दो सिरदर्द का एक इलाज

चीन के साथ तनाव और माओवादियों द्वारा पेश की गई चुनौतियों ने पिछले कुछ हफ्तों से अखबारों की काफी सुर्खियां बटोरी हैं।

हालांकि इन दोनों मसलों का एक दूसरे से जुड़ाव नहीं दिखता, लेकिन ये दोनों तब एक साथ केंद्र में आ जाते हैं जब हम आर्थिक विकास व मानव विकास के मुख्य आंकड़ों पर नजर डालते हैं। पहले चीन की बात करते हैं।

वैश्विक आर्थिक प्रभाव, कूटनीतिक पहुंच, सैन्य शक्ति व दुनिया की कल्पना पर पकड़ के मामले में इसने व्यापक रणनीतिक लाभ हासिल किया है क्योंकि तीन दशक से इसने शानदार प्रदर्शन किया है। साल 1978 के बाद से इसकी अर्थव्यवस्था में 10 गुना की बढ़ोतरी हुई है जबकि इसका विदेश व्यापार सिर्फ पिछले दशक में ही 70 गुना बढ़ा है।

इसका निर्यात अब भारत के जीडीपी से भी ज्यादा है। तुलना की दृष्टि से देखें तो इस अवधि में भारत का जीडीपी छह गुना बढ़ा है। वर्तमान में चीन की प्रति व्यक्ति आय के स्तर पर पहुंचने में भारत को पूरा एक दशक लगेगा। तब तक चीन दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था अमेरिका को पीछे छोड़ चुका होगा। यह बात क्रय शक्ति समानता के आकलन के आधार पर कही जा रही है।

जब मामला मानव विकास के संकेतकों का आता है तो यह खाई और भी बड़ी नजर आती है। चीन का मानव विकास सूचकांक साल 2007 में 0.772 था जबकि भारत का 0.612। इस स्तर पर चीन 1990 में ही पहुंच गया था। सूचकांक की बाबत प्रगति की वर्तमान दर के हिसाब से चीन के वर्तमान सूचकांक तक पहुंचने में भारत को दो दशक लगेंगे।

आर्थिक विकास के मामले को देखें तो भारत ऊर्जा उत्पादन की  जितनी क्षमता एक साल में विकसित करता है, उतने समय में चीन 10 गुनी क्षमता विकसित कर लेता है। आप जिस भी संकेतक को देखें, भारत के मुकाबले चीन एक या दो दशक आगे है और तेजी से आगे बढ़ रहा है। स्वाभाविक रूप से वह अपने मांसपेशियां फड़काएगा ही।

यह इतिहास की बात है और आज यह दोनों देशों के बीच शक्ति की असमानता की व्याख्या करता है। भविष्य के बारे में क्या ख्याल है? इसके कुछ जवाब विश्व प्रतिस्पर्धा रिपोर्ट में मिल जाते हैं, जिसे इंटरनैशनल इंस्टीटयूट डेवलपमेंट ने जारी किया है। कुल 57 देशों में चीन का स्थान 20वां है जबकि भारत 30वें स्थान पर है। आखिर भारत की रैंकिंग इतनी नीचे क्यों है।

चार प्राथमिक चीजों में देश ने काफी अच्छी प्रगति की है – आर्थिक प्रदर्शन में 12वां और कारोबारी निपुणता में 11वां। लेकिन सरकारी निपुणता के मामले में इसका स्थान 35वां है और बुनियादी ढांचे के मामले में 57वां (यानी आखिरी)। इसके विस्तार और रैंकिंग को देखें तो यह और ज्यादा साफ हो जाता है – शिक्षा, स्वास्थ्य व पर्यावरण के मामले में आखिरी रैंक जबकि कारोबारी कानून के मामले में भारत का स्थान 42वां है।

दूसरे शब्दों में प्राथमिक चुनौतियां इन्हीं क्षेत्रों की हैं जहां सरकार द्वारा कदम उठाए जाने की दरकार है। यह वही जगह है जहां माओवादी आते हैं क्योंकि निश्चितरूप से यह सिर्फ प्रतिस्पर्धा का सवाल नहीं है। जब मानव विकास के प्राथमिक संकेतकों की बात आती है तब देश अगर निचले पायदान पर नजर आता है तो स्वाभाविक रूप से गरीब आदिवासी व दलित सशक्त नहीं होंगे और उन्हें इस विकास का फायदा नहीं मिलेगा।

इस नजरिये से बदलाव हानिकारक हो गए हैं क्योंकि यह पीछे से चलेगा। वास्तव में बदलाव कभी-कभी शोषक होते हैं। इसे दिमाग में रखते हुए दक्षिण एशियाई देशों में भारत की एचडीआई रैंकिंग (182 देशों में 134वीं) इसकी आय की रैंकिंग (128वीं) के मुकाबले खराब है। दूसरे शब्दों में महत्त्वपूर्ण यह है कि देश की अर्थव्यवस्था का विकास तेजी से हो रहा है, लेकिन यह पर्याप्त नहीं है।

अगर गुजरात जैसे राज्य 10 फीसदी जबकि झारखंड व छत्तीसगढ़ सिर्फ 4 फीसदी सालाना की दर से विकास कर रहे हैं तो फिर समस्याएं बढ़ेंगी ही। ऐसे में माओवादियों को हिंसा केबीज बोने के लिए और उर्वर जमीन मिल जाएगी।

ऐसी समस्याओं पर रकम खर्च करना पर्याप्त नहीं होगा क्योंकि लक्षित जनसंख्या तक यह सिर्फ 15 फीसदी ही पहुंच पाता है। आधारभूत चीजें मुहैया कराने के लिए सरकार को रास्ता तलाशना होगा। यही चीजें माओवादियों को पराजित कर सकेंगी और चीन को रोक पाएंगी।

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