खनन पट्टों के नवीकरण पर रोक से उबाल

सासाराम। रोहतास उद्योग पूंज की बंदी की
भरपाई को विकसित करवंदिया का पत्थर उद्योग संकट में है। इस उद्योग से सीधे
जुड़े 50 हजार हांथों पर बेरोजगारी की तलवार लटक गयी है। दो हजार करोड़ के
सालाना टर्न ओवर वाले इस उद्योग से मजबूत हुई जिला की आर्थिक संरचना भी
डगमगाने लगी है। आने वाली स्थिति को भाप करोड़ों की पूंजी लगाये बैंकों के
हाथ-पाव फूलने लगे हैं। हाल में राज्य सरकार के बिहार लघु खनिज समनुदान
संशोधन नियमावली 2010 के प्रभावी होने से पत्थर खनन पट्टों के नवीकरण पर
लगाई गयी रोक से बनी आशंकाओं को ले उद्यमी हायतौबा मचाये हुए हुए हैं।
उद्यमियों के सड़क पर उतर आने से सांसद-विधायक भी अपनी राजनीतिक हानि-लाभ
की गणना करने लगे हैं। जिले में आ रहे कद्दावर नेताओं के समक्ष आग उगले जा
रहे हैं। विधानसभा सत्र में मामले को उठाये जाने की रणनीति भी बनायी जा
रही है। नयी नियमावली की जारी अधिसूचना संख्या 230 एम दिनांक 4 फरवरी 2010
में राज्य पुनर्गठन के पश्चात उत्तरवर्ती क्षेत्रों में पहाड़ों की कमी से
पर्यावरण के असंतुलन के खतरे, असुरक्षित हो रहे वन्य प्राणि-वनस्थनी व
तेजी से हो रहे उत्खनन से निकट भविष्य में पहाड़ों के अस्तित्व समाप्ति के
खतरे की बात कही गयी है।

पुराने शाहाबाद

के 1784 वर्ग किलोमीटर में फैले वन क्षेत्र का 1484 वर्ग किमी हिस्सा
राज्य सरकार की अधिसूचना से वर्ष 1979 में वन्यप्राणि अभ्यारण्य घोषित
किया गया। पत्थर तुड़ाई का कार्य करवंदिया, ताराचंडी के 1560 एकड़ पहाड़ी
क्षेत्र तक सीमित था। उस वक्त भी यहां 12 सौ छोटी क्रशर इकाइयां थीं ।
वर्ष 1986 में लागू वन संरक्षण अधिनियम के यहां वर्ष 1988 में प्रभावी
होने से वन विभाग के हस्तक्षेप पर पत्थर तुड़ाई का दायरा सिमटकर 160 एकड़
क्षेत्र में रह गया। बावजूद वन क्षेत्र के साथ पत्थर उद्यमियों की छेड़छाड़
जारी रही। इसे ले वर्ष 1993 में तत्कालीन डीएम ने करवंदिया के पास के 14
सौ एकड़ वन क्षेत्र को खनन कार्य के लिये मुक्त करने की सरकार को प्रस्ताव
भेजा। बदले में चुटिया, नौहट्टा में उतनी ही गैर वन भूमि को वन क्षेत्र
बनाने की अनुशंसा की। कोई हल न निकल पाने से अवैध खननकर्मियों से अक्सर
होती भिड़ंत में वर्ष 2002 में संजय सिंह जैसे कर्तव्यनिष्ठ डीएफओ शहीद हो
गए। तब यहां के वैध अवैध पत्थर खनन कार्य पर सख्ती बरतने से कारोबार
बिलकुल ठप पड़ गया। सरकार की पहल पर 160 एकड़ के खदानों की नीलामी की
प्रक्रिया बदलकर नये रूप में पत्थर उद्योग की स्थापना हुई। खदानों की
नीलामी से सरकारी राजस्व में जबर्दश्त उछाल आया। उसी आधार पर दो चरणों में
नये सिरे से 4 सौ क्रशर स्थापित किये गए। एक क्रशर से औसतन 5 लाख राजस्व
मिले। महज छह वर्षो में इसे उद्योग की धमक पूरे राज्य में चिह्नित हो गई।

आज इससे 50 हजार लोगों के परिवार की गाड़ी चलती है। 2 हजार ट्रैक्टर,
एक हजार ट्रक, हाइवा, डंफर, पोकलैंड, जेसीबी, स्टोन ब्रेकर, कंप्रेशर जैसी
कीमती मशीनें लगी हैं जिनपर बैंक का 150 करोड़ ऋण है। स्थानीयके अलावा
गया, औरंगाबाद और झारखंड के पलामू, गढ़वा, लातेहार जिलों के हजारों मजदूर
यहां कार्यरत हैं। तैयार होने वाली सामग्री ग्रेड वन, ग्रेड टू, जीएसबी व
चिप्स की आपूर्ति राज्य के अन्य जिलों में होती है।

पत्थर उद्यमी संघ के दिलीप सिंह कहते हैं, हम तो सरकार की ओर पुराने
प्रस्ताव के अमल में आने की टकटकी लगाये थे जिसमें मरे हुये पत्थरों वाली
पहाड़ी को वन क्षेत्र से मुक्त करने की बात थी। और यहां तो 160 एकड़ पर भी
खतरा आ गया। जिले की सुदृढ़ हुई आर्थिक संरचना इस सरकार की किरकिरी बन
गयी। इसके पीछे राजनीतिक षड़यंत्र का आरोप लगाते हुए कहते हैं, शायद सरकार
को यह भान नहीं कि इसके बंद हो जाने से 50 हजार लोग एक साथ बेरोजगार होंगे
तो दूर तक असर होगा।

सहायक खनन पदाधिकारी सुरेंद्र महतो ने कहा कि कुल 31 खदानों में आधे
से अधिक के लीज समाप्त हो गए हैं। अगले जुलाई तक 80 फीसदी के लीज खत्म हो
जाएंगे। तीन की अवधि दो वर्ष और है। दो दिन पूर्व पत्थर उद्यमियों के रोष
पूर्ण प्रदर्शन से सकते में पड़े डीएम अनुपम कुमार कहते हैं, सरकारी
अधिसूचना में किसी भी खदान को नीलाम करने की मनाही है। उन्होंने स्वीकार
किया कि आने वाले दिनों में बेरोजगारी के साथ ही आपराधिक स्थिति बेलगाम हो
सकती है।

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