आज हमारे अन्न भंडार भरे हुए हैं। देश ने पिछले साल रेकॉर्ड 73.5 मिलियन टन गेहूं पैदा किया है। अमेरिकी कृषि वैज्ञानिक नॉर्मन ई. बोरलॉग नहीं रहे, पर इसका बहुत कुछ श्रेय उन्हें भी जाता है। भारत और पाकिस्तान समेत कई और विकासशील देशों को अनाज उत्पादन के मामले में आत्मनिर्भर बनाने में उनके द्वारा शुरू किए गए कृषि नवाचारों का योगदान रहा है।
साठ के दशक में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ‘जय जवान, जय किसान’ का उद्घोष कर देशवासियों से एक वक्त ही भोजन करने की अपील कर रहे थे, उस वक्त भुखमरी और अकाल जैसी समस्याओं के रहते इसका सटीक जवाब किसी को नहीं सूझ रहा था कि आबादी के इसी तरह बढ़ने रहने और अनाज की ठहरी हुई पैदावार की दशा में देश का क्या होगा?
आजादी के बाद से 1960 तक देश में गेहूं और चावल की पैदावार औसतन प्रति हेक्टेयर एक मीट्रिक टन पर स्थिर थी, हालांकि इस दौरान खेती का रकबा लगातार बढ़ा। पर्याप्त अनाज नहीं उगा पाने की विवशता में देश जहाजों में लदकर आने वाले अमेरिकी गेहूं का मोहताज बन गया था और ‘शिप-टु-माउथ’ जैसा मुहावरा हमारी इकॉनमी का मुंह चिढ़ा रहा था।
उसी दौर में बोरलॉग ने मेक्सिको में बीमारियों से लड़ सकने वाली गेहूं की एक नई किस्म विकसित की थी। इसके पीछे उनका साइंस यह था कि अगर पौधे की लंबाई कम कर दी जाए, तो जो ऊर्जा बचेगी वह उसके बीजों यानी दानों में लगेगी, जिससे दाना ज्यादा बढ़ेगा, लिहाजा कुल फसल उत्पादन बढ़ेगा। बोरलॉग ने छोटा दानव (सेमी ड्वार्फ) कहलाने वाले इस किस्म के बीज (गेहूं) और उर्वरक भारत-पाकिस्तान को भेजे, जिनसे यहां की खेती का पूरा नक्शा ही बदल गया। इससे 1968 में देश की आबादी जब 1947 के मुकाबले करीब डेढ़ गुनी हुई, तब गेहूं उत्पादन तीन गुना बढ़ा और नब्बे का दशक आते-आते देश अनाज उत्पादन में आत्मनिर्भर बन गया।
हालांकि कीटनाशकों व रासायनिक खादों के अत्यधिक इस्तेमाल और जमीन से ज्यादा पानी सोखने वाली फसलों वाले ये प्रयोग पर्यावरणवादियों को कभी नहीं भाए। बोरलॉग दुनिया को भुखमरी से निजात दिलाने के लिए जीन संवर्धित फसलों के पक्ष में भी रहे, जिनका भारी विरोध होता है। पर उनका मत था कि भूख से मरने की बजाय जीएम अनाज खाकर मर जाना कहीं ज्यादा अच्छा है। पर्यावरणवादियों के ऐतराज का भी जवाब उन्होंने यह कहकर दिया कि अगर कम जमीन से ज्यादा उपज ली जाती है, तो इससे असल में प्रकृति का संरक्षण ही होता है।