अस्पतालों पर कितना विश्वास है। थोड़ा बहुत खर्च करने की हैसियत रखने वाला
पीड़ित भी अस्पताल में दाखिल होने को राजी नहीं। ऐसा डेंगू सीजन में भी
हुआ था। तब फ्री इलाज व टेस्ट का ऐलान भी मरीजों को सरकारी अस्पताल तक
नहीं खींच पाया था।
अब स्वाइन फ्लू फैलने पर सरकार मरीजों को आकर्षित करने के लिए सिविल
अस्पताल में संदिग्ध मरीजों के लिए चौबीस घंटे ओपीडी की लांचिग के बाद
अन्य जिलों से वेंटिलेटर मंगाने की कवायद में जुटी हुई है। असल में जिले
की सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था किसी भी महामारी या दुर्घटना से निपटने में
पूरी तरह सक्षम नहीं है। मजबूरी में मरीजों को निजी अस्पतालों का रुख करना
पड़ता है।
स्वास्थ्य सेवाओं के नेटवर्क पर नजर दौड़ाएं, तो जिले में 130 बिस्तर
वाला डिस्ट्रिक्ट अस्पताल, समराला, खन्ना, जगराओं व रायकोट में पचास—पचास
बिस्तर वाला सब डिवीजनल अस्पताल, साहनेवाल, सुधार, पायल, पक्खोवाल,
मान्नुपुर, सिधवां बेट, माछीवाड़ा, मलौद में तीस तीस बिस्तर वाला
कम्यूनिटी हेल्थ सेंटर, कटानी कलां, ईसडू, कालख, मंसूरां, 25-25 बिस्तर
वाले दो ब्लाक पीएचसी, 4-4 बिस्तर वाले 27 प्राइमरी हेल्थ सेंटर व 258 सब
सेंटर हैं।
21 स्वास्थ्य केद्र बिना जनरेटर
हाल ही मंे स्वास्थ्य विभाग की ओर तैयार सर्वे रिपोर्ट स्थिति को बयां
करने के लिए काफी है। रिपोर्ट के मुताबिक जिले में 40 सब सेंटर बिना बिजली
या पानी कनेक्शन के चल रहे हैं। डाक्टरों के शहरी मोह से ग्रामीण
अस्पतालों मंे कई पद खाली पड़े हैं। 21 प्राइमरी हेल्थ सेंटरों मंे जनरेटर
तक की व्यवस्था नहीं है। भरी गर्मी या रात के अंधेरे में बिजली गुल हो
जाने पर मरीज के पास सरकार को कोसने के अलावा कोई रास्ता नहीं बच जाता।
मरीज को रहता डाक्टर का इंतजार
ग्रामीण स्वास्थ्य केंद्रों से ज्यादातर गंभीर मरीज डिस्ट्रिक्ट
अस्पताल रेफर कर दिए जाते हैं लेकिन यहां भी कौन सा ‘फाइव स्टार’ व्यवस्था
है। शहर की आबादी के लिहाज से अस्पताल की बेड क्षमता बढ़ाने की मांग लंबे
समय से लंबित है। बड़ी घटनाओं के वक्त एक एक बेड पर दो मरीजों को लेटना
पड़ता है। कई मौकों पर तो मरीजों को एडजस्ट करने के लिए टेंट हाउस में बेड
मंगाने पड़े।
यहां ओपीडी में हर महीने 9 हजार मरीज चेकअप को आते हैं लेकिन मरीजों के
हिसाब से डाक्टरों के पद नहीं हैं। यहां स्पेशलिस्ट के 26 व एमरजेंसी
मेडिकल अफसरों के छह पद हैं। इन डाक्टरों को पोस्टमार्टम, वीआईपी डच्यूटी
में भी लगाना पड़ जाता है, जिससे मरीज डाक्टर का इंतजार करता रह जाता है।
कई बार वह थक हार कर अस्पताल के आसपास खुले प्राइवेट क्लीनिकों में चला
जाता है। यही नहीं कलर डॉपलर समेत अन्य टेस्टों के लिए मरीज को प्राइवेट
लैब मंे रेफर किया जाता है।
स्वाइन फ्लू से निपटने के लिए ‘भगवान का सहारा’
कहते हैं, जब कोई रास्ता न बचे, तो भगवान यकीनन सहारा बनता है। बेकाबू
हो रहे स्वाइन फ्लूसे निपटने के लिए स्वास्थ्य विभाग का कोई फामरूला काम
न आने पर अब विभाग भगवान की शरण में चला गया है। जिला स्वास्थ्य विभाग ने
शहर के धार्मिक स्थलों के माध्यम से ज्यादा से ज्यादा लोगों तक स्वाइन
फ्लू बचाव का संदेश पहुंचाने का फामरूला बनाया है। इसके तहत प्रमुख
धार्मिक स्थलों के आसपास विशेष तौर पर बैनर बनवाकर लगवाए जा रहे हैं।
दरअसल स्वाइन फ्लू पर डेंगू की तरह कोई स्प्रे तो काम नहीं करता। ऐसे में
विभाग भी परेशान है कि आखिरकार इस बीमारी को काबू में करे कैसे? स्वाइन
फ्लू में ले देकर विभाग के पास सिर्फ यही फामरूला बचता है कि लोगों को
एहतियाती उपायों के बारे में जानकारी दी जाए, ताकि संक्रमण आगे नहीं बढ़
सके। दिक्कत यह है कि एकदम से ज्यादा से ज्यादा लोगों तक जानकारी पहुंचाई
कैसे जाए। बहरहाल, विभाग ऐसे फामरूले ढूंढ रहा है, जिससे उसका संदेश
ज्यादा लोगों तक पहुंच जाए।
इसके तहत पहले चरण में विभाग सांग एंड ड्रामा डिवीजन के माध्यम से अभियान
शुरू कर चुका है। जिसमें गायक व कलाकार नाटक व गीतों से लोगों को जानकारी
देते हैं। अब विभाग ने धार्मिक स्थलों में पहुंचने वाले भक्तों को भी
जागरूक करना शुरू कर दिया है। बुधवार का विभाग की एक टीम ने माडल टाउन,
पुरानी सब्जी मंडी व बीआरएस नगर स्थित गुरुद्वारा साहिब, कृष्णा मंदिर
माडल, श्री दुर्गा माता मंदिर जगराओं पुल, श्री नवदुर्गा मंदिर सराभा नगर,
श्री दुर्गा माता मंदिर बीआरएस नगर, हैबोवाल स्थित राम शरणम समेत अन्य
धार्मिक स्थलों के आसपास अवेयरनेस बैनर लगाए गए।
धार्मिक स्थलों के आसपास हैंड बिल्स भी बांटे गए। जिला मास मीडिया अफसर
सतीश सचदेवा के मुताबिक जितने अधिक लोगों की नजर बैनरों पर पड़ेगी, उतना
ही अधिक फायदा होगा। धार्मिक स्थलों में रोजाना काफी संख्या में भक्त आते
हैं। ऐसे में यहां पर संदेश एक बड़े वर्ग तक पहुंच सकता है। उन्होंने कहा
कि स्कूलों कालेजों मंे भी बच्चों को जानकारी दी जा रही है।