नई दिल्ली। इस साल जनवरी के बाद केवल दस हफ्तों में देश के अनेक
अभयारण्यों में कम से कम 13 बाघों की मौत हो गई, जिनमें जनवरी और मार्च में
पांच-पांच बाघों की मौत हुई। पिछले साल 60 बाघों की मौत दर्ज की गई थी।
दुनिया में केवल 3500 बाघ बचे हैं, जिनमें से 1411 भारत में हैं। यह सब
तब हो रहा है जबकि, पूरी दुनिया इस संकटग्रस्त प्रजाति की संख्या में तेजी
से होती गिरावट पर शोर मचा रही है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने बाघों को
बचाने के लिए कदम उठाने का फैसला किया और पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने
बाघों की मौत के लिए राजनेताओं द्वारा समर्थित माफिया को जिम्मेदार ठहराया
है।
संयुक्त राष्ट्र के वन्यजीव संगठन सीईटीईएस ने भी दोहा में चल रहे अपने
अधिवेशन में कहा है कि अनेक साल के प्रयास के बावजूद दुनिया बाघों को
बचाने में विफल रही है। रमेश ने देश के 37 अभयारण्यों में बाघों के सामने
पेश चुनौती के संदर्भ में हाल ही में कहा था कि निर्माण और खनन माफिया नहीं
चाहते कि बाघ जंगल में रहें। वे मालों के निर्माण और खनन के लिए जमीन
चाहते हैं। उन्होंने उम्मीद जताई कि इस संकटग्रस्त जंतु को बचाने के लिए
जरूरी कार्रवाई के लिहाज से राज्यों से बातचीत की प्रधानमंत्री की पहल से
मदद मिल सकती है।
अधिकारी भले ही इसके कारणों पर विचार कर रहे हों लेकिन शिकार, आपसी
संघर्ष और ग्रामीणों से आमना-सामना होने के चलते बाघों की मौत का सिलसिला
जारी है। उत्तराखंड के रामनगर में 15 मार्च को एक बाघ की मौत हो गई थी। इसी
महीने में बिहार के वाल्मीकि बाघ अभयारण्य में, केरल के रणथंभौर राष्ट्रीय
उद्यान और वायनाड में चार बाघों की मौत हो गई। फरवरी में उत्तराखंड के
कार्बेट नेशनल पार्क में संदिग्ध शिकारियों द्वारा बिछाए गए जाल में फंस
जाने से छह साल के एक नर बाघ की मौत हो गई।
बाघ के अंगों और हड्डियों की अंतरराष्ट्रीय बाजार में काफी कीमत है,
इसके मद्देनजर भी इस जंतु को जान का खतरा बना रहता है। बाघों के अंगों पर
1975 में पाबंदी लगाई गई थी, जो सीआईटीईएस के तहत उठाए गए शुरूआती कदमों
में से एक है। सीआईटीईएस की सूची 1 में बाघ उन जंतुओं में शामिल है जिनकी
प्रजाति को खतरा बना हुआ है।