फैसले में दिल्ली हाईकोर्ट की स्पेशल बेंच ने कहा है कि देश के चीफ
जस्टिस का दफ्तर भी सूचना के अधिकार के दायरे में आता है। साथ में ही इस
कानून के तहज जजों को अपनी संपत्ति का भी ब्यौरा देना होगा।
दिल्ली
हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस एपी शाह और जस्टिस एस.मुरलीधर और विक्रमजीत सेन की
बेंच ने कहा उच्च न्यायपालिका जनता के लिए उतनी ही अधिक जिम्मेदार होती है।
सुनवाई
के दौरान सुप्रीम कोर्ट रजिस्ट्री की ओर से पेश अटॉर्नी जनरल ने दलील दी
थी कि जजों ने संपत्ति का ब्यौरा सार्वजनिक करने का जो प्रस्ताव दिया था
वह सबसे लिए जरूरी नहीं है। ऐसे में जजों को कानूनी तौर पर बाध्य नहीं
किया जा सकता। दलील यह भी दी गई कि जजों को पब्लिक स्क्रूटनी के अंदर नहीं
लाया जा सकता और यदि ऐसा किया जाता है तो इससे न्यायिक व्यवस्था की
स्वतंत्रता और कामकाज में दखलअंदाजी बढ़ जाएगी।
गौरतलब है कि पिछले
साल दिल्ली हाईकोर्ट की सिंगल बेंच ने अपने फैसले में कहा था कि देश के
मुख्य न्यायाधीश सहित सभी जज सूचना का अधिकार काननू (आरटीआई) के दायरे में
आते हैं और कानून के तहत जजों की संपत्ति का ब्योरा उजागर किया जा सकता
है। कोर्ट ने केंद्रीय सूचना आयोग (सीआईसी) के उस आदेश को सही ठहराया था,
जिसमें सुप्रीम कोर्ट से यह जानकारी देने को कहा गया था कि जज, सीजेआई को
संपत्ति का ब्योरा दे रहे हैं या नहीं।
सूचना के अधिकार के
क्षेत्र में लंबे समय से काम कर रहे याचिकाकर्ता सुभाष अग्रवाल ने सुप्रीम
कोर्ट रजिस्ट्री से पूछा था कि कितने जजों ने सीजेआई को संपत्ति का ब्योरा
दिया है, लेकिन सीजेआई दफ्तर ने यह कहते हुए जानकारी देने से इनकार कर
दिया था कि सीजेआई संवैधानिक पद है और आरटीआई एक्ट के दायरे में नहीं आता
है। इस पर आवदेक ने केंद्रीय सूचना आयोग की शरण ली थी और आयोग व सुप्रीम
कोर्ट में टकराव की स्थिति के बाद मामला दिल्ली हाईकोर्ट में आया था।