एक चिठ्ठी बस्तर की व्यथा की……

छत्तीसगढ़  के तृणमूल स्तर के कई कार्यकर्ताओ ने देश के जनपक्षी धड़ों के लिए एक टिप्पणी जारी की है। इस टिप्पणी में छत्तीसगढ़ में सुरक्षा बलों और आदिवासियों के बीच जारी संघर्ष को विराम देने की अपील की गई है।छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा से संबद्ध सुधा भारद्वाज का तर्क है कि विद्रोह को दबाने के नाम पर छत्तीसगढ़ में नरसंहार की आशंका बलवती हो गई है और इसे रोकने के लिए संघर्ष पर विराम लगाना जरुरी है। मूल टिप्पणी अंग्रेजी में है।  यहां उसका सार-संक्षेप प्रस्तुत किया जा रहा है।( मूल टिप्पणी के लिए इस वेबसाइट का अंग्रेजी संस्करण देखा जा सकता है।)

बस्तर में अमन तभी कायम हो सकता है जब सरकार आदिवासियों को अपना दुश्मन मानना बंद करे और उन्हें अपने गांवों में लौटने दे।

छत्तीसगढ़ सरकार ने स्वीकार किया है कि साल २००५ में सलवा जुडूम की शुरुआत के बाद दंतेवाड़ा जिले के ६४४ गांव जिनमें तकरीबन साढ़े तीन लाख आदिवासी आबाद थे, खाली हो चुके हैं। सहज ही सोचा जा सकता है कि इतने बड़े पैमाने पर विस्थापन अतिशय हिंसा की स्थिति में ही हो सकता है और अगर कोई ऐसा सोचता है तो उसका सोचना बेजा नहीं है क्योंकि सलवा जुडूम और सुरक्षा बलों ने दंतेवाड़ा के इन गांवों में लगातार लूट, हत्या, बलात्कार और गिरफ्तारियों का एक सिलसिला कायम कर रखा है जिसकी खबरें आये दिन मिलती रहते हैं।
कई सुरक्षा विशेषज्ञ दबी जबान से इस बात को स्वीकार करते हैं कि किसी विद्रोह को दबाने के लिए उसके विपक्ष में ठीक वैसा ही विद्रोह खड़ा करके उससे निपटने की यह जानी पहचानी अमेरिकी रणनीति है जिसका नीतिवाक्य है कि मछली को मारना हो तो सीधे सीधे पानी को सूखा दो। हममें से कई लोग इस बात के गवाह है कि छत्तीसगढ़ में मौजूद खनिज संसाधन को हासिल करने के लिए जबरिया विस्थापन का यह दुश्चक्र चलाया जा रहा है ताकि खनिज संसाधनों का दोहन करने के लिए कंपनियों की राह आसान की जा सके। मंशा चाहे जो हो, दंतेवाड़ा के सूरते हाल बिगड़ते जा रहे हैं।

हाल ही में गृहमंत्री ने स्वीकार किया कि अंदरुनी तौर पर विस्थापित कुल ५० हजार लोग जिन्हें साल २००५ के बाद से सड़कों के किनारे खड़े किए सलवा जुडूम के शिविरों में पनाह दी गई थी धीरे-धीरे शिविरों से भाग रहे हैं और अब सलवा जुडूम के शिविरों में इनकी तादाद महज ८००० रह गई है। अगर शिविरों से लोगों के पलायन का कारण जानना हो तो हाल की कुछ घटनाओं को याद भर कर लेना काफी होगा। खबर आई कि केंद्रीय रिजर्व पुलिस के एक जवान ने चरपल शिविर में एक महिला और उसके बच्चे को गोलयों से छलनी कर दिया और एक खबर यह भी थी कि एक स्पेशल पुलिस ऑफिसर (एसपीओ)  ने मतवादा शिविर में तीन लोगों की पीट पीट कर हत्या कर दी। ध्यान रहे यह सब तब हो रहा है जब दंतेवाड़ा के कुल ६४४ गांवों से सारे स्कूल, स्वास्थ्य केंद्र, सरकारी राशन दुकान मतदान केंद्र और यहां तक कि ग्रामपंचायतों को भी हटा लिया गयाहै और उनका संचालन सलवा जुडूम के शिविरों से हो रहा है।

छत्तीसगढ़ में सरकार अब साफ-साफ एलान कर रही है कि जो गांववासी सलवा जुडूम का साथ नहीं दे रहे, जो अब भी अपने खेतों में किसानी का साहस कर रहे हैं( डरे सहमें किसान सुरक्षा बलों को देखते ही भाग खड़े होते हैं और उनके पीछे जो रह जाते हैं वे सुरक्षाबलों की ज्यादती का शिकार होते हैं), और जो लोग सलवा जुडूम के शिविरों में नहीं बल्कि जंगलों में रह रहे हैं, वे नक्सली हैं। वीरान पड़े गांवों में कभी कोई इक्का दुक्का नवयुवक दिख जाये या फिर इन गांवों का कोई सौदा सुलफ लेने के लिए बाजार में आया दिख जाये तो नक्सली होने की आशंका में सरकारी कारिन्दे उसे पीट पीटकर अधमरा कर देते हैं और नक्सली होने के आरोप में इन्हें जेलों में ढूंस दिया जाता है। सबूत के तौर पर हर वक्त सरकारी अमलों के पास दिखाने के लिए कुछ वर्दिया होती हैं और कुछ असलहे और इन्हें बार-बार रस्मी तौर पर दिखाया जाता है। 

