भुखमरी-एक आकलन

 खास बात
 

– साल 1990 में भारत का जीएचआई अंक 32.6 थासाल 1995 में यह अंक 27.1, साल 2000 में 24.8साल 2005 में  24.0 तथा साल 2013 में 21.3 था। साल 2013 में भारत का जीएचआई अंक(21.3) चीन (5.5), श्रीलंका (15.6)नेपाल (17.3), पाकिस्तान (19.3) और बांग्लादेश (19.4) से बदतर है।@

-साल १९८३ में देश के ग्रामीण अंचलों में प्रति व्यक्ति प्रति दिन औसत कैलोरी उपभोग २३०९ किलो कैलोरी का था जो साल १९९८ में घटकर २०१० किलो कैलोरी रह गया।*

-सालाना प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उपलब्धता साल १८८७-१९०२ में १९९ किलोग्राम थी जो साल २००२-०३ में घटकर १४१.५० किलोग्राम रह गई।*

-एशिया में प्री-स्कूल संवर्ग के आधे से ज्यादा बच्चे कुपोषित हैं।**

-भारत में किशोर वय की ७२.६ फीसदी बच्चियों में एनीमिया का विस्तार है।***

-साल १९९०-९२ और साल फिर साल १९९० के दशक के मध्यवर्ती सालों में भारत में भुखमरी से निपटने की दिशा में खासी प्रगति हुई मगर १९९५-९७ के बाद यह प्रक्रिया मंद पड़ गई।*#

-उड़ीसा, मध्यप्रदेश, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल, राजस्थान और पंजाब(अंशतया) में प्रतिदिन प्रतिव्यक्ति १८९० किलो कैलोरी से कम उपभोग करने वाली आबादी की तादाद बढ़ी है। "

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@ग्लोबल हंगर इंडेक्स-2013
* पटनायक उत्सा(2003)- एगरेरियन क्राइसिस एंड डस्ट्रेस इन रुरल इंडिया माइक्रोस्कैन
** मेसन जॉन, हंट, जोसेफ, पार्कर, डेविड एंड जॉनसन, अरबन(१९९९):इंवेस्टिंग इन चाइल्ड न्यूट्रिशन, एशियन डेवलपमेंट रिव्यू।खंड. 17,संख्या-. 1,2, पेज 1-32
*** ११ वीं पंचवर्षीय योजना, योजना आयोग, भारत सरकार
*# एफएओ रिपोर्ट- द स्टेट ऑव फूड इन्सिक्यूरिटी इन द वर्ल्ड-२००८
" रिपोर्ट ऑन द स्टेट ऑव फूड इन्सियक्यूरिटी इन रुरल इंडिया(२००९)-एम एस स्वामीनाथन पाऊंडेशन और वर्ल्ड फूड प्रोग्राम द्वारा तैयार दस्तावेज  

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[inside]पढ़िए वैश्विक भुखमरी सूचकांक–2022 की मुख्य बातें (अक्टूबर 2022 में जारी)[/inside]

वैश्विक भुखमरी सूचकांक में दुनियाभर के 121 देशों में भारत को 107 वीं जगह प्राप्त हुई। रिपोर्ट के लिए कृपया यहाँ और यहाँ क्लिक कीजिये 
सूचकांक के अनुसार भारत का जीएचआई स्कोर (2022 में) 29.1 है। वर्ष 2000 में यह 38.8 था, 36.3 स्कोर 2007 में और 28.4 स्कोर वर्ष 2014 में था। 
भारत के संर्दभ में वर्ष 2014 की तुलना में, स्कोर के मामले में 0.9 की वृद्धि हुई है।(3.2 प्रतिशत)

भारत में चाइल्ड वेस्टिंग रेट 19.3 फीसदी थी। यह दुनियाभर के तमाम देशों में सबसे अधिक है। भारत के कारण, चाइल्ड वेस्टिंग के संदर्भ में दक्षिण एशिया का अनुपात भी बढ़ जाता है।
भारत की तरह सूडान, यमन और श्रीलंका में भी चाइल्ड वेस्टिंग की दर अधिक है।
चाइल्ड स्टंटिंग के मामले में भारत, पाकिस्तान और अफगानिस्तान का स्कोर 35 से 38 के बीच रहता है।
भारत में स्टंटिंग अलग–अलग सूबों या इलाकों में विविधता लिये हुए है। इसलिए क्षेत्र विशेष के लिए अलग रणनीति की जरूरत रहती है।
एक शोध की पड़ताल के अनुसार स्टंटिंग का स्तर कम करने के लिए स्वास्थ्य सुविधाओं के विस्तार, पोषण तक पहुंच, परिवार की दशा में सुधार सहित मातृत्व कारकों की बेहतरी में सुधार आवश्यक है।

2022 की रिपोर्ट के लिए 136 देशों के आंकड़े संग्रहित किए गए थे। हालांकि, इनमें से 121 देशों के आंकड़े ही पर्याप्त पाए गए।

नजदीकी देशों का हाल – स्कोर और ओहदा
चीन (स्कोर <5 और रैंक सामूहिक 1 से 17), श्रीलंका (स्कोर 13.6 और रैंक 64वीं), म्यांमार (स्कोर 15.6 और रैंक 71) नेपाल (स्कोर 19.1 और रैंक 81), बांग्लादेश (स्कोर 19.6 और रैंक 84) और पाकिस्तान (स्कोर26.1 और रैंक 99)
सूचकांक में 17 देश ऐसे हैं जिनका जीएचआई स्कोर 5 से कम था।
इसलिए इन 17 देशों को कोई खास ओहदा नही दिया गया। इनकी रैंक सामूहिक है– 1 से 17

वैश्विक स्तर पर जीएचआई स्कोर 18.2 है। साथ ही दक्षिण एशिया के संदर्भ में यह आंकड़ा 27.4 पर आ जाता है। 
कुपोषित लोगों के अनुपात को देखें तो वर्ष 2000 में 18.4 फीसदी, 2007 में 17.5 फीसदी, 14.8 फीसदी 2014 में और 19.3 फीसदी 2022 के दौरान।
भारत के संदर्भ में पांच वर्ष से कम आयु के बच्चों में वेस्टिंग के अनुपात को देखें तो यह वर्ष 2000 में 17.1 फीसदी, 2007 में 20.0 फीसदी, 2014 में 15.1 फीसदी और वर्ष 2022 के दौरान 35.5 फीसदी.

स्टंटिंग से ग्रसित पांच वर्ष से कम आयु के बच्चों का अनुपात वर्ष 2000 में 54.2 फीसदी, 2007 में 47.8 फीसदी, 2014 में 38.7 फीसदी और 2022 के दरमियान 35.5 फीसदी.

पांच वर्ष से कम आयु के बच्चों में मृत्यु दर–वर्ष 2000 में 9.2 फीसद, 2007 में 6.8 फीसद, 2014 में 4.6 फीसद और 2022 के दौरान 3.3 फीसद.

कृपया ध्यान दें! जीएचआई स्कोर, चाइल्ड वेस्टिंग और चाइल्ड स्टंटिंग के लिए प्रयोग किए गए वर्ष–2000, 2007, 2014 और 2022 से तात्पर्य क्रमश: 1998–2002, 2005–2009, 2012–2016, 2017–2021 का वर्ष अंतराल है।
बच्चों के कुपोषण के मामले में वर्ष–2000, 2007, 2014 और 2022 से तात्पर्य क्रमश: 2000–2002, 2006–2008, 2013–2015 और 2019–2021बच्चों की मृत्यु दर के मामले में काम में लिए आंकड़े वर्ष 2000, 2007, 2014, और 2020 से हैं।

वैश्विक भूख सूचकांक चार सूचकों से मिलकर बनता है–

  1. कुपोषण– जनसंख्या का वह भाग जो कुपोषण का सामना कर रहा है। (जिन्हें आवश्यक कैलोरी प्राप्त नहीं हो पाती है )
  2. चाइल्ड वेस्टिंग– पांच वर्ष से कम आयु के बच्चों का अनुपात जो वेस्टिंग के शिकार हैं। (शरीर की लंबाई के अनुसार वजन का नहीं होना)
  3. चाइल्ड स्टंटिंग– पांच वर्ष से कम आयु के बच्चों का अनुपात जो स्टंटिंग के शिकार हैं। (समय के साथ लंबाई का नहीं बढ़ना)
  4. बाल मृत्यु दर– पांच वर्ष से कम आयु के बच्चों की मृत्यु दर।

इन सूचकों की सूचकांक के गठन में हिस्सेदारी निम्न प्रकार की है– कुपोषण और शिशु मृत्यु दर एक तिहाई–एक तिहाई योगदान।

स्टंटिंग और वेस्टिंग, प्रत्येक का 1/6 योगदान।कृपया यहां क्लिक कीजिए, यहां गणना का सूत्र आपको मिलेगा।
ऊपर दिए गए चारों सूचकों से गणना करने के लिए मान को 100 पर स्थिर कर दिया जाता है।
मान शून्य से तात्पर्य है वहां भुखमरी नहीं है। वहीं 0 से 100 की ओर बढ़ता मान भुखमरी के बढ़ने का संकेत है।

वैश्विक भुखमरी सूचकांक के स्कोर की तुलना उसी रिपोर्ट में दिए गए स्कोर से की जा सकती है। मौजूदा आंकड़े और पिछले आंकड़े जो रिपोर्ट में दिए हुए हैं, इस तरह से तैयार किए जाते हैं कि उनके बीच में तुलना की जा सके। और इस तुलना के मार्फत गरीबी के बढ़ने या घटने का पता चल जाता है। इसी तरह किसी भी देश को मिली रैंक की तुलना अन्य वर्ष में जारी रिपोर्ट के साथ नहीं की जाती है
गणना के लिए काममें लीजा रही प्रणाली को समय–समय पर संशोधित किया जाता रहता है। वर्ष 2015 से एक प्रणाली का प्रयोग किया जा रहा है। भविष्य में इस पर सुधार किया जा सकता है।

2022 की रिपोर्ट को वर्ष 2015 में अपनाई गई प्रणाली के तहत तैयार किया गया है। 2022 की रिपोर्ट में अन्य वर्ष यथा 2000, 2007 के लिए जो आंकड़े प्रयोग किए गए हैं वो तुलना योग्य हैं।

कुपोषण के लिए इस्तेमाल किया गया मान, खाद्य और कृषि संगठन से लिया गया है।
चाइल्ड वेस्टिंग और चाइल्ड स्टंटिंग के लिए इस्तेमाल किए गए आंकड़ों का स्त्रोत देखें
शिशु मृत्यु दर के आंकड़ों का स्त्रोत देखें

भारत सरकार के महिला एवं बाल कल्याण मंत्रालय की ओर से वैश्विक भूख सूचकांक पर जारी किए गए बयान को यहां और यहां से प्राप्त करें।


 
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वेल्थुंगरहिल्फ़ और कंसर्न वर्ल्डवाइड द्वारा संयुक्त रूप से निर्मित, [inside]2021 ग्लोबल हंगर इंडेक्स – हंगर एंड फ़ूड सिस्टम्स इन कॉन्फ्लिक्ट सेटिंग्स (अक्टूबर, 2021 में जारी)[/inside] शीर्षक नामक रिपोर्ट के प्रमुख निष्कर्ष इस प्रकार हैं (कृपया पहुंचने के लिए यहां और यहां क्लिक करें):

वर्ष 2021 में, ग्लोबल हंगर इंडेक्स (जीएचआई) के मामले में 116 देशों में भारत का रैंक 101वां है.

• 2000 में भारत का GHI स्कोर 38.8, वर्ष 2006 में 37.4, वर्ष 2012 में 28.8 और वर्ष 2021 में 27.5 था. वर्ष 2021 में भारत का GHI स्कोर 27.5 GHI गंभीरता पैमाने के हिसाब से गंभीर सीमा में आता है.

• 2000 के बाद से, भारत ने पर्याप्त प्रगति की है, लेकिन अभी भी चिंताएं कम नहीं हुई हैं, विशेष रूप से बाल पोषण के संबंध में. हाल में भारत का GHI स्कोर वर्ष 2000 के GHI स्कोर 38.8 अंक (जिसे खतरनाक माना जाता है) से कम होकर वर्ष 2021 में GHI स्कोर 27.5 अंक (गंभीर की श्रेणी) हो गया है. जनसंख्या में कुपोषितों का अनुपात और पांच वर्ष से कम आयु के बच्चों की मृत्यु दर अब अपेक्षाकृत निम्न स्तर पर है, जबकि बच्चों की स्टंटिंग में उल्लेखनीय कमी देखी गई है (1998-1999 में 54.2 प्रतिशत से 2016-2018 में 34.7 प्रतिशत तक) हालांकि यह आंकड़ा अभी भीबहुत अधिक है. 17.3 प्रतिशत पर – नवीनतम आंकड़ों के अनुसार – जीएचआई में शामिल सभी देशों की तुलना में भारत में बच्चों में वेस्टिंग दर सबसे अधिक है. यह दर 1998-1999 की तुलना में थोड़ी अधिक है जब यह 17.1 प्रतिशत थी.

यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि 2021 में जो कुछ भी हुआ वह अभी तक अल्पपोषण डेटा के नवीनतम प्रसार में परिलक्षित नहीं हुआ है, जिसमें 2018-2020 शामिल है. कोविड –19 महामारी का पूरा प्रभाव आने वाले वर्षों में सभी चार जीएचआई संकेतकों के मूल्यों में ही दिखाई देगा.

जीएचआई सरकारों द्वारा किए गए व्यक्तिगत उपायों का आकलन करने और उन्हें प्रतिबिंबित करने के लिए डिज़ाइन नहीं किया गया है. 2021 ग्लोबल हंगर इंडेक्स वैश्विक और क्षेत्रीय स्तर पर भूख की स्थिति के साथ-साथ 135 देशों की स्थिति का आकलन करता है, जिनमें से 116 देशों के लिए 2021 जीएचआई स्कोर की गणना करने के लिए पर्याप्त डेटा उपलब्ध था. GHI भुखमरी के मामले में परिणामों के विकास का एक उपाय है. नीतिगत हस्तक्षेपों और उनके परिणामों के बीच अंतर करना महत्वपूर्ण है, ताकि परिणामों में सुधार के लिए सरकारी कार्यक्रमों और अन्य हस्तक्षेपों की प्रभावशीलता का मूल्यांकन किया जा सके.

पड़ोसी देश जैसे चीन (जीएचआई स्कोर <5.0; जीएचआई रैंक: सामूहिक रूप से 116 देशों में से 1-18 रैंक), श्रीलंका (जीएचआई स्कोर: 16.0; जीएचआई रैंक: 65), म्यांमार (जीएचआई स्कोर: 17.5; जीएचआई रैंक: 71), नेपाल (GHI स्कोर: 19.1; GHI रैंक: 76), बांग्लादेश (GHI स्कोर: 19.1; GHI रैंक: 76), और पाकिस्तान (GHI स्कोर: 24.7; GHI रैंक: 92) ने भारत से बेहतर प्रदर्शन किया है (GHI स्कोर: 27.5) जीएचआई रैंक: 116 देशों में से 101).

• 2021 जीएचआई रिपोर्ट के लिए, 135 देशों के आंकड़ों का आकलन किया गया था. इनमें से 116 देशों के लिए 2021 GHI स्कोर की गणना करने और रैंक करने के लिए पर्याप्त डेटा था (तुलना के अनुसार, 107 देशों को 2020 की रिपोर्ट में स्थानदिया गया था).

style="text-align:justify">2021 जीएचआई स्कोर 5 से कम वाले 18 देशों (चीन सहित) को व्यक्तिगत रैंक नहीं दी गई है, बल्कि सामूहिक रूप से 1-18 रैंक दी गई है. उनके अंकों के बीच अंतर न्यूनतम हैं.

वर्ष 2021 के जीएचआई में समान स्कोर वाले देशों को समान रैंकिंग दी गई है (उदाहरण के लिए, नेपाल और बांग्लादेश दोनों 76वें स्थान पर हैं).

साल 2000-2002 के दौरान भारत की जनसंख्या में कुपोषितों का अनुपात 18.4 प्रतिशत, 2005-2007 के दौरान 19.6 प्रतिशत, 2011-2013 के दौरान 15.0 प्रतिशत और 2018-2020 के दौरान 15.3 प्रतिशत था.

भारत के लिए पांच साल से कम उम्र के बच्चे, जो वेस्टिंग (अर्थात लंबाई के हिसाब से बहुत पतले) का शिकार थे, उनका अनुपात 1998-2002 के दौरान 17.1 प्रतिशत, 2004-2008 के दौरान 20.0 प्रतिशत, 2010-2014 के दौरान 15.1 प्रतिशत और 2016-2020 के दौरान 17.3 प्रतिशत था.

10 देशों में, बच्चों में वेस्टिंग की दर के सार्वजनिक स्वास्थ्य महत्व को "उच्च" (10–<15 प्रतिशत) या "बहुत अधिक" (15 प्रतिशत) (डी ओनिस एट अल 2019) माना जाता है: भारत (17.3 प्रतिशत), जिबूती (15.7 प्रतिशत), श्रीलंका (15.1 प्रतिशत), यमन (15.1 प्रतिशत), सोमालिया (13.1 प्रतिशत), चाड (13.0 प्रतिशत), सूडान (12.6 प्रतिशत), नेपाल (12.0 प्रतिशत), मॉरिटानिया (11.5 प्रतिशत), और तिमोर-लेस्ते (11.5 प्रतिशत).

भारत में पांच साल से कम उम्र के बच्चे, जो स्टंटिंग (अर्थात उम्र के हिसाब से बहुत कम) का शिकार थे, उनका अनुपात 1998-2002 के दौरान 54.2 प्रतिशत, 2004-2008 के दौरान 47.8 प्रतिशत, 2010-2014 के दौरान 38.7 प्रतिशत और 2016-2020 के दौरान 34.7 प्रतिशत था.

भारत में पांच साल से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु दर साल 2000 में 9.2 प्रतिशत, 2006 में 7.1 प्रतिशत, 2012 में 5.2 प्रतिशत और 2019 में 3.4 प्रतिशत थी.

कृपया ध्यान दें कि जीएचआई स्कोर, बच्चों में स्टंटिंग, और बच्चों में वेस्टिंग के आंकड़े 1998-2002 (2000), 2004-2008 (2006), 2010-2014 (2012), और 2016-2020 (2021) के हैं. अल्पपोषण के आंकड़े 2000-2002 (2000), 2005-2007 (2006), 2011-2013 (2012), और 2018-2020 (2021) के हैं. बाल मृत्यु दर के आंकड़े 2000style="color:#333333">, 2006, 2012 और 2019 (2021) के हैं.

किसी देश का जीएचआई स्कोर चार संकेतकों पर आधारित होता है.

– अल्पपोषण: आबादी का वह हिस्सा जो अल्पोषित है (अर्थात, जिसकी कैलोरी की मात्रा अपर्याप्त है);

– चाइल्ड वेस्टिंग: पांच साल से कम उम्र के बच्चे जो वेस्टिंग का शिकार हैं (अर्थात, जिनका वजन उनकी लंबाई के हिसाब से कम है, तीव्र अल्पपोषण को दर्शाता है);

– चाइल्ड स्टंटिंग: पांच वर्ष से कम आयु के बच्चे, जो स्टंटिंग का शिकार हैं (अर्थात, जिनकी लंबाई उनकी उम्र के हिसाब से कम है, जो पुराने कुपोषण को दर्शाता है); तथा

– बाल मृत्यु दर: पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु दर (आंशिक रूप से, अपर्याप्त पोषण और अस्वास्थ्यकर वातावरण के घातक मिश्रण का प्रतिबिंब).

जीएचआई स्कोर की गणना के लिए फार्मूले तक पहुंचने के लिए कृपया यहां क्लिक करें.

चार घटक संकेतकों में से प्रत्येक (ऊपर चर्चा की गई) को हाल के दशकों में वैश्विक स्तर पर संकेतक के लिए उच्चतम देखे गए स्तर के आधार पर 100-बिंदु पैमाने पर एक मानकीकृत स्कोर दिया गया है.

प्रत्येक देश के लिए GHI स्कोर की गणना के लिए मानकीकृत स्कोर एकत्र किए जाते हैं. अल्पपोषण और बाल मृत्यु दर प्रत्येक जीएचआई स्कोर का एक-तिहाई योगदान करते हैं, जबकि बाल कुपोषण संकेतक- बच्चे में वेस्टिंग और बाल स्टंटिंग- प्रत्येक स्कोर का एक-छठा योगदान करते हैं. जीएचआई के मामले में, 0 सबसे अच्छा स्कोर है (भूख नहीं) और 100 सबसे खराब है.

जीएचआई स्कोर प्रत्येक वर्ष की रिपोर्ट के भीतर तुलनीय हैं, लेकिन विभिन्न वर्षों की रिपोर्ट के बीच नहीं. वर्तमान और ऐतिहासिक डेटा जिस पर जीएचआई स्कोर आधारित हैं, उन्हें संयुक्त राष्ट्र एजेंसियों द्वारा लगातार संशोधित और सुधार किया जा रहा है जो उन्हें संकलित करते हैं, और प्रत्येक वर्ष की जीएचआई रिपोर्ट इन परिवर्तनों को दर्शाती है. रिपोर्टों के बीच स्कोर की तुलना करने से यह धारणा बन सकती है कि किसी विशिष्ट देश में साल-दर-साल भूख सकारात्मक या नकारात्मक रूप से बदल गई है, जबकि कुछ मामलों में परिवर्तन आंशिक रूप से या पूरी तरह से डेटा संशोधन का प्रतिबिंब हो सकता है.

