सूचना के अधिकार अधिनियम की धार कुंद करने की कोशिश

रोजमर्रा के राजकाज में पारदर्शिता लाने की दिशा में एक बड़ा कदम समझा जाने वाला सूचना का अधिकार नियम गंभीर खतरे की जद में है। पिछले लोकसभा चुनावों के दौरान इस ऐतिहासिक अधिनियम को बार-बार अपनी उपलब्धि कहकर भुनाने वाली यूपीए सरकार अब सत्ता के गलियारों में ऊंची कुर्सियों पर काबिज लोगों के आगे झुकते हुए इस अधिनियम में बदलाव करने वाली है ताकि नागरिकों के हाथ मजबूत करने वाला यह अधिनियम मात्र नख-दंत विहीन कानूनी पुर्जा बनकर रह जाय।

नेशनल कंपेन फॉर पीपल्स राईट टू इंफॉरमेशन द्वारा जारी प्रेस विज्ञप्ति के अनुसार अगर सूचना के अधिकार अधिनियम में प्रस्तावित बदलावों को अगर मंजूरी मिल गई तो यह कानून एक मजाक बनकर रह जाएगा। आशंका जतायी जा रही है कि सरकार प्रस्तावित बदलावों के माध्यम से लोक सूचना अधिकारियों के हाथ मजबूत करना चाहती है ताकि वे मांगी गई सूचना को विद्वेषप्रेरित अथवा निरर्थक बताकर अपनी मर्जी के हिसाब से उसका खुलासा करने से इंकार कर सकें। अलावे इसके सरकार इस बार नौकरशाही में पैठे स्वार्थ प्रेति तत्वों के दबाव के आगे भी झुकती हुई जान पड़ती है क्योंकि प्रेस विज्ञप्ति के अनुसार सरकार का इरादा एक बार फिर फिर पुराने कानून में वर्णित फाईल नोटिंग के प्रावधान को निर्णय पर पहुंचने से पहले जरुरी सलाह का बहाना बनाकर हटाने का है।

गौरतलब है कि सूचना के अधिकार अधिकार अधिनियम को लागू हुए चार साल हो गए और अभी तक सरकार को इस कानून से रोजमर्रा के राजकाज में किसी बड़ी बाधा का सामना नहीं करना पड़ा है। सच तो यह है कि सरकार को इस कानून के लागू होने से फायदा ही हुआ है क्योंकि कानून के लागू होने के बाद से जनमत यह बना कि एक जवाबदेह सरकार अपने रोजमर्रा के राजकाज में पारदर्शिता लाने के लिए प्रतिबद्ध है।

प्रस्तावित बदलावों से जुड़ा एक गंभीर पहलू यह है कि सरकार ने इसके लिए नागरिक संगठनों के साथ किसी तरह का सलाह मशविरा नहीं किया, ना ही कोई सार्वजनिक बहस हुई। ध्यान रहे कि इस अधिनियम से संबद्ध मंत्रालय ने बार बार आश्वासन दिया है कि कानून में बदलाव या सुधार व्यापक सार्वजनिक बहस और सलाह मशिवरे के बाद ही किए जायेंगे। लोगों ने सूचना के अधिकार कानून का प्रयोग बड़े पैमाने पर किया है जो इस बात का प्रमाण है कि इस कानून ने लोगों के दिल में राजकाज की जवाबदेही को लेकर एक बड़ी उम्मीद जगायी है। यही नहीं, कई जन संगठनों ने कानून को बेहतरी के साथ लागू करने के लिए लगातार अभियान भी चलाया है। कहां तो सरकार इस महत्वपूर्ण कानून को मजबूत करने के लिए लोगों से सलाह मशविरा करती और कहां हालात ऐसे आ पहुंचे हैं कि सरकार लोगों के हाथ में पहुंचे सूचना के अधिकार के,  जो लोकतंत्र द्वारा प्रदत्त बुनियादी अधिकारों में एक है, पर कतरने पर तुली है। अगर हम अपने लोकतंत्र को मु्कत और उदार बनाना चाहते हैं तो आगे बढ़ने का वादा करके पांव पीछे खिंच लेने की मौजूदा सरकार की इस कोशिश को रोकना जरुरी है।

