रांची
[नीरज अंबष्ठ]। एड्स! जिसकी परिणति कलंक व निश्चित मौत। पूरे परिवार को
बर्बाद कर देने वाली बीमारी। जाने-अनजाने में जिसे हो जाए, उसके अपने ही
उससे दूर भागने लगते हैं। कहीं छूने-सटने से उसे भी.। बेघर तक किए जाते
हैं। लेकिन एड्स पीड़ितों की सेवा और उनके लिए कुछ करने की उमंग को क्या
कहेंगे? सिस्टर प्रमिला कुजूर को न तो मौत से डर है, और न ही कलंक से।
एड्स पीड़ितों की सेवा की भावना इन सब पर भारी है।
झारखंड एड्स कंट्रोल सोसायटी के कम्युनिटी सेंटर में पाच सौ से अधिक
मरीजों की काउंसेलिंग व उनके इलाज के क्रम में उनसे एक नया रिश्ता बना,
जिसे वह अन्य रिश्तों से बड़ी मानती हैं। लातेहार में अच्छी-भली नौकरी कर
रही थीं। आशादीप में मौका मिला तो हर्ष के साथ इसे स्वीकार भी कर लिया।
शुरू में परिवार वालों ने मना तो किया लेकिन बाद में बात सावधानी तक पहुंच
गई। पति पुलिस सेवा में हैं। उन्होंने भी सहयोग दिया। प्रमिला को गर्व उस
समय हुआ, जब स्वास्थ्य विभाग के अधिकारियों ने कहा कि कोई नर्स यहा काम
करने को तैयार ही नहीं हो रही थी। फिलवक्त सिस्टर प्रमिला दस शैय्यावाले
इस कम्युनिटी सेंटर में न केवल गंभीर मरीजों की चिकित्सा सेवा करती हैं,
बल्कि एड्स पीड़ितों की काउंसेलिंग भी करती हैं। चिकित्सा सेवा में दवा,
इंजेक्शन देना, साफ-सफाई, पानी चढ़ाना, खाना खिलाना आदि सब कुछ शामिल है।
एड्स पीड़ितों के लिए काम करने में किसी तरह के भय को सिरे से नकारते हुए
उनका कहना है कि सभी काम वह मास्क-गलब्स पहनकर सावधानी से करती हैं। फिर
यह बीमारी तो चार कारणों से ही होती है।
साथ उठने-बैठने से नहीं। जागरूकता इस कदर कि एड्स पीड़ित महिलाएं उनके
साथ बैठकर टीवी देखती हैं, गप्पें करती हैं तथा उनके नौ माह के बेटे को
गोद भी लेती हैं। पूछने पर एक एड्स पीड़ित सरिता [बदला हुआ नाम] रुंआसे
स्वर में कहती है- पहले हम सभी इन्हें सिस्टर कहते थे, आज वह हमारी दीदी
बन चुकी हैं। वह खाना खाने गई हैं और मैं उनके बच्चे को बहला रही हूं।
अंदाजा लगा लीजिए, हमारे प्रति उनका कितना प्यार है। कोई मरीज गिर जाता है
या बेहोश हो जाता है तो उसे उठाने में वह सावधानी भी भूल जाती हैं।
प्रमिला कहती हैं कि यहा सब निराश आता है। जब उन्हें यहा से प्यार और
सही जानकारी मिलती है तो उनमें जीने का एक नया उमंग पैदा होता है। यही
उनके लिए पुरस्कार है। लेकिन जब किसी एड्स पीड़ित की मौत हो जाती है तो मन
में यह कसक भी रह जाती है कि शायद सेवा में कोई न कोई कमी रह गई।
छोटे-छोटे बच्चे एड्स पीड़ित होने पर यहा आते हैं तो वह भी टूट जाती हैं कि
आखिर इन बच्चों का क्या दोष।