कितनी जायज मदद की मांग

देश की दवा कंपनियों के एक बड़े हिस्से का प्रतिनिधित्व करने वाली संस्था इंडियन फार्मास्युटिकल्स एलायंस ने असामान्य कदम के तहत सरकार से उद्योग को सहायता देने की मांग की है।

उद्योग इस समय भारतीय कंपनियों के विदेशी अधिग्रहण से जूझ रहा है। इनमें से कोई भी अधिग्रहण जबरन नहीं है। तो ऐसे में सरकार कहां से आती है, खासकर तब जबकि सुरक्षा कोई मुद्दा नहीं है? यह भी साफ है कि इनमें से कुछ सौदे बेहद आकर्षक कीमतों पर किए गए हैं।

जापानी कंपनी दाइची सांक्यो द्वारा रैनबैक्सी का अधिग्रहण ऐसा ही एक उदाहरण है। इस तरह उद्योग बेहतर प्रदर्शन कर रहा है और प्रबंधन अच्छी कीमत पर बाहर निकलने में सक्षम है। अगर उद्योग संकट में होता और इस कारण सरकारी मदद की मांग की जाती तो मामला दूसरा ही होता।

दुनिया की बड़ी दवा कंपनियां अगर प्रमुख भारतीय जेनेरिक कंपनियों में हिस्सेदारी खरीदाना चाहती हैं तो यह भारतीय दवा उद्योग के सफल सफर की पुष्टि करता है, जिसकी शुरुआत इंदिरा गांधी के उस फैसले से हुई थी जिसके तहत दवा की लागत को नियंत्रित करने और उत्पाद पेटेंट की अनुमति नहीं देकर की गई थी।

ऐसे नीतिगत माहौल और रसायन के क्षेत्र में महारथ के कारण भारत जेनेरिक दवाओं के क्षेत्र में एक प्रमुख वैश्विक खिलाड़ी बनकर उभर सका। हाल के वर्षों में वैश्विक कंपनियों को जेनेरिक कंपनियों के अधिग्रहण की जरूरत महसूस हुई और वे खरीदारी के लिए भारत आने लगीं।

दूसरी ओर प्रमुख भारतीय कंपनियों ने मौलिक दवा खोज के महत्त्व को समझा और रैनबैक्सी और डा. रेड्डीज जैसी फर्मों ने 90 के दशक की शुरुआत से इस पर ध्यान केंद्रित किया। बीते वर्षों के दौरान सभी प्रमुख भारतीय कंपनियों ने अधिग्रहण की जरूरत को महसूस किया और वे दुनिया भर में खरीदारी के लिए निकल पड़ीं। आर्थिक तेजी के दौरान यह रुझान चरम पर था।

हालांकि इसके बाद वैश्विक मंदी और वित्तीय संकट के कारण नकदी का संकट पैदा हो गया। इस कारण परिसंपत्तियां बेचनी पड़ीं। वॉकहार्ट का मामला ऐसा ही है। ऐसे में सवाल यह है कि सरकार किसी उद्योग का अत्यधिक महत्त्वाकांक्षा से कैसे बचा सकती है? इतना ही नहीं, भारतीय अधिग्रहण पहल अभी भी आक्रामक है। ऐसे में भारत सरकार मुश्किल से ही कह सकती है कि हम अधिग्रहण पसंद नहीं करते हैं।

भारतीय दवा उद्योग को बेहतर करने की जरूरत है। उसे अधिक मार्जिन अर्जित करना होगा, ताकि नई दवाओं की खोज के लिए शोध में अधिक निवेश किया जा सके। पश्चिमी कंपनियां आम तौर पर ऊंची कीमतों पर दवाएं बेचकर ऐसा करती हैं। लेकिन भारतीय कंपनियों को अत्यधिक प्रतिस्पर्धी जेनेरिक बाजार में उच्च गुणवत्ता और कम कीमत के साथ मुकाबला करना पड़ता है।

ऐसे में यह मुर्गी और अंडे वाली दुविधा है। अगर आपके पास अत्यधिक लोकप्रिय दवा नहीं होगी तो आप आरऐंडडी पर निवेश नहीं कर सकेंगे और आरऐंडडी के बगैर ऐसी दवा मिलेगी नहीं। मात्रा को बढ़ाकर अधिक कीमत हासिल की जा सकती है।

सरकार स्वास्थ्य देखभाल पर खर्च में बढ़ोतरी कर इसमें मदद कर सकतीहै। सरकार घटिया गुणवत्ता वाली दवाएं खत्म करा सकती है और उसे ऐसा करना भी चाहिए। ऐसे में बेहतर गुणवत्ता वाले बड़े उत्पादों की बिक्री में बढ़ोतरी होगी और शोध के लिए पर्याप्त संसाधन होंगे।

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