सूचनाके अधिकार से जुड़े सौ से ज्यादा कार्यकर्ताओं और नागरिकों ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को पत्र लिखकर इस कानून में प्रस्तावित बदलावों के प्रति अपनी गंभीर चिन्ता और दुख का इजहार किया है। पत्र पर हस्ताक्षर करने वाले नागिरकों का कहना है कि इस कानून से सरकार को बड़ा फायदा पहुंचा है जबकि इस बात के कोई प्रमाण नहीं है कि फाईल नोटिंग का खुलासा करने से सरकार के कामकाज में बाधा आई हो।

(मूल प्रेस विज्ञप्ति नीचे दी जा रही है। साथ ही इस मुद्दे पर विस्तृत जानकारी के लिए नीचे कुछ लिंक्स दिए जा रहा हैं। प्रधानमंत्री को लिखे पत्र के लिए देखें वेबसाईट का अंग्रेजी संस्करण)


                                         प्रेस विज्ञप्ति

               नामचीन हस्तियों ने किया सूचना के अधिकार में प्रस्तावित संशोधन का विरोध,

                         कहा-‘संशोधन से कानून की मूल भावना खत्म हो जायेगी।’

नई दिल्ली २० अक्टूबर ०९, सूचना के अधिकार कानून पर एक बार फिर संशोधन का गंभीर खतरा आ गया है। इस बार अगर प्रस्तावित संशोधन पारित हो गया तो इस कानून की मूल भावना ही खत्म हो जायेगी।

गौरतलब है कि केन्द्र सरकार के कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग ने सूचना के अधिकार कानून में संशोधन करते हुये लोक सूचना अधिकारियों को ‘तर्कहीन एवं परेशान करने वाले आवेदनों को’ अपने स्तर पर खारिज करने की शक्ति देने तथा सरकार में लिये जाने वाले निर्णयों के दौरान होने वाले विचार विमर्श को प्रतिबंधित सूचना में शामिल करने संबंधी प्रस्ताव संसद के शीतकालीन सत्र में लाने जा रही है। सरकार की मांग के संबंध में उजागर हुई मीडिया रिपोर्ट से चिंतित सूचना के अधिकार कानून के शुभचिंतको ने केन्द्र सरकार के प्रस्तावित संशोधन का विरोध शुरू कर दिया है। नागरिक समूहों, जन संगठनों तथा बुद्धिजीवियों, मीडियाकर्मियों, सांस्कृतिक व सामाजिक कार्यकर्ताओं, पूर्व न्यायाधिपतियों तथा वकीलों और सेवानिवृत नौकरशाहों, लेखकों तथा फिल्मी दुनिया से जुड़े १०० से अधिक नामचीन हस्तियों ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को पत्र भेजकर मांग की है कि वह सूचना के अधिकार कानून के साथ किसी प्रकार की छेड छाड  नहीं करें।
 
