- चिल्ड्रन, फूड एंड न्यूट्रीशन: ग्रोइंग वेल इन अ चेंजिंग वर्ल्ड’ (अक्टूबर, 2019 में जारी)
- फूड एंड न्यूट्रिशन सिक्योरिटी एनालिसिस, इंडिया 2019
- भारत: व्यापक राष्ट्रीय पोषण सर्वेक्षण 2016-2018 (अक्टूबर 2019 में जारी) (Comprehensive National Nutrition Survey 2016-2018)
- भुखमरी और कुपोषण की दशा पर केंद्रित अर्बन हंगामा( Urban HUNGaMA) रिपोर्ट
- नेशनल फैमिली हैल्थ सर्वे-4 के आंकड़ों के अनुसार भारत में स्टटिंग और वेस्टिंग के शिकार बच्चों की संख्या
- नेशनल फैमिली हैल्थ सर्वे- 4 के नये तथ्य
- IFPRI द्वारा प्रस्तुत 2015 ग्लोबल न्यूट्रीशन रिपोर्ट: एक्शन एंड अकाउंटबिलिटी टू एडवांस न्यूट्रीशन एंड सस्टेनेबल डेवलपमेंट
- पब्लिक अकाऊंटस् कमिटी (2014-15) रिपोर्ट ऑन इंटीग्रेटेड डेवलपमेंट सर्विसेज
- ग्लोबल फूड पॉलिसी रिपोर्ट 2014-15
- ग्लोबल न्यूट्रीशन रिपोर्ट 2014
- इम्प्रूविंग चाइल्ड न्यूट्रीशन: द एचीवेवल इम्पीरेटिव फॉर ग्लोबव प्रोग्रेस (अप्रैल, 2013)
- द न्यूट्रीशन बैरोमीटर: गॉजिंग नेशनल रेस्पांसेज टू अंडरन्यूट्रीशन (2012)
- अ लाईफ फ्री फ्राम हंगर- टैकलिंग चाईल्ड मालन्यट्रिशन(2012)
- न्यूट्रीशनल इनटेक इन इंडिया: 2004-2005, (एनएसएस 61 वां दौर का आकलन)
- वर्ल्ड बैंक के आकलन के मुताबिक
- नेशनल फैमिली हैल्थ सर्वे-३
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[inside]विशेषज्ञों के एक समूह की न्यूट्रिएंट्स रिक्वायरमेंट फॉर इंडियंस –रिकमेंडेड डाइटरी एलाउंस एंड एस्टीमेंट एवरेज रिक्वारमेंट नाम से एक रिपोर्ट जारी हुई है (2022[/inside]
पूरी रपट के लिए यहां क्लिक कीजिए.
यह विशेषज्ञों का समूह भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (आई.सी. एम. आर) और राष्ट्रीय पोषण संस्थान द्वारा गठित किया गया था.
आईसीएमआर– भारत में जैव–चिकित्सा पर अनुसंधान के लिए भारत सरकार के स्वास्थ्य महकमें में आने वाली एक संस्था है. जिसका गठन 1911 में किया गया था.
राष्ट्रीय पोषण संस्थान-हैदराबाद में स्थित जन स्वास्थ्य और पोषण पर अनुसंधान करने वाला एक संस्थान है.
यूनिसेफ द्वारा प्रकाशित ‘द स्टेट ऑफ द वर्ल्ड्स चिल्ड्रन 2019 – चिल्ड्रन, फूड एंड न्यूट्रीशन: ग्रोइंग वेल इन अ चेंजिंग वर्ल्ड’ (अक्टूबर, 2019 में जारी) रिपोर्ट के प्रमुख निष्कर्ष निम्नानुसार हैं: (रिपोर्ट देखने के लिए कृपया यहां और यहां क्लिक करें.):
• वर्ष 2015 में भारत में 5 साल से कम उम्र के 54 प्रतिशत बच्चे वेस्टिंग (लंबाई के हिसाब से औसत से कम वजन), स्टटिंग (उम्र के हिसाब से कद में छोटे) या मोटापे के शिकार थे, अफगानिस्तान में 49 प्रतिशत, 2014 में बांग्लादेश में 46 प्रतिशत, 2016 में नेपाल में 43 प्रतिशत, 2018 में पाकिस्तान में 43 प्रतिशत बच्चे, 2010 में भूटान में 40 प्रतिशत, 2009 में मालदीव में 32 प्रतिशत, श्रीलंका में 28 प्रतिशत और दक्षिण एशिया क्षेत्र में 50 प्रतिशत बच्चे वेस्टिंग, स्टटिंग और मोटापे के शिकार थे.
• इस रिपोर्ट में अध्ययन किए गए सभी देशों में पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु के मामले में भारत दूसरे देशों से आगे है. 2018 में देश में पांच साल से कम उम्र के 8.82 लाख बच्चों की मौत हुई. नाइजीरिया में यह आंकड़ा 8.66 लाख और पाकिस्तान में 4.09 लाख था.
• 2018 में भारत में पांच वर्ष से कम आयु का औसतन मृत्यु दर (प्रति 1,000 नवजातों के जन्मों में पांच वर्ष से कम आयु के बच्चों की मृत्यु) 37 था. यह बांग्लादेश का 30, पाकिस्तान का 69, नेपाल का 32, चीन का 9, और श्रीलंका का 7 था.
• भारत की पांच वर्ष से कम आयु मृत्यु दर 1990 में 126 से घटकर 2000 में 92 और 2018 में 37 हो गई.
• देश की शिशु मृत्यु दर (प्रति 1,000 जीवितजन्मोंमें एक वर्ष से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु) 1990 में 89 से घटकर 2018 में 30 हो गई.
• देश की नवजात मृत्यु दर (प्रति 1,000 जीवित जन्मों में 28 दिन से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु) 1990 में 57 से घटकर 2000 में 45 और 2018 में 23 हो गई.
• 2018 में, देश के 28 दिनों से कम आयु के 5.49 लाख बच्चों की मृत्यु हुई.
• 2018 में, सभी 5 वर्ष से कम आयु की मौतों के मुकाबले नवजातों की मृत्यु का अनुपात 62 प्रतिशत था.
• भारत की जीवन प्रत्याशा 1970 में 48 वर्ष से बढ़कर 2000 में 63 वर्ष और 2018 में 69 वर्ष हो गई.
• 2018 में 5-14 वर्ष की आयु के बच्चों की मृत्यु की संख्या 1.43 लाख थी.
• 2017 में भारत में मातृ मृत्यु की कुल संख्या 35,000 थी. उस वर्ष देश का मातृ मृत्यु अनुपात 145 था. यह उन महिलाओं की संख्या को संदर्भित करता है जो उस वर्ष प्रति 100,000 जीवित जन्मों में गर्भावस्था या प्रसव की जटिलताओं के परिणामस्वरूप मर जाती हैं.
• वर्ष 2013-2018 के दौरान स्टंटिंग (उम्र के हिसाब से कद में छोटे) का शिकार हुए 0-4 वर्ष आयु वर्ग के बच्चों का अनुपात 38 प्रतिशत था. सबसे गरीब 20 प्रतिशत जनसंख्या के 51 प्रतिशत और सबसे अमीर 20 प्रतिशत जनसंख्या के 22 प्रतिशत बच्चे स्टंटिंग के शिकार थे.
• 2013-2018 के दौरान गंभीर रूप से वेस्टिंग (लंबाई के हिसाब से औसत से कम वजन) का शिकार हुए 0-4 वर्ष आयु वर्ग के बच्चों का अनुपात 8 प्रतिशत था. इसी समय अवधि के दौरान गंभीर और मध्यम रूप से वेस्टिंग (लंबाई के हिसाब से औसत से कम वजन) का शिकार हुए 0-4 वर्ष की आयु के बच्चों का अनुपात 21 प्रतिशत था.
