नई दिल्ली [प्रणय उपाध्याय]। तारने वाली गंगा के पानी के मारक होने पर
बहस हो सकती है मगर एक बात तय है कि अब गंगाजल आचमन तो छोड़िए नहाने लायक
भी नहीं है। भागीरथी के दामन से प्रदूषण के दाग धोने पर अरबों रुपया बहाने
के बावजूद सरकार के तथ्य बताते हैं कि कि गंगोत्री से लेकर डायमंड हार्बर
के बीच अधिकतर स्थानों पर गंगा जल से दूर ही रहने में भलाई है।
केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के ताजा आंकड़े बताते हैं कि पुण्य
नगरी बनारस के अस्सीघाट पर बीते दो सालों में प्रदूषण का पैमाना कहलाने
वाले बीओडी का स्तर कभी भी 3 मिग्रा प्रति लीटर की नियत सीमा तक कम नहीं
रहा। इतना ही नहीं तीर्थ नगरी बनारस हो या संगम स्थली इलाहाबाद बीते एक
कुंभ काल यानी बारह बरस में पानी का स्तर साफ ‘डी’ श्रेणी से ऊपर नहीं उठ
पाया। यहां बता दें कि केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा पानी के
वर्गीकरण के तहत ‘डी’ श्रेणी का पानी केवल जानवरों के लिए ही मुफीद है।
गंगा एक्शन प्लान के नाम पर 800 करोड़ रुपये बहाने के बावजूद गंगा को
प्रदूषण मुक्त करने में नाकाम रही सरकार ने संसद में भी स्वीकार किया है
कि अधिकांश स्थानों पर पानी में मौजूद कोलीफार्म का स्तर निर्धारित सीमा
से काफी ज्यादा दर्ज किया जा रहा है। बताते चलें कि कोलीफार्म की
निर्धारित सीमा प्रति 100 मिली पानी में 2500 एमपीएन [सर्वाधिक संभावित
संख्या] है। पर्यावरण मंत्रालय के आंकड़े बताते हैं कि ऋषिकेश से लेकर
प.बंगाल के उलबेरिया के बीच सोलह में से सात स्थानों पर गंगा का पानी
नहाने योग्य नहीं है। इस बारे में बीते दिनों संसद में पूछे गए एक सवाल के
जवाब में पर्यावरण मंत्रालय का कहना है कि पानी में कोलीफार्म का स्तर नदी
में स्नान के कारण बढ़ रहा है। हरिद्वार ही एक मात्र ऐसा स्थान है जहां
इसकी मात्रा निर्धारित सीमा में है। इस संबंध में आईआईटी, कानपुर, बीएचईएल
और पटना विश्वविद्यालय के अध्ययन बताते हैं कि घुलित आक्सीजन और बीओडी के
स्तर में सुधार जरूर हुआ है लेकिन कन्नौज से लेकर वाराणसी के बीच स्थिति
लगातार खराब बनी हुई है।
सरकारी दस्तावेज कहते हैं कि हर रोज 1007 मिलियन लीटर की सीवेज
ट्रीटमेंट क्षमता स्थापित करने के बावजूद गंगा को साफ करने की कोशिशें
नाकाम हो रही हैं। इतना ही नहीं बिजली उपलब्धता की खस्ता हालत के चलते
मौजूदा सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट भी ठीक से नहीं चल पा रहे हैं। गौरतलब है
कि बीते दिनों सरकार ने गंगा एक्शन प्लान की नाकामी को मानते हुए एक नई
व्यवस्था बनाई है। इसके तहत गंगा की स्थिति सुधारने का बीड़ा अब
प्रधानमंत्री की अगुवाई में बने राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण ने
उठाया है। हालांकि इस मोर्चे पर कोशिशें फिलहाल बैठकों तक सीमित हैं।
नदियों को मैला करने पर किसे हुई जेल?
नई दिल्ली। मैली होती गंगा और प्रदूषण की मार से खस्ताहाल यमुना का
कोई भी अपराधी आज तक सलाखों केपीछे नहीं पहुंच पाया है। चौंकिए मत, कानून
कहता है कि नदियों, झीलों व नहरों को गंदा करने वाला 18 महीने से लेकर छह
साल तक की कैद भुगतेगा। इस कानून को बने 25 वर्ष हो चुके हैं। नदियों की
हालत बद से बदतर होती गई लेकिन पानी को प्रदूषित करने वाले अभी तक केवल
जुर्माना भरकर छूटते आ रहे हैं।
जरा नजर डालिए नदियों की सेहत सुनिश्चित करने वाले कानूनों पर जिनमें
पर्यावरण संरक्षण कानून व जल [प्रदूषण नियंत्रण एवं रोकथाम] कानून 1974
प्रमुख है। इन कानूनों में नदियों की सेहत बिगाड़ने वालों पर कड़े दंड का
प्रावधान है। जल [प्रदूषण नियंत्रण एवं रोकथाम] कानून की धारा 41 में जल
प्रदूषित करने वालों को कम से कम 18 महीने और अधिक से अधिक छह साल की कैद
का प्रावधान है साथ ही जुर्माना भी। कानून बने 25 साल हो गए हैं परंतु आज
तक किसी को भी देश की प्रमुख नदियों को इस हालत पर पहुंचाने के लिए जेल
नहीं हुई।
केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अध्यक्ष एससी गौतम कहते हैं कि
उन्हें नहीं याद पड़ता कि किसी को कभी जेल की सजा हुई। हां, जुर्माना तो
बहुत बार हुआ है। उनका कहना है कि सबसे बड़ी खामी मुकदमों का वर्षों
अदालतों में लंबित रहना है। गौतम के अनुसार अदालत का फैसला अगर छह महीने
या साल भर में आ जाए तो शायद नदियों की इतनी दुर्दशा न हो। नगर निकायों की
भी जिम्मेदारी तय होनी चाहिए क्योंकि नदियों में प्रदूषण का सत्तर फीसदी
हिस्सा घरेलू सीवर का होता है। औद्योगिक इकाइयों से तो महज बीस तीस फीसदी
ही प्रदूषण होता है। उनका कहना है कि बोर्ड मेरिट पर कभी केस नहीं हारता
लेकिन तकनीकी कारण आड़े आ जाते हैं जैसे कि सरकारी अधिकारी के खिलाफ मुकदमा
चलाने के लिए सरकार से अनुमति लेनी पड़ती है और कई बार अनुमति नहीं मिलती।