हरिद्वार। साधु-संत सामान्य तौर पर किसी बात पर एकमत कम ही होते हैं, लेकिन जब बात गंगा को प्रदूषण मुक्त करने की आई तो उन्होंने सनातन परंपरा को छोड़कर गंगा को प्रदूषण मुक्त बनाने में अपना विशेष योगदान दिया। संत एक राय हुए कि वह जल और भू-समाधि शासन की ओर से मुहैया की गई जमीन पर करेंगे, लेकिन लंबे समय बाद भी जिन दो स्थानों पर समाधि की सहमति बनी थी, उसके लिए शासन से अभी तक हरी झंडी नहीं मिल सकी है। अखाड़ा परिषद शासन के इस रवैये से खासा नाराज है।
संतों में जल और भू-समाधि की परंपरा सदियों से चली आ रही है। इसी बीच साधु और संतों के बीच सोच में एक बड़ा परिवर्तन आया। यह परिवर्तन गंगा को लेकर हुआ। साधु और संतों द्वारा जल समाधि जो गंगा में सामान्य तौर पर दी जाती है, को गंगा की मुख्य धारा से अलग करने की बात सोची गई। काफी जद्दोजहद के बाद साधु और संतों में एक राय बन सकी कि गंगा से इतर जल समाधि दी जाए। जिला और शासन की ओर से भी इसके लिए पहले से प्रयास किए जाते रहे। आखिरकार जल समाधि के लिए कुरुक्षेत्र की तर्ज पर 15 एकड़ में ऐसा कुंड बनाने का प्रस्ताव संतों की ओर से दिया गया, जिसके ऊपर से गंगा की धारा निकलती हो। जिला प्रशासन इस पर सहमत हुआ। साथ ही इसी समय यह भी सहमति बनी कि भू-समाधि जो संतों को दी जाती है, के लिए नियत और अलग जगह तलाश की जाए। इसके लिए 12 एकड़ जमीन वीआईपी घाट के समीप चयनित की गई। संत और प्रशासन दोनों के बीच भू और जल समाधि को लेकर सहमति बनी। तब कहा गया था कि महाकुंभ से पहले इन व्यवस्थाओं को लागू कर दिया जाएगा, लेकिन अभी तक ऐसा नहीं हो सका है। लिहाजा गंगा को प्रदूषण मुक्त बनाने की योजना को एक और बड़ा झटका लगा है। अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद के राष्ट्रीय महामंत्री महंत हरिगिरी महाराज ने कड़ी नाराजगी जताते हुए ‘दैनिक जागरण’ को बताया कि शासन और प्रशासन के इन्हीं कारणों से टकराव की स्थिति पैदा होती है। सब कुछ तय होने के बाद इसे लागू ही करना था, लेकिन अभी तक यह नहीं हो सका। इससे तो यही लगता है कि गंगा को प्रदूषण मुक्त बनाने में शासन केवल दिखावा करता है। उन्होंने बताया कि दस नवंबर को अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद की बैठक होने जा रही है। इसमें कई मसलों पर गंभीरता से प्रस्ताव पारित किया जाएगा।