जीएचआई स्कोर और संकेतक मूल्यों की तरह, एक वर्ष की रिपोर्ट की रैंकिंग की तुलना दूसरे वर्ष की रैंकिंग से नहीं कीजा सकती है. पहलेवर्णित डेटा और कार्यप्रणाली संशोधन के अलावा, विभिन्न देशों को हर साल रैंकिंग में शामिल किया जाता है. यह आंशिक रूप से डेटा उपलब्धता के कारण होता है – जिन देशों के लिए GHI स्कोर की गणना के लिए पर्याप्त डेटा उपलब्ध है, उनका समूह साल-दर-साल बदलता रहता है. यदि किसी देश की रैंकिंग एक वर्ष से अगले वर्ष में बदल जाती है, तो यह आंशिक रूप से हो सकता है क्योंकि इसकी तुलना देशों के एक अलग समूह के साथ की जा रही है. इसके अलावा, रैंकिंग प्रणाली को 2016 में बदल दिया गया था ताकि रिपोर्ट में सभी देशों को शामिल किया जा सके, न कि केवल 5 या उससे अधिक के जीएचआई स्कोर वाले देशों को. इसने कम स्कोर वाले कई देशों को रैंकिंग में जोड़ा, जिन्हें पहले शामिल नहीं किया गया था.

समय के साथ देश के जीएचआई प्रदर्शन को ट्रैक करने के लिए, प्रत्येक रिपोर्ट में तीन संदर्भ वर्षों के लिए जीएचआई स्कोर और संकेतक डेटा शामिल होता है. 2021 की रिपोर्ट में, भारत के GHI स्कोर की 2000, 2006 और 2012 के GHI स्कोर से सीधे तुलना की जा सकती है.

भारत के 2021 जीएचआई स्कोर के लिए, चार घटक संकेतकों पर डेटा विभिन्न स्रोतों से आया है. जैसा कि पहले कहा गया है, प्रत्येक संकेतक मान मानकीकृत और भारित है. प्रत्येक देश के लिए GHI स्कोर की गणना के लिए मानकीकृत स्कोर एकत्र किए जाते हैं.

अल्पपोषण मूल्य एफएओ खाद्य सुरक्षा संकेतकों के 2021 संस्करण से हैं (12 जुलाई, 2021 को प्रकाशित, 12 जुलाई, 2021 को एक्सेस किया गया). एफएओ का टेलीफोन आधारित संकेतक जिसमें गैलप द्वारा लिए गए सर्वेक्षण की जानकारी शामिल है – खाद्य असुरक्षा अनुभव स्केल (एफआईईएस) – जीएचआई में उपयोग नहीं किया जाता है. जीएचआई अल्पपोषण संकेतक की व्यापकता का उपयोग करता है, जिसका मूल्यांकन एफएओ द्वारा प्रत्येक देश के खाद्य बैलेंस शीट डेटा का उपयोग करके किया जाता है. यह कैलोरी की अपर्याप्त पहुंच वाली जनसंख्या के अनुपात को मापता है और देश में खाद्य आपूर्ति के आंकड़ों पर आधारित है.

बाल स्टंटिंग और वेस्टिंग डेटा यूनिसेफ, डब्ल्यूएचओ, और विश्व बैंक के संयुक्त बाल कुपोषण अनुमान (अप्रैल 2021 को प्रकाशित, 24style="color:#333333"> मई, 2021 को एक्सेस किया गया) के 2021 संस्करण से हैं, जिसमें भारत के व्यापक राष्ट्रीय पोषण सर्वेक्षण 2016-2018 (सीएनएनएस) राष्ट्रीय रिपोर्ट (प्रकाशित 2019) के डेटा शामिल हैं. चाइल्ड वेस्टिंग से तात्पर्य पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों के उस हिस्से से है जो वेस्टिंग का शिकार हैं (अर्थात, जिनका वजन उनकी लंबाई के हिसाब से कम है, जो तीव्र कुपोषण को दर्शाता है). चाइल्ड स्टंटिंग से तात्पर्य पांच वर्ष से कम उम्र के उन बच्चों की हिस्सेदारी से है जो स्टंटिंग का शिकार हैं (अर्थात, जिनकी उम्र के हिसाब से लंबाई कम है, जो पुराने कुपोषण को दर्शाता है).

पांच साल से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु दर UN IGME (इंटर-एजेंसी ग्रुप फॉर चाइल्ड मॉर्टेलिटी एस्टीमेशन) के 2020 संस्करण से ली गई है, बाल मृत्यु दर अनुमान (9 सितंबर, 2020 को प्रकाशित, 24 मई, 2021 को एक्सेस किया गया). देश स्तर पर बाल मृत्यु दर डेटा की गुणवत्ता और उपलब्धता में व्यापक रेंज को देखते हुए, GHI के लिए यह आवश्यक और विवेकपूर्ण है कि वह सभी देशों के लिए UN IGME के ​​डेटा का उपयोग करे ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि मूल्यों की ठीक से जांच की गई है.

एफएओ खाद्य सुरक्षा पर संकेतकों का एक पूरा सूट तैयार करता है. इनमें से दो सबसे महत्वपूर्ण हैं और विश्व स्तर पर एसडीजी लक्ष्य 2.1 की प्रगति की निगरानी के लिए संकेतक के रूप में पहचाने जाते हैं. ये हैं: 1) अल्पपोषण की व्यापकता (पीओयू), जो जनसंख्या के अनुपात का एक अनुमान है जिसका अभ्यस्त आहार सेवन सामान्य, सक्रिय और स्वस्थ जीवन के लिए आवश्यक न्यूनतम आहार ऊर्जा आवश्यकता से कम है, और 2) मध्यम की व्यापकता या गंभीर खाद्य असुरक्षा (पीएमएसएफआई), जो खाद्य असुरक्षा अनुभव पैमाने (एफआईईएस) पर आधारित है और जनसंख्या के अनुपात का अनुमान लगाता है जो पर्याप्त गुणवत्ता और मात्रा के भोजन तक सीमित पहुंच का सामना करता है.

एफएओ द्वारा प्रकाशित इन दो संकेतकों में से, जीएचआई केवल पीओयू का उपयोग करता है, जो कि आहार ऊर्जा सेवन की पुरानी कमी का सामना करने वाली आबादी के अनुपात का एक उपाय है. अल्पपोषण की व्यापकता खाद्य आपूर्ति की औसत प्रति व्यक्ति उपलब्धता को ध्यान में रखकर तैयार की गई खाद्य बैलेंस शीट के माध्यम सेप्राप्त की जाती है. खाद्यबैलेंस शीट मुख्य रूप से भारत सहित सदस्य देशों द्वारा आधिकारिक तौर पर रिपोर्ट किए गए आंकड़ों पर आधारित होते हैं. पीओयू जनसंख्या में कैलोरी सेवन के वितरण को भी ध्यान में रखता है (जैसा कि भारत सहित सरकारों द्वारा किए गए आधिकारिक उपभोग सर्वेक्षणों के माध्यम से अनुमान लगाया गया है), साथ ही जनसंख्या की कैलोरी आवश्यकता (पुरुषों और महिलाओं के लिए आयु वितरण, ऊंचाई के वितरण और डेटा के आधार पर) आहार ऊर्जा आवश्यकताओं के अन्य प्रमुख निर्धारक). एफएओ द्वारा संकलित सभी डेटा – सदस्य देशों द्वारा आधिकारिक तौर पर रिपोर्ट किए गए डेटा, अन्य सार्वजनिक स्रोतों से उपलब्ध डेटा, और एफएओ द्वारा किए गए अनुमानों सहित – एफएओ द्वारा विस्तृत दस्तावेज के साथ सार्वजनिक किया जाता है कि ये कैसे प्राप्त किए जाते हैं. जीएचआई मध्यम या गंभीर खाद्य असुरक्षा (पीएमएसएफआई) की व्यापकता का उपयोग नहीं करता है, जो खाद्य असुरक्षा अनुभव पैमाने (एफआईईएस) पर आधारित है और जनसंख्या के अनुपात का अनुमान लगाता है जो पर्याप्त गुणवत्ता और मात्रा के भोजन तक सीमित पहुंच का सामना करता है.

पीओयू पद्धति पर अधिक विवरण एफएओ की विश्व में खाद्य असुरक्षा और पोषण की स्थिति के अनुबंध 1बी (पृष्ठ 158) में और एफएओ वेबपेज पर पाया जा सकता है

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ऑक्सफैम ‘द हंगर वायरस मल्टीप्लाइज’ ने नाम की रिपोर्ट के अनुसार भुखमरी के कारण मरने वाले लोगों की संख्या कोविड-19 के कारण मरने वाले लोगों की संख्या से अधिक हो गई है. कोविड-19 के कारण दुनिया में हर एक मिनट में करीब सात लोगों की जान जाती है. दुनियाभर में भुखमरी के कारण हर एक मिनट में 11 लोगों की मौत होती है और बीते एक साल में पूरी दुनिया में अकाल जैसे हालात का सामने करने वाले लोगों की संख्या छह गुना बढ़ गई है. ऑक्सफैम ने सरकारों से अनुरोध किया कि वे संघर्षों को रोकें अन्यथा भुखमरी के हालात विनाशकारी हो जाएंगे.

ऑक्सफैम अमेरिका के अध्यक्ष एवं सीईओ एब्बी मैक्समैन ने कहा, ‘आंकड़े हैरान करने वाले हैं. लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि ये आंकड़े उन लोगों से बने हैं जो अकल्पनीय पीड़ा से गुजर रहे हैं. कोविड-19 के आर्थिक दुष्प्रभाव और बेरहम संघर्षों, विकट होते जलवायु संकट ने 5,20,000 से अधिक लोगों को भुखमरी की कगार पर पहुंचा दिया है. वैश्विक महामारी से मुकाबला करने के बजाए, परस्पर विरोधी धड़े एक दूसरे से लड़ रहे हैं जिसका असर अंतत: उन लाखों लोगों पर पड़ता है जो पहले ही मौसम संबंधी आपदाओं और आर्थिक झटकों से बेहाल हैं. मैक्समैन ने कहा, ‘आम नागरिकों को भोजन पानी से वंचित रखकरऔर उन तक मानवीय राहत नहीं पहुंचने देकर भुखमरी को युद्ध के हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है. बाजारों पर बम बरसाए जा रहे हों, फसलों और मवेशियों को खत्म किया जा रहा हो तो लोग सुरक्षित नहीं रह सकते और न ही भोजन तलाश सकते हैं.

ऑक्सफैम मीडिया ब्रीफिंग, [inside]द हंगर वायरस मल्टीप्लाइज (9 जुलाई, 2021 को जारी)[/inside] के प्रमुख निष्कर्षों तक पहुंचने के लिए कृपया यहां और यहां क्लिक करें.

रिपोर्ट के अनुसार, दुनिया में करीब 15.5 करोड़ लोग खाद्य असुरक्षा के भीषण संकट का सामना कर रहे हैं और यह आंकड़ा पिछले वर्ष के आंकड़ों की तुलना में दो करोड़ अधिक है. इनमें से करीब दो तिहाई लोग भुखमरी के शिकार हैं और इसकी वजह है उनके देश में चल रहा सैन्य संघर्ष.

रिपोर्ट के अनुसार, वैश्विक महामारी कोरोना वायरस के बावजूद विश्व भर में सेनाओं पर होने वाला खर्च महामारी काल में 51 अरब डॉलर बढ़ गया, यह राशि भुखमरी को खत्म करने के लिए संयुक्त राष्ट्र को जितने धन की जरूरत है उसके मुकाबले कम से कम छह गुना ज्यादा है.

इस रिपोर्ट में जिन देशों को भुखमरी से सर्वाधिक प्रभावितकी सूची में रखा है वे देश अफगानिस्तान, इथियोपिया, दक्षिण सूडान, सीरिया और यमन हैं. इन सभी देशों में संघर्ष के हालात हैं.

रिपोर्ट के अनुसार, दुनिया में 68.8 करोड़ लोग कुपोषण के शिकार हैं और इनमें से आधे से ज्यादा लोग एशिया में हैं. सबसे ज्यादा लोग अफगानिस्तान में हैं, जहां प्रत्येक 10 में से चार लोग कुपोषित हैं.

रिपोर्ट के कुछ उदाहरणों में भुखमरी के कुछ मुख्य केन्द्र:

* ब्राजील: वायरस के प्रसार को रोकने के उपायों ने छोटे व्यवसायों को बंद करने के लिए मजबूर किया और आधे से अधिक काम करने वाले ब्राजीलियाई लोगों को अपनी नौकरी गंवानी पड़ी. गरीबी अत्यधिक लगभग तीन गुना, 4.5% से बढ़कर 12.8% हो गई, और लगभग 2 करोड़ को भुखमरी की तरफ धकेल दिया गया. संघीय सरकार ने केवल 3.8 करोड़ कमजोर परिवारों को समर्थन पहुंचा पाई, जबकि लाखों लोगों को न्यूनतम आय के बिना उनके हाल पर छोड़ दिया गया.

* भारत: बढ़ते COVID-19 संक्रमण ने सार्वजनिक स्वास्थ्य के साथ-साथ आय को तबाह कर दिया, विशेष रूप से प्रवासी श्रमिकों और किसानों के लिए, जो अपनी फसल को सड़ने के लिए खेत में छोड़ने के लिए मजबूर थे. 12 राज्यों में सर्वेक्षण किए गए 70% से अधिक लोगों ने अपने आहार को डाउनग्रेड कर दिया है क्योंकि वे भोजन के लिए पैसे खर्च नहीं कर सकते. स्कूल बंदहोने से 12 करोड़ बच्चे अपनेमुख्य भोजन से भी वंचित हो गए हैं.

* यमन: नाकाबंदी, संघर्ष और ईंधन संकट के कारण 2016 के बाद से मुख्य खाद्य कीमतें दोगुनी से अधिक हो गई हैं. मानवीय सहायता को आधा कर दिया गया, मानवीय एजेंसियों की प्रतिक्रिया को कम कर दिया और 50 लाख लोगों के लिए खाद्य सहायता में कटौती की. जुलाई 2021 तक अकाल जैसी स्थितियों का सामना करने वाले लोगों की संख्या लगभग तीन गुना बढ़कर 47,000 हो जाने के आसार है.

* साहेल: बुर्किना फ़ासो जैसे संघर्ष से सबसे अधिक प्रभावित देशों में 2019 और 2020 के बीच भूख में 200 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि देखी गई – 687,000 से 21 लाख लोग. मध्य साहेल और लेक चाड बेसिन में बढ़ती हिंसा ने करीब 53 लोगों को पलायन करने के लिए मजबूर किया और खाद्य मुद्रास्फीति को पांच साल के उच्च स्तर पर पहुंचा दिया. जलवायु संकट ने स्थिति और खराब कर दी: 2015 से बाढ़ में 180 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, फसलों को तबाह कर दिया है और 17 लाख लोगों की आय प्रभावित हुई है.

* दक्षिण सूडान: अपनी आजादी के दस साल बाद, 100,000 से अधिक लोग अब अकाल जैसी परिस्थितियों का सामना कर रहे हैं. पिछले एक साल में जारी हिंसा और बाढ़ ने कृषि को बाधित कर दिया और 42 लाख लोगों को अपने घरों से पलायन करने के लिए मजबूर कर दिया. दक्षिण सूडान के लिए संयुक्त राष्ट्र की 1.68 अरब डॉलर की मानवीय अपील के 20% से भी कम को अब तक वित्त पोषित किया गया है.

 

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वेल्थुन्गेरिलिफ़ और कंसर्न वर्ल्डवाइड द्वारा संयुक्त रूप से जारी की गई [inside]ग्लोबल हंगर इंडेक्स 2020: वन डिकेड टू जीरो हंगर – लिंकिंग हेल्थ एंड सस्टेनेबल फूड सिस्टम्स (अक्टूबर, 2020 में जारी)[/inside] नामक रिपोर्ट के प्रमुख निष्कर्ष इस प्रकार हैं (उपयोग करने के लिए कृपया यहाँ और यहाँ क्लिक करें):
 
• साल 2020 के दौरान ग्लोबल हंगर इंडेक्स (GHI) के मामले में भारत, 107 देशों की सूची में 94 वें स्थान पर है.
 
• भारत का ग्लोबल हंगर इंडेक्स (GHI) स्कोर साल 2000 में 38.9, साल 2006 में 37.5, साल 2012 में 29.3 और साल 2020 में 27.2 है. 2020 में भारत का ग्लोबल हंगर इंडेक्स (GHI)  स्कोर 27.2 जीएचआई सिवियरटी स्केल की गंभीर श्रेणी में आता है.
 
• पड़ोसी देश जैसे चीन (GHI स्कोर <5.0; GHI रैंक: 107 देशों में से 1-17 रैंक), श्रीलंका (GHI स्कोर: 16.3; GHI रैंक: 64), नेपाल (GHI स्कोर: 19.5; GHI रैंक; : 73), बांग्लादेश (जीएचआई स्कोर: 20.4; जीएचआई रैंक: 75), म्यांमार (जीएचआई स्कोर: 20.9; जीएचआई रैंक: 78), और पाकिस्तान (जीएचआई स्कोर: 24.6; जीएचआई रैंक: 88) ने भारत (जीएचआई स्कोर 27.2; जीएचआई रैंक: 107 देशों में से 94) को पीछे छोड़ दिया है.
 
• भारत की कुल आबादी में अल्पपोषितों का अनुपात साल 2000-2002 के दौरान 18.6 प्रतिशत, साल 2005-2007 के दौरान 19.8 प्रतिशत, साल 2011-2013 के दौरान 16.3 प्रतिशत और साल 2017-2019 के दौरान 14.0 प्रतिशत था.
 
•भारत में वेस्टिंग (अर्थात लंबाई केहिसाब से दुबलापन) का शिकार हुए पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों का अनुपात साल 1998-2002 के दौरान 17.1 प्रतिशत, साल 2004-2008 के दौरान 20.0 प्रतिशत, साल 2010-2014 के दौरान 15.1 प्रतिशत और साल 2015-2019 के दौरान 17.3 प्रतिशत था.
 
• 11 देशों में, वेस्टिंग (अर्थात लंबाई के हिसाब से दुबलापन) का शिकार हुए बच्चों की दर का सार्वजनिक स्वास्थ्य महत्व "उच्च" (10– <15 प्रतिशत) या "बहुत अधिक" (≥15 प्रतिशत) (de Onis et al. 2019): भारत (17.3 प्रतिशत) यमन (15.5 प्रतिशत), श्रीलंका (15.1 प्रतिशत), तिमोर-लेस्ते (14.6 प्रतिशत), सूडान (14.3 प्रतिशत), नाइजर (14.1 प्रतिशत), चाड (13.3 प्रतिशत), जिबूती (12.3 प्रतिशत), मलेशिया (11.5 प्रतिशत) , मॉरिटानिया (11.5 प्रतिशत), और इंडोनेशिया (10.2 प्रतिशत) माना जाता है.
 
• भारत में स्टंटिंग (अर्थात उम्र के हिसाब से नाटे) का शिकार हुए पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों का अनुपात साल 1998-2002 के दौरान 54.2 प्रतिशत, 2004-2008 के दौरान 47.8 प्रतिशत, 2010-2014 के दौरान 38.7 प्रतिशत और 2015-2019 के दौरान 34.7 प्रतिशत था.
 
• बांग्लादेश, भारत, नेपाल और पाकिस्तान के लिए 1991 से 2014 तक के स्टंटिंग (अर्थात उम्र के हिसाब से नाटे) से संबंधित आंकड़ों से पता चला है कि विभिन्न प्रकार के अभावों का सामना कर रहे गरीब परिवारों के बच्चों में स्टंटिंग केंद्रित है, जिनमें खराब आहार विविधता, मातृ शिक्षा का निम्न स्तर और घरेलू गरीबी (Krishna et al. 2018) शामिल हैं.
 
• भारत में पांच वर्ष से कम आयु में मृत्यु दर साल 2000 में 9.2 प्रतिशत, 2006 में 7.1 प्रतिशत, 2012 में 5.2 प्रतिशत और 2018 में 3.7 प्रतिशत थी.
 
• इस क्षेत्र का सबसे अधिक आबादी वाले देश भारत में साल 2000-2018 की अवधि के दौरान अंडर-फाइव मृत्यु दर में गिरावट दर्ज की गई, क्योंकि बर्थ ऐन्फैक्सिया या आघात, नवजात संक्रमण, निमोनिया और दस्त से होने वाली मौतें बड़े पैमाने पर कम हुई हैं. हालांकि, गरीब राज्यों और ग्रामीण क्षेत्रों में विशेषकर, समय से पहले जन्म और जन्म के समय कम वजन के कारण बाल मृत्यु दर में वृद्धि हुई है. बेहतर प्रसवपूर्व देखभाल, शिक्षा और पोषण जैसे कार्यों के साथ-साथ एनीमिया और मौखिक तंबाकू के उपयोग में कमी (मिलियन स्टडी कोलैबरेटर्स 2017) के अलावा प्रीमेच्योरिटी और लो बर्थवेट की रोकथाम भारत में पांच वर्ष से कम आयु में मृत्यु दर को कम करने की क्षमता के लिए एक महत्वपूर्ण कारक है.
 
• 2020 जीएचआई स्कोर की गणना के लिए, अल्पपोषणके लिए 2017-2019 तक के डेटा; चाइल्ड स्टंटिंग और चाइल्ड वेस्टिंग डेटा 2015–2019 तक, प्रत्येक देश के लिए उपयोग की जाने वाली उस श्रेणी के सबसे वर्तमान डेटा का इस्तेमाल किया गया है, और बाल मृत्यु दर के आंकड़े 2018 तक लिए गए हैं. 2020 में, COVID-19 महामारी के कारण, GHI घटक संकेतकों में से कुछ के मान, और GHI स्कोर खराब होने की संभावना है, लेकिन 2020 में होने वाले किसी भी परिवर्तन को अभी तक इस वर्ष की रिपोर्ट में डेटा और स्कोर में प्रतिबिंबित नहीं किया है.
 
• कृपया ध्यान दें कि GHI स्कोर, चाइल्ड स्टंटिंग और चाइल्ड वेस्टिंग के डेटा 1998-2002 (2000),2004-2008 (2006), 2010–2014 (2012) और 2015–2019 (2020)के हैं. अल्पपोषण के लिए आंकड़े 2000–2002 (2000), 2005–2007 (2006), 2011–2013 (2012), and 2017–2019 (2020) के हैं. बाल मृत्यु दर के आंकड़े 2000, 2006, 2012 और 2018 (2020) के हैं.
 