अगर यह भी मान लिया जाय कि कुल ५० हजार लोग भागकर आंध्रप्रदेश चले गए और शायद इतनी ही तादाद में लोग महाराष्ट्र या फिर उड़ीसा की तरफ निकल गए तब भी सरकारी तर्क के हिसाब से कम से कम २ लाख लोग जंगलों में रहने के कारण नक्सली हैं और ठीक इसी कारण से सरकार के हिसाब से ना तो उन्हें भोजन हासिल होना चाहिए और ना ही चिकित्सा की कोई सुविधा और ना ही उन्हें इतनी आजादी होनी चाहिए कि वे सौदा-सुलफ के लिए बाजार तक जा सकें।

इसमें कोई शक नहीं कि ऐसे ग्रामीण के खिलाफ चलाया जा रहा नक्सल-रोधी अभियान सुरक्षा बलों की तादाद में इजाफा कर रहा है और आगे भी इसमें इजाफा ही होना है। कल तक जो सवाल जमीन और जीविका का था आज वही महज जावित बचे रह जाने का सवाल बन गया है और इतिहास बताता है कि जब सूरते हाल यहां तक पहुंच जाते हैं तो आदिवासी प्राणपण से लड़ते हैं। गौर करें कि दंतेवाड़ा इलाके में नक्सलरोधी अभियान में चौदह बटालियनें लगी हैं और ये बटालियनें जाने पहचाने दायरों में अपने तलाशी अभियान पड़ निकलने के अतिरक्त लगातार थाना, जेल या फिर बिजली के तारों से बाड़बंद स्कूलों में जमी रहती हैं। इतने पुख्ता इंतजाम के बावजूद सुरक्षा बल अपने को नक्सली जत्थों के हमलों के आगे असहाय महसूस कर रहे हैं। पिछले छह महीने में कम से कम २५ जवानों ने घनघोर तनाव में अपने आफिसर पर गोली चलाकर आत्महत्या की है।


गांधीवादी विचारों से प्रेरित एक एनजीओ वनवासी चेतना आश्रम कोशिश कर रहा है कि ग्रामीण के पुनर्वास के मामले में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की सिफारिशों को अमल में लाया जाय और बलात्कार या फिर अचानक किसी के गायब हो जाने की शिकायत आने पर प्रथम सूचना रिपोर्ट लिखवाने में फरियादी की कानूनी मदद की जा सके लेकिन सरकार इस बात पर तुली हुई है कि ऐसे किसी प्रयास को कोई स्थान नहीं मिले। इस एनजीओकेकार्यालय को ढहा दिया गया है और लिंगागिरी, बसागुड़ा, नेन्द्रा नाम के जिन तीन गांवों में राहत सामग्री के तौर पर इस संस्था ने चावल पहुंचाने की कोशिश की उसे नक्सलियों को भेजी गई सामग्री बताकर सरकार ने जब्त कर लिया। और तो और, इस संस्था के एक नौजवान कार्यकर्ता को छ्त्तीसगढ़ सरकार ने विशेष सुरक्षा कानून के तहत गिरफ्तार कर लिया है।

हमारी अपील है कि ज्यादतियों के इन्हीं संदर्भों के खांचे में छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा चलाये जा रहे नक्सलरोधी अभियान को समझा जाय। आज हालात ऐसे बन गए हैं कि इसे आदिवासियों के जनसंहार के अतिरिक्त और कोई नाम देना उचित नहीं होगा। छत्तीसगढ़ में सरकार लाखों  की तादाद में मौजूद अपने ही नागरिकों के खिलाफ युद्ध पर उतारु है। कश्मीर और पूर्वोत्तर के हमारे अनुभव कहते हैं कि ऐसी समस्याओं का समाधान तुरंत फुरंत में नहीं होता और हम यह भी देख रहे हैं कि लोग बस्तर में सुरक्षा बलों द्वारा हो रही ज्यादतियों के खिलाफ सड़कों पर विरोध प्रदर्शन में उतर आये हैं। वे सवाल उठा रहे हैं कि आखिर स्पेशल पुलिस ऑफिसर कहलाने वाले कारिन्दे कब तक बेगुनाह लोगों को मारते रहेंगे और ये सवाल उढाने वाले लोग नक्सली नहीं सीधे-सादे ग्रामीण हैं।


छ्तीसगढ़ सरकार के जनविरोधी रवैये और वहां जारी सुरक्षाबलों के अतिचार के विरोध में हम देश के सभी जनपक्षी धड़ों से अपील करते हैं दंतेवाड़ा के लाखों विस्थापित ग्रामीणों को शांतिपूर्वक उनके घरों को लौटने दिया जाय और उनके जीवन के अधिकार, भोजन, स्वास्थ्य और आजीविका के अधिकार की रक्षा की जाय। सुरक्षाबलों और आदिवासियों के बीच चल रहे संघर्ष पर विराम लगाकर ही दंतेवाड़ा को जनसंहार से बचाया जा सकता है।

सुधा भारद्वाज
छत्तीसगढ़ मुक्तिमोर्चा(मजदूर कार्यकर्ता समिति)
द्वारा-सीएमएम ऑफिस, लेबर कैंप, जमूल
जिला दुर्ग, छ्तीसगढ़
09926603877


                                                                                               

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *