ये बेहाल सूरतें लेकिन गहरी नींद में है समाज

छपरा [कृष्णकांत]। ‘खिलौना जान कर तुम तो मेरा दिल तोड़ जाते हो..।’
बहुत दुश्मन दौर के गहरे धंसी टीस का बेतरतीब बयान है यह गीत- फिल्म
‘खिलौना’ का। गाना मशहूर अभिनेता स्व. संजीव कुमार पर फिल्माया गया था-जो
अब रीयल लाइफ में भी कई ऐसे लोगों पर घट रहा है, जिनकी रातें बेचैनियों
में कटीं। वे सुखिया नहीं है कि खाते और सोते। दुखिया है इसलिए कि जाग
गये, जान गये। अब रो-रो कर असहज और दुनिया की नजर में पागल हो चुके है।
बाकी लोग [और समाज] तो इत्मीनान की गहरी नींद ले ही रहे है।

खिलौना जानकर..। इस गीत का संक्रमण आप छपरा कस्बे की सर्द रातों में
कहीं न कहीं जरूर देख लेंगे। किरदार अलग-अलग है। पसलियों में चुभती और देह
गलाती पूस की रात में सोमवार को, खुद को जाने क्या-क्या मान बैठे और
दुनिया को करेक्ट करने, उसको सही राह लाने की अकेली, असहाय, लेकिन बहुत
तड़पती मुहिम में लगे कई धुआं तो आग चेहरे भी। छपरा की सड़कों पर। कुछ धुंध
में धब्बे की तरह, कुछ टायर या गत्तों-कचरों की लपट में बहुत सुर्ख। कुछ
कुक्कुरों के दोस्ताना। कुछ आसमान से शिकायत करते। कुछ हवाओं को छेड़ते।
कुछ सोच और चिन्तन के भारी बोझ तले लड़खड़ाते और कुछ बहुत हताश।

मानसिक रूप से विक्षिप्त कहे जाने वाले कुछ ऐसे भी जो जीवन के सभी
चिकित्सकीय लक्षणों के बाद भी धीरे-धीरे मरते दिख रहे है। कुछ कचरों की
ढेर में पड़ी रोटियों से अपनी भूख मिटाते और कुत्तों से बहस में लगे चेहरे
भी। रात के 11 बजे हैं। नगरपालिका चौक के पास ही सड़क बीच एक युवक खड़ा है।
हाथ उठाकर वह जाने किस दुनिया की बातें कर रहा है। पास का ही कोई आदमी
डंडा मारकर उसे सड़क से भगा देता है ताकि तेज रफ्तार ट्रकें उसे कुचल न
दें।

कंपा देनी वाली ठंड में डंडे की चोट के बावजूद उसकी आंखों से आंसू
नहीं टपकते। वह दर्द की हर हद लांघ गया है। या उसे नहीं मालूम कि अब दर्द
कहां है। कहते है सूखी आंखें भीतर बहुत रोती है। शायद वह रोया भी हो लेकिन
कराह नहीं निकली। चुपचाप बुदबुदाते हुए बढ़ता चला जा रहा है।

रोकने पर वह कहता है-‘आई एम द डीएम आफ दिस डिस्ट्रिक्ट।’ स्थानीय
लोगों की माने तो वह अपना घर शिवहर बताता है। कभी-कभी वह अंग्रेजी भी
बोलता है। इससे अधिक उसके बारे में कोई नहीं जानता। वह बिना रूके सीधे
कचहरी स्टेशन की ओर बढ़ता चला जाता है।

अब रात के करीब 12 बज चुके हैं। छपरा जंक्शन के पास स्थित मंदिर के
बाहर गुमसुम बैठा एक व्यक्ति। न बोल रहा है और न ही किसी की बात सुन रहा
है। किसी ने कुछ दे दिया तो वह खा लेता है। इसे लोग पगला कहते हैं। स्टेशन
परिसर में दाखिल होते ही एक अन्य युवक दिखता है। हाथ में डंडा लिए बहुत
तेजी से इधर-उधर भाग-दौड़ कर रहा है। वह खुद को सीबीआईइंस्पेक्टर बताता
है।

यह इंस्पेक्टर जब ज्यादा उछल-कूद करने लगता है तब चाय बेचने वाला उसे
तीन-चार थप्पड़ रसीद कर देता है। इसके बाद वह शांत हो जाता है। शहर के
गांधी चौक पर भी एक आदमी दिखता है जो उपर से नीचे तक कचरे का गोदाम बना
हुआ है। वह केवल बुदबुदा रहा है। बार-बार पूछने के बाद भी वह कुछ नहीं
बोलता।

कुछ ही देर छपरा की सड़कों पर चलते हुए ऐसे सात-आठ मिल जाते है,
जिन्हें समाज पागल कहता है। कोई उनपर तरस खाता है तो कोई उनकी पिटाई कर
उन्हें दूर भगा देता है।

