नरेगा- पहले संशोधन फिर स्पष्टीकरण

न संसद में चर्चा हुई,न रोजगार गारंटी परिषद में बात और न ही सरकार ने किसी मंच पर इसका जिक्र किया, एकदम गुपचुप दलितों के हाथ से नरेगा के लाभ छीन लिए गए। केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (नरेगा) में  २२ जुलाई को दलित विरोधी संशोधन किया । संशोधन के विरोध में  राष्ट्रव्यापी प्रतिक्रिया हुई है तो अब केंद्र सरकार की तरफ से एक स्पष्टीकरण जारी किया गया है। इस स्पष्टीकरण से मजदूर किसान शक्ति संगठन सहित देश के अन्य जनपक्षी संगठनों ने राहत महसूस की है।इस संशोधन से गरीब और दलितों को अधिनियम से हासिल प्राथमिकताओं के खतरे में पड़ने की आशंका बलवती हो चली थी।
 
गौरतलब है कि गुजरे २२ जुलाई को केंद्र सरकार के द्वारा बिना किसी सार्वजनिक चर्चा के रोजगार गारंटी अधिनियम में संशोधन किया।फिर देश के जनपक्षी धड़ों के विरोध को देखते हुए  सरकार ने एक सितंबर को एक नया आदेश पारित किया। इसमें स्पष्ट किया है कि किसी भी ग्राम पंचायत में छोटे और सीमांत किसानों के खेतों में नरेगा के तहत काम तभी प्रस्तावित किया जा सकता है जब उस ग्राम पंचायत के सभी अनिसूचित जाति-जनजाति के किसानों के खेतों में काम समाप्त हो चुका हो।स्पष्टीकरण में यह भी कहा गया है कि ऐसे किसानों के खेतों में केवल जल संसाधन संबंधित कार्य लिए जा सकते हैं। इस संशोधन से गरीब और दलितों को अधिनियम से हासिल प्राथमिकताओं के खतरे में पड़ने की आशंका बलवती हो चली थी।
 
२२ जुलाई के संशोधन से पहले  नरेगा योजना में अनिसूचित जाति-जनजाति और गरीबी रेखा से नीचे जीने वाले लोगों के निजी खेतों पर ही श्रेणी चार में वंर्णित  काम करवाए जा सकते थे। किंतु २२ जुलाई के आदेश में केंद्र सरकार ने हर जाति के छोटे और सीमांत किसानों के खेतों पर यह काम करवाए जाने की छूट दे दी। केंद्र सरकार के इस संशोधन पर देश भर में व्यापक प्रतिक्रिया हुई। पीपुल्स एक्शन फॉर एम्प्लायमेंट गारंटी, सूचना एवं रोजगार अधिकार अभियान तथा मजदूर किसान शक्ति संगठन सहित देश के कई दलित संगठनों ने इस संशोधन पर अपनी प्रतिक्रिया भारत सरकार को भेजी।मीडिया में भी इस आशय की खबरें प्रकाशित हुईं।
 
इस संशोधन के पीछे केंद्र सरकार का तर्क था कि किसानों की हालत अत्यंत दयनीय हो गई है। संशोधन से उन्हें सहायता मिलेगी तथा कृषि क्षेत्र में श्रमिकों की अनुपलब्धता की स्थिति में सुधार होगा। संशोधन की मुखालफत करने वाले संगठनों का कहना था कि इस निर्णय से सरकार नरेगा में दलित और आदिवासियों से अपना फोकस हटा रही है। जुलाई में किए गए संशोधन से सबसे बड़ा खतरा यह पैदा हो गया है कि दलित अब फिर से सवर्ण काश्तकारों के यहां नरेगा मजदूर के रूप में काम करने को अभिशप्त होंगे। दलित संगठन और राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ता कह रहे हैं कि जब तक नरेगा में व्यक्तिगत लाभ के कामों का फायदा सारे दलित और आदिवासियों को नहीं मिल जाता तब तक उसे सबके लिए खोलना दलित विरोधी कदम है।

यह एक तथ्य है कि नरेगा में मजदूरी करने वाले लोग ज्यादातर दलित हैं.।मजदूर किसान शक्ति संगठन सहित कई जनपक्षी संगठनों का सवाल है कि नरेगा में किए गए बदलाव के बाद अगर दलित जाति के मजदूर सवर्ण जाति के छोटे और सीमांत किसानों के खेतों में काम करेंगे तो क्या शोषण का पारंपरिक ढांचे को फिर से बल नहीं मिलेगा? नरेगा में प्रस्तावित योजना बनाने और बदलाव करने में जनता की भागीदारी आज भी दूर की कौड़ी है। ग्रामसभा से लेकर ग्रामीण विकास मंत्रालय तक दलितों की भागीदारी का स्तर सरकारी प्रयासों के बावजूद उल्लेखनीय नहीं कहा जा सकता। ज्यादातर दलित  भूमिहीन हैं और कहीं कहीं हालात ऐसे हैं कि जमीन तो उनके नाम पर हैं किंतु उसपर  कब्जा किसी और का है। एमकेएसएस का आरोप है कि जो थोड़े बहुत दलित जमीन मालिक हैं, उनकी जमीनों पर काम करने की परिस्थितियां नरेगा के अन्तर्गत बनी ही थी कि कि केंद्र सरकार ने नए संशोधन से दलित कृषकों को खुली प्रतिस्पर्धा में धकेल दिया ।

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