• 2013-2018 के दौरान अधिक वजन वाले (मध्यम और गंभीर) आयु वर्ग के बच्चों का अनुपात 2 प्रतिशत था.
• 2016 के दौरान 5-19 वर्ष के आयु वर्ग के अधिक वजन वाले और मोटापे का शिकार हुए बच्चों का अनुपात 7 प्रतिशत था.
• 2016 में 18 वर्ष से ऊपर की लगभग 24 प्रतिशत महिलाओं का वजन कम था (बॉडी मास इंडेक्स <18.5 किलोग्राम प्रति मीटर वर्ग).
• 2016 में 15-49 वर्ष की आयु-समूह की लगभग 51 प्रतिशत महिलाएं हल्के, मध्यम और गंभीर रूप से एनीमिया से पीड़ित थीं.
• 2013-2018 में आयोडीन युक्त नमक का सेवन करने वाले 93 प्रतिशत परिवार थे.
• 2018 में, 6-23 महीने के बच्चे, पाकिस्तान में 15 प्रतिशत, भारत में 20 प्रतिशत, अफ़गानिस्तान में 22 प्रतिशत, बांग्लादेश में 27 प्रतिशत, नेपाल में 45 प्रतिशत, मालदीव में 71 प्रतिशत, दक्षिण एशिया क्षेत्र में 20 प्रतिशत और वैश्विक स्तर पर 29 प्रतिशत, 8 में से कम से कम 5 खाद्य समूह (न्यूनतम आहार विविधता) भोजन के रूप में खा रहे थे.
• दक्षिण एशिया में, 12-23 महीने के बच्चों की तुलना में 6-11 महीने के बच्चे कम विविध आहार खा रहे हैं.
• 2018 में, वैश्विक स्तर पर 5 वर्ष से कम आयु के 14.9 करोड़ बच्चे स्टंटिंग और लगभग 4.95 करोड़ बच्चे वेस्टिंग का शिकार थे. दक्षिण एशिया में, 5 साल से कम उम्र के 5.87 करोड़ बच्चे स्टंटिंग और 2.59करोड़ बच्चे वेस्टिंग का शिकार थे.
• 2018 में, 5 साल से कम उम्र के विश्व स्तर पर 4 करोड़ बच्चे मोटापे का शिकार थे. वहीं दक्षिण एशिया में 5 साल से कम उम्र के 52 लाख बच्चे मोटापे का शिकार हैं.
• 2018 में, दक्षिण एशिया में लगभग तीन-चौथाई बच्चों को पशु स्रोत खाद्य पदार्थों से मिलने वाले बहुत जरूरी पोषक तत्व नहीं खिलाए जा रहे थे.
• दक्षिण एशिया में 56 प्रतिशत बच्चों को कोई फल या सब्जी नहीं खिलाई जा रही थी.
• कुपोषण का उपयोग अब बच्चों को स्टंटिंग (उम्र के हिसाब से छोटा कद) और वेस्टिंग (लंबाई के हिसाब से कम वजन), आवश्यक विटामिन और खनिजों की कमियों के चलते 'छिपी हुई भूख' के साथ-साथ मोटापे के शिकार हुए बच्चों की बढ़ती संख्या के बारे में बताने के लिए किया जाना चाहिए.
• लाखों करोड़ों बच्चे कुपोषण की चपेट में हैं. इसका प्रभाव पर्याप्त पोषण से वंचित बच्चों के छोटे और दुबले शरीर में पहले 1,000 दिनों से ही दिखाई देने लगता है.
• पर्याप्त पोषण से वंचित बच्चों के दुबले शरीर में भोजन की कमी, खराब दूध पिलाने की प्रथाओं और संक्रमण, अक्सर गरीबी, मानवीय संकटों और संघर्षों से जटिल होने जैसी परिस्थितियों से भी अविकसितता स्पष्ट होती है, और इस तरह के बहुत सारे मामलों में बच्चों की मौत तक हो जाती है.
• लंबे समय तक अधिक वजन और मोटापे को धनी लोगों की बीमारी समझा जाता था. मगर गरीब भी इसकी चपेट में आ रहे हैं, जोकि दुनिया भर में वसायुक्त और शर्करा युक्त खाद्य पदार्थों से मिलने वाली ’खराब कैलोरी’ की अधिक उपलब्धता के चलन को दर्शाता है. ऐसे भोजन और मोटापे से टाइप 2 डायबिटीज जैसी गैर-संचारी बीमारियां होने के खतरे बढ़ जाते हैं.
• बच्चे और युवा बहुत कम मात्रा में स्वस्थ भोजन और बहुत अधिक मात्रा में अस्वास्थ्यकर भोजन खा रहे हैं.
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इन संगठनों ने मिलकर तैयार की रिपोर्ट संयुक्त राष्ट्र का खाद्य और कृषि संगठन(FAO), कृषि विकास के लिए अंतर्राष्ट्रीय कोष(IFAD), यूनिसेफ,संयुक्त राष्ट्र का खाद्य प्रोग्राम(WFP) , वर्ल्ड हेल्थ आर्गेनाइजेशन(WHO)
- भारत में अभी तक लाखों लोग हेल्थी डाईट से कोसों दूर खड़े हैं. रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2020 में 973.3 मिलियन लोगों के लिए हेल्थी डाईट वहनीय नहीं है. 2017 में यह आंकड़ा 1002.5मिलियन था. कुल जनसंख्या के प्रतिशत में देखें तो 2020 में 70.5% जनसंख्या को हेल्थी डाईट नसीब नहीं है. वहीं यह आंकड़ा वर्ष 2017 के लिए 74.9% था.
- एक आदमी जो हेल्थी डाईटलेना चाहता है उसके लिए वर्ष 2020 में प्रतिदिन US$ 2.830 राशि खर्च करनी होती है, जो वर्ष 2017 प्रतिदिन US$ 2.824 थी.
- वर्ष 2004-06 से 2019-21 के बीच भारतीय की कुल जनसंख्या में कुपोषण का स्तर 21.6 प्रतिशत से गिरकर 16.3 प्रतिशत परआ गयाहै. वहीं कुपोषित जनसंख्या के आंकड़ो को देखें तो यह संख्या 247.8 मिलियन से गिरकर 224.3 मिलियन तक पहुँच गई है.
- भारत में पांच वर्ष से कम आयु के कुल बच्चों में, वर्ष 2020 में 17.3% वेस्टिंग से ग्रसित पाए गये है. अगर संख्या के नजर से देखें तो यह 20.1 मिलियन थी.
- वहीं वर्ष 2012 से 2020 तक पांच वर्ष से कम आयु के बच्चों में स्टंटिंग 41.7% से घटकर 30.9% पर आ पहुंची है. जनसंख्या के चश्मे से देखें तो यह आंकड़ा 52.3 मिलियन से गिरकर 36.1 मिलियन प्राप्त होता है.
- अगर अब बात करें ऐसे पांच वर्ष से कम आयु के बच्चों की जो ओवरवेट के शिकार हैं तो उनका 2012 से 2020 तक प्रतिशत में गिरावट 2.4% से गिरकर 1.9 % और संख्या के पैमाने पर 3.0 मिलियन से 2.2 मिलियन.
- इस रिपोर्ट में 18 वर्ष से ऊपर वालें लोगों में मोटापे का भी आंकलन किया है. मोटापा वाली जनसंख्या 2012 में 3.1% थी जो वर्ष 2016 में बढ़कर 3.6% हो गयी. संख्या के दृष्टिकोण से यह 25.2 मिलियन से बढ़कर 34.3 मिलियन हो गयी.
- एनीमिया से पीड़ित महिलाओ की संख्या में मामूली कमी देखी गई . 2012 में 53.2% महिलाएं ग्रसित थी जो वर्ष 2019 में घटकर 53.0% हो गई. ( 15 से 49 आयु वर्ग की महिलायें शामिल )
- पांच माह से कम आयु के ऐसे बच्चे जो केवल माँ के दूध को आहार के रूप में लेते हैं उनकी संख्या में वृद्धि हुई है. 2012 में 11.2 मिलियन थे जो बढ़कर वर्ष 2020 में 14.0 मिलियन हो गये.
