चावल की कई किस्में गायब

रायपुर. बारिश की कमी के कारण राज्य के ज्यादतर किसान पिछले कुछ सालों से लंबी अवधि के धान नहीं लगा रहे। इसके कारण ‘धान का कटोरा’ कहलाने वाले छत्तीसगढ़ में स्थानीय विशेषता वाली चावल की किस्में धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही हैं। कृषि वैज्ञानिकों का कहना है कि जलवायु परिवर्तन का असर इंसान और पशु-पक्षियों के अलावा फसलों पर भी नजर आने लगा है। इसका सबसे अच्छा उदाहरण राज्य के स्थानीय चावलों के रकबे में हाल के उत्पादन में लगातार आ रही कमी है।

वैज्ञानिकों ने बताया कि राज्य के किसान अब किसान लंबी अवधि (150 दिन) में पकने वाला धान लगाने से बचने लगे हैं। इसका प्रमुख कारण पिछले कुछ सालों में अक्टूबर में घटती जा रही बारिश की मात्रा है। इस साल भी राज्य में देरी से आए मानसून के कारण और औसत से काफी कम वर्षा हुई है। ऐसी सूरत में लंबी अवधि में पकने वाले धान के पकने के समय पानी की कमी से उत्पादन प्रभावित होने का खतरा बना रहता है।

काली मूंछ, जीरा शंकर, जवांफूल पर संकट

देश ही नहीं विश्व भर में छत्तीसगढ़ के काली मूंछ, जीरा शंकर दुबराज, मासूरी और जवांफूल चावल को काफी पसंद किया जाता है, लेकिन यह चावल अब राज्य के किसान अपने खेतों में लगाने से कतरा रहे हैं। पानी की कमी इसका प्रमुख कारण है। एक ओर जहां मानसूनी बारिश में कमी आई है वहीं दूसरी ओर जमीन लेवल के पानी का स्तर गिरने से नहर, नलकूप और ट्यूबवेल से भी पूरा पानी नहीं मिल रहा। इसके कारण तीन से चार फीट तक ऊंची मेढ़ बनाकर पानी भरने वाली पद्धति से धान को पैदा करने में किसानों को दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है।

ब्रोकन चावल से भर जाएगा बाजार

अनाज व्यापारी और छत्तीसगढ़ राइस मिल के अध्यक्ष योगेश अग्रवाल ने बताया कि लंबी अवधि के धान का रकबा कम होने से अरवा चावल बनाना मुश्किल हो जाएगा। मानसून की देरी के कारण राज्य भर में किसानों ने 115 से 125 दिन में पकने वाले महामाया, आई आर 36, एमपीयू 10 10, पूर्णिमा और कुछ हद तक एचएमटी लगा दिया है। इसमें से सिर्फ एचएमटी से ही अरवा चावल बनाया जा सकता है। बाकी सभी वेरायटी की धान से उसना चावल ही बनेगा। अनुमान के मुताबिक इस साल दो से तीन लाख टन महामाया चावल बाजार में आएगा। महामाया में ब्रोकन राइस की संभावना सबसे अधिक रहेगी।

दो फसल भी किस्मों के लिए खतरा

कृषि वैज्ञानिक डॉ. एएसआरएएस शास्त्री ने बताया कि लंबी अवधि में पकने वाले धान का रकबा लगातार कम होने का पहला कारण जलवायु परिवर्तन व दूसरा किसानों को साल में दो फसल लेने के लिए प्रेरित किया जाना है। लंबी अवधि के धान मासूरी, जवांफूल और दुबराज लेने वाले किसान साल में दो फसल नहीं ले सकते हैं, इसलिए कई किसानों ने 75 से 90 दिन में तैयार होने वाली फसलों का उत्पादन शुरू कर दिया था। दोफसल लेने से साल में किसानों को दो बार नगद मिल जाता है। यह भी एक वजह है कि राज्य की विशेष वेरायटी का धान धीरे-धीरे लुप्त प्राय श्रेणी में जा रहा है।

इस पूरे आंकड़े से कहानी साफ हो जाती है। सिंचित व असिंचित दोनों ही धान के रकबे में लंबी अवधि के लोकल किस्म के धान के रकबे में कमी आई है। इसका प्रमुख कारण जलवायु परिवर्तन के साथ ही साथ दो फसल लेने की परंपरा को बढ़ावा देना है। – डॉ. एएसआरएएस शास्त्री, कृषि मौसम वैज्ञानिक, इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय रायपुर

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