• किसी देश का GHI स्कोर चार संकेतकों पर आधारित होता है.    
– अल्पपोषण: कुल आबादी में अल्पपोषितों (जो कि कैलोरी की मात्रा अपर्याप्त है) की संख्या.
– चाइल्ड वेस्टिंग: पांच वर्ष से कम आयु के बच्चों की हिस्सेदारी, जो वेस्टिंग (अर्थात लंबाई के हिसाब से दुबलापन, तीव्र कुपोषण को दर्शाता है) का शिकार हैं;
– चाइल्ड स्टंटिंग: पांच साल से कम उम्र के बच्चों की हिस्सेदारी, जो स्टंटिंग (अर्थात उम्र के हिसाब से नाटे, क्रोनिक अल्पपोषण को दर्शाते हैं) का शिकार हैं; तथा
– बाल मृत्यु दर: पांच वर्ष से कम आयु के बच्चों में मृत्यु दर (आंशिक पोषण और अस्वास्थ्यकर वातावरण के घातक मिश्रण का एक प्रतिबिंब)

 
• हाल के दशकों में, चार घटक संकेतकों में से प्रत्येक (ऊपर चर्चा की गई) संकेतक को वैश्विक स्तर पर उच्चतम मानक स्तर के आधार पर 100-पॉइंट पैमाने पर एक मानकीकृत स्कोर दिया गया है.
 
• मानकीकृत स्कोर को प्रत्येक देश के लिए GHI स्कोर की गणना करने के लिए एकत्रित किया जाता है. अल्पपोषण और बाल मृत्यु दर जीएचआई स्कोर में एक-तिहाई का योगदान करते हैं, जबकि बाल अल्पपोषण संकेतक – चाइल्ड वेस्टिंग और स्टंटिंग – प्रत्येक स्कोर का छटवां (1/6) हिस्सा होता है. GHI के मामले में, 0 सर्वश्रेष्ठ स्कोर (भूख नहीं) है और 100 सबसे खराब स्कोर है.
 
• GHI स्कोर प्रत्येक वर्ष की रिपोर्ट के भीतर तुलनीय है, लेकिन विभिन्न वर्षों की रिपोर्ट के बीच नहीं. वर्तमान और ऐतिहासिक डेटा, जिस पर GHI स्कोर आधारित हैं, को संयुक्त राष्ट्र एजेंसियों द्वारा लगातार संशोधित और सुधार किया जा रहा है, जो उन्हें संकलित करता है, और प्रत्येक वर्ष की GHI रिपोर्ट इन परिवर्तनों को दर्शाती है. रिपोर्ट के बीच स्कोर की तुलना करने से यह धारणा बन सकती है कि भूख किसी विशिष्ट देश में साल-दर-साल सकारात्मक या नकारात्मक रूप से बदल गई है, जबकि कुछ मामलों में परिवर्तन आंशिक रूप से या पूरी तरह से डेटा संशोधन का प्रतिबिंब हो सकता है.
 
• जीएचआई स्कोर और संकेतकों की तरह, एक वर्ष की रिपोर्ट की रैंकिंग की तुलना दूसरे से नहीं की जा सकती. पहले वर्णित डेटा और कार्यप्रणाली संशोधनों के अलावा, विभिन्न देशों को हर साल रैंकिंग में शामिल किया जाता है. यह डेटा उपलब्धता के हिस्से के कारण है – उन देशों का सेट, जिनके लिए जीएचआई स्कोर की गणना करने के लिए पर्याप्त डेटा उपलब्ध हैं, यह साल-दर-साल बदलता रहता है. यदि किसी देश की रैंकिंग एक वर्ष से अगले वर्ष तक बदलती है, तो वह भाग में हो सकती है क्योंकि इसकी तुलना विभिन्न देशों के समूह के साथ की जा रही है. इसके अलावा, रैंकिंग प्रणाली को 2016 में बदल दिया गया था ताकि सभी देशों को रिपोर्ट में शामिल किया जा सके न कि 5 या उससे अधिक के GHI स्कोर के साथ. इसमें कई देशों को रैंकिंग में कम स्कोर के साथ जोड़ा गया, जोपहले शामिल नहीं थे.
 
[वेल्थथुर्हेल्फ़ और कंसर्न वर्ल्डवाइड द्वारा जारी की गई इस रिपोर्ट का सारांश तैयार करने में इनक्लुसिव मीडिया फॉर चेंज टीम की सहायता शिवांगिनी पिपलानी ने की है. शिवांगिनी, बर्लिन स्कूल ऑफ बिजनेस एंड इनोवेशन से एमए इन फाइनेंस एंड इन्वेस्टमेंट (प्रथम वर्ष) कर रही हैं. उन्होंने दिसंबर 2020 में इनक्लुसिव मीडिया फॉर चेंज प्रोजेक्ट में अपने विंटर इंटर्नशिप के हिस्से के रूप में यह काम किया है.]
 
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खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) और संयुक्त राष्ट्र (यूएन) के अन्य लोगों द्वारा जारी [inside]द स्टेट ऑफ फूड सिक्योरिटी एंड न्यूट्रीशन इन द वर्ल्ड 2020: ट्रांसफोर्मिंग फूड सिस्टम्स् फॉर अफोर्डेबल हेल्थी डाइट (जुलाई 2020 में जारी) [/inside] नामक रिपोर्ट के प्रमुख निष्कर्ष इस प्रकार हैं, (उपयोग करने के लिए यहां क्लिक करें):

भारत में, कुल जनसंख्या में अल्पपोषण की व्यापकता 2004-06 के आंकड़े 21.7 'प्रतिशत (यानी 24.9 करोड़) से घटकर 2017-19 के दौरान 14 प्रतिशत (यानी 18.9 करोड़) हो गई है. बांग्लादेश में, 2004-06 के दौरान 14.3 प्रतिशत से घटकर 2017-19 के दौरान 13.0 प्रतिशत हो गई है. चीन में, कुल आबादी में अल्पपोषण का व्यापकता 2004-06 के दौरान 7.9 प्रतिशत से गिरकर 2017-19 के दौरान 2.5 प्रतिशत रह गई है.

भारत के लिए, कुल जनसंख्या में गंभीर खाद्य असुरक्षा की व्यापकता और कुल आबादी में  मध्यम या गंभीर खाद्य असुरक्षा की व्यापकतासे संबंधित आंकड़े द स्टेट ऑफ फूड सिक्योरिटी एंड न्यूट्रीशन इन द वर्ल्ड 2020 रिपोर्ट में उपलब्ध नहीं हैं.

वैशाली बंसल के अनुसार, 2017 के बाद से, एसओएफआई खाद्य असुरक्षा के दो प्रमुख उपाय प्रस्तुत करता है: पारंपरिक उपाय जिसे 'अल्पपोषण की प्रवृत्ति (पीओयू)' कहा जाता है और एक नया उपाय जिसे 'मध्यम और गंभीर खाद्य असुरक्षा का प्रसार' (PMSFI) कहा जाता है. जबकि पीओयू खाद्य पोषण की कमी का सामना कर रही आबादी के अनुपात का आकलन करने पर केंद्रित है, पीएमएसएफआई पर्याप्त और पौष्टिक भोजन तक पहुंच की कमी का एक अधिक व्यापक मानक है. पीओयू का अनुमान खाद्य संतुलन पत्रक और खपत के राष्ट्रीय सर्वेक्षण पर आधारित है. यह देखते हुए कि अधिकांश देशों में खपत सर्वेक्षण अक्सर किए जाते हैं, ये अनुमान अक्सर पुराने डेटा पर आधारित होते हैं और बेहतर डेटा उपलब्ध होने पर संशोधित किए जाते हैं. इसके विपरीतstyle="font-size:9.5pt">, PMSFI वार्षिक सर्वेक्षणों परआधारित है जो खाद्य असुरक्षा (जैसे भोजन की कमी, भोजन छोड़ना, और संसाधनों की कमी के कारण आहार विविधता बदलना) के अनुभवों पर जानकारी एकत्र करते हैं. PMSFI वैश्विक स्तर पर तुलनीय प्रचलित दरों का आकलन करने के लिए खाद्य और कृषि संगठन संयुक्त राष्ट्र (FAO) द्वारा विकसित खाद्य सुरक्षा माप में एक स्वर्ण मानक, खाद्य असुरक्षा अनुभव स्केल (FIES) का उपयोग करता है. इस पद्धति की ठोस वैचारिक नींव और डेटा के संग्रह में आसानी को देखते हुए, FIES और PMFSI को दुनिया भर के देशों द्वारा व्यापक रूप से अपनाया गया है. FAO ने गैलप®वर्ल्ड पोल (FAO-GWP) के सर्वेक्षण में FIES प्रश्नों को शामिल करने के लिए गैलप को दुनिया भर के 140 से अधिक देशों में आयोजित किया. कई देशों ने अपने स्वयं के FIES सर्वेक्षण करना भी शुरू कर दिया है. अधिकांश अन्य देशों के विपरीत, भारत सरकार न तो आधिकारिक FIES सर्वेक्षण करती है और न ही FAO-GWP सर्वेक्षणों के आधार पर अनुमानों को स्वीकार करती है. हालांकि एफएओ-जीडब्ल्यूपी सर्वेक्षण भारत में आयोजित किए जाते हैं, भारत उन कुछ देशों में से है जो इन सर्वेक्षणों के आधार पर अनुमानों के प्रकाशन की अनुमति नहीं देते हैं. नतीजतन, पिछले वर्षों की तरह, भारत के लिए PMSFI का अनुमान SOFI में प्रकाशित नहीं किया गया है.

वैशाली बंसल के अनुसार, एसओएफआई 2020 रिपोर्ट दक्षिण एशिया के लिए संपूर्ण और दक्षिण एशिया (भारत को छोड़कर) के लिए खाद्य असुरक्षा का सामना कर रहे लोगों की संख्या के तीन साल के औसत अनुमान प्रदान करती है. दोनों के बीच अंतर करके, कोई भी भारत के लिए अनुमान प्राप्त कर सकता है. इन अनुमानों से पता चलता है कि 2014-16 में भारत की 27.8 प्रतिशत आबादी मध्यम या गंभीर खाद्य असुरक्षा से पीड़ित थी, वहीं यह अनुपात 2017-2019 में 31.6 प्रतिशत हो गया. 2014-16 में खाद्य असुरक्षित लोगों की संख्या 42.65 करोड़ से बढ़कर 2017-19 में 48.86 करोड़ हो गई. 2017-19 में भारत में खाद्य असुरक्षा के वैश्विक बोझ का 22 प्रतिशत, किसी भी देश के लिए सबसे अधिक है. यह भी उल्लेखनीय है कि इस अवधि के दौरान भारत में पीएमएसएफआई में 3.7 प्रतिशत अंक की वृद्धि हुई, जबकि शेष दक्षिण एशिया में यह 0.5 प्रतिशत अंक गिर गया.

2019 में 5 साल से कम उम्र के style="background-color:white">वेस्टिंग के शिकार हुए भारतीय बच्चों का आंकड़ा 17.3 प्रतिशत था.

5 साल से कम उम्र के भारतीय बच्चों में स्टंटिंग का प्रचलन 2012 में 47.8 प्रतिशत से गिरकर 2019 में 34.7 प्रतिशत हो गया है.

प्रजनन आयु (15-49 वर्ष) की भारतीय महिलाओं में एनीमिया की व्यापकता 2012 में 51.3 प्रतिशत से बढ़कर 2016 में 51.4 प्रतिशत हो गई है.

भारत में शिशुओं (0-5 महीने की उम्र) में अनन्य स्तनपान की व्यापकता 2012 में 46.4 प्रतिशत से बढ़कर 2019 में 58.0 प्रतिशत हो गई है.

5 वर्ष से कम आयु के भारतीय बच्चों में मोटापे की व्यापकता 2012 में 1.9 प्रतिशत से घटकर 2019 में 1.6 प्रतिशत हो गई है.

भारत की वयस्क आबादी (18 वर्ष और उससे अधिक) में मोटापे की व्यापकता 2012 में 3.1 प्रतिशत से बढ़कर 2016 में 3.9 प्रतिशत हो गई है.

वसा, चीनी और नमक में उच्च ऊर्जा वाले घने खाद्य पदार्थों की सापेक्ष असंगति मोटापे की उच्च दर में निहित होती है. यह उच्च आय वाले देशों के साथ-साथ चीन, भारत और शहरी अफ्रीका जैसी विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में भी देखा जाता है. नए शोध से यह भी पता चलता है कि निम्न-मध्यम आय वाले देशों में मोटापा मुख्य रूप से खाद्य प्रणालियों में बहुत तेजी से बदलाव के कारण होता है, विशेष रूप से सस्ते, उच्च प्रसंस्कृत खाद्य और चीनी-मीठे पेय की उपलब्धता.

2017 के दौरान भारत में ऊर्जा पर्याप्त आहार की औसत लागत US $ 0.79 है, जो कि भोजन व्यय का लगभग 27.3 प्रतिशत है. मोटे तौर पर 0.9 प्रतिशत लोग इस तरह का भोजन ग्रहण नहीं कर सकते.

2017 के दौरान भारत में पोषक तत्वों के पर्याप्त आहार की औसत लागत 1.90 अमेरिकी डॉलर है, जो कि खाद्य व्यय का लगभग 66.0 प्रतिशत है. लगभग 39.1 प्रतिशत लोग इस तरह का भोजन ग्रहण नहीं कर सकते.

2017 के दौरान भारत में स्वस्थ आहार की औसत लागत $ 3.41 है, जो कि भोजन व्यय का लगभग 118.2 प्रतिशत है. लगभग 77.9 प्रतिशत लोग इस तरह का भोजन ग्रहण नहीं कर सकते.

दो उप-क्षेत्रों में अल्पपोषण कम हुआ है -पूर्वी और दक्षिणी एशिया में महाद्वीप – चीन और भारत की दो सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं का वर्चस्व है. बहुत भिन्न परिस्थितियों, इतिहास और प्रगति की दर के बावजूद, दोनों देशों में भुखमरी में कमी दीर्घकालिक आर्थिक विकास,असमानता में कमी, style="color:#333333">और बुनियादी वस्तुओं और सेवाओं तक बेहतर पहुंच से संभव हुई है. पिछले 25 वर्षों में चीन और भारत में औसत जीडीपी विकास दर 8.6 प्रतिशत और 4.5 प्रतिशत थी.

दक्षिणी एशिया में, नेपाल, पाकिस्तान और श्रीलंका जैसे देशों में पिछले दस वर्षों में भूख को कम करने के लिए महत्वपूर्ण प्रगति की गई है, जो कि बड़े पैमाने पर आर्थिक स्थितियों में सुधार के कारण हुआ.

भारत, इथियोपिया आदि देशों में, ग्रीनहाउस गैस (जीएचजी) उत्सर्जन में वृद्धि आहार ऊर्जा और प्रोटीन आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए आवश्यक होगी.

भारत जैसे देशों ने बेहतर नस्लों, फ़ीड, आवास और टीकाकरण के उपयोग के साथ बड़े पैमाने पर वाणिज्यिक पोल्ट्री उत्पादन हासिल किया है, यहां तक ​​कि बढ़ती मांग के बावजूद भी अंडे और पोल्ट्री उत्पादों की कीमतों में उल्लेखनीय गिरावट देखी गई है.

कई लोगों के लिए, अनुबंध खेती एक ऐसा साधन है जो उत्पादन पर अपेक्षित रिटर्न में निश्चितता प्रदान कर सकता है. मिसाल के तौर पर, भारत में प्याज की खेती में पैदावार में बढ़ोतरी और कुल उत्पादन का स्तर बढ़ा है.

एशिया के मध्य-आय वाले देशों में, विशेष रूप से भारत और दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों में, सुपरमार्केट के रूप में आधुनिक खुदरा क्षेत्र में प्रवेश अन्य देशों की तुलना में कम स्पष्ट रूप से किया गया है, जैसे कि मैक्सिको और दक्षिण अफ्रीका में.

भारत में, ग्रामीण व्यवसाय केंद्रों ने छोटे किसानों को तेजी से बढ़ते शहरी बाजारों से जोड़ने की सुविधा प्रदान की है. किसानों से खाद्य उत्पादों की खरीद के अलावा, ये हब कृषि आदानों और उपकरणों जैसी सेवाओं के साथ-साथ ऋण तक पहुंच प्रदान करते हैं. एक ही स्थान पर खाद्य प्रसंस्करण, पैकेजिंग और शीतलन की सुविधा होने से उपभोक्ताओं को ढेर सारी अर्थव्यवस्थाओं से लाभान्वित होने का मौका मिलता है, और कुल मिलाकर, खाद्य आपूर्ति श्रृंखला में लेनदेन की लागत कम हो जाती है. भारत में इस मॉडल ने ग्रामीण सुपरमार्केट को जन्म दिया है जो सस्ते भोजन प्रदान करते हैं. उपभोक्ताओं को ताजे फल और सब्जियां, अंडे, डेयरी, मीट और मछली प्रदान करने वाले सुपरमार्केट के लिए तैयार किया गया है, क्योंकि वे पारंपरिक बाजारों से जुड़े खाद्य सुरक्षा चिंताओं के बिना हैं.

भारत, इंडोनेशिया और वियतनाममें, पारंपरिक खाद्य रिटेल आउटलेट अभी भी खाद्य खुदरा शेयर का 80 प्रतिशत से अधिक का प्रतिनिधित्व करते हैं, और चीन और तुर्की जैसे ऊपरी-मध्यम आय वाले देशों में खाद्य खुदरा हिस्सेदारी का लगभग 60-70 प्रतिशत हिस्सा है.

भारत में, मुख्य फसलें जैसे कि उर्वरक और ऋण सब्सिडी, मूल्य समर्थन और सिंचाई बुनियादी ढांचे (विशेष रूप से चावल के लिए) को बढ़ावा देने वाली नीतियां, पारंपरिक गैर-प्रधान फसलों, जैसे दालों और फलियों के उत्पादन को हतोत्साहित करने के लिए बढ़ गई हैं. कई अन्य क्षेत्रों में प्रधान फसलों के पक्ष में सिंचाई के बुनियादी ढांचे के विकास में एक पूर्वाग्रह बना हुआ है. इसके बजाय, नीतियों को सिंचाई बुनियादी ढांचे में निवेश को बढ़ावा देना चाहिए, विशेष रूप से सभी मौसम की सब्जी उत्पादन के लिए मजबूत क्षमता को लक्षित करना, और पौष्टिक खाद्य पदार्थों की उपलब्धता को बढ़ाने के लिए अन्य उच्च-मूल्य वाली वस्तुओं.

भारत में, देश की लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली दुनिया में सबसे बड़े सामाजिक संरक्षण कार्यक्रम का प्रतिनिधित्व करती है, जो 80 करोड़ लोगों तक सब्सिडी वाले अनाज तक पहुँचती है, जिसे पूरे देश में 5 लाख से अधिक उचित मूल्य की दुकानों से खरीदा जा सकता है. आहार विविधता और पोषण पर कार्यक्रम के प्रभाव के साक्ष्य को मिलाया जाता है, हालांकि इसमें मैक्रोन्यूट्रिएंट्स के सेवन पर कुछ सकारात्मक प्रभाव दिखाई दिए.

 

 

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[inside]ग्लोबल हंगर इंडेक्स 2019: द चैलेंज ऑफ हंगर एंड क्लाइमेट चेंज [/inside] (अक्टूबर, 2019 में जारी), वेल्थुन्गेरिल्फे और कंसर्न वर्ल्डवाइड द्वारा संयुक्त रूप से तैयार की गई रिपोर्ट के प्रमुख निष्कर्ष इस प्रकार हैं, (एक्सेस करने के लिए कृपया यहां क्लिक करें):

 

वर्ष 2019 में ग्लोबल हंगर इंडेक्स (GHI) में 117 देशों में से भारत 102 वें स्थान पर है.

 

• पड़ोसी देश जैसे चीन (GHI स्कोर: 6.5; GHI रैंक: 25), श्रीलंका (GHI: 17.1; GHI रैंक: 66), म्यांमार (GHI स्कोर: 19.8; GHI रैंक: 69), नेपाल (GHI स्कोर: 20.8; जीएचआई रैंक: 73), बांग्लादेश (जीएचआई स्कोर: 25.8; जीएचआई रैंक: 88) और पाकिस्तान (जीएचआई स्कोर: 28.5; जीएचआई रैंक: 94) भारत से बेहतर स्थिति में हैं (जीएचआई स्कोर: 30.3; रैंक: 102).

 

• भारत का जीएचआई (GHI) स्कोर वर्ष 2000 में 38.8, 2005 में 38.9, 2010 में 32.0 और 2019 में 30.3 रहा है. 2019 में 30.3 के GHI स्कोर की वजह से भारत को गंभीर दशा वाले देशों की श्रेणीमें रखा गया है.

 

• भारत मेंजनसंख्या के हिसाब से अल्पपोषित का अनुपात 1999-2001 के दौरान 18.2 प्रतिशत, 2004-2006 के दौरान 22.2 प्रतिशत, 2009-2011 के दौरान 17.5 प्रतिशत और 2016-2018 के दौरान 14.5 प्रतिशत था.

 

• भारत में 5 वर्ष से कम की उम्र के 20.8 फीसदी बच्चे लंबाई के हिसाब से जरूरी निर्धारित औसत वजन से कम हैं. वेस्टिंग (लंबाई के हिसाब से औसत से कम वजन) के शिकार हुए पांच साल से कम उम्र के बच्चों का अनुपात खराब स्तिथि में है. यह 1998-2002 के दौरान 17.1 प्रतिशत, 2003-2007 के दौरान 20.0 प्रतिशत, 2008-2012 के दौरान 16.5 प्रतिशत और 2014-2018 के दौरान 20.8 प्रतिशत था.

 

• भारत में 5 वर्ष से कम की उम्र के 37.9 फीसदी बच्चे जरूरी निर्धारित औसत लंबाई से कम हैं. स्टटिंग (उम्र के हिसाब से कद में छोटे) के शिकार हुए पाँच वर्ष से कम आयु के बच्चों का अनुपात भी बेहद खराब स्थिति में है. यह 1998-2002 के दौरान 54.2 प्रतिशत, 2003-2007 के दौरान 47.8 प्रतिशत, 2008-2012 के दौरान 42.0 प्रतिशत और 2014-2018 के दौरान 37.9 प्रतिशत था.

