समूची दुनियां में भारत की वन्य जीव संपदा से भरपूर सबसे बड़े देश के रूप में गिनती होती है. तमाम प्राकृतिक प्रकोप बाढ़ ओद आपदाओं, अंधांधुध शिकार, कभी
जान की सुरक्षा के चलते की जाने वाली हत्याओं ओद कारणों से हुई वन्य जीवों
की बेतहाशा मौत के बावजूद यह स्तर आज भी कायम है. राष्ट्रीय पशु बाघ को
लें. एक समय देश में बाघों की तादाद करीब चालीस हजार थी. आज सरकार की मानें तो कभी वह कहती है कि हमारे यहां अब मात्र 1411 बाघ ही बचे हैं जबकि वन्य जीव प्रेमी तो यह तादाद अविश्वसनीय बताते हैं. उनके अनुसार यह तादाद इससे भी कम हो सकती है. कभी सरकार यह तादाद 1165 ही बताती है. यही वह अहम् कारण है, जिसके चलते अब बाघों के सरंक्षण पर अंतरराष्ट्रीय समुदाय का ध्यान खींचने के लिए भारत ने इस साल वैलेंटाइन डे से अंतरराष्ट्रीय बाघ
वर्ष की शुरुआत की है. हमारे वन एवं पर्यावरण राज्य मंत्री जयराम रमेश की
मानें तो यह आयोजन समूचे विश्व में यह बताने के लिए होगा कि बाघ संरक्षण
की दिशा में भारत क्या कर रहा है और भविष्य में उसकी क्या योजना है. भारत
का रुख चीन द्वारा बाघों की कैप्टिव ब्रीडिंग यानी फ़ार्मिंग के खिलाफ़ बेहद
कड़ा है और भारत इसके खिलाफ़ संघर्ष के मूड में है. इस मुद्दे को भारत
अंतरराष्ट्रीय बाघ वर्ष में समूचे विश्व के सामने रखेगा. क्योंकि चीन में
बाघों की तादाद बढ़ाने के लिए साइबेरियन और मंजूरियन बाघों को व्यापक स्तर
पर ठीक उसी तरह फ़ार्मों में तैयार किया जा रहा है, जिस तरह मुर्गी को तैयार किया जाता है. दरअसल वन्य जीव विशेषज्ञों की मानें तो चीन की इस पूरी कवायद के पीछे उसका व्यवसायिक मकसद है.
क्योंकि इस तथ्य को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि चीन बाघों के अंगों का बहुत बड़ा सौदागर देश है, जहां
बाघ के अंगों से यौनवर्धक दवाएं तैयार की जाती हैं. उनका वहां काफ़ी प्रचलन
और बाजार भी है. गौरतलब है कि यह साल चीनी कलैंडर में ईयर ऑफ़ टाईगर यानी
बाघ वर्ष है. मौजूदा हालात इस ओर इशारा कर रहे हैं और जैसी कि संभावना है
कि यदि इस साल बाघ के अंगों की कीमतों में बढ़ोत्तरी होती है, तो
कहीं यह बाघ वर्ष दुनिया में बाघों के लिए मौत का साल न बन जाये. वन्य जीव
विशेषज्ञों की चिंता की असली वजह यही है. उन्हें इसका भय खाये जा रहा है
कि कहीं इससे भारतीय बाघों के शिकार में बेतहाशा बढ़ोत्तरी न हो जाये. बाघ
प्रेमी तो इस वर्ष को बाघों के अस्तित्व के लिए खतरे की घंटी मान रहे हैं.
इस बारे में वन एवं पर्यावरण राज्य मंत्री जयराम रमेश कहते हैं कि बाघों
को संरक्षित करने की जिम्मेदारी भारत की है, जिसे
हम बखूबी निभा रहे हैं. उनके दावे की हकीकत तो इसी से जाहिरहो जाती है कि
वन्य जीवों के अंगों के सौदागरों के लिए भारत एक ऐसा देश है, जहां से वे वन्य जीवों के अंगों को न केवल आसानी से हासिल कर लेते हैं बल्कि उनकी खालों, उनके
अंगों और हाथी दांत को नेपाल के जरिये चीन ओद बाहरी देशों में भी पहुंचाने
में कामयाब रहते हैं. इसकी पुष्टि उप्र के मुख्य वन संरक्षक डीएनएस सुमन
भी करते हैं. वे कहते हैं कि इसके लिए राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर
अंकुश लगाने की जरूरत है. दरअसल वन्य जीवों के अंगों के सौदागरों को इस
कारोबार में कोई रुकावट का सामना नहीं करना पड़ता. वन्य जीवों के शिकार, उनके अंगों, खाल ओद को हासिल करने से लेकर उन्हें देश से बाहर ले जाने में उन्हें अधिकारियों, वनकर्मियों, प्रशासन और पुलिस का हर संभव सहयोग मिलता है. यही वह अहम कारण है जिसके चलते यह कारोबार खूब फ़ल-फ़ूल रहा है.चीन में तो वहां के शिनिंग, लिनशिया, ल्हासा, शिगस्ता और नागचू इलाकों में बाघों के अंगों, उनकी
खालों की खुलेआम बिक्री इस बात का जीता जागता सबूत है कि तमाम रोक के
बावजूद बाघों के अंगों-खालों का कारोबार बेरोकटोक जारी है. बाघ की खाल को
तो चीन में घरों की सजावट के लिए खरीदा जाता है. यह वहां संपन्नता कहें या
रुतबे का प्रतीक मानी जाती है. इसको अपने घर के डाइंग रूम की शोभा बनाने वालों में वहां उद्योगपति, सरकारी
और सेना के अफ़सर तक सभी शामिल हैं. विडंबना यह है कि बाघ के अंगों की
खरीद-फ़रोख्त का यह धंधा उस हालत में चीन में बेरोकटोक जारी है जबकि वहां
बीते 16 सालों
से इस पर प्रतिबंध है. फ़िर भी न बाघों के शिकार पर अंकुश लग सका है और न
उसके अंगों की बिक्री पर और न ही उसकी मांग में ही कोई कमी आयी है.
इनवायरमेंट इन्वेस्टिगेटिव एजेंसी की रिपोर्ट इसकी पुष्टि करती है.
गौरतलब है कि सरकार ने 2008 में देश में बचे हुए बाघों की सुरक्षा के लिए चि:ित 13 बाघ
अभयारण्यों में एसटीएफ़ तैनात करने का निर्णय लिया. इसके पीछे उसकी मंशा यह
रही कि वन्यजीवों के अंगों की तस्करी पर अंकुश लग सके. इस हेतु सरकार ने 2008-09 के बजट में 50 करोड़ की राशि आवंटित की लेकिन आज तक एक भी अभयारण्य में एसटीएफ़ तैनात नहीं की जा सकी.