सूचना के अधिकार के प्रस्तावित संशोधन के विरूद्ध प्रधानमंत्री को पत्र लिखने वाले नामी गिरामी लोगों ने भारत के उच्चतम न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस जे.एस. वर्मा, प्रेस परिषद के पूर्व अध्यक्ष जस्टिस पी.बी. सांवत, प्रसिद्ध इतिहासविद्‌ एवं नेशनल बुक ट्रस्ट के निदेशक प्रो. विपिन चन्द्रा, प्रख्यात लेखिका अरूंधती रॉय, फिल्म अभिनेत्री नंदिता दास, सुप्रसिद्ध नृत्यांगना मल्लिका साराभाई, राष्ट्रीय बाल आयोग की पूर्व अध्यक्ष शांता सिन्हा, ट्रेड यूनियन लीडर बाबा आढव, भारतीय जल सेना के पूर्व प्रमुख एडमिरल रामदास तथा एडमिरल तहलियानी, पूर्व नौकरशाह एस.आर.शंकरन, पूर्व गृह सचिव माधव गोडबोले, हर्ष मंदर, बंधुआ मुक्ति मोर्चा के स्वामी अग्निवेश, प्रख्यात पत्रकार प्रभाष जोशी, कुलदीप नैयर,, अर्थशास्त्री ज्यांद्रेज, सामाजिक कार्यकर्ता अरुणा रॉय, एन.एफ.आई.डब्ल्यू की राष्ट्रीय महासचिव एनीराजा, अर्थशास्त्री जयति घोष, पत्रकार तरुण तेजपाल, नर्मदा बचाओ आंदोलन की मेधा पाटकर, मैग्सेसे पुरस्कार प्राप्त संदीप पाण्डे, अरविंद केजरीवाल तथा पूर्व नौकरशाह ललित माथुर, रिटायर्ड एयर मार्शल पार्थो कुमार डे, फिल्मकार आनंद पटवर्धन, संजय काक, इतिहासकार रोमिला थापर, मानवाधिकार कार्यकर्ता तीस्ता सेतलवाड, कविता श्रीवास्तव, जस्टिस वी.एस.दवे, योजना आयोग के पूर्व सदस्य बी. युगांधर, पर्यावरणविदप्रो.शेखर सिंह तथा आशीष कोठारी, कला क्षेत्र की निदेशक लीला सेमसंग, लेखिका मधु किश्वर, नवधान्या की वंदना शिवा, समाजशास्त्री नंदिनी सुंदर एवं चुनाव विश्लेषक योगेन्द्र यादव तथा पूर्व विधि मंत्री शांतिभूषण, उच्चतम न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता अनिल दीवान तथा प्रशांत भूषण, मजदूर किसान शक्ति संगठन के निखिल डे, सहित १०० से भी अधिक नामगिरामी हस्तियों ने केन्द्र सरकार को सचेत किया है कि वह सूचना के अधिकार कानून को कमजोर करने वाला कोई संशोधन नहीं लाये।
 
इन लोगों का कहना है कि सरकार ने सूचना के अधिकार कानून पास करके काफी वाहवाही पाई तथा विगत चार वर्षों से इस कानून ने पारदर्शिता व खुलेपन को स्थापित करने में प्रमुख भूमिका निभाई है। सूचना के अधिकार कानून ने जवाबदेही वाले लोकतंत्र को स्थापित करने की दिशा में अहम योगदान दिया है, इससे किसी प्रकार की हानि या राष्ट्रीय संकट का सामना सरकार को नहीं करना पड़ा है, इसके बावजूद केन्द्र सरकार द्वारा सूचना के अधिकार में संशोधन की प्रक्रिया चलाना अच्छी बात नहीं है। इन नामचीन लोगों ने प्रधानमंत्री से मांग की है कि वे सूचना के अधिकार में संशोधन का बुरा विचार त्याग दें तथा इस पर एक सार्वजनिक बहस/संवाद चलायें।

उल्लेखनीय है कि डॉ. मनमाहेन सिंह के नेतृत्व वाली केन्द्र की संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार ने अपने पिछले कार्यकाल के दौरान वर्ष २००६ में भी सूचना के अधिकार कानून को संशोधित करने का प्रयास किया था, जिसका जनता की ओर से जबरदस्त विरोध होने की वजह से केन्द्र ने अपने कदम पीछे हटा लिये थे, किंतु पुनः नौकरशाही के दबाव में केन्द्र सरकार सूचना के अधिकार कानून को संशोधित करना चाह रही है, जिसका  देश के विभिन्न क्षेत्रों के नामचीन लोगों ने विरोध प्रारम्भ कर दिया है। उम्मीद की जा रही है कि अगर सप्रंग सरकार ने संशोधन का इरादा नहीं त्यागा तो राष्ट्रव्यापी जन आंदोलन सूचना के अधिकार कानून को बचाने के लिये प्रारंभ हो जायेगा।

राजस्थान जो कि सूचना के अधिकार कानून के लिये आंदोलन की जन्मस्थली रहा है, यहां भी प्रस्तावित संशोधनों के खिलाफ जनसंगठन उठ खड़े होने लगे है। राजस्थान की कई संस्थाओं व संगठनों के नेटवर्क, सूचना एवं रोजगार का अधिकार अभियान ने इस संशोधन के विरोध में राजव्यापी अभियान चलाने का मानस बनाया है।

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