 

• भारत में 5 वर्ष से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु दर 2000 में 9.2 प्रतिशत, 2005 में 7.5 प्रतिशत, 2010 में 5.8 प्रतिशत और 2017 में 3.9 प्रतिशत थी.

 

वेस्टिंग के शिकार हुए बच्चों की दर (20.8 प्रतिशत) के मामले में भारत की स्थिति सबसे तेजी से खराब हो रही है. भारत की वेस्टिंग दर सभी देशों के मुकाबले सबसे बदतर स्थिति में है.

 

• वेस्टिंग दर (लंबाई के हिसाब से औसत से कम वजन) के मामले में सबसे खराब स्थिति यमन, जिबूती और भारत (17.9 से 20.8) की है.

 

• भारत की स्टंटिंग दर(उम्र के हिसाब से कद में छोटे), 37.9 प्रतिशत, को इसके सार्वजनिक स्वास्थ्य महत्व के संदर्भ में बहुत बिगड़ी हुई दशा के रूप में चिन्हित किया गया है.

 

• भारत में, 6 से 23 महीने की उम्र के सभी बच्चों में से केवल 9.6 प्रतिशत को न्यूनतम अनिवार्य आहार मिल पाता है. इसका मतलब है कि उस आयु वर्ग के लगभग 90 प्रतिशत बच्चों को पर्याप्त जरूरी आहार नहीं मिल पाता है.

 

• 2015-2016 तक, 90 प्रतिशत भारतीय परिवारों ने बेहतर पेयजल इस्तेमाल किया है, जबकि 39 प्रतिशत घरों में स्वच्छता की सुविधा नहीं थी (IIPS और ICF 2017). 2014 में प्रधानमंत्री ने खुले में शौच को समाप्त करने के लिए "स्वच्छ भारत" अभियान की शुरुआत की और यह सुनिश्चित किया कि सभी घरों में शौचालय बनें. नए शौचालय निर्माण के बाद भी, लोग अभी भी खुले में शौच करने जाते हैं. यह स्थिति जनता के स्वास्थ्य को खतरे में डालती है और फलस्वरूप बच्चों की वृद्धि और विकास के लिए पोषक तत्वों को अवशोषित करने की उनकी क्षमता पर बुरा असर पड़ता है (न्योर एट अल 2014. कारुसो एट अल. 2019).

 

• किसी देश का GHI स्कोर चार संकेतकों के आधार पर होता है.

– अल्पपोषित: आबादीका हिस्सा जोकि कुपोषित/अल्पपोषित है (जिनकी भोजन कैलोरी की मात्रा अपर्याप्त है);

– चाइल्ड वेस्टिंग: पांच वर्ष से कम आयु के बच्चे जो वेस्टिंग का शिकार हैं ( जिनका लंबाई के हिसाब से कम वजन है, जोकि तीव्र कुपोषण को दर्शाता है);

– चाइल्ड स्टंटिंग: पाँच वर्ष से कम आयु के बच्चे जो स्टंटिंग के शिकार हैं (जोकि उम्र के हिसाब से नाटे हैं यानि उम्र के हिसाब से कम लंबाई है, जोकि क्रोनिक अल्पपोषण को दर्शाते हैं); तथा

– बाल मृत्यु दर: पांच वर्ष से कम आयु के बच्चों की मृत्यु दर (आंशिक रूप से, अपर्याप्त पोषण और अस्वास्थ्यकर वातावरण के घातक मिश्रण का प्रतिबिंब)

 

• हाल के दशकों में वैश्विक स्तर पर चार घटक संकेतकों में से प्रत्येक (ऊपर चर्चा की गई) सूचक के उच्चतम अवलोकन स्तर के आधार पर 100-पॉइंट पैमाने पर एक मानकीकृत स्कोर दिया गया है.

 

• मानकीकृत स्कोर को प्रत्येक देश के GHI स्कोर की गणना करने के लिए एकत्रित किया जाता है. अल्पपोषण और बाल मृत्यु दर जीएचआई स्कोर में एक-तिहाई का योगदान करते हैं, जबकि बच्चे के कुपोषण संकेतक – चाइल्ड वेस्टिंग और चाइल्ड स्टंटिंग प्रत्येक स्कोर का छठा हिस्सा होते हैं. GHI के मामले में, 0 सर्वश्रेष्ठ स्कोर (भूख नहीं) है और 100 सबसे खराब है.

 

• वर्तमान रिपोर्ट के रैंकिंग और सूचकांक स्कोर, पिछली रिपोर्टों के रैंकिंग और सूचकांक स्कोरों की आपस में सही से तुलना नहीं की जा सकती.

 

• GHI स्कोर प्रत्येक वर्ष की रिपोर्ट में आंतरिक तुलना हो सकती है, लेकिन विभिन्न वर्षों की रिपोर्ट के बीच नहीं. वर्तमान और ऐतिहासिक डेटा, जिस पर GHI स्कोर आधारित हैं, को संयुक्त राष्ट्र एजेंसियों द्वारा लगातार संशोधित और सुधार किया जा रहा है, जो उन्हें संकलित करता है, और प्रत्येक वर्ष की GHI रिपोर्ट इन परिवर्तनों को दर्शाती है. रिपोर्ट्स के बीच स्कोर की तुलना करने से यह धारणा बन सकती है कि भूख किसी विशिष्ट देश में साल-दर-साल सकारात्मक या नकारात्मक रूप से बदल गई है, जबकि कुछ मामलों में परिवर्तन आंशिक रूप से या पूरी तरह से डेटा संशोधन का प्रतिबिंब हो सकता है.

 
जीएचआई स्कोर और संकेतक मूल्यों की तरह, एक वर्ष की रिपोर्ट की रैंकिंग की तुलना दूसरे से नहीं की जा सकती. पहले से वर्णित आंकड़ों और कार्यप्रणाली के संशोधनों के अलावा, विभिन्न देशों को हर साल रैंकिंग में शामिल किया जाता है. ऐसा डेटा उपलब्धता की वजह से है – उन देशों का सेट, जिनके लिए जीएचआई स्कोर की गणना करने के लिए पर्याप्त डेटा उपलब्ध हैं, यह साल-दर-साल बदलता रहता है. यदि किसी देश की रैंकिंग एक वर्ष से अगले वर्ष तक बदलती है, तो यह अलग-अलग हिस्सों में भी हो सकती है क्योंकिइसकी तुलना विभिन्न देशों के समूह के साथ की जा रही है. इसके अलावा, रैंकिंग प्रणाली को 2016 में बदल दिया गया था ताकि रिपोर्ट में सभी देशों को शामिल किया जा सके. इसमें उन देशों को रैंकिंग में कम स्कोर के साथ जोड़ा जो पहले शामिल नहीं थे. 
 

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अक्टूबर 2018 में जारी की गई [inside]ग्लोबल हंगर इंडेक्स 2018: फोर्स्ड माइग्रेशन एंड हंगर [/inside]नामक रिपोर्ट के मुख्य निष्कर्ष इस प्रकार हैं (एक्सेस करने के लिए कृपया यहां क्लिक करें.):
 
• वर्ष 2018 के ग्लोबल हंगर इंडेक्स (GHI) के संदर्भ में भारत का रैंक 119 देशों में 103वां है.
 
• चीन (GHI स्कोर: 7.6; GHI रैंक: 25), नेपाल (GHI स्कोर: 21.2; GHI रैंक: 72), म्यांमार (GHI स्कोर: 20.1; GHI रैंक: 68), श्रीलंका (GHI स्कोर: 17.9; GHI रैंक: 67) और बांग्लादेश (GHI स्कोर: 26.1; GHI रैंक: 86) जैसे पड़ोसी देश भारत (GHI स्कोर: 31.1; GHI रैंक: 103) से बेहतर स्थिति में हैं. हालांकि, पाकिस्तान (GHI स्कोर: 32.6; GHI रैंक: 106) और अफगानिस्तान (GHI स्कोर: 34.3; GHI रैंक: 111) जैसे देश भारत से भी खराब स्थिति में हैं.
 
• वर्ष 2000 में (1998-2002 का डेटा) और 2005 (2003-07 का डेटा) में भारत का GHI स्कोर 38.8 था. 2010 (2008-12 की अवधि से डेटा) में GHI स्कोर 32.2  और 2018(अवधि से डेटा 2013-17) में GHI स्कोर 31.1 था.
 
• रिपोर्ट में कहा गया है कि वर्ष 2018 में देश का GHI स्कोर 31.1 होने की वजह से इसे गंभीर श्रेणी में रखा गया है.
 
• पांच साल से कम उम्र के बच्चों में स्टंटिंग (उम्र के हिसाब से कद में छोटे) और पांच साल से कम उम्र में मृत्यु दर (प्रतिशत में) समय के साथ स्पष्ट रूप से घटती हुई दिखाई देती है. पांच साल से कम (प्रतिशत में) उम्र के बच्चों में वेस्टिंग (लंबाई के हिसाब से औसत से कम वजन) की समस्या 2008-12 के 16.7 प्रतिशत से बढ़कर 2013-17 के दौरान 21.0 प्रतिशत हो गई है.
 
• भारत में जनसंख्या के आधार पर अल्पपोषितों का अनुपात 1999-2001 के दौरान 18.2 प्रतिशत, 2004-2006 के दौरान 22.2 प्रतिशत, 2009-2011 के दौरान 17.5 प्रतिशत और 2015-2017 के दौरान 14.8 प्रतिशत था.
 
• भारत के लिए पांच वर्ष से कम आयु के बच्चों में वेस्टिंग (लंबाई के हिसाब से औसत से कम वजन) का अनुपात 1998-2002 के दौरान 17.1 प्रतिशत, 2003-2007 के दौरान 20.0 प्रतिशत, 2008-2012 के दौरान 16.7 प्रतिशत और 2013-2017 के दौरान 21.0 प्रतिशत था.
 
• भारत में स्टंटिंग (उम्र के हिसाब से कद में छोटे) का शिकार हुए पाँच वर्ष से कम आयु के बच्चों का अनुपात 1998-2002 के दौरान 54.2 प्रतिशत, 2003-2007 के दौरान 47.9 प्रतिशत, 2008-2012 के दौरान 42.2 प्रतिशत और 2013- 2017 के दौरान 38.4 प्रतिशत था.
 
• भारत में पांच वर्ष से कम आयु के बच्चों की मृत्यु दर वर्ष 2000 में 9.2 प्रतिशत, 2005 में 7.4 प्रतिशत, 2010 में 5.9 प्रतिशत और 2016 में 4.3 प्रतिशत थी.
 
• दक्षिण एशिया क्षेत्र में वेस्टिंग (लंबाई के हिसाब से औसत से कम वजन) की दर भारत में, जिसमें इस क्षेत्र की सबसे बड़ी आबादी और बड़ी भारी मात्रा में बच्चे वेस्टिंग (लंबाई केहिसाब से औसत से कम वजन) का शिकार हैं, नवीनतम आंकड़ों के अनुसार बढ़कर 21.0 प्रतिशत हो गई है. भारत को छोड़ दें, तब भी दक्षिण एशिया के अन्य हिस्सों में बच्चों में वेस्टिंग की दर दुनिया के अन्य क्षेत्रों के मुकाबले में सबसे ज्यादा है.
 
• जिबूती, भारत और दक्षिण सूडान में वेस्टिंग (लंबाई के हिसाब से औसत से कम वजन) की समस्या सबसे अधिक है, लेकिन इन तीन देशों में भी क्रमशः 16.7 प्रतिशत, 21.0 प्रतिशत और 28.6 प्रतिशत की दर से व्यापक रूप से भिन्नताएं हैं.

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[inside]इटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट द्वारा प्रस्तुत  2017 ग्लोबल हंगर इंडेक्स: द इन्इक्वलिटिज ऑफ हंगर (2017 के अक्तूबर में प्रकाशित) के मुख्य तथ्य[/inside] : (पूरी रिपोर्ट देखने के लिए कृपया यहां क्लिक करें.)  

 

• ग्लोबल हंगर इंडेक्स(वैश्विक भूख सूचकांक) के अंकमान के आधार पर भारत को 119 देशों की सूची में 100वां स्थान हासिल हुआ है. 

• पड़ोसी देश चीन ( अंकमान: 7.5; स्थान: 29), नेपाल (अंकमान: 22.0; स्थान: 72), म्यांमार (अंकमान: 22.6; स्थान: 77), श्रीलंका (अंकमान: 25.5; स्थान: 84) तथा बांग्लादेश (अंकमान: 26.5; स्थान: 88 ) ग्लोबल हंगर इंडेक्स रिपोर्ट में भारत (अंकमान: 31.4; स्थान: 100) से बेहतर स्थिति में हैं, बहरहाल, पाकिस्तान (अंकमान: 32.6; स्थान: 106) तथा अफगानिस्तान (अंकमान: 33.3; स्थान: 107) रिपोर्ट में भारत से पीछे हैं.

• भारत का अंकमान ग्लोबल हंगर इंडेक्स की रिपोर्ट में  साल 1992 में 46.2 , साल 2000 38.2 , साल 2008 में 35.6 तथा साल 2017 में 31.4 रहा.

• रिपोर्ट में भारत का जीएचआई अंकमान  31.4 होने के कारण उसे भुखमरी की गंभीर दशा वाले देशों के बीच रखा गया है. 

• हालांकि सभी तीन संकेतक यानि आबादी में भोजन की कमी के शिकार लोगों का अनुपात , पांच साल से कम उम्र के वेस्टिंग के शिकार बच्चों का अनुपात तथा पांच साल से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु दर में समय बीतने के साथ कमी के रुझान हैं लेकिन साल 2006 से 2010 की अवधि में वेस्टिंग के शिकार बच्चों की संख्या में इजाफा हुआ है.

• नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे की चौथी गणना के तथ्यों के मुताबिक भारत में पांच साल या इससे कम उम्र के तकरीबन 21 प्रतिशत बच्चे वेस्टिंग के शिकार हैं. ग्लोबल हंगर इंडेक्स की रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत को छोड़कर मात्र तीन देशों जिबूती, श्रीलंका और दक्षिण सू़डान में 2012-2016 के बीच वेस्टिंग के शिकार बच्चों की तादाद 20 प्रतिशत से अधिक रही. पिछले 25 सालों में भारत में वेस्टिंग के शिकार बच्चों(पांच साल से कम उम्र के) की तादाद में कोई महत्वपूर्ण कमी नहीं हुई है. वेस्टिंग के शिकार बच्चों की संख्या साल 1990-1994 की तुलना में साल 2012-2016 में ज्यादा रही. 

• देश को स्टटिंग( उम्र के हिसाब से कद में छोटे) के शिकार बच्चों की संख्या कम करने में सफलता हासिल हुई है . साल 1990-1994 के दौरान स्टटिंग के शिकार बच्चों की संख्या 61.9 प्रतिशत थी जो साल 2012-2016 के दौरान घटकर 38.4 प्रतिशत रह गई.

• ग्लोबल हंगर इंडेक्स रिपोर्ट(2017) के अनुसार भारत के लिए तीन बातें अहम हैं (1) छोटे बच्चों केलिए समय से पूरक पोषाहार उपलब्ध कराना; (2)  6 माह से 23माह के बच्चों को पर्याप्त पोषक आहार मुहैया कराना और,  (3) घरों में साफ-सफाई की व्यवस्था में सुधार लाना.

• रिपोर्ट में कहा गया है कि दूर-दराज के इलाकों में भोजन का अधिकार कानून(एनएफएसए) का क्रियान्वयन कितने कारगर तरीके से हो पा रहा है, इसका आकलन करना मुश्किल है. रिपोर्ट के मुताबिक भोजन का अधिकार कानून से सरकार के भोजन और पोषण से संबंधित कार्यक्रमों के लिए एक वैधानिक ढांचा तो खड़ा हो गया है लेकिन अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति के लोगों को भोजन और पोषण के कार्यक्रमों का पूरा लाभ नहीं मिल पा रहा है.

 

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भूख की बहुआयामी प्रकृति को समझने के लिए, 2016 ग्लोबल हंगर इंडेक्स (GHI) स्कोर निम्नलिखित चार अंकों पर आधारित है:

1. UNDERNOURISHMENT अल्पपोषण यानी कुल जनसंख्या के अनुपात में अल्पोषित लोगों का प्रतिशत (अपर्याप्त भोजन के सेवन के साथ जनसंख्या की हिस्सेदारी को दर्शाते हुए);

2. वेस्टिंग यानी पांच वर्ष से कम आयु के बच्चों का अनुपात जो वेस्टिंग का शिकार हैं (यानी, उनकी ऊंचाई के हिसाब से कम वजन है, जो तीव्र कुपोषण को दर्शाता है);

3. स्टंटिंग यानि पांच वर्ष से कम आयु के बच्चों का अनुपात जो स्टंटिंग का शिकार हैं (यानी, उनकी उम्र के हिसाब से कम ऊंचाई है, जो गंभीर कुपोषण को दर्शाता है); तथा

4. बच्चों की मृत्यु दर यानी पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु दर (आंशिक रूप से अपर्याप्त पोषण और अस्वास्थ्यकर वातावरण के घातक तालमेल को दर्शाती है).

चार घटक संकेतकों में से प्रत्येक के लिए मान (ऊपर उल्लिखित) प्रत्येक देश के लिए उपलब्ध आंकड़ों से निर्धारित किए जाते हैं. फिर चार घटक संकेतकों में से प्रत्येक को एक मानकीकृत स्कोर दिया जाता है, और प्रत्येक देश के लिए GHI स्कोर की गणना करने के लिए मानकीकृत स्कोर एकत्र किए जाते हैं.

यह गणना 100 अंकों के पैमाने पर जीएचआई स्कोर में परिणत होती है, जहां 0 (शून्य) सबसे अच्छा स्कोर (भुखमरी नहीं) है और 100 सबसे खराब है.

2016 जीएचआई की गणना 118 देशों के लिए की गई है, जिसके लिए सभी चार घटक संकेतकों पर डेटा उपलब्ध है और जहां भूख को मापना सबसे अधिक प्रासंगिक माना जाता है.

जीएचआई स्कोर स्रोत डेटा पर आधारित हैं जो संयुक्त राष्ट्र (यूएन) एजेंसियों द्वारा लगातार संशोधित किए जाते हैं जो उन्हें संकलित करते हैं, और प्रत्येक वर्ष की जीएचआई रिपोर्ट इन संशोधनों को दर्शाती है. हालांकि इन संशोधनों के परिणामस्वरूप डेटा में सुधार होता है, उनका मतलब यह भी है कि विभिन्न वर्षों की रिपोर्टों से GHI स्कोर एक दूसरे के साथ सीधे तुलनीय नहीं हैं. इस वर्ष की रिपोर्ट में 2016 के लिए जीएचआई स्कोर और तीन संदर्भ अवधि- 1992, 2000 और 2008 शामिल हैं – जिनकी गणना संशोधित डेटा के साथ की गई है. समय के साथ किसी देश या क्षेत्र की प्रगति को ट्रैक करने के लिए, इस रिपोर्ट के भीतर 1992, style="font-size:10.0pt">2000, 2008 और 2016 के स्कोर की तुलना की जा सकती है.

संयुक्त रूप से अंतर्राष्ट्रीय खाद्य नीति अनुसंधान संस्थान (IFPRI), कंसर्न वर्ल्डवाइड, और वेल्थुन्गेरिलिफ़ (WHH) द्वारा प्रकाशित [inside]2016 ग्लोबल हंगर इंडेक्स: जीरो हंगर (अक्टूबर 2016 में जारी)[/inside] नामक रिपोर्ट के अनुसार (देखने के लिए कृपया यहाँ क्लिक करें)

2016 ग्लोबल हंगर इंडेक्स के संदर्भ में भारत 118 देशों में 97 वें स्थान पर है. देश ने 1992 के दौरान 46.4 से अपने जीएचआई स्कोर में सुधार किया है, 2000 के दौरान 38.2 और 2008 के दौरान 36.0 और 2016 के दौरान 28.5 का GHI स्कोर है.

भारत की तुलना में, 2016 के दौरान चीन की रैंकिंग 29 (GHI स्कोर: 7.7) और पाकिस्तान की रैंकिंग 107 (GHI स्कोर: 33.4) है.

1991-93 में भारत की जनसंख्या में कुपोषितों का अनुपात 22.2 प्रतिशत, 1999-2001 में 17.0 प्रतिशत, 2007-09 में 17.2 प्रतिशत और 2014-16 में 15.2 प्रतिशत था.

वेस्टिंग का शिकार 5 साल से कम उम्र के भारतीय बच्चों का आंकड़ा 1990-94 में 20.0 प्रतिशत, 1998-2002 में 17.1 प्रतिशत, 2006-2010 में 20.0 प्रतिशत और 2011-15 में 15.1 प्रतिशत था.

5 साल से कम उम्र के स्टंटिंग का शिकार भारतीय बच्चों का आंकड़ा 1990-94 में 61.9 प्रतिशत, 1998-2002 में 54.2 प्रतिशत, 2006-2010 में 47.9 प्रतिशत और 2011-15 में 38.7 प्रतिशत था.

भारत में 5 साल से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु दर 1992 में 11.9 प्रतिशत, 2000 में 9.1 प्रतिशत, 2008 में 6.6 प्रतिशत और 2015 में 4.8 प्रतिशत थी.

आईएफपीआरआई की रिपोर्ट के अनुसार, विकासशील देशों में भूख के स्तर में 2000 के बाद से 29 प्रतिशत की गिरावट आई है. इस प्रगति के बावजूद, वैश्विक स्तर पर भूख का स्तर चिंताजनक रूप से अधिक है, 79.5 करोड़ लोगों को अभी भी भूख का सामना करना पड़ रहा है, स्टंटिंग से प्रभावित चार बच्चों में से एक, और 8 प्रतिशत बच्चे वेस्टिंग से प्रभावित हैं.

2000 GHI से 2016 GHI तक, 22 देशों ने अपने स्कोर 50 प्रतिशत या उससे अधिक घटा दिए. गंभीर और चिंताजनक श्रेणियों में सभी देशों की भूख में सबसे बड़ी प्रतिशत में कमी लाने वाले तीन म्यांमार, रवांडा और कंबोडिया हैं, 2016 के GHI स्कोर के साथ प्रत्येक देश के लिए 2000 अंकों के सापेक्ष सिर्फ 50 प्रतिशत से अधिक कम है. इन देशों में से प्रत्येक ने हाल के दशकों में गृहयुद्ध और राजनीतिक अस्थिरता का अनुभव किया है, और भाग में सुधार से स्थिरता में वृद्धि हो सकती है.