यूनिसेफ और विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार कुपोषण के तीन प्रमुख रूप होते हैं.-स्टंटिंग-किसी बच्चे का कद उसकी आयु के अनुपात में कम रह जाये. उसे नातापन भी कहा जाता है.
वेस्टिंग- बच्चे का वजन उसके कद की तुलना में कम हो. कमजोरी का शिकार होता है बालक.
ओवरवेट आयु के हिसाब से अधिक भर वाले बच्चे.
भोपाल स्थित गैर लाभकारी संस्था विकास संवाद ने मध्य प्रदेश के छह जिलों में 45 दिनों तक पोषण आहार का अध्ययन कर "महिलाओं और बच्चों के पोषण पर कोविड-19 महामारी" का प्रभाव नामक एक रिपोर्ट तैयार की है. यह रिपोर्ट कोविड-19 की लहर में हाशिए पर रह रहे और वापसी कर रहे प्रवासी परिवारों की महिलाओं और बच्चों के सामने आने वाली दुविधाओं और परेशानियों के एवज में तैयार की गई है. यह रिपोर्ट मध्यप्रदेश के 6 जिलों का अध्ययन कर तैयार की गई है: पन्ना, सतना, रीवा, निवाड़ी, उमरिया और शिवपुरी.
इन जिलों के 122 गांवों में महिलाओं और बच्चों के लिए चलने वाले पोषण और स्वास्य्औ कार्यक्रम (आंगनवाडी से मिलने वाले पोषण आहार, टीकाकरण, निगरानी आदि) के संचालन की स्थिति का अध्ययन किया गया. इन्हीं 122 गांवों में से रैंडम पद्ति से 33 परिवारों को चुना गया जिनमें गर्भवती महिलाएं, स्तनपान कराने वाली माताएं, 6 साल से कम उम्र के बच्चे और प्रवासी परिवारों की मिश्रित आबादी में केस स्टडी दर्ज की गयीं. इन 33 परिवारों को चुनने का मकसद यह रहा कि इन परिवारों में लॉकडाउन के दौरान किये जा रहे भोजन में पोषण का स्तर क्या है? इसकी निरंतरता क्या है? जरूरत-उपभोग में कितना अंतरहै? ये आंकलन किया जा सके. इसके लिए उनके 45 दिन के पोषण उपभोग का अध्ययन किया गया है. [inside]महिलाओं और बच्चों के पोषण पर कोविड-19 महामारी का प्रभाव[/inside] नामक इस रिपोर्ट (पूरी रिपोर्ट देखने के लिए यहां क्लिक करें.) की मुख्य विशेषताएं इस प्रकार हैं,
1. जनसंख्या, जनगणना वर्गीकरण और परिवार का आकार: सर्वेक्षण में शामिल 33 घरों की कुल जनसंख्या 179 थी। इन 33 परिवारों में 21 प्रवासी परिवार (64 प्रतिशत) शामिल हैं। कुल 33 परिवारों में 6 गर्भवती महिलाएं, 12 धात्री माताएं, 21 बच्चे (3 वर्ष से कम आयु) और 24 बच्चे (3-6 वर्ष की आयु) शामिल हैं।
2. अधिकांश परिवार (79 प्रतिशत) अनुसूचित जनजाति (जिनमें मवासी, गोंड, कोल और बैगा शामिल हैं) से हैं। शेष 21 प्रतिशत में 12 प्रतिशत अन्य पिछड़ा वर्ग और 9 प्रतिशत अनुसूचित जाति के हैं। सभी मामलों में औसतन पारिवारिक आकार 5.4 का है।
3. लॉकडाउन के दौरान आय – 33 परिवारों में से 30 (91 प्रतिशत) के पास मजदूरी या श्रमिक के तौर पर रोजगार नहीं है, जबकि 3 परिवार (