महंगा हुआ बच्चों का बस्ता

रांची
[सुनील कुमार झा]। महंगाई की मार से बच्चों का बस्ता भी नहीं बच पाया। गत
वर्ष की तुलना में किताबों की कीमत में एक दो नहीं बल्कि दस से पंद्रह
फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। कागज व डीजल की कीमतों में हुई बढ़ोत्तरी का असर
किताबों की कीमत पर भी पड़ा है।

रीएडमिशन, डेवलपमेंट फंड, बिल्डिंग फंड समेत कई तरह के अतिरिक्त शुल्क
से पहले से ही परेशान अभिभावकों की किताब-कापी की बढ़ी हुई कीमतों ने
परेशानी और अधिक बढ़ा दी है।

पुस्तक विक्रेता विकास ने बताया कि गत वर्ष की तुलना में इस वर्ष
किताबों की कीमत में दस से पंद्रह फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। उन्होंने
बताया कि डीजल की कीमत में बढ़ोतरी के कारण ट्रासपोर्टिग खर्च भी बढ़ गया
है। इसके अलावा कागजों की कीमत में भी बढ़ोत्तरी हुई है। विद्यालयों व
प्रकाशकों के बीच की सेटिंग के कारण भी अभिभावकों को किताब-कापी के लिए
अधिक राशि देनी पड़ती है। सत्र शुरू होने से पहले ही प्रकाशकों व स्कूलों
के बीच सेटिंग हो जाती है।

किताबों की खरीद के लिए अभिभावकों को सूची की जगह दुकान का नाम बताया
जाता है। किताबों की सूची भी दी जाती है तो किताबें सिर्फ उसी दुकान पर
मिलती हैं, जिससे स्कूल की सेटिंग होती है। झारखंड शिक्षा न्यायाधिकरण
[जेट] के इस आदेश के बाद कि स्कूल परिसर में किताब-कापी की बिक्री नहीं की
जाय, स्कूलों ने अपनी दुकान अब बाजार में खोल ली।

अभिभावक किताब की सूची के लिए जब स्कूल पहुंचते हैं तो उन्हें सूची के
बदले दुकान के नाम का पर्चा थमा दिया जाता है। अभिभावकों को यह सूचना दी
जाती है कि किताब अमुक दुकान पर ही उपलब्ध है। अभिभावकों से कहा जाता है
कि वह दुकान जाकर स्कूल व कक्षा का नाम बताएं, उन्हें किताबें मिल जाएंगी।
दुकान पहुंचने पर कक्षा व स्कूल का नाम बताने के साथ किताबों का बंडल थमा
दिया जाता है।

दुकानदार किताबों की मनमानी कीमत वसूलते हैं। अभिभावक विवश हैं,
किताबों की सूची नहीं मिलने के कारण वे चाहकर भी दूसरी जगह से किताबें
नहीं खरीद पाते। आलम यह है कक्षा प्री नर्सरी की किताब के लिए सात से आठ
सौ रुपये तक लिए जा रहे हैं। कक्षा एक से आठ तक की किताबों व कापियों के
लिए अभिभावकों को एक हजार से 2000 रुपये तक देने पड़ते है। सूत्रों से
प्राप्त जानकारी के अनुसार दुकानदारों को किताब-कापी की बिक्री के लिए
स्कूलों को मोटी रकम देनी पड़ती है। इसके बाद ही किताब बेचने की अनुमति मिल
पाती है। निजी प्रकाशक स्कूलों को जो राशि देते हैं, वह किताबों की कीमत
में जोड़ बच्चों से वसूल लेते हैं।

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