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एफएओ द्वारा प्रस्तुत [inside]स्टेट ऑफ फूड इन्स्क्यूरिटी इन द वर्ल्ड 2015[/inside](प्रकाशित मई 2015) नामक दस्तावेज के तथ्यों के अनुसार :

http://www.im4change.org/siteadmin/tinymce//uploaded/State%20of%20Food%20Insecurity%20in%20the%20World%202015.pdf

• दुनिया में भोजन की कमी के शिकार लोगों की संख्या के मामले में भारत दूसरा सबसे बड़ा देशहै।

• भारत वर्ल्ड फूड समिट तथा मिलेनियम डेवलपमेंट गोल्स के लक्ष्यों को समयरहते हासिल कर पाने में सफल नहीं हो पायेगा।

• अनुमान है कि भारत में भोजन की कमी के शिकार लोगों की संख्या जो साल 2010-12 में 189.9  मिलियन थी, साल 2014-16 में बढ़कर 194.6 मिलियन हो जायेगी।

•  भारत में साल 1990-92 में भोजन की कमी के शिकार लोगों की संख्या 210.1 मिलियन थी जो साल 2010-12 में 9 प्रतिशत की कमी के साथ 189.9 मिलियन हो गई। चीन में इसी अवधि में भोजन की कमी के शिकार लोगों की संख्या में 43.5 प्रतिशत की कमी आई। चीन में साल 1990-92 में भोजन की कमी के शिकार लोगों की संख्या 289 मिलियन थी जो साल 2010-12 में घटकर 163.2 मिलियन हो गई।

• प्रतिशत पैमाने पर देखें तो भारत में साल 1990-92 में भारत की कुल आबादी का 23.7% हिस्सा भोजन की कमी का शिकार था जो साल साल 2010-12 में घटकर 15.6% हो गया। अनुमान के अनुसार फिलहाल भारत की कुल आबादी का 15.2 प्रतिशत हिस्सा भोजन की कमी का शिकार है।

• चीन की कुल आबादी में भोजन की कमी के शिकार लोगों की संख्या साल 1990-92 में 23.9% थी जो साल 2010-12 में घटकर 11.7% हो गई। साल 2014-16 की अवधि में अनुमान है कि चीन की कुल आबादी में भोजन की कमी के शिकार लोगों की संख्या 9.3% हो जायेगी।

•  पूरे दक्षिण एशियाई क्षेत्र के लिए भारत से उभरते भुखमरी के रुझान महत्वपूर्ण हैं। भारत मं  सार्वजनिक खाद्य वितरण प्रणाली के विस्तार से फायदा हुआ है लेकिन वहीं तेज आर्थिक वृद्धि की अवधि में लोगों द्वारा ली जा रही भोजन की मात्रा में बढोत्तरी नहीं हो पायी है, ना ही लोग पौष्टिक आहार पर ही विशेष खर्च कर रहे हैं। इससे पता चलता है कि गरीब और भोजन का अभाव झेल रहे लोग तेज आर्थिक वृद्धि के फायदों से वंचित हैं।

वैश्विक परिदृश्य

• पिछले एक दशक के दौरान पूरी दुनिया में भोजन की कमी के शिकार लोगों की संख्या में 167 मिलियन की कमी आई है तथा साल 1990-92 की तुलना में दुनिया में भोजन का अभाव झेल रहे लोगों की तादाद में 216 मिलियन की कमी हुई है। फिलहाल दुनिया में भोजन की कमी के शिकार लोगों की संख्या 795 मिलियन है।
•भोजन की कमी के शिकार लोगों की संख्या में सर्वाधिक कमी दुनिया के विकासशील इलाकों में हुई है लेकिन हाल के सालों में इस दिशा में प्रगति कुछ बाधित हुई है। इसकी एक वजह आर्थिक विकास का अनेक अर्थों में समावेशी ना होना तथा केंद्रीय अफ्रीका और पश्चिम एशिया के देशों में राजनीतिक अस्थिरता का होना है।

• साल 2015 सहस्राब्दि विकास लक्ष्यों की निगरानी का आखिरी साल है। दुनिया के विकासशील क्षेत्रों के लिहाज से देखें तो इल इलाकों की कुल आबादी में भोजन की कमी के शिकार लोगों की संख्या 23.3 प्रतिशत थी जो साल 2010-12 में घटकर 12.9 प्रतिशत हो गई है। कुछ इलाके जैसे लैटिन अमेरिका, पूर्वी और दक्षिण पूर्वी एशिया, मध्य एशिया तथा अफ्रीका के उत्तरी और पश्चिमी हिस्से में भोजन की कमी के शिकार लोगों की संख्या में तेजी से कमी आई है। दक्षिण एशिया, ओसिनिया, कैरिबियाई मुल्क तथा दक्षिणी और पूर्वीअफ्रीका के देशों में भी भोजन की कमी के शिकार लोगों की संख्या में कमी आई है लेकिन इस दिशा में प्रगति की रफ्तार धीमी है और भुखमरी झेल रहे लोगों की संख्या में 50 प्रतिशत की कमी करने का लक्ष्य बाधित हो रहा है।

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संयुक्त राष्ट्र संघ के संगठन एफएओ द्वारा प्रस्तुत [inside]स्टेट ऑफ फूड इन्सिक्यूरिटी इन द वर्ल्ड(2014)[/inside] नामक दस्तावेज के तथ्यों के अनुसार-

http://www.fao.org/3/a-i4037e.pdf

target="_blank">http://www.fao.org/3/a-i4030e.pdf

• दो दशक पहले(1990-92) भारत में भोजन की कमी से जूझ रहे लोगों की संख्या 21 करोड़ थी। इस संख्या में 9.5 प्रतिशत की कमी हुई है और अब(2012-14) भारत में भोजन की कमी से जूझ रहे लोगों की संख्या 19 करोड़ हो गई है।

• लेकिन, पाकिस्तान में इसी अवधि में भूखमरी के शिकार लोगों की संख्या में 38 प्रतिशत का इजाफा हुआ है। पाकिस्तान में साल 1990-92 में भोजन की कमी के शिकार लोगों की संख्या 2 करोड़ 80 लाख 70 हजार थी जो साल 2012-14 में बढ़कर 3 करोड़ 90 लाख 60 हजार हो गई है।

• दक्षिण एशिया में भोजन की कमी से जूझ रहे लोगों की सर्वाधिक संख्या (190.7 मिलियन) भारत में है। पाकिस्तान में भुखमरी के शिकार लोगों की संख्या 39.6 मिलियन , बांग्लादेश में (26.2 मिलियन), श्रीलंका में (5.2 मिलियन) तथा नेपाल में (3.6 मिलियन) है.

• बांग्लादेश ने भुखमरी की समस्या से निपटने में अच्छी प्रगति की है। बांग्लादेश में साल 1990-92 में भुखमरी के शिकार लोगों की संख्या 3 करोड़ 60 लाख थी जो साल 2012-14 में घटकर(27 प्रतिशत की कमी) 2 करोड़ 60 लाख 20 हजार हो गई है।

• ठीक इसी तरह बीते दो दशक में नेपाल में भुखमरी के शिकार लोगों की संख्या में 14.4 प्रतिशत की कमी आई है। साल 1990-92 में नेपाल में भुखमरी के शिकार लोगों की संख्या 40 लाख 20 हजार थी जो साल 2012-14 में घटकर 30 लाख 60 हजार हो गई है।

• बीते दो दशक में श्रीलंका में भुखमरी की समस्या से जूझ रहे लोगों की संख्या में 2.6 प्रतिशत की कमी आई है। श्रीलंका में भुखमरी की समस्या से जूझ रहे लोगों की संख्या दो दशक पहले 50 लाख 40 हजार थी जो साल 2012-14 में घटकर 50 लाख 20 हजार हो गई।

• 2015 तक भुखमरी की समस्या से जूझ रहे लोगों की संख्या आधी करने के सहस्राब्दि विकास लक्ष्य(एमडीजी) से भारत और पड़ोसी देश पीछे चल रहे हैं।
• रिपोर्ट के अनुसार अब तक 63 विकासशील देशों ने भुखमरी से संबंधित सहस्राब्दि विकास लक्ष्य को पूरा कर लिया है और 6 अन्य देश इसे 2015 तक पूरा कर लेंगे।

• वैश्विक स्तर पर देखें तो 1990-92 से 2012-14 के बीच भुखमरी के शिकार लोगों की संख्या में 20 करोड़ की कमी आई है। फिलहाल विश्व में भुखमरी के शिकार लोगों की संख्या 80 करोड़ 50 लाख है यानि दुनिया के हर 9 व्यक्ति में से 1 व्यक्ति भुखमरी से पीड़ित है। एशिया में भुखमरी के शिकार लोगों की संख्या 52 करोड़ 60 लाख है।

• स्टेट ऑफ फूड इन्सिक्यूरिटी इन द वर्ल्ड 2014 नामक रिपोर्ट के अनुसार चीन में भोजन की कमी के शिकार लोगों की संख्या बीते दो दशक में सबसे ज्यादा(13 करोड़ 80 लाख) कम हुई है। इस मामले में उल्लेखनीय सफलता हासिल करने वाले अन्य दस देशों के नाम हैं-: आर्मेनिया, अजरबैजान, ब्राजील, क्यूबा, जार्जिया, घाना, कुवैत, सेंट विन्सेन्ट एंड ग्रेनाडाइन, थाईलैंड और वेनेजुएला।
 

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इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट द्वारा प्रस्तुत [inside] ग्लोबलहंगर इंडेक्स 2013-द चैलेंज ऑव हंगर: बिल्डिंग रेजिलेंस टू एचीव फूड एंड न्यूट्रीशन सिक्यूरिटी [/inside](प्रकाशित, अक्तूबर 2013) नामक दस्तावेज के अनुसार:

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•    ग्लोबल हंगर इंडेक्स में तीन सूचकांकों का ध्यान रखा जाता है: भोजन की कमी के शिकार लोगों का अनुपात, सामान्य से कम वज़न वाले पाँच वर्ष से कम आयु के बच्चों का अनुपात और पाँच वर्ष की आयु पूरी करने से पहलेमृत्यु का शिकार होने वाले बच्चों का अनुपात। 2013 का ग्लोबल हंगर इंडेक्स (जीएचआई)में 120 देशों की रैंकिंग की गई है। इन देशों के उपर्युक्त तीनों आंकड़े उपलब्ध हैं।

•    किसी देश के जीएचआई अंक के बढ़ने का अर्थ है कि वहां भुखमरी की स्थिति बदतर हो रही है जबकि जीएचआई अंक घटने का अर्थ है कि भुखमरी की स्थिति में सुधार हो रहा है।

•    साल 1990 में भारत का जीएचआई अंक 32.6 था, साल 1995 में यह अंक 27.1, साल 2000 में 24.8, साल 2005 में  24.0 तथा साल 2013 में 21.3 था। साल 2013 में भारत का जीएचआई अंक(21.3) चीन (5.5), श्रीलंका (15.6), नेपाल (17.3), पाकिस्तान (19.3) और बांग्लादेश (19.4) से बदतर है।

•    भारत की आबादी में भोजन की कमी झेल रहे लोगों की संख्या साल 1990-1992 में 26.9 फीसदी थी जो साल 2010-12 में घटकर 17.5 फीसदी हो गई। सामान्य से कम वज़न वाले पाँच साल से कम आयु वाले बच्चों की संख्या भारत में साल 1988-1992 में 59.5 फीसदी थी जो साल 2008-12 में घटकर 40.2 फीसदी हो गई। साल 1990 में पाँच साल से कम आयु में मृत्यु का शिकार होने वाले बच्चों की तादाद भारत में 11.4 फीसदी थी जो साल 2011 में घटकर 6.1 फीसदी हो गई।

•   कुल 19 देश ऐसे हैं जहां भुखमरी की समस्या अब भी अत्यंत खतरनाक या फिर खतरनाक स्तर तक है। ऐसे ज्यादातर देश अफ्रीका महादेश(दक्षिणी हिस्से) में है। हैती,यमन तिमोर-लिस्टी जैसे देश इसके अपवाद हैं। भारत में ऐसे देशों की सूची में नहीं है।

•    2013 में दक्षिण एशिया का जीएचआई अंक सर्वाधिक रहा, हालांकि इलाके में 1990 के बाद से जीएचआई अंक के मामले में तेजी से कमी आई है और पहले की तुलना में 11 अंकों की गिरावट देखी जा सकती है जो कि प्रतिशत पैमाने पर 34 अंकों की गिरावट है।

•    विश्व में भोजन की कमी झेल रहे लोगों की संख्या अप्रत्याशित रुप से बहुत अधिक है: साल 2010-2012 में विश्व के 87 करोड़ लोग भोजन की भारी कमी के शिकार थे और एफएओ के अनुसार 2011-13 में ऐसे लोगों की संख्या घटने के बावजूद 84 करोड़ 20 लाख के करीब है।

•    वैश्विक जीएचआई अंक में 1990 से 2013 के बीच 34 फीसदी की गिरावट आई है। साल 1990 में वैश्विक जीएचआई अंक 20.8 था जो साल 2013 में घटकर 13.8 हो गया।

भुखमरी कम करने के मामले में वैश्विक स्तर पर 1990 के दशक से प्रगति हुई है। अगर मंदी के प्रभावों को कम किया जा सका तो फिर 2015 तक दुनिया में भोजन की कमी झेल रहे लोगों की संख्या को 50 फीसदी घटाने का लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है। फिलहाल दुनिया में हर आठवां व्यक्ति भुखमरी से पीडित है।

 

 

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एफएओ द्वारा प्रस्तुत [inside] फूड वेस्टेज फुटप्रिन्टस्: इम्पैक्ट ऑन नेचुरल रिसोर्सेज (2013) [/inside] नामक दस्तावेज के अनुसार-

 http://www.im4change.org/siteadmin/tinymce//uploaded/FAO%20report%20on%20food%20wastage.pdf

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•    भारत और चीन अपने अपने इलाके में अनाज के मामले में वाटर- फुटप्रिन्टस् के सबसे बड़े योगदानकर्ता हैं।

•    एशिया में अनाज की बर्बादी एक बड़ी समस्या है। इसका सीधा असर कार्बन-उत्सर्जन, पानी और जमीन के इस्तेमाल पर पड़ रहा है।चावल का उत्पादन इस लिहाज से विशेष रुप से उल्लेखनीय है क्योंकि इससे मीथेन का बड़ी मात्रा में उत्सर्जन हो रहा है और बर्बादी भी बहुत ज्यादा है।

•   एफएओ का आकलन है कि हर साल मनुष्यों के उपभोग के लिए हुए वैश्विक खाद्योत्पादन का तकरीबन एक तिहाई हिस्सा बर्बाद हो जाता है।

•   हर साल जितने खाद्यान्न बर्बाद होता है उसके उत्पादन में उतने ही पानी का खर्च होता है जितना कि रुस की नदी वोल्गा का सालाना जल-प्रवाह है। इसके अतिरिक्त बर्बाद हो जाने वाले खाद्यान्न के उत्पादन से सालाना 3.3 अरब टन ग्रीनहाऊस गैस धरती के वातावरण में पहुंचता है। इसी तरहबर्बाद अन्न के उत्पादन में 1.4 अरब हैक्टेयर जमीन का सालाना उपयोग होता है जो कि विश्व की कुल कृषिभूमि का 28 फीसदी है।

•    पर्यावरण की हानि के अतिरिक्त बर्बाद होने वाले खाद्यान्न से खाद्योत्पादकों सालाना 750 अरब डॉलर का नुकसान होता है।

•    विश्व में जितना खाद्यान्न सालाना बर्बाद होता है उसका 54 फीसदी हिस्सा उत्पादन, कटाई और भंडारण की प्रक्रिया में नष्ट होता है जबकि 46 फीसदी हिस्सा प्रसंस्करण, वितरण और उपभोग के समय।

•   सामान्य तौर पर विकासशील देशों में खाद्यान्न की ज्यादा बर्बादी उत्पादन के चरण में होती है जबकि विकसित देशों में उपभोग के स्तर पर। मध्य और उच्च आय वाले देशों में उपभोग के स्तर पर खाद्यान्न की बर्बादी 31-39 फीसद तक होती है जबकि कम आय वाले देशों में 4-16 फीसदी तक।

•    विकासशील देशों में फसल की कटाई के तुरंत बाद होने वाला नुकसान प्रमुख समस्या है। फसल की कटाई और उससे अन्न निकालने की तकनीक के मामले में कमजोरी और वित्तीय बाधाओं के साथ-साथ भंडारण और ढुलाई से जुड़ी समस्याएं इसके लिए खास तौर पर जिम्मेदार हैं।

 

 

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एफएओ की – [inside]द स्टेट ऑव फूड एंड एग्रीकल्चर 2013[/inside]- फूड सिस्टम फॉर बेटर न्यूट्रीशन-  नामक रिपोर्ट के अनुसार

http://www.fao.org/docrep/018/i3300e/i3300e.pdf

 http://www.fao.org/docrep/018/i3301e/i3301e.pdf

•    इस रिपोर्ट का तर्क है कि पोषण की दशा सुधारनी हो और कुपोषण के कारण आर्थिक और सामाजिक मोर्चे पर जो कीमत चुकानी पड़ती है, उसे कम करना हो तो बहुविध प्रयास करने होंगे। इसके लिए आहार-शृंखला, सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधा, शिक्षा आदि में एक साथ अनिवार्य और सकारात्मक हस्तक्षेप किया जाना चाहिए। आहार-शृंखला में हस्तक्षेप की शुरुआत कृषि-क्षेत्र से की जानी चाहिए।

•    भारत से ऐसे साक्ष्य मिले हैं कि यहां अगर कोई व्यस्क व्यक्ति शहर में है तो उसके कुपोषित होने की संभावना गांव में रहने वाले व्यक्ति की तुलना में कम है। गुहा-कसनोबिस और जेम्स कृत एक अध्ययन(2010) में पाया गया कि आठ शहरों की झुग्गी बस्तियों में रहने वाले व्यस्कों के बीच कुपोषण जहां 23 फीसदी था वहीं गांवों में वयस्क व्यक्तियों के बीच 40 फीसदी मामले कुपोषण के थे।

•   स्टेईन और कैम ने अपने एक अध्ययन(2007) में कहा है कि आयरन की कमी से होने वाले रोग एनीमिया, जिंक की कमी , विटामिन ए और आयोडिन की कमी से होने वाले रोगों के कारण भारत को जो आर्थिक कीमत चुकानी पड़ती है वह इस देश के सकल घरेलू उत्पाद का तकरीबन 2.5 फीसदी है।

•   भारत में स्कूलों में पोषाहार के रुप में दिए जाने वाले विशेष चावल के कारण एनीमिया के मामले, इस रोग से पीडित छात्रों के बीच 30 से घटकर 15 फीसदी पर आ पहुंचे हैं। (Moretti et al., 2006).

•    अधिकतर देशों में देखा गया है कि कृषि के क्षेत्र में उत्पादकता बढ़े तो कुपोषित बच्चों की संख्या में कमी आती है। ऐसे देशों में भारत भी शामिल है। भारत में ऐसा हरित क्रांति के दौर में हुआ जब खेती में उच्च उत्पादकता के लिए प्रौद्योगिकी पर विशेष बल दिया गया। सन् 1990 तक यही चलन देखने में आया लेकिन साल 1992 के बाद देखने में आया है कि भारत के ज्यादातर राज्यों में खेती की उच्च-उत्पादकता से वहां के कुपोषित बच्चों कीसंख्या में कमी से रिश्ता नहीं है। (Headey, 2011).

•   भारत में कुपोषण की व्यापकता के कईकारण गिनाये जाते हैं। ऐसे कारणों में आर्थिक असमानता, लैंगिक असमानता. साफ-सफाई की कमी, स्वच्छ पेयजल तक पहुंच का अभाव आदि प्रमुख हैं। बहरहाल, कुपोषण की व्यापकता की व्याख्या के लिए अभी और ज्यादा शोध की जरुरत है। (Deaton and Drèze, 2009; Headey, 2011).

 •    विकासशील देशों में प्रसंस्करित और डिब्बाबंद भोजन की बिक्री बहुत तेजी से बढ़ रही है। साल 2010 में भारत के शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में बड़ी संख्या में पाये जाने वाले किरान दुकानों में डिब्बाबंद भोजन की 53 फीसदी बिक्री हुई।

•   एफएओ को अधुनातन आकलन के हिसाब से विश्व की आबादी का 12.5 फीसद हिस्सा(868 मिलियन व्य़क्ति) भोजन के अभाव से ग्रस्त हैं। इस आंकड़े से विश्व में व्याप्त कुपोषण की सम्पूर्णता का नहीं बल्कि उसके एक बिस्से भर की ही झलक मिलती है। अनुमानों के हिसाब से विश्व में 26 फीसदी बच्चे कुपोषण के कारण सामान्य से कम लंबाई के हैं, 2 अरब से ज्यादा लोग एक ना एक माइक्रोन्यूट्रीएन्ट के अभाव से पीडित हैं जबकि 1 अरब 40 करोड़ लोग ऐसे हैं जिनका वज़न सेहत के मानकों के हिसाब से ज्यादा है और इस तादाद में 50 करोड़ लोग मोटापे का शिकार हैं।

•   साल 199092 से विकासशील देशों में भोजन की कमी के शिकार लोगों की संख्या 98 करोड़ से घटकर 85 करोड़ 20 लाख पर पहुंच गई है और भोजन की अभावग्रस्तता का विस्तार 23 फीसदी से कम होकर 15 फीसदी पर पहुंचा है। (FAO, IFAD and WFP, 2012).

