भर में 7,000 बोलियां हैं, जो मौखिक ही हैं। संयुक्त राष्ट्र की एक
रिपोर्ट के मुताबिक अगले 100 वर्षो में इनके विलुप्त होने का खतरा है।
संयुक्त राष्ट्र ने पहली बार दुनिया के मूल निवासियों की भाषा पर
रिपोर्ट दी है। इसमें कहा गया है, ‘दुनिया भर में करीबन 6,000 से 7,000
बोलियां ऐसी हैं, जिनका मौखिक स्वरूप ही है, लिखित नहीं। इनके बोलने वाले
मूल निवासी हैं। इनमें से अगर सबके नहीं, तो अधिकांश के विलुप्त होने का
खतरा है।’
रिपोर्ट में कहा गया है कि कई भाषाओं के बोलनेवाले बेहद कम बच गए हैं।
इसके उलट पूरी दुनिया में अधिकांश लोग कुछ गिनी-चुनी भाषाएं ही बोलते हैं।
अगले 100 वर्षो में 90 फीसदी बोलियां विलुप्त हो जाएंगी, क्योंकि दुनिया
की 97 फीसदी जनसंख्या इन भाषाओं का केवल चार फीसदी बोलती हैं। इसके उलट
जनसंख्या का केवल तीन फीसदी हिस्सा 96 फीसदी भाषाएं बोलता है।
मरती बोलियां मूल निवासियों को नुकसान पहुंचा रही हैं। कुछ जातियां
जहां बोलियों को बचा ले जाने में सफल हो रही हैं, वहीं कई दूसरी हारी हुई
लड़ाइयां लड़ रही हैं। इन मूल निवासियों में भाषा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी
तक नहीं जा पा रही है।
अधिकतर सरकारें बोलियों के इस संकट से वाकिफ हैं, लेकिन फंड केवल
भाषाओं की रिकॉर्डिग के लिए मुहैया कराया जा रहा है। भाषाओं को फिर से
मुक्य धारा में लाने के लिए रकम मुहैया नहीं कराई जा रही है।
बड़ी बात तो यह है कि बोलियां न केवल संचार का एक साधन हैं, बल्कि वे
जमीन और इलाके से पारंपरिक तौर पर जुड़े मूल निवासियों की जानकारी का भी
खजाना हैं। यह किसी की भी व्यक्तिगत और सामूहिक पहचान भी है, जो समुदाय और
अधिकार की भावना देता है। भाषा के मरने के साथ ही जुड़ाव की यह भावना भी
खत्म हो जाती है।