शिमला
[ब्रह्मानंद देवरानी]। देर आयद, दुरुस्त आयद यह कहावत कोटखाई क्षेत्र के
उन लोगों पर चरितार्थ होती है जिन्होंने वनों के अवैध कटान और जल संरक्षण
के लिए बीड़ा उठाया है। संभव है कि छोटी सी ही सही, लेकिन इन लोगों ने वनों
की अहमियत को समझकर जो पहल की है, निस्संदेह यह कदम जलवायु परिवर्तन के
लिए उपयोगी होगी।
वनों का अवैध कटान कर उस भूमि पर बागीचा लगाने के लिए बदनाम ऊपरी
शिमला के इलाकों में अब जनता जल-जंगल और जमीन की अहमियत पहचानने लगी है।
इस क्षेत्र के कुछ लोगों ने इनकी कीमत जानते हुए इसके संरक्षण के लिए
एकजुट होकर एक अनूठी पहल शुरू की है। इसके तहत इस क्षेत्र के निवासी लोगों
को वनों की अहमियत के बारे में जागरूक ही नहीं करेंगे, बल्कि पौधरोपण भी
करेंगे। जलवायु परिवर्तन का मुख्य कारण वन क्षेत्रफल का कम होना है। वन
विभाग वनों की संख्या कम होने का असर प्राकृतिक स्त्रोतों पर भी पड़ रहा
है। खासकर गर्मियों में अधिकाश क्षेत्रों में पेयजल संकट गहरा जाता है। इन
पर्यावरण प्रेमियों का मकसद सिर्फ इतना है कि जो जंगल रह गया है उसका
अतिक्रमण न हो।
शिमला जिले के कोटखाई की पाच पंचायतों ने जंगल और जलस्त्रोत को
संरक्षित रखने का बीड़ा उठाया है। पंचायतों ने मिलकर एक तदर्थ कमेटी बनाई
है जो लोगों को वनों की अहिमयत के बारे में जागरूक करेगी। कमेटी का नाम
पर्यावरण संरक्षण समिति रखा गया है। कमेटी के अध्यक्ष दिग्विजय चौहान ने
बताया कि कोटखाई की पाच पंचायतों, क्यारी, बगाहर, पनोग, शिल्ली
[देवरी-खनेटी]और पराली [बदरुणी] के लगभग डेढ़ सौ बागवानों ने गत दिनों
एकत्रित होकर वनों को बचाने का निर्णय लिया है। उन्होंने कहा कि इन
पंचायतों में पेयजल संकट गंभीर है। इसका सबसे बड़ा कारण वनों का कम होना
है। वन कम क्यों हुए इसका कारण स्थानीय लोगों द्वारा अतिक्रमण है।
उन्होंने कहा कि इस क्षेत्र में वनों का काफी मात्रा में अतिक्रमण हुआ
है लेकिन अब जो जंगल बचा है उसे संरक्षित रखने के लिए उन्होंने बीड़ा उठाया
है। चौहान ने कहा कि जंगल कम होने के कारण जंगली जानवर शहरों की ओर कूच कर
रहे हैं। कुछ लोग जानबूझ कर जंगलों में कई बार नई घासनी के लिए आग लगा
देते हैं जिसके कारण जंगली फलों के पौधे भी नष्ट हो जाते हैं जिन पर जंगली
जानवर निर्भर रहते हैं।
उन्होंने कहा कि वनों के कम होने का असर प्राकृतिक जलस्त्रोतों पर भी
पड़ रहा है। इस क्षेत्र में लोग नाले और चश्मे के पानी पर निर्भर हैं यदि
जंगल नहीं रहेंगे जो जल भी नहीं होगा। उन्होंने सच्चाई यह है कि लोगों ने
अतिक्रमण को लेकर आखें बंद की हुई हैं। हालाकि इसके लिए लंबी लड़ाई लड़नी
होगी, हमारा मकसद शेष बचे जंगल को बचाना है। पर्यावरण के नाम पर प्रदेश
में बहुत से स्वयं सेवी संस्थाएं हैं लेकिन गाव तक उनका संदेश नहीं पहुंच
पाता। दिग्विजय चौहान ने कहा कि इसके लिए क्यारी में बागवानों की एक बैठक
आयोजित की गई जिसमें एक तदर्थकमेटी का गठन किया गया।
इस कमेटी में प्रत्येक पंचायत से 10-10 बागवानों व किसानों को शामिल
किया गया है जो लोगों को वनों की अहमियत के बारे में जानकारी देंगे। वन
विभाग की मदद से इस क्षेत्र में पौधरोपण अभियान चलाकर फिर हरे-भरे जंगल को
तैयार करने की नींव रखेंगे। इसके लिए जल्द ही पर्यावरण संरक्षण समिति का
पंजीकरण कर लिया जाएगा।