•    साल 1990 से 2011 के बीच कुपोषण जनित स्टटिंग के मामलों में विकासशील देशों में 16.6 फीसदी की कमी आई है। कुपोषण जनित स्टटिंग की व्यापकता विकासशील देशों में 44.6 फीसदी से घटकर 28 फीसदी पर आ गई है। फिलहाल विकासशील देशों में सामान्य से कम ऊँचाई(कुपोषण जनिक स्टटिंग) के बच्चों की तादाद विकासशील देशों में 16 करोड़ है जबकि साल 1990 में 24 करोड़ 20 लाख थी। (UNICEF, WHO and The World Bank, 2012).

एक अनुमान में कहा गया है कि अगर हरित-क्रांति ना हुई रहती तो विश्व में भोजन की कीमतें 3565 फीसदी ज्यादा होतीं, विकासशील देशों में कुपोषण के शिकार बच्चों की संख्या वर्तमान संख्या से 6-8 फीसदी ज्यादा होती और औसत कैलोरी उपभोग की मात्रा अभी की तुलना में 11-13 फीसदी कम होती। (Evenson and Rosegrant, 2003)

 

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[inside]ब्रेड फॉर वर्ल्ड इंस्टीट्यूट द्वारा प्रकाशित 2013 हंगर रिपोर्ट[/inside]- विदिन रीच ग्लोबल डेवलपमेंट गोल्स्(2012) नामक दस्तावेज के अनुसार  http://www.hungerreport.org/2013/report

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भारत ने साल 1990 के बाद से सालाना 7 फीसदी या इसे ऊंची वृद्धि दर हासिल करने के में सफलता पायी है लेकिन इस देश में बच्चों की तकरीबन आधी तादाद(48 फीसदी) कुपोषण की शिकार है और भारत में मौजूदा बाल-मृत्यु दर 40 फीसदी के आसपास है जिसको देखते हुए नहीं लगता कि भारत इस मामले में सहस्राब्दि विकास लक्ष्यों को पूरा कर पाएगा।

 

बांग्लादेश भारत की तुलना में एक गरीब देश है, साल 1990 से लेकर अबतक बांग्लादेश में सालाना 3 फीसदी की वृद्धि-दर रही है लेकिन इसी अवधि में बांग्लादेश में कुपोषण के शिकार बच्चों की तादाद 68 फीसदी से घटकर 43 फीसदी हो गई है।

 

साल 2002 से साल 2010 के बीच भारत के सकल घरेलू उत्पाद में सालाना औसतन 8 फीसदी कीवृद्धि हुई। इसी अवधि में ब्राजील का सकल घरेलू उत्पाद सालाना 4 फीसदी की दर से बढ़ा लेकिन ब्राजील प्रतिवर्ष 4.2 फीसदी की दर से गरीबी घटाने में सफल हुआ जबकि भारत में इस अवधि में गरीबी के घटने की दर 1.4 रही।

 

जिन बीमारियों से बड़ी आसानी से बचा जा सकता है उन बीमारियों से मरने वाले बच्चे और स्त्रियों के मामले में भारत बाकी सारे देशों से आगे है। भारत में कुपोषण के शिकार लोगों की संख्या सबसे ज्यादा है और गरीबों की भी। ब्राजील और चीन भी भारत के ही समान उभरती हुई आर्थिक महाशक्तियां हैं लेकिन इन दो देशों की तुलना में भारत भुखमरी को मिटाने के मामले में बहुत पीछे है। सहस्राब्दि विकास लक्ष्यों में से एक यानि भुखमरी के शिकार लोगों की संख्या को 2015 तक आधी करना, चीन और ब्राजील में हासिल किया जा चुका है लेकिन इस मामले में मौजूदा दर के हिसाब से देखें तो भारत यह लक्ष्य 2042 में पूरा कर पाएगा।

 

 

भारत में (0-59 माह के) मानक से कम वज़न के बच्चों की संख्या गरीब परिवारों में साल 1993 में 64 फीसदी थी जो साल 2006 में घटकर 61 फीसदी रह गई। जबकि ऐसे बच्चों की संख्या धनी परिवारों में साल 1993 में 37 फीसदी थी जो साल 2006 में घटकर 25 फीसदी रह गई। जाहिर है, मानक से कम वज़न के बच्चों की संख्या सबसे ज्यादा देश के 20 फीसदी समृद्धि परिवारों में घटी।

 

नए राष्ट्रीय खाद्य-सुरक्षा कानून के अनुसार भारत के कुल 24 करोड़ परिवारों में से 18 करोड़ परिवारों को अनुदानित मूल्य पर राशन मिलेगा। नागरिक संगठन इस बात पर जोर दे रहे हैं कि खाद्य-सुरक्षा को पोषणगत सुरक्षा से जोड़कर देखा जाय।.

 

विकास के मोर्चे पर भारत की चुनौतियों को देखना हो तो प्राथमिक शिक्षा के मामले में देखिए, इस मामले में भारत के कुछ हिस्सों की प्रगति बस उतनी ही है जितनी युद्धग्रस्त अफगानिस्तान या यमन में। ये देश मानव-विकास सूचकांक के मामले में सबसे नीचे के देश हैं।

 

पश्चिम बंगाल में बाल-मृत्यु दर केरल की तुलना में तीन गुना ज्यादा है. इसका कारण ? पश्चिम बंगाल में तकरीबन 50 फीसदी अभिभावकों का मानना है कि बच्चे को डायरिया हो जाय तो उसे तरल आहार नहीं देना चाहिए, जबकि डायरिया का उपचार ठीक इसका उल्टा कहता है। केरल में 5 फीसदी से कम अभिभावक मानते हैं कि बच्चे को डायरिया होने पर तरल आहार नहीं देना चाहिए।.

 

बच्चे के आहार के बारे में कम समझ और साफ-सफाई की कमी भारत में बाल-मृत्यु दर को ऊँचा बनाने के प्रमुख कारणों में एक है।

 

भारत के जल-संसाधन का 90 फीसदी हिस्सा कृषिक्षेत्र में खप जाता है, लेकिन इसमेंसे महज 10-15 फीसदी का ही इस्तेमाल फसलों की पटवन में हो पाता है, शेष व्यर्थ चला जाता है।

 

साल 2012 में चीन की आबादी 135 करोड़ है भारत की 126 करोड़। साल 2050 तक मौजूदा दर के हिसाब से भारत की आबादी विश्व में सर्वाधिक यानि 169 करोड़ हो जाएगी जबकि चीन की आबादी 131 करोड़ होगी। साल 2030 तक वैश्विक स्तर पर खाद्यान्न की मांग में अनुमानतया 50 फीसदी की बढोत्तरी होगी।

 

साल 2009-10 में भारत में कुल भूक्षेत्र का 60.5 फीसदी हिस्सा कृषिभूमि के रुप में था जबकि इस अवधि में चीन के कुल भूक्षेत्र का 56.2 फीसदी हिस्सा कृषिभूमि के रुप में था। साल 2007-10 की अवधि में प्रति हैक्टेयर खाद्यान्न की ऊपज भारत में 2537 किलोग्राम थी जबकि चीन में 5521 किलोग्राम।  

 

दक्षिण एशिया में समृद्धतम 20 फीसदी परिवारों में 94 फीसदी महिलाओं को गर्भावस्था के दौरान समचित देखभाल की सुविधा हासिल होती है जबकि निर्धनतम 20 फीसदी परिवारों में महज 48 फीसदी महिलाओं को ऐसी सुविधा हासिल होती है।

 

साल 1990 में वैश्विक स्तर पर मानक से कम लंबे(उम्र के आधार पर लंबाई)  बच्चों की संख्या 25 करोड़ 30 लाख थी जो साल 2011 में घटकर 16 करोड़ 50 लाख हो गई, यानि इस अवधि में मानक से कम लंबे बच्चों की संख्या में 35 फीसदी की कमी आई।

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एफएओ, डब्ल्यूएफपी,आएफएडी द्वारा प्रस्तुत [inside]द स्टेट ऑव फूड इन्सिक्यूरिटी इन द वर्ल्ड 2012[/inside] नामक दस्तावेज के अनुसार-,

http://www.fao.org/docrep/016/i3027e/i3027e.pdf

http://www.fao.org/docrep/016/i2845e/i2845e00.pdf:

 

नए आकलनों के अनुसार खाद्य-पदार्थ की कीमतों और आर्थिक संकट के वर्षो (200710) में भुखमरी की व्यापकता उतनी गंभीर नहीं थी जितना पहले के अनुमानों में कहा गया था।सकल घरेलू उत्पाद से संबंधित नए आकलनों के अनुसार साल 2008-09 की आर्थिक महामंदी के समय कई विकासशील देशों में जीडीपी की बढ़त बहुत कम प्रभावित हुई। चीन, भारत और इंडोनेशिया(तीन बड़े विकासशील देश) में घरेलू बाजार में खाद्य-पदार्थों की कीमतों में मामूली वृद्धि हुई।

 

साल 1990-1992 की अवधि में भारत में पोषणगत कमी झेल रहे लोगों की संख्या तकरीबन 24 करोड़ थी, साल 1999-2001 की अवधि में यह संख्या 22 करोड़ 40 लाख थी। साल 2004-06 के बीच पोषणगत कमी के शिकार लोगों की संख्या 23 करोड़ अस्सी लाख थी जबकि स3ल 2007-09 में 22 करोड़ 70 लाख और साल 2010-12 की अवधि में ऐसे लोगों की संख्या 21 करोड़ 70 लाख थी।

 

भारत की कुल आबादी में पोषणगत कमी के शिकार लोगों की तादाद साल 1990-92 में 26.9 फीसद, साल 1999-2001 में 21.3 फीसद, साल 2004-06 में 20.9 फीसद, साल 2007-09 में 19.0 फीसद तथा साल 2010-12 में 17.5 फीसद थी।

 

भारत में आयरन और आयोडिन की कमी से होने वाले कुपोषण के कारण सालाना जीडीपी के 2.95 फीसद का नुकसान होता है।

 

साल 2008 में भारत में कुल कृषियोग्य भूमि का 41.9 फीसद हिस्सा सिंचाई की सुविधा से युक्त था जबकि साल 2004 में ऐसी भूमि कुल कृषियोग्य भूमि का 40.1 फीसद थी।

 

भारत में खाद्यान्न निर्भरता अनुपात[ इसकी गणना के लिए खाद्यान्न-आयात में {( खाद्यान्न का कुल उत्पादन और कुल आयात का योग खाद्यान्न निर्यात को घटाया जाता है }]  साल 2008 में 0.5 फीसद थी जबकि साल 2007 में 1.5 फीसद।

 

शहरों और नगरों के नजदीक पड़ने वाले भारतीय गांवों का रिकार्ड गरीबी घटाने के मामले में तुलनात्मक रुप से बेहतर है।

 

बांग्लादेश में सरकार भारत और पाकिस्तान की तुलना में स्वास्थ्य के मद में दोगुना ज्यादा खर्च करती है।.

 

विश्वस्तर पर तकरीबन 87 करोड़ लोग साल 2010-12 में भोजन से हासिल होने वाली ऊर्जा की कमी के शिकारथे। यह तादाद विश्व की आबादी का 12.5 फीसद है यानी विश्व में हर आठ व्यक्ति में एक व्यक्ति भोजन से हासिल होने वाली ऊर्जा की कमी का शिकार है। इस तादाद में से 85 करोड़ 20 लाख लोग विकासशील देश में रहते हैं। विकासशील देशों में पोषणगत कमी के शिकार लोगों की संख्या ऐसे देशों की कुल आबादी का 14.9 फीसद है।.

 

साल 1990-92 से साल 2010-12 के बीत विश्व में भुखमरी झेल रहे लोगों की संख्या में 13 करोड़ 20 लाख की कमी आई यानि विश्व में भुखमरी झेल रहे लोगों की संख्या 18.6 फीसद से घटकर 12.5 फीसद हो गई जबकि विकासशील देशों में यह संख्या घटकर 23.2 फीसद से 14.9 फीसद पर पहुंची है।

 

पोषणगत कमी के शिकार लोगों की संख्या में सर्वाधिक कमी दक्षिणी-पूर्वी एशिया(13.4 फीसद से घटकर 7.5 फीसद) और पूर्वी एशिया( 26.1 फीसद से घटकर 19.2 फीसद) के देशों में आई है। लैटिन अमेरिकी देशों में पोषणगत कमी के शिकार लोगों की संख्या 6.5 फीसद से घटकर 5.6 फीसद पर पहुंची है लेकिन दक्षिणी एशिया में पोषणगत कमी झेल रहे लोगों की संख्या 32.7 फीसद से बढ़कर 35.0 फीसद पर पहुंची है।

 

सारे विकासशील देशों को एकसाथ मिलाकर देखें तो भोजन की कमी के शिकार लोगों की संख्या साल 1990-2010 के बीच 23.2 फीसदी से घटकर 14.9 फीसद पर आई है जबकि इस अवधि में गरीबों की तादाद 47.5 फीसदी से घटकर 22.4 फीसदी पर पहुंची और बाल मृत्यु-दर 9.5 फीसदी से घटकर 6.1 फीसदी पर।

 

भुखमरी और कुपोषण को घटाने में कृषि की वृद्धि का प्रभावकारी योगदान रहा है। ज्यादातर गरीबजन अपनी जीविका के लिए खेती पर निर्भर हैं।

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सेव द चिल्ड्रेन और वर्ल्डविजन नामक संस्था द्वारा प्रस्तुत [inside]द न्यूट्रीशन बैरोमीटर: गॉजिंग नेशनल रेस्पांसेज टू अंडरन्यूट्रीशन (2012)[/inside] नामक दस्तावेज के अनुसार-  http://www.savethechildren.in/images/resources_documents/nutrition_barometer_asia.pdf:

 

 

डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑव कांगो, भारत और यमन की प्रगति बाल-पोषण के मामले में काफी कमजोर रही, परिणाम अच्छे नहीं आये और इन देशों ने बाल-पोषण के मामले में बड़ी लचर प्रतिबद्धता जाहिर की। इस दस्तावेज में बाल-पोषण के मोर्चे पर भारत की प्रगति के आंकड़े पुराने हैं। ये आंकड़े नेशनल फैमिली हैल्थ सर्वे-3 पर आधारित हैं जिसकी अवधि 2005-06 है। चूंकि भारत ने आधिकारिक तौर पर बाल-पोषण के मामले में राष्ट्रीय स्तर पर कोई सर्वेक्षण प्रस्तुत नहीं किया है इसलिए नेशनल फैमिली हैल्थ सर्वे-3 के ही आंकड़ों का व्यवहार होता है।

साल 2005-06 के बाद भारत में बाल-पोषण के लिहाज से क्या प्रगति हुई, इसे जानने के लिए राष्ट्रीय स्तर के सर्वे की त्वरित जरुरत है। चौथा फैमिली हैल्थ सर्वे साल 2014 में होना है।

भारत की अर्थव्यवस्था ने भले चमत्कारिक प्रगति की हो लेकिन इस प्रगति की प्रतिबिंब बाल-पोषण के रुप में नहीं दिखता। अर्थव्यवस्था की प्रगति के कारण करोड़ोंलोग गरीबी के जाल से बाहर निकले हैं लेकिन आर्थिक प्रगति का लाभ समाज के एक छोटे से तबके को बाकी लोगों की तुलना मेंबहुत ज्यादा हुआ है। कई शोध-आकलनों में कहा गया है कि भारत में आधे से ज्यादा बच्चे सामान्य से कम वज़न के हैं और उनकी लंबाई भी सामान्य से कम है। भारत में 70 फीसदी से ज्यादा महिलाएं और बच्चे गंभीर पोषणगत कमियों से जूझ रहे हैं जिसमें एनीमिया एक है।

इस बात की संभावना दोगुनी है कि कोई बच्चा अगर गरीब घर में पैदा हुआ है तो धनी घर में पैदा हुए बच्चे की तुलना में उसकी लंबाई सामान्य से कम होगी। बहरहाल भारत के सर्वाधिक धनी 20 फीसदी परिवारों में हर पाँच में से एक बच्चा पोषणगत कमी का शिकार है।

पोषण के पैमाने पर शून्य से 2 साल की अवधि को बच्चे के आगे के विकास के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण माना गया है। समेकित बाल विकास योजना की एक आलोचना यह कहकर की जाती है कि इस योजना में उपर्युक्त आयु-वर्ग के बच्चों की अनदेखी की जाती है।

इस सर्वेक्षण में कुल 36 देशों को शामिल किया गया था। इसमें 13 यानी तकरीबन एक तिहाई देशों में बाल-पोषणगत प्रतिबद्धता और परिणाम एक ही दिशा में संकेत करते हैं।  तीन देश- ग्वाटेमाला, मलावी और पेरु बाल-पोषण के मामले में राजनीतिक और वित्तीय प्रतिबद्धता दिखाने तथा इसी के अनुरुप बेहतर परिणाम हासिल करने के मामले में बाकी देशों से आगे हैं।

इस सर्वेक्षण में यह भी पता चला कि सर्वेक्षण में शामिल देशों में कुल 12 देश ऐसे हैं जहां बाल-पोषण के मामले में राजनीतिक-वैधानिक और वित्तीय प्रतिबद्धता तो खूब है लेकिन नतीजे के मोर्चे पर हासिल बड़ा कम है।

 

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68 वें दौर की गणना पर आधारित नेशनल सैम्पल सर्वे के नवीनतम रिपोर्ट संख्या 560: [inside]न्यूट्रीशनल इनटेक इन इंडिया 2011-12[/inside] नामक दस्तावेज के तथ्यों के अनुसार

• देश के ग्रामीण अंचलों में औसतन प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन कैलोरी उपभोग 2233 किलोकैलोरी का है और शहरी अंचलों में 2206 किलोकैलोरी का।

• प्रतिव्यक्ति प्रतिमाह मासिक खर्च के बढ़ने के साथ कैलोरी उपभोग में बढ़त देखी जा सकती है। मासिक खर्च के पैमाने पर सर्वाधिक नीचे की 5 प्रतिशत ग्रामीण आबादी का कैलोरी उपभोग अपने से तुरंत ऊपर की 5 प्रतिशत ग्रामीण की तुलना में प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन के लिहाज से 183 किलोकैलोरी कम है।

•  कुल कैलोरी उपभोग में अनाज से प्राप्त होने वाली कैलोरी का हिस्सा देश के ग्रामीण अंचलों में 57% तथा ग्रामीण अंचलों में 48% है। अनाज से हासिल होने वाली कैलोरी के मामले में राज्यवार भिन्नता है। पंजाब के ग्रामीण अंचलों में अनाज से हासिल कैलोरी की मात्रा 42 प्रतिशत है तो ओड़ीशा में 70 प्रतिशत। हरियाणा के शहरी अंचलों में अनाज से हासिल कैलोरी का हिस्सा 39% है तो ओड़ीशा और बिहार के शहरी अंचलों में 60%।

•    कुल कैलोरी उपभोग में खाद्यान्नेतर भोजन का हिस्सा देश के ग्रामीण अंचलों में 43 प्रतिशत है। इस कैलोरी उपभोग में तेल, वसा आदि से हासिल कैलोरी की मात्रा 22% है।

•   देश के शहरी अंचलों में खाद्यान्नेतर भोज्य पदार्थों से हासिल कैलोरी का हिस्सा 52% है।

•   देश के सभी बड़े राज्यों के शहरी अंचलों में दूध और दूध से बने उत्पादोंका कैलोरी उपभोग में योगदान 8% से 27% के बीच है और ग्रामीण अंचलों में 3% से 36% के बीच।

•   जिन बड़े राज्यों में जीवनस्तर अपेक्षाकृत ऊँचा है वहां कैलोरी खपत में खाद्यान्नेतर भोज्य-पदार्थों के बीच शहद और चीनी का हिस्सा तुलनात्मक रुप से अधिक है।

•    अखिल भारतीय स्तर पर देखें तो प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन प्रोटीन का उपभोग ग्रामीण अंचलों में 60.7 ग्राम और शहरों में 60.3 ग्राम है।

•    राज्यवार ग्रामीण अंचलों में प्रोटीन के उपभोग के मामले में बहुत ज्यादा अंतर है। छत्तीसगढ़ में प्रतिदिन प्रतिव्यक्ति प्रोटीन का औसत उपभोग जहां 52 ग्राम है वहीं हरियाणा में 73 ग्राम। शहरी अंचलों के लिहाज से प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन प्रोटीन के उपभोग को देखें तो असम में यह 55 ग्राम है जबकि हरियाणा में 69 ग्राम।

•    कुछ गरीब राज्यों के ग्रामीण इलाकों में शहरों की तुलना में प्रोटीन की प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन खपत में बहुत ज्यादा का अंतर है। मिसाल के लिए झारखंड( ग्रामीण: 54.7ग्राम, शहरी: 60.3ग्राम) और छत्तीसगढ़ (ग्रामीण: 51.7ग्राम, शहरी: 55.8 ग्राम)। इसके विपरीत हरियाणा, राजस्थान और पंजाब जैसे प्रोटीन के उच्च उपभोग वाले राज्यों में ग्रामीण अंचलों में प्रोटीन की प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन खपत शहरी अंचलों की तुलना में ज्यादा(4-6 ग्राम) है।

•    प्रोटीन के उपभोग की कुल मात्रा में खाद्यान्न से प्राप्त प्रोटीन का हिस्सा ग्रामीण अंचलों में 58% तथा शहरी अंचलों में 49% है।

•    प्रोटीन के उपभोग में दुग्ध और दुग्ध उत्पादों का हिस्सा ग्रामीण अंचलों में 10% तथा शहरी अंचलों में 12% है। हरियाणा में यह सबसे ज्यादा (ग्रामीण: 27%; शहरी: 22%) है।

•   प्रोटीन के उपभोग में मांस, मछली और अंडे से प्राप्त प्रोटीन का हिस्सा ग्रामीण अंचलों में 7% और शहरी अंचलों में 9% है। केरल के शहरी और ग्रामीण अंचलों में यह मात्रा 26 प्रतिशत की है जबकि पश्चिम बंगाल, असम, आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु और कर्नाटक में 10 प्रतिशत या फिर इससे ज्यादा।