ऐसे कितने रोगी है? इस प्रश्न पर बिहार राज्य मानसिक स्वास्थ्य एवं
संबद्ध संस्थान, कोईलवर के मेडिकल अधीक्षक डा. अशोक प्रसाद सिंह कहते है
कि अपने प्रदेश में इसका कोई रिकार्ड नहीं है। उनका कहना है कि अन्य
प्रदेशों में ऐसे रोगियों के रिकार्ड रखने की व्यवस्था है।

ऐसे रोगी कहां जाएं? इस प्रश्न पर बिहार राज्य मानसिक स्वास्थ्य एवं
सम्बद्ध संस्थान के निदेशक डा. उपेन्द्र पासवान कहते है कि हमारे पास ऐसे
रोगियों को रखने की कोई व्यवस्था नहीं। मुश्किल से ओपीडी चल रहा है। ऐसे
रोगियों को रखने के पूर्व नैदानिक चिकित्सक मनोवैज्ञानिक, प्रशिक्षित नर्स
व कम्पाउंडर का होना अति आवश्यक है। दुर्भाग्यवश ये हमारे पास नहीं है।

बुधवार की सुबह कचहरी स्टेशन के पास एक युवक से मुलाकात होती है।
मुफ्फसिल थानाक्षेत्र के फकुली गांव का रहने वाला उसका मामा प्रभु साह 19
दिसम्बर की सुबह से लापता है। करीब एक साल पूर्व वह मानसिक रूप से बीमार
हो गया था। अचानक वह उग्र हो जाता है और आसपास के लोगों से उलझ जाता है।

स्थानीय चिकित्सक से दिखाए जाने के बाद उसकी दवा चल रही थी। वह ठीक भी
हो गया। दवा महंगी होने के कारण उसका कोर्स पूरा नहीं कर सका। जिसके कारण
फिर वह बीमार हो गया और घर से निकल गया। उसके परिजन दर-दर की ठोकरे खा रहे
है। विशेषज्ञों की माने तो यह बीमारी मेडिकल से ज्यादा इमोशनल प्राबलेम
है। जिसके उपचार के लिए विशेष वातावरण व साइकोथेरेपी की आवश्यकता पड़ती है।
ट्रीटमेंट हो ओर माहौल मिले तो ऐसे रोगी सामाजिक मुख्यधारा में लौट सकते
है।

रामकृष्ण मिशन से जुड़े ब्रह्मचारी दिनेश जी महाराज कहते है कि मन की विकृति का यह परिणाम है जिसका निदान ध्यान से सम्भव है।

तमिलनाडू के एरोवदी स्थित मानसिक आरोग्यशाला में जंजीर से बंधे मानसिक
रोगियों की जलने से हुई मौत की घटना के बाद सुप्रीम कोर्ट ने कड़े आदेश
जारी किए थे। वह आदेश भी यहां बेमानी साबित हो रहा है। इनका इलाज कराना
सरकार का दायित्व है। ऐसा न होना मानवाधिकार उल्लंघन के दायरे में आता है।
मानसिक स्वास्थ्य अधीनियम 1987 के तहत सड़क पर भटक रहे ऐसे रोगियों को
कानूनी प्रक्रिया के तहत मानसिक अस्पताल में भर्ती कराने का प्रावधान है।

दरअसल, सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद आनन-फाननमेंकोइलवर स्थित टीबी
सेनोटोरियम को बिहार राज्य मानसिक स्वास्थ्य सह संबद्ध विज्ञान केंद्र का
दर्जा दे दिया गया, लेकिन जानकार कहते हैं कि यहां अभी तक मरीजों के रखने
व उपचार की व्यवस्था नहीं है। यहां के निदेशक से लेकर मनोचिकित्सक तक सभी
प्रतिनियुक्ति पर काम कर रहे है। इस प्रकार प्रतिनियुक्तियों की वैशाखी पर
इस संस्थान को खड़ा दिखा राज्य सरकार के नौकरशाह सुप्रीम कोर्ट के प्रकोप
से खुद को बचाने का प्रयास कर रहे है। ऐसे में ये रोगी या तो खुद
मारे-मारे फिरते हैं या फिर दूसरे को मारते हैं। परिवार द्वारा उन्हें
त्यागे जाने पर सदस्यों को तीन माह की सजा का प्रावधान है।

एक्ट कहता है कि यदि सड़क पर कोई मानसिक रोगी दिखे तो उसे स्थानीय
पुलिस या मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश करें। फिर, उसकी अनुमति से उसे राज्य के
मेंटल हास्पिटल में भर्ती कराएं। उसके उपचार व देखभाल की जिम्मेदारी सरकार
व समाज की है। सरकार की व्यवस्था सामने है और समाज गहरी नींद में सोया हुआ
है।

‘लावारिस मानसिक विकलांगों को प्रशासन उचित स्थान पर भेजने की
व्यवस्था करेगा। वैसे छपरा में ऐसे रोगियों के रखने की व्यवस्था अब तक
नहीं है।’

लोकेश कुमार सिंह [सारण के जिलाधिकारी]

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *