बांदा। उनके बच्चे भी खेलते हैं मगर जहरीले सांप और बिच्छुओं के साथ।
स्कूल का मुंह देखना अभिशाप है लेकिन पांच साल के बच्चों को ‘सांप की
पिटारी’ व ‘बीन’ थमा दी जाती है। बाल विवाह की प्रथा है और सांप नचाने व
बीन बजाने की कला का प्रदर्शन ही शादी की शर्त है। हम बात कर रहे है सपेरा
समाज की।
उत्तर प्रदेश में इलाहाबाद और कौशांबी से सटे शंकरगढ़ इलाके के कंचनपुर
और तालापार सहित दर्जन गांवों में बसे सपेरा समाज में अंधविश्वास व
रुढि़वादी परंपराए बदस्तूर चली आ रही हैं। गरीबी और लाचारी का दंश झेल रहे
सपेरा समाज के लोगों के लिए पैतृक पेशा ही आजीविका का एक मात्र साधन है।
उनके पास जमीन का एक टुकड़ा भी नहीं है और आशियाने के नाम पर घास-फूस की
झोपड़ी ही गुजर-बसर के लिए काफी है। सरकारी योजनाओं के नाम पर सिर्फ राशन
कार्ड थमा दिया गया है। नौनिहाल बच्चों को स्कूल भेजने के बजाय पांच साल की
उम्र में ही सांप पकड़ने, नचाने व बीन बजाने की कला सिखाना माता-पिता का
असल कर्तव्य माना जाता है। इन बच्चों के खिलौने भी जहरीले सांप-बिच्छू ही
है। सपेरा समाज में अगर कोई थोड़ा-सा पढ़-लिख जाता है तो बुजुर्ग उसे हेय
दृष्टि से देखते है। सपेरा समाज के हर व्यक्ति की जुबान पर यही राग है
‘पढ़े-लिखे कुछ न होए, सांप नचा तो पैसा होय।’
सपेरा समाज को घुमंतू और खाना बदोश जाति में गिना जाता है। बाल विवाह
की परंपरा सिर चढ़ कर बोलती है। सात से आठ साल की उम्र में ही शादी तय हो
जाती है। वरक्षा की रस्म में तमाम बुजुर्गो की मौजूदगी में वर को सांप
नचाने व बीन बजाने की कला का प्रदर्शन करना होता है। इस कला से संतुष्ट
होने पर ही कन्या पक्ष शादी के लिए राजी होता है। विवाह मंडप में वर-वधू को
बुजुर्ग के हाथ शराब पिलाने की अनूठी परंपरा है। प्राथमिक विद्यालय बिमरा
में सपेरा समाज के एक युवक राजेशनाथ शिक्षा मित्र है। राजेशनाथ का कहना है
कि बुजुर्ग रुढि़वादी परंपराओं से छुटकारा नहीं चाहते और जब समझाने का
प्रयास किया जाता है तो ताने सुनने को मिलते है। समाजसेवी रामपाल का कहना
है कि सपेरा समाज के बीच शैक्षणिक व सामाजिक माहौल बनाया जा रहा है।
अब कुछ सुधार के आसार दिखाई देने लगे है। इलाहाबाद क्षेत्र के पुलिस
उपाधीक्षक जनार्दन त्रिपाठी ने बताया, ‘इस घुमंतू जाति में बचपन से बच्चों
को सांप नचाने का प्रशिक्षण देने की परंपरा है। बाल विवाह व बाल अधिकार हनन
के मामलों में पुलिस हस्तक्षेप करेगी।’