देहरादून। ‘नरेगा’, ‘मनरेगा’ जरूर हो गई, पर व्यावहारिक दिक्कतें अब भी पहले जैसी ही हैं। काम इतना महत्वपूर्ण नहीं, जितना जरूरी कागजों का पेट भरना है और तकनीकी पेच ऐसे हैं कि कागजी खानापूरी के लिए अधिकारी ऐड़ियां रगड़ने को मजबूर हो जाएं। सच कहें तो मनरेगा पर यह मसल पूरी तरह फबती है कि ‘नाम तो सुनते थे हाथी की पूंछ का, काटा तो फकत रस्सी का टुकड़ा निकला’।
जी हां, मनरेगा यानि महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना की असली तस्वीर यही है। योजना बनाने के पीछे उद्देश्य तो यह था कि ग्रामीण भारत में कोई भी हाथ खाली न रहे, जाहिर है लोगों में आस बंधी कि चलो सौ दिन ही सही, गृहस्थी की गाड़ी खींचने को हाथ में कुछ पैसा तो आएगा, लेकिन यहां तो झमेले इतने हैं कि काम देने की प्रक्रिया निपटाने में ही अधिकारियों की सांस फूल जा रही है। बड़ी अजीब प्रक्रिया है मनरेगा में काम देने की। पहले ग्राम पंचायत की खुली बैठक योजना के स्वरूप पर विचार करेगी, प्रस्ताव आएंगे कि कितने लोगों को काम करना है, फिर जाकर रजिस्ट्रेशन की प्रक्रिया आरंभ होगी। इसी के हिसाब से जॉब कार्ड भी बनेंगे। अब मुसीबत देखिए, जहां एक परिवार से एक ही व्यक्ति काम करना चाहता है, वहां तो जॉब कार्ड आसानी से बन जाएगा। लेकिन, यदि काम मांगने वाले सदस्यों की संख्या एक से अधिक हुई तो लगे रहो उनकी परिक्रमा करने में, सामूहिक फोटो जो खिंचवानी है। योजना की शर्त ही ऐसी है कि परिवार के एक से अधिक सदस्यों के अलग-अलग जॉब कार्ड नहीं बनेंगे और सामूहिक फोटो खींचने के लिए ऐसा संयोग बनना जरूरी है कि सभी सदस्य घर पर ही मिलें। खैर, जैसे-तैसे यह प्रक्रिया निपट भी गई तो फिर भी काम मिलने वाला नहीं। इसके लिए कार्ड होल्डर को बाकायदा आवेदन करना होगा, तभी ग्राम पंचायत विकास अधिकारी द्वारा जॉब पर जाने की सूचना दी जाएगी। जिला विकास अधिकारी डा.आरएस पोखरिया कहते हैं कि इतना सब-कुछ करने के बाद भी आप तब तक काम पाने के अधिकारी नहीं हैं, जब तक कि काम का मस्टररोल नहीं भर लिया जाता, लेकिन इस मस्टररोल पर आप सिर्फ हफ्तेभर ही काम कर सकते हैं। इससे अधिक दिनों तक काम करने के लिए एक हफ्ते बाद फिर मस्टररोल भरना होगा, तब जाकर यह प्रक्रिया अंजाम तक पहुंचेगी। अब आती है भुगतान की बात और भुगतान तभी संभव है, जब काम करने वालों की सूची काम के विवरण समेत संबंधित बैंक अथवा डाकघर को उपलब्ध कराई जाए। इसके लिए 15 दिन का समय नियत किया गया है। अब आप अंदाजा लगा सकते हैं कि सौ रुपये का काम तभी मिल सकता है, जब हजार रुपये के कागजों का पेट भरा जाए और स्टाफ की कमी के चलते जो अन्य विकास कार्य प्रभावित हो रहे हैं सो अलग।