बेशुमार जुगनुओं की जरूरत

दुनिया वित्तीय संकट के भंवर में फंसी है. मगर भारत की हालत फिर भी कई अर्थव्यवस्थाओं से बेहतर है. क्या है इसकी वजह? कैसा हो आगे का रास्ता? अरूण मायरा का आलेख

नियाभर में फैल चुका आर्थिक संकट अमेरिका में घर बनाने के लिए दिए गए बेहिसाब कर्ज के डूबने से शुरू हुआ. वहां के वित्तीय संस्थानों ने अपना व्यापार बढ़ाने के लिए पहले तो बिना सोचे-समझे कर्ज दिया. इसके बाद इन कर्जों को उन्होंने सही कर्जों के साथ मिला कर दूसरे वित्तीय संस्थानों को बेच दिया. अब चिंतामुक्त हो के इन पहले वाली संस्थाओं ने आंख मूंद के और भी कर्ज बांटना शुरू कर दिया. जब आंख मूंद कर दिए इस कर्ज की वापसी में समस्या आई तो ये संस्थाएं बुरी हालत में आने लगीं, इनके पास अपना कर्ज चुकाने के लिए पैसों के लाले पड़ने लगे. ये जान कर इन वित्तीय संस्थाओं के पास अपना पैसा जमा करने वालों ने इसे निकालना शुरू कर दिया. उदारीकरण के इस जुड़े हुए दौर में अमेरिका की ये समस्या पूरी दुनिया में निर्यात हो गई.

मगर भारत में हालात काफी हद तक काबू में हैं. आखिर क्या है इसकी वजह? और आगे का रास्ता क्या है? क्या भारत अपनी ही तरह की आर्थिक नीतियों पर चले या फिर धीरे-धीरे कर पूरी तरह से दुनिया के रंग में रंग जाए?

साठ साल का सार

आजादी के बाद छह दशकों के दौरान भारतीय अर्थव्यवस्था छह अलग-अलग चरणों से गुजरती हुई आगे बढ़ी. पहला दौर था व्यवस्थित होने का. ये 1950 का दशक था. आजादी और इसके बाद बंटवारे की उथल-पुथल पीछे छूट चुकी थी और नीति-निर्माताओं के सामने देश को फिर से बनाने की चुनौती सिर उठाए खड़ी थी. उन दिनों भारत में ज्यादा कुछ नहीं बनता था. यहां तक कि हमें सुई भी विदेशों से मंगानी पड़ती थी.

फिर 60 का दशक आया. ये बुनियाद पड़ने का दौर था. जर्मनी, ब्रिटेन और तत्कालीन सोवियत संघ से तकनीकी मदद लेकर स्टील के नए कारखाने लगाए गए. विदेशी सहयोग से भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों (आईआईटी) की स्थापना की गई. बेहतरीन अमेरिकी बिजनेस स्कूलों की मदद लेकर अहमदाबाद और कलकत्ता में भारतीय प्रबंध संस्थान (आईआईएम) खोले गए. आणविक ऊर्जा आयोग बना. जो अच्छे बीज उस समय रोपे गए थे उनके फलों का फायदा अर्थव्यवस्था आज भी उठा रही है.

इसके बाद आया 1970 का दशक. विदेशी मुद्रा की भारी कमी के चलते अर्थव्यवस्था डगमगाने लगी. आत्मनिर्भर होना बहुत जरूरी हो गया. मशीनें और भारी उपकरण बनाने के लिए सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियां बनाईं गईं. निजी कंपनियों से कहा गया कि सब कुछ अपने बूते करिए. अपने उत्पाद खुद डिजाइन करिए, अपनी मशीनें भी खुद बनाइए और अपने मजदूरों, इंजीनियरों और डिजाइनरों को प्रशिक्षण भी खुद ही दीजिए. यही वजह थी कि टाटा मोटर्स (तब टेल्को) को मशीनों और टूल एवं डाई बनाने के लिए नए संयत्र खोलने पड़े. इससे पहले कंपनी इन चीजों को आयात करती थी. भारतीय कंपनियों के लिए ये काफी मुश्किल दौर था क्योंकि काफी हद तक विदेशी सहयोग केबगैर उन्हें, अपने बूते बचे रहना, काम करना और कामयाब होना था


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http://www.tehelkahindi.com/business/164.html

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