वर्ष 1992 में रियो पृथ्वी सम्मेलन के साथ ही जलवायु परिवर्तन पर चर्चा के दौरान ग्रीनहाउस गैसों के प्रति व्यक्ति उत्सर्जन को सूचकांक के तौर पर आम स्वीकृति मिल गई थी।
चूंकि अमेरिका में प्रति व्यक्ति उत्सर्जन भारत के मुकाबले 10 गुना अधिक है, इसलिए जब सुधारात्मक कार्रवाई की बात आती है तो उसकी जवाबदेही भारत से अधिक है। यह तथ्य 1997 में क्योटो समझौते का आधार बना, जिसके तहत बड़े प्रदूषणकर्ताओं (धनी देशों) ने अपने उत्सर्जन स्तर को घटाने की प्रतिबद्धता जाहिर की।
हालांकि, अमेरिका ने कभी भी समझौते का अनुमोदन नहीं किया। ताजा प्रयासों के तहत धनी देश भारत और चीन पर दबाव बना रहे हैं कि वे अपने उत्सर्जन को सीमित करना स्वीकार कर लें। कुछ पश्चिमी विश्लेषकों की दलील है कि प्रति व्यक्ति उत्सर्जन का मानदंड दोषपूर्ण है क्योंकि शेष दुनिया उस जनसंख्या वृद्धि के लिए जिम्मेदार नहीं है, जो भारत और चीन में पिछले करीब 60 वर्षों के दौरान हुई है।
यह दलील पश्चिमी देशों की उस हताशा को दर्शाती है, जो उनके द्वारा क्योटो प्रतिबद्धताओं को पूरा नहीं कर पाने के कारण उपजी है और अब वे उत्सर्जन नियंत्रण के लिए नए आधार पर काम कर रहे हैं। एक अध्ययन के मुताबिक दुनिया की 7 प्रतिशत आबादी के साथ धनी देशों की 1950 के बाद से वैश्विक उत्जर्सन में 29 प्रतिशत हिस्सेदारी रही है।
इसके विपरीत गरीब देश, जिनकी वैश्विक आबादी में 52 प्रतिशत हिस्सेदारी है, वे उत्सर्जन में केवल 13 प्रतिशत बढ़ोतरी के लिए उत्तरदायी हैं। ऐसे में समस्या जनसंख्या वृद्धि से नहीं बल्कि उपभोग में बढ़ोतरी से जुड़ी है और उपभोग सबसे ज्यादा धनी देशों में बढ़ा है।
उक्त दलील में एक दोष और भी है। वह यह कि जनसंख्या वृद्धि विकास की अवस्था से जुड़ी हुई है, और प्रत्येक देश एक जनसांख्यिकीय बदलाव से होकर गुजरता है, जो आय और स्वास्थ्य के स्तर में सुधार से जुड़ा हुआ है। ऐसे में पहले मृत्यु दर में कमी आती है और उसके बाद ही जन्म दर में।
दि इकॉनमिस्ट के ताजा अंक में दक्षिण कोरिया और ईरान जैसे देशों का उल्लेख किया गया है, जिन्हें जन्म दर में नाटकीय रूप से कमी दर्ज करने में कामयाबी हासिल की। सच्चाई यह है कि दक्षिण कोरिया ने 20 साल में उसी जनसांख्यिकी बदलाव को हासिल किया, जिसे पाने में ब्रिटेन को 130 से अधिक साल लग गए थे।
जहां तक भारत की बात है तो आजादी के बाद से यहां जन्म दर में करीब 60 प्रतिशत की कमी आई है और फिलहाल यह वैश्विक औसत से थोड़ा ही अधिक है, यद्यपि भारत की प्रति व्यक्ति आय वैश्विक औसत के मुकाबले काफी कम है। दूसरे शब्दों में कहें तो भारत और चीन को उनकी जनसंख्या वृद्धि के लिए दोष देना सही नहीं है।
अगर हम 1950 की जगह तटस्थ प्रारंभ तिथि को संदर्भ बिंदु के तौर पर लें, जबकि किसी भी देश ने जनसांख्यिकी बदलाव के लक्ष्य को हासिल नहीं किया था। यह करीब 1798 में हुआ था, जबकि रॉबर्ट थॉमस माल्थस ने जनसंख्या वृद्धि केखिलाफ चेतावनी देते हुए अपनी किताब लिखी थी।
उस समय दुनिया की कुल आबादी एक अरब से कम थी और भारत की आबादी 25.5 करोड़ या कुल आबाद का करीब 26 प्रतिशत के करीब थी। बाद में पाकिस्तान के विभाजन के बाद यह हिस्सेदारी घटकर 13.5 प्रतिशत रह गई। अब यह करीब 17 प्रतिशत है। अपने चरम पर यह हिस्सेदारी करीब 20 प्रतिशत होगी।
पाकिस्तान और बांग्लादेश को जोड़ लेने पर भी उपमहाद्वीप की कुल आबादी 1798 के 26 प्रतिशत से अधिक नहीं होगी। दूसरे शब्दों में कहें तो प्रति व्यक्ति उत्सर्जन के मानदंड का इस्तेमाल ही सबसे सही है।
धनी देश हालांकि तर्क से बहरे होने और तथ्यों से अंधे होने का नाटक कर रहे हैं, लेकिन सच्चाई यह है कि दिसंबर में कोपेनहेगन जलवायु वार्ता के दौरान भारत को मनमोहन सिंह के इस वादे से आगे बढ़ने की जरूरत नहीं है कि भारत औसत वैश्विक प्रति व्यक्ति उत्सर्जन की सीमा को पार नहीं करेगा। जयराम रमेश, आप सुन रहे हैं क्या?