•    प्रति व्यक्ति प्रतिमाह खर्च में बढ़ती के साथ खाद्यान्न से प्राप्त प्रोटीन की मात्रा कुल प्रोटीन उपभोग में कम होने के रुझान हैं। देश के ग्रामीण अंचल में प्रतिव्यक्ति प्रतिमाह खर्च के लिहाज से सबसे नीचे की श्रेणी की 5 प्रतिशत आबादी अपने प्रोटीन उपभोग का 72 प्रतिशत हिस्सा खाद्यान्न से हासिल करती है जबकि ऊपरी 5 फीसदी आबादी केवल 42 प्रतिशत। शहरी अंचलों के लिए यह संख्या निचली और ऊपरली श्रेणियों के लिए क्रमश 68% तथा 31% है।

•दूसरी तरफ ग्रामीण अंचलों में प्रति माह प्रति व्यक्ति खर्च के लिहाज से सबसे नीचे की 5 प्रतिशत आबादी के कुल प्रोटीन उपभोग में दूध और दुग्धजनित भोज्य-पदार्थों से प्राप्त प्रोटीन की मात्रा 3 प्रतिशत है और ऊंचली श्रेणी में 16 प्रतिशत। शहरी अंचलों में प्रति व्यक्ति प्रतिमाह खर्च के पैमाने पर सबसे निचली और सबसे ऊपरली श्रेणी की आबादी के लिए दूध और दूध से बने पदार्थों से प्राप्त प्रोटीन की मात्रा का अन्तर 4 प्रतिशत बढ़कर 17% तक जा पहुंचता है। कुछ ऐसा ही रुझान मांस, मछली और अंडे से प्राप्त प्रोटीन की मात्रा के मामले में भी है। ग्रामीण अंचलोंमें प्रतिमाह प्रतिव्यक्ति खर्च के लिहाज से सबसे निचली और ऊंचली श्रेणी की आबादी के बीच यह अंतर 2% से बढ़कर 12% पर जा पहुंचता हैऔर शहरी अंचलों में 4% से बढ़कर 11% पर। 

 

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आईएफएडी, डब्ल्यू एफ पी और एफएओ द्वारा प्रस्तुत द स्टेट ऑव फूड इन्स्क्यूरिटी इन द वर्ल्ड- हाऊ डज इंटरनेशनल प्राईस वोलाटिलिटी अफेक्ट डोमेस्टिक इकॉनॉमिज एंड फूड सिक्यूरिटी नामक दस्तावेज के अनुसार http://www.fao.org/docrep/style="font-family:Mangal">014/i2330e/i2330e.pdf

 

•  साल 2006-08 में भारत में आहार की कमी के शिकार लोगों की संख्या 22 करोड़ 40 लाख 60हजार थी जबकि चीन, बांग्लादेश, श्रीलंका और पाकिस्तान में इसी अवधि में भोजन की कमी के शिकार लोगों की संख्या क्रमश 12 करोड़ 90 लाख 60 हजार , 4 करोड़ 10 लाख 40 हजार30 लाख 90 हजार और 4 करोड़ 20 लाख 80 हजार थी।

 

 

 

साल 1995-97 में भारत में भोजन के अभाव के शिकार लोगों की संख्या 16 करोड़ 70 लाख 10 हजार से बढ़कर 20 करोड़ 80 लाख तक पहुंची थी। यह तादाद साल 2000-02 में बढ़कर 22 करोड़ 40 लाख 60 हजार के आंकड़े तक पहुंच गई।

 

 

 

साल 2006 में भारत में भोजन की कमी के शिकार लोगों की संख्या कुल आबादी में 19 फीसदी थी जबकि चीन, बांग्लादेश, श्रीलंका और पाकिस्तान में इसी अवधि में कुल आबादी में भोजन की कमी के शिकार लोगों की संख्या क्रमश 10 फीसदी, 26 फीसदी, 20 फीसदी और 25 फीसदी थी।

 

 

 

भारत की कुल आबादी में भोजन की कमी के शिकार लोगों की संख्या साल 1995-96 में 17 फीसदी थी जो बढ़कर साल 2000-02 में 20 फीसदी तक पहुंच गई, साल 2006-08 में इस तादाद में हल्की सी कमी(19 फीसदी) आई थी।

 

 

 

साल 2006-08 के खाद्यान्न संकट के समय चावल और गेहूं की घरेलू कीमतें चीन भारत और इंडोनेशिया में स्थिर रहीं क्योंकि इन देशों में सरकार ने इनके निर्यात पर अंकुश लगा रखा था।

 

 

 

भारत में किसान आमदनी में होने वाली तेज घट-बढ़ के कारण बैलों की खरीददारी पर कम खर्च करते हैं।

 

 

 

साल 2007 और 2008 के बीच एशिया में आहार की कमी के शिकार लोगों की संख्या तकरीबन स्थिर( महज 0.1 फीसदी का इजाफा) रही जबकि इसी अवधि में अफ्रीका में भोजन की कमी के शिकार लोगों की संख्या 8 फीसदी बढ़ी।

 

 

 

विश्व-बाजार में खाद्य-वस्तुओं की कीमतें, मुद्रास्फीति के स्थिति के हिसाब से अनुकूलित किए जाने पर, साल 1960 के दशक के शुरुआती सालों से नीचे आनी शुरु हुईं और साल 2000 के दशक के आरंभिक सालों में ऐतिहासिक रुप से सर्वाधिक निचले स्तर पर पहुंची। साल 2003 से कीमतों में इजाफा शुरु हुआ, फिर साल 2006 से 2008 के बीच कीमतों में तेज गति से बढ़ोतरी हुई।

 

 

 

द ऑर्गनाईजेशन फॉर इकॉनॉमिक को-ऑपरेशन एंड डेवलपमेंट(ओईसीडी) तथा एफएओ एग्रीकल्चरल आऊटलुक 2011-2020 का आकलन है कि विश्व-बाजार में चावल, गेहूं,मकई और तेलहन के दामों में 2015/16 से 2019/20 के बीच गुजरी 1998/99 से 2002/03 की अवधि की तुलना में क्रमश 40, 27, 48 और 36 फीसदी का इजाफा होगा।

 

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[inside]इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट द्वारा प्रस्तुत 2010 ग्लोबल हंगर इंडेक्स[/inside] नामक दस्तावेज के अनुसार, http://www.ifpri.org/pressroom/briefing/2010-global-hunger-index-crisis-child-undernutritionmso 9]> Normal 0 false false false EN-US X-NONE HI Priority="62" SemiHidden="false" UnhideWhenUsed="false" Name="Light Grid Accent 3"/>

•    इस दस्तावेज में 122  विकासशील देशों के बारे में भुखमरी के आंकड़े दिए गए हैं और इन्ही आंकड़ों के आधार पर ग्लोबर हंगर इंडेक्स तैयार किया गया है।

•    इंडेक्स को तैयार करने में मुख्य रुप से तीन आधार मानकों का इस्तेमाल किया गया है- (क)किसी देश की कुल जनसंख्या में अल्पपोषित लोगों का अनुपात कितना है, (ख) किसी देश में पाँच साल की उम्र के बच्चों में औसत से कम वज़न वालेबच्चों का अनुपात कितना है, और (ग) बाल-मृत्यु दर।

•    इंडेक्स पैमाना शून्य से सौ तक के अंकों में विभाजित है। शून्य इसमें सर्वश्रेष्ठ अंक हैं जिसका मतलब है भुखमरी की समस्या नहीं है जबकि इसके विपरीत सौ सर्वाधिक बुरा अंक है जो भुखमरी की अधिकतम मौजूदगी बताता है।

•    अगर ग्लोबल हंगर इंडेक्स पर किसी देश का स्कोर बढ़ रहा है तो इसका अर्थ है वहां भुखमरी की समस्य़ा तिलनात्मक रुप से बढ़ी है और घट रहा है तो इसका अर्थ है भुखमरी की समस्य़ा तुलनात्मक रुप से घटी है।

•    ग्लोबल हंगर इंडेक्स में साल 2003-2008 तक के आंकड़े उपलब्ध हैं, जो अब तक के अद्यतन आंकड़े हैं।

•   साल 1990 के बाद से वैश्व के ग्लोबल हंगर इंडेक्स में 25 अंकों की गिरावट आई है। फिर भी विश्व में भुखमरी की यह स्थिति गंभीर ही कही जाएगी।

•    दक्षिण अफ्रीका और उप-सहारीय अफ्रीकी देशों में सर्वाधिक भूखमरी है। ग्लोबल हंगर इंडेक्स पैमाने पर इनके अंक क्रमश 22.9 और 21.7 हैं।

•    एशिया में औसत से कम वज़न वाले सर्वाधिक बच्चे(40 फीसदी)बांग्लादेश, भारत और पूर्वी तिमूर में हैं।

•    हालांकि गुजरे 25 सालों में बांग्लादेश ने पाँच साल तक की उम्र वाले बच्चों के मृत्यु दर में कमी लाने की अच्छी कोशिश की है लेकिन अब भी वहां 1000 में से 54 बच्चे पाँच साल की उम्र पूरी करने से पहले मर जाते हैं जबकि इसी आयु वर्ग के कुल 43 फीसदी बच्चों की बढ़वार औसत से कम है।

•    चीन ने स्वास्थ्य, परिवार-नियोजन और पोषण संबंधी अपनी प्रभावकारी नीतियों के जरिए 1990 से 2002 के बीच बाल-कुपोषण को 25 फीसदी से घटाकर 6 फीसदी करने में सफलता हासिल की है।

•    भारत: साल 1990 से 2008 के बीच औसत से कम वज़न वाले बच्चों की तादाद 60 फीसदी से घटकर 44 फीसदी हो गई है जबकि पाँच साल तक की उम्र वाले बच्चों की मृत्यु दर 12 फीसदी से घटकर 7 फीसदी हो गई है।

•    साल 2005-06 में भारत में तकरीबन 44 फीसदी बच्चे(पाँच साल तक की उम्र वाले) औसत से कम वज़न के थे। भारत की आबादी अधिक है और इस कारण विश्व के औसत से कम वज़न वाले बच्चों की कुल संख्या का 42 फीसदी और औसत से कम बढ़वार वाले बच्चों का 31 फीसदी भारत में रहता है।

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फूड एंड एग्रीकल्चर ऑर्गनाइजेशन और वर्ल्ड फूड प्रोग्राम द्वारा प्रस्तुत [inside]द स्टेट ऑव फूड इन्सिक्यूरिटी इन द वर्ल्ड: एड्रेसिंग फूड इन्सिक्युरिटी इन प्रोट्रैक्टेड क्राइजेज[/inside] नामक दस्तावेज के अनुसार-

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http://www.fao.org/docrep/013/i1683e/i1683e.pdf:

•    हालांकि साल 2010 में विश्वस्तर पर भोजन की कमी से जूझ रहे लोगों की संख्या में कमी आई है(इससे पहले ऐसा 1995 में हुआ था) तो भी इनकी संख्या तकरीबन एक अरब है और यह किसी भी लिहाज से बहुत ज्यादा है। भोजन की कमी से जूझ रहे लोगों की संख्या में कमी का एक बड़ा कारण विकासशील देशों में हो रही तेज आर्थिक प्रगति और साल 2008 में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर खाद्य पदार्थों की कीमतों में हुई गिरावट को बताया जा रहा है।

•    कुल 92 करोड़ 50 लाख लोग(यानी विकासशील देशों की कुल जनसंख्या का 16 फीसदी हिस्सा) अब भी पूरी दुनिया में किसी ना किसी रुप में भोजन की कमी से जूझ रहे हैं। इससे पता चलता है कि संरचनागत स्तर गंभीर कमियां मौजूद हैं। सहस्राब्दि विकास लक्ष्य और 1996 के विश्व खाद्य सम्मेलन में जिन वैश्विक लक्ष्यों को हासिल करने कीबात कही गई है उस दिशा में यह संख्या एक बड़ी बाधा है।

•    रिपोर्ट में वैसे 22 देशों को चिह्नित किया गया है जहां लोग गंभीर रुप से भोजन कीकमी से जूझ रहे हैं। इन देशों में भोजन की कमी से जूझ रहे लोगों की संख्या 16 करोड़ 60 लाख है जो कि इन देशों की आबादी का 40 फीसदी है और भुखमरी की शिकार कुल वैश्विक आबादी का 20 फीसदी।

•    सामान्यतया, भोजन की गंभीर कमी से जूझ रहे इलाकों में अल्पपोषित लोगों की संख्या कुल आबादी का एक तिहाई है।ज्यादातर विकासशील देशों की भी ऐसी ही स्थिति है(अगर इसमे चीन और भारत की गणना ना करें तो)

•   आमदनी में कमी बेशी, सरकारी नीतियों की प्रभावकारिता, भ्रष्टाचार पर नियंत्रण और भोजन की कमी के हालात की साल दर साल निरंतरता जैसे कारक बहुत हद तक अल्पपोषण की स्थिति के लिए निर्णायक कारक हैं।

•   नवीनतम आंकड़ों के अनुसार विश्व में साल 2009 में अल्पपोषित लोगों की संख्या 1 अरब 20 करोड़ 30 लाख थी। एक साल के अंदर(यानी 2010 में) इसमें 9.6 फीसदी की गिरावट आई है। इस तरह साल 2010 में अल्पपोषित लोगों की संख्या 92 करोड़ 50 लाख तक पहुंची है। विकासशील देशों में अल्पपोषित लोगों की वैश्विक तादाद का 98 फीसदी हिस्सा रहता है।

•    अनाजों के भाव अंतर्राष्ट्रीय मंडियों में हाल के दिनों में अपनी सर्वाधिक ऊँचाई से गिरे हैं। साल 2009-10 में खाद्यान्न की आवक भरपूर हुई है। फिर भी कम आमदनी और खाद्य-संकट वाले देशों में खाद्य-पदार्थों के दाम वहीं के वहीं जमें हैं जहां वे 2008 से पहले(यानी खाद्य-पदार्थों के दामों में तेज बढोतरी से पहले) थे। इससे ऐसे देशों में ज्यादातर आबादी भरपेट भोजन हासिल नहीं कर पा रही।

•    भोजन की कमी से जूझ रहे ज्यादातर लोग विकासशील देशों में रहते हैं। इस आबादी का दो तिहाई हिस्सा सिर्फ सात देशों- बांग्लादेश,चीन, कोंगो, इथोपिया, भारत, इंडोनेशिया और पाकिस्तान में रहता है।

•    एशिया-पैसेफिक क्षेत्र में सर्वाधिक लोग भोजन की कमी के शिकार हैं। यहां साल 2009 में ऐसे लोगों की संख्या 65 करोड़ 80 लाख थी और साल 2010 में 12 फीसदी घटकर 57 करोड़ 80 लाख तक पहुंची।

•   विकासशील देशों को एक समूह के रुप में देखा जाय तो ऐसा नहीं लगता कि ये देश वर्ल्ड फूड समिट के लक्ष्यों(साल 1990-92 में अल्पपोषित लोगों की संख्या 82 करोड़ 70 लाख जबकि साल 2010 में अल्पपोषित लोगों की संख्या 90 करोड़60 लाख) को समय रहते पूरा कर पायेंगे।

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संयुक्त राष्ट्रसंघ के वर्ल्ड फूड प्रोग्राम और एम एस स्वामीनाथन फाउंडेशन द्वारा संयुक्त रुप से प्रस्तुत [inside]रिपोर्ट ऑन द स्टेट ऑव फूड इनसिक्युरिटी इन रुरल इंडिया[/inside] नामक दस्तावेज के मुताबिक-
http://documents.wfp.org/stellent/groups/public/documents/newsroom/wfp197348.pdf

  • फूड एंड एग्रीकल्चरल ऑर्गनाइजेशन द्वारा विश्व में आहार-असुरक्षा की स्थिति पर जारी हाल(साल २००८) की रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में तकरीबन २३ करोड़ लोगों को रोजाना भरपेट भोजन नसीब नहीं होता यानी भारत में कुल आबादी का २१ फीसदी हिस्सा भुखमरी का शिकार है।
  • उड़ीसा, मध्यप्रदेश, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल और राजस्थान ऐसे राज्य हैं जहां की जनसंख्या में ऐसे लोगों की तादाद बढ़ी है जिन्हें रोजाना १८९० किलो कैलोरी से कम ऊर्जा देने वाला भोजन नसीब होता है। पंजाब में भी एसे लोगों की तादाद बढ़ी है मगर कुल जनसंख्या के बीच उनका अनुपात बहुत कम है।
  • साल २००१ में झारखंडके लगभग दो तिहाई घरों को साफ पेयजल हासिल नहीं था।
  • छत्तीसगढ़, झारखंड, उड़ीसा, और मध्यप्रदेश में ९० फीसदी ग्रामीण परिवारों के पास घर के अहाते में शौचालय की सुविधा नहीं है।
  • कुल आठ राज्यों- आंध्रप्रदेश, बिहार, गुजरात, हरियाणा, कर्नाटक, केरल, मध्यप्रदेश और राजस्थान में मां बनने के आयु-वर्ग में आने वाली महिलाओं में एनीमिया ( यानी खून में लौहतत्व की कमी ) की घटना बढ़ी है। इस आयु वर्ग की महिलाओं के बीच एनीमिया की सर्वाधिक बढ़ोत्तरी आंध्रप्रदेश में (५१ से ६४ फीसदी ) हुई है। आंध्रप्रदेश के बाद हरियाणा (४८ से ५७ फीसदी) और केरल(२३ से ३२ फीसदी ) का नंबर है।
  • असम में क्रानिक एनर्जी डिफीशिएन्सी से पीडि़त महिलाओं की संख्या में तेज बढोत्तरी हुई है।यहां ऐसी महिलाओं की तादाद २८ फीसदी से बढ़कर ४० फीसदी हो गई। बिहार में ऐसी महिलाओं की तादाद ४० फीसदी से बढ़कर ४६ फीसदी, मध्यप्रदेश में ४२ फीसदी से बढ़कर ४५ फीसदी और हरियाणा में क्रानिक एनर्जी डिफीशिएन्सी से पीडि़त महिलाओं की संख्या ३१ फीसदी से बढ़कर ३३ फीसदी हो गई है।.
  • जिन बीस राज्यों में यह अध्ययन किया गया उनमें १२ में ग्रामीण इलाकों के ८० फीसदी से ज्यादा बच्चे एनीमिया से पीडित थे। बिहार के ग्रामीण इलाके में एनीमिया से पीडि़त बच्चों की तादाद पहले ८१ फीसदी थी जो बढ़कर ८९ फीसदी हो गई है।
  • कर्नाटक के ग्रामीण इलाके में औसत से कम वजन और कद के बच्चों की तादाद ३९ फीसदी से बढ़कर ४३ फीसदी हो गई है।
  • द इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट (आईएफपीआरआई) द्वारा जारी द इंडिया स्टेट हंगर इंडेक्स में १६३२ किलो कैलोरी प्रतिव्यक्ति-प्रतिदिन को मानक मानकर भुखमरी की गणना की गई है जबकि संयुक्त राष्ट्रसंघ के वर्ल्ड फूड प्रोग्राम और एम एस स्वामीनाथन फाउंडेशन द्वारा संयुक्त रुप से प्रस्तुत रिपोर्ट में १८९० किलो कैलोरी प्रतिव्यक्ति-प्रतिदिन को मानक माना गया है क्योकि अंतर्राष्ट्रीय मानक २७०० किलो कैलोरी का है और अनुशंसा की गई थी कि भुखमरी के आकलन में अंतर्राष्ट्रीय मानक के एक तिहाई को भारत के लिए मानक बनाया जाये।
  • भारत के ग्रामीण इलाके में आहार-असुरक्षा की स्थिति का जायजा लेने के लिए इस अध्ययन में निम्नलिखित बातों की गणना की गई-:
  • १८९० किलो कैलोरी से कम ऊर्जा का भोजन प्राप्त करने वाले लोगों की तादाद कुल जनसंख्या में कितनी है।
  • साफ पेयजल की सुविधा से कितने फीसदी परिवार वंचित हैं। कितने फीसदी परिवारों के घर में शौचालय की सुविधा नहीं है।
  • १५ से ४९ साल की विवाहित महिलाओं में एनीमिया से पीडितों की संख्या(प्रतिशत में) कितनी है।
  • १५ से ४९ साल के आयुवर्ग की कितनी फीसदी महिलायें क्रानिक एनर्जी डफीशिएन्सी से पीड़ित हैं।
  • ६ से ३५ महीने की उम्र के कितने फीसदी बच्चों को एनीमिया है।
  • ६ से ३५ महीने की उम्र के कितने फीसदी बच्चे सामान्य से कम वजन और कद के हैं।
  • ऊपरोक्त मानकों के आधार पर ग्रामीण भारत में आहार-असुरक्षा का जायजा लेने वाले इसरिपोर्ट में कहा गया है कि झारखंड और और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में आहार-असुरक्षा की स्थिति अत्यंत गंभीर है और मध्यप्रदेश, बिहार तथा गुजरात जैसे राज्य इससे थोड़े ही बेहतर हैं।
  • style="font-size:medium">आहार-असुरक्षा के पैमाने पर बेहतर स्थिति दर्ज कराने वाले राज्यों में हिमाचल प्रदेश,केरल ,जम्मू-कश्मीर और पंजाब का नाम लिया जा सकता है जबकि आंध्रप्रदेश, मध्यप्रदेश, बिहार, गुजरात, कर्नाटक, उड़ीसा और महाराष्ट्र में आहार असुरक्षा की स्थिति गंभीर है। रिपोर्ट के मुताबिक जारी खेतिहर संकट का एक रुप आहार-असुरक्षा और ग्रामीण भारत में सेहत की गिरती स्थिति के तौर पर नजर आ रहा है।
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आक्सफैम द्वारा प्रस्तुत [inside]नॉरिश साऊथएशिया- ग्रो अ बेटर फ्यूचर फॉर रिजनल फूड जस्टिस[/inside]-(लेखक स्वाति नारायण, सितंबर 2011) नामक रिपोर्ट के अनुसार- http://www.oxfam.org/sites/www.oxfam.org/files/cr-nourish-south-asia-grow-260911-en.pdf

 

बच्चों की दशा भुखमरी की स्थिति में सबसे ज्यादा दयनीय होती है।भारत में  प्रतिदिनघर, पुनर्वास केंद्र और अस्पतालों में  2000 से ज्यादा बच्चे भोजन की कमी का शिकार होकर मरते हैं और इसकी कोई खबर मीडिया में नहीं बनती।

