसकी राशि वह ग्राम सभा द्वारा गठित कमेटी के पास जमा करा देता है। पिछले पांच वर्षों में इस तालाब पर ग्राम सभा ने सात लाख रुपए की खुदाई की है। तालाब भी गहरा हो गया है और साद, मिट्टी डालने वाले किसानों की फसल भी दो गुनी हो गई है।

अब गर्मियों में आसपास के 12 गांवों के पशु पानी पीने वलनी गांव आते हैं। और कहीं पानी नहीं होता।

यह है वलनी वासियों का अहिंसक आंदोलन। छब्बीस वर्ष गवाह हैं इसके। अपनी मांगों के साथ कर्तव्य भी बखूबी निभा रहा है यह छोटा-सा गांव। न कोई कोर्ट कचहरी, न तोड़ फोड़, न कोई नारेबाजी। सिर्फ फरियाद वह भी खुद से कि अब तो चेतो।

योगेश अनेजा नागपुर में मोटर पार्ट्स का एक छोटा-सा व्यापार करते हुए अपने पड़ौसी गांव वलनी के सुख-दुख में जुड़ गए हैं।

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