 

खाद्य-संकट और वित्तीय-संकट जिस समय अपनी चरम सीमा पर था उस वक्त दक्षिण एशिया में 10 करोड़ से ज्यादा लोग एकबारगी भोजन की कमी के शिकार लोगों की श्रेणी में शामिल हुए। इस सिलसिले में यह गुजरे चार दशकों की सबसे बड़ी संख्या है।

 

भारत में भूमि-सुधार को दशकों बीत चुके हैं लेकिन देश की 41 फीसदी ग्रामीण जनता व्यवहारिक अर्थो में भूमि हीन है।

 

पाँच सालों के अंदर(2009-10) महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना का विस्तार पाँच करोड़ 30 लाख परिवारों यानी हद से हद भारतीय ग्रामीण आबादी के 33 फीसदी तक हो पाया है।

 

चूंकि नरेगा में पंचायत के द्वारा इस बात का फैसला होता है कि किस तरह की योजना पर काम होगा इसलिए नरेगा के तहत होने वाले सार्वजनिक निर्माण के काम पर्यावरणीय सुरक्षा को प्रधान मानकर होते हैं (क्योंकि कामों के चयन में यह दृष्टि कानून के हिसाब से जरुरी है) गुजरे तीन सालों में नरेगा के अन्तर्गत 10 लाख 90 हजार काम जल-संरक्षण और बाढ़-बचाव से संबंधित किए गए हैं।

 

भारत में 10 करोड़ हेक्टेयर जमीन जट्रोफा की खेती के लिए रख छोड़ी गई है। व्यवहारिक रुप से देखें तो 85 फीसदी किसानों ने जट्रोफा की खेती से तौबा कर लिया है।

 

भारत में खाद्य-सुरक्षा के लिहाज से नीतिगत स्तर पर लापरवाही की एक मिसाल- भारत सरकार जट्रोफा की खेती को बढ़ावा देने और उसकी खेती के लिए बड़े आक्रामक तरीके से कदम उठा रही है। जट्रोफा की खेती फिलहाल 1 करोड़ 10 लाख हेक्टेयर(2 करोड़ 70 लाख एकड़) जमीन पर हो रही है। इसमें खेती-बाड़ी की नियमित जमीन भी शामिल है। इससे खाद्यान्नी फसलों की खेती बाधित हो रही है। भारत सरकार की मंशा है कि साल 2017 तक पेट्रोल-डीजल की खपत का 20 फीसदी जट्रोफा से पूरा हो। इस मंशा से छुटकारा पाना जरुरी है।

 

साल 2008-09 यानी खाद्य-संकट के साल में भी दक्षिण एशिया के ज्यादातर देशों में सरकारी खाद्य-भंडार भरपूर भरे हुए थे( जितना खाद्यान्न सुरक्षा के लिहाज से रखा जाना जरुरी है उससे ज्यादा मात्रा में खाद्यान्न भंडारों में मौजूद था)। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज ने उन दिनों याद दिलाया था कि भारत के सरकारी अन्न-भंडारघरों में जितना अनाज रखा हुआ है उसे अगर बिछा दिया जाय तो वह 10 लाख किलोमीटर लंबाई की सड़क को ढंक लेगा और इतनी लंबाई की सड़क पर चढ़कर कोई चाँद तक पहुंच सकता है।ज्यां द्रेज की यह बात आज के सूरतेहाल में भी सच है।

 

यद्यपि दक्षिण एशिया की आबादी में मौजूद गरीबों की तादाद का तीन चौथाई हिस्सा ग्रामीण इलाकों में रहता है, और इनमें ज्यादातरलोग अन्नोत्पादक हैं फिर भी इन्हें खाद्यान्न खरीदकर पेट भरना पड़ता है।ऐसे परिवारों के बजट में भोजन पर होने वाला खर्चा एक बड़ा मद है।दक्षिण एशिया में गरीब ग्रामीण परिवार अपनी आमदनी का 50 फीसदी हिस्सा भोजन पर खर्च करते हैं जबकि संयुक्त राज्य अमेरिका में यह आंकड़ा 17 फीसदी का है। खाद्य-कीमतों की स्फीति इस लिहाज से बड़ी मारक है। इसका सबसे ज्यादा असर गरीबों पर होता है।

 

दक्षिण एशिया में 25 करोड़ से ज्यादा की तादाद में दलितजन बड़ी दयनीय दशा में जीवन बसर करते हैं। असंवैधानिक करार दिए जाने के बावजूद अश्पृश्यता ने नए अवतार ग्रहण किए हैं। भारत भर के 35 फीसदी गांवों के सर्वेक्षण के बाद पाया गए कि दलित किसानों को स्थानीय बाजार में अपने उत्पाद बेचने से रोका जाता है। मुसहर जनजाति के लोग खाद्य-सुरक्षा के लिहाज से सबसे ज्यादा चिंताजनक स्थिति में हैं।

 

देश की आबादी में जनजातीय की तादाद महज 9 फीसदी है लेकिन गुजरे तीन दशकों में इनमें से 5 करोड़ 50 लाख आदिवासी अपनी परंपरागत रिहायशी इलाके और जीविका को कारखाने, बड़े बाँध तथा अन्य विकास योजनाओं के कारण छोड़ने को बाध्य हुए हैं।

 

90 फीसदी जनजातीय आबादी या तो भूमिहीन है या फिर उनके पास इतनी कम जमीन है कि पेट भरने लायक अनाज नहीं हो पाता। द सेंटर फॉर एन्वायर्नमेंट एंड फूड सिक्युरिटी के एक सर्वेक्षण(2005) का निष्कर्ष है कि कि 99 फीसदी आदिवासी परिवार निरंतर भोजन की कमी झेलते हैं। उन्होंने साल के किसी भी महीने हर रोज दो जून की रोटी नसीब नहीं होती।

 

दक्षिण एशिया की दो तिहाई आबादी सामंती ग्रामीण परिवेश में रहती है। यहां भोजन के लिए जमीन का होना जरुरी है लेकिन इन इलाकों में जमीन कुछेक लोगों के हाथ में केंद्रित है। हालांकि जमींदारी की प्रथा कानून खत्म हो गई है लेकिन सही मायनों में अभी भूमि-सुधार(आबंटन के अर्थ में) होना बाकी है।

 

दक्षिण एशिया में तकरीबन दो तिहाई किसानों के पास 5 एकड़ से भी कम जमीन है। ज्यादातर किसान ऐसे हैं जिनके पास जोती जा रही जमीन की मिल्कियत नहीं है।

 

भारत में कृषिगत श्रमशक्ति में महिलाओं की हिस्सेदारी 30 फीसदी की है।

 

तकरीबन 46 फीसदी महिलाएं ऐसी हैं जिनका कृषिगत श्रम में योगदान तो है लेकिन उन्हें इससे आय अर्जित नहीं होता क्योंकि वे कृषिकर्म में पारिवारिक सदस्य के तौर पर भाग लेती हैं और इस तरह उन्हें कोई भुगतान नहीं होता।

 

भारत में महज 40 फीसदी गरीबों को 11 सामाजिक सुरक्षा की योजनाओं से किसी तरह का लाभ हासिल होता है। इन 11 योजनाओं पर सरकार जीडीपी का 2 फीसदी व्यय करती है।

 

भारत में 1960 में खेती का जीडीपी में हिस्सा 62 फीसदी था जबकि 2011 में मात्र 17 फीसदी। इस समस्या की मूल बात यह है कि ग्रामीण इलाके में आधी सेअधिक आबादी जीविका के लिए खेती पर निर्भर है।

 

1950 के बाद से अबतक दक्षिण एशिया की जनसंख्या तीन गुनी हो गई है। अगले चालीस सालों में इलाके की आबादी 2.3अरब हो जाएगी। पैदावार की कमी और खाद्य-सुरक्षा की मौजूदा स्थिति जारी रही तो इतनी बड़ी आबादी का पेट भरना मुश्किल होगा।

 

फिलहाल पूरे दक्षिण एशिया में 1730 फीसदी आबादी को उतनी खाद्य-उर्जा हासिल नहीं है जितने को वैश्विक स्तर पर मानक माना गया है।

 

गुजरे चार दशकों में दक्षिण एशिया में खाद्यान्न का उत्पादन तीन गुना बढ़ा है लेकिन प्रति व्यक्ति खाद्य-उपलब्धता इसके परिमाण में नहीं बढ़ी है।बीते 17 सालों में भारत की आबादी 17 फीसदी बढ़ी है जबकि खाद्यान्न का उत्पादन इस वृद्धि-दर की तुलना में आधा रहा है।

 

छोटे और सीमांत किसानों को मिल रही सब्सिडी को व्यस्थित रुप से खत्म किया गया है। साल 2010 में उर्वरक-सब्सिडी का स्थान कैश-सब्सिडी ने लिया। एक्सटेंशन सर्विसेज के लिए बज़ट अब ना के बराबर होता है और कृषिगत शोधसंस्थान दयनीय दशा में हैं।

 

भारत सरकार का आकलन है कि साल 1990 से अबतक महज 1.5 फीसदी कृषिगत जमीन गैर खेतिहर कामों में इस्तेमाल की गई है। परंतु जमीन की इतनी मात्रा से भी 4 करोड़ 30 लाख लोगों के पेट को भरने लायक अनाज सालाना उपजाया जा सकता था।

 

पूरे दक्षिण एशिया में 60 फीसदी कृषि-क्षेत्र मॉनसून की वर्षा पर निर्भर है।

 

भारत सरकार द्वारा निर्गत अनाज का महज 41 फीसदी हिस्सा गरीबों को मिल पाता है।

 

साल 2008 में भारत सरकार ने किसानों की आत्महत्या के मद्देनजर तकरीबन 4 करोड़ किसानों को दिए गए 15 बिलियन डॉलर का कर्ज माफ कर दिया लेकिन इसका ज्यादा सकारात्मक असर देखने में नहीं आया।

 

भारत में प्रतिदिन तकरीबन 130 करोड़ रुपये के फल-सब्जी बाजार में पहुंचने से पहले बर्बाद हो जाते हैं।

     

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फूड एंड एग्रीकल्चर आर्गनाइजेशन (एफएओ) द्वारा प्रस्तुत द स्टेट ऑव फूड इनसिक्यूरिटी इन द वर्ल्ड-२००८ नामक दस्तावेज के अनुसार-  ftp://ftp.fao.org/docrep/fao/011/i0291e/i0291e02.pdf

·         दुनिया में भुखमरी से पीडित लोगों की संख्या बढ़ रही है। वर्ल्ड फूड समिट का लक्ष्य है कि विश्व में भुखमरी से पीडित लोगों की संख्या को साल २०१५ तक कम करके आधा कर देना है लेकिन इस लक्ष्य को हासिल करना कई देशों के लिए कठिन होता जा रहा है। एफएओ का हालिया आकलन कहता है कि साल २००७ में विश्व में भुखमरी से पीडि़त लोगों की तादाद ९२ करोड़ ३० लाख थी और साल १९९०-९२ की मुकाबले भुखमरी से पीडित लोगों की संख्या में ८ करोड़ लोगों का इजाफा हुआ है। .

 

·         भुखमरी के बढ़ने का एक बड़ा कारण खाद्य सामग्री की कीमतों का बढ़ना है। भुखमरी से पीडित लोगों की संख्या में सर्वाधिक तेज गति से बढोत्तरी साल २००३-०५ से २००७ के बीच हुई। एफएओ के आकलन के मुताबिक साल २००३-०५ में जितने लोग भुखमरी से पीडि़त थे उनकी संख्या में साल २००७ में साढे सात करोड़ का इजाफा हुआ। खाद्य पदार्थों की बढ़ती कीमतें लोगों को आहार असुरक्षा की स्थिति में ढकेल रही हैं। जो पहले से आहार असुरक्षा के दुष्चक्र में हैं उनकी स्थिति और दयनीय हो रही है।

 

·         निर्धनतम,भूमिहीन और जीविकोपार्जन के लिए महिलाओं पर आश्रित परिवारों पर सबसे ज्यादा चोट पड़ी है।विकासशील देशों में शहरी और ग्रामीण इलाके के अधिसंख्य परिवार अपने भोजन सामग्री के लिए खरीदारी पर निर्भर हैं। खाद्य पदार्थों की बढ़ती कीमतों से लोगों की वास्तविक आमदनी में कमी आयी है ।नतीजतन भोजन की मात्रा तथा उसकी गुणवत्ता में कमी आने से गरीबों में कुपोषण बढ़ा है।

 

style="font-family:Symbol">·         खाद्य पदार्थों की बढ़ती कीमतों को रोकने के लिए सरकारों ने जो शुरूआती प्रयास किये वे असफल रहे हैं। खाद्य पदार्थों की बढ़ती कीमतों के नकारात्मक असर को रोकने के लिए सरकारों वने कई उपाय किये। मिसाल के लिए कीमतों पर नियंत्रण की कोशिशें की गईं और निर्यात पर अंकुश लगाया गया। सामाजिक सुरक्षा के लिहाज से ऐसे त्वरित उपाय करना लाजिमी था लेकिन ये सारे प्रयास अस्थायी तौर पर किए गए और बहुत संभव है कि खाद्य पदार्थों की कीमतों में हो रही लगातार बढ़ोत्तरी के मद्देनजर ये प्रयास कारगर ना सिद्ध हों।

 

·         भारत और चीन का आकार बड़ा है। यहां विश्व के सर्वाधिक लोग निवास करते हैं और ठीक इसी कारण भारत और चीन को एक साथ मिला दें तो इन दो देशों में विकासशील देशों में मौजूद भुखमरी से पीड़ित लोगों की कुल संख्या के ४२ फीसदी लोग रहते हैं।

 

·         साल १९९०-९२ और फिर १९९० के दशक के मध्यवर्ती सालों में भारत में भुखमरी से पीड़ित लोगों की संख्या में कमी आयी लेकिन १९९५-९७ के बाद ये सिलसिला रुक गया। चूंकि भारत में भुखमरी के शिकार लोगों की तादाद कुल जनसंख्या में २१ फीसदी है इसलिए इनकी संख्या में तेजी से कमी लाना अपने आप में बहुत मुश्किल चुनौती है।

 

·         साल १९९५-९७ के बाद भारत में प्रति व्यक्ति-प्रतिदिन आहार-ऊर्जा की आपूर्ति में कमी आयी। इससे जनसंख्या में कुपोषण से पीड़ित लोगों की संख्या बढ़ी। जहां तक प्रति व्यक्ति-प्रतिदिन आहार-ऊर्जा में मांग की बढ़ोत्तरी का सवाल है, भारत में लाइफ एक्सपेक्टेन्सी (जीवनधारिता) १९९०-९२ से ५९ साल से बढ़कर ६३ साल हो गई है। इससे जनसंख्या की बनावट में बुनियादी बदलाव आये हैं और आहार उर्जा की आपूर्ति की अपेक्षा उसकी मांग की गति बढ़ गई है।

 

·         १९९० के दशक मध्यवर्ती सालों से भारत में प्रति व्यक्ति-प्रतिदिन आहार ऊर्जा की आपूर्ति में कमी आयी तो दूसरी तरफ इसकी मांग में बढ़ोत्तरी हुई। नतीजतन भारत में साल २००३-०५ में आहार की कमी से पीड़ित लोगों की संख्या में लगभग ढाई करोड़ का इजाफा हुआ। बुजुर्गों की बढ़ी हुई तादाद से प्रतिवर्ष लगभग ६५ लाख टन अतिरिक्त आहार की जरुरत बढ़ी।बहरहाल, प्रतिशत के हिसाब से देखें तो साल १९९०-९२ में भारत में भुखमरी २४ फीसदी थी जो २००३-०५ में घटकर २१ फीसदी हो गई। इससे संकेत मिलते हैं कि भारत मिलेनियम डेवलपमेंट गोल्स को पूरा करने की दिशा में प्रगति कर रहा है।

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मैक्रोस्कैन नामक वेवसाइट पर उपलब्ध अर्थशास्त्री उत्सा पटनायक के आलेख [inside]एग्ररेरियन क्राइसिस एंड डिस्ट्रेस इन रुरल इंडिया(साल २००३)[/inside] के अनुसार-
http://www.macroscan.org/fet/jun03/fet100603Agrarian%20Crisis_1.htm
 

  • साल १९९० के दशक में प्रति व्यक्ति आहार उपलब्धता में लगातार गिरावट आई। यह बात ग्रामीण भारत के लिए भी कही जा सकती है और शहरी भारत के लिए भी। साल २००२-०३ में हालत ये हो गई कि भारत में प्रतिव्यक्तिआहार उपलब्धता उतनी भी नहीं रही जितनी दूसरे विशव युद्ध के सालों में थी जबकि उन सालों में बंगाल में भयंकर अकाल पड़ा था।
  • साल १९८३ में ग्रामीण भारत में हर व्यक्ति को प्रतिदिनऔसतन २३०९ किलो कैलोरी का आहार हासिल था जो साल १९९८ में घटकर २०११ किलो कैलोरी रह गया।
  • साल १८९७-१९०२ के बीच देश में हर व्यक्ति पर सालाना १९९ किलोग्राम खाद्यन्न उपलब्ध था जो साल २००२-०३ में घटकर १४१ किलो ५०० ग्राम रह गया। इससे पता चलता है कि खाद्यान्न की उपलब्धता के लिहाज से अंग्रेजो का जमाने में हालत आज के वक्त से कहीं ज्यादा अच्छी थी।
  • एक तथ्य ये भी है कि इन सालों में अनाज के सरकारी गोदाम भरे हुए थे जबकि इन्ही सालों में प्रति व्यक्ति अनाज की उपलब्धता में कमी आयी। इससे संकेत मिलते में हैं कि ग्रामीण भारत के लोगों के पास खरीददारी की ताकत कम हुई और इसके फलस्वरुप ना खरीदा हुआ अनाज गोदामों में पड़ा रहा।
  • साल १९९० के दशक में मजदूरों-किसानों की खरीददारी की क्षमता में काफी कमी आई-खासकर ग्रामीण भारत में। इससे एक तरफ ग्रामीण भारत में खेतिहर संकट गहराया तो दूसरी तरफ अनाज के सरकारी गोदामों में अनाज सड़ता रहा।
  • खेतिहर उत्पाद की बढ़ोत्तरी की दर में ही कमी नहीं आई, बल्कि १९९० के दशक में बढ़ोत्तरी की दर (चाहे हम पूरी कृषि के लिहाज से देखें या फिर अनाज के उत्पादन के लिहाज से)  जनसंख्या की बढ़ोत्तरी की दर के मुकाबले पीछे रही जबकि १९८० के दशक में स्थिति उल्टी थी। आजादी के बाद के दशकों में सिर्प १९९० का दशक ही ऐसा रहा जब प्रति व्यक्ति अनाज उत्पादन में कमी आयी।
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ग्याहरवीं पंचवर्षीय योजना के दस्तावेज के अनुसार-
http://www.planningcommission.nic.in/plans/planrel/fiveyr/11th/11_v2/11v2_ch4.pdf
 

  • साल २००६ के दिसंबर में द नेशनल न्यूट्रीशनल मॉनिटरिंग ब्यूरो (एनएनएमबी) ने एक रिपोर्ट प्रकाशित की। इससे पता चला कि भारत में दाल, हरी सब्जियों, दूध और फल जैसे स्वास्थ्यवर्धक चीजों का उपभोग अप्रर्याप्त  है। नतीजतन, सूक्ष्म पोषक तत्त्व जैसे विटामिन ए , आयरन, राइबोफ्लेविन और फोलिक एसिड का उपयोग भी सभी आयु-वर्गो में जरुरत के हिसाब से कम है।  .
  • पांच साल से कम उम्र के बच्चों के सर्वेक्षेण से प्राप्त आंकड़े कहते हैं कि इन बच्चों में विटामिन ए और विटामिन बी कांप्लेक्स की कमी से उत्पन्न होने वाले रोग के लक्षण पाये गए। प्रति हजार बच्चे में छह बच्चे विटामिन ए कमी से होने वाले रोग से ग्रस्त हैं तो ८ बच्चे विटामिन बी कांप्लेक्स की कमी से होने वाले रोग के लक्षणों से। जहां तक स्कूल जाने की उम्र में पहुंच चुके बच्चों का सवाल है उनमें तकरीबन दो फीसदी बच्चों में विटामिन ए की कमी के लक्षण थे और इतने ही बच्चों में विटामिन बी कांप्लेक्स की कमी के लक्षण मौजूद थे।
  • साल २००२-२००४ में हुये जिला स्तरीय स्वास्थ्य सर्वे के अनुसार किशोर वय की ७२ फीसदी लड़कियां आयरन (खून में लौहतत्त्व की कमी ) से पीडित हैं और पांच साल से कम उम्र के बच्चों की तुलना (२.१ फीसदी) में किशोर वय की लड़कियों में आयरन की कमी की घटनाएं कहीं ज्यादा गँभीर हैं।
  • ६ से ३५ माह के बच्चों. १५ से ४९ साल उम्र की विवाहित महिलाओं और गर्भवती स्त्रियों में  एनीमिया की मौजूदगी बहुत ज्यादा है। कुल मिलाकर देखें तोशहरी इलाके में तीन साल तक की उम्र के ७२ फीसदी बच्चे और ग्रामीण इलाके में ८१ फीसदी बच्चे एनीमिया से पीडि़त हैं।
  • एनीमिया की पीडित लोगों की तादाद लगातार बढ़ रही है। साल १९९८-९९ में ७४ फीसदी आबादी एनीमिया से पीडित थी तो साल २००५-०६ में ७९ फीसदी आबादी। नगालैंड में एनीमिया से पीडित लोगों की तादाद सबसे कम (४४ फीसदी) है। इसके बाद गोवा (४९ फीसदी) और मिजोरम (५१ फीसदी) का नंबर है। बिहार में सर्वाधिक लोग(८७ फीसदी) एनीमिया से पीड़ित.हैं और राजस्थान में भी एनीमिया पीडितों की तादाद कम (८५ फीसदी) नहीं है। एनीमिया से सामान्य या गंभीर रुप से पीडित परिवार शहरों में भी हैं और गांवों में भी और पढ़े-लिखे परिवार इसके अपवाद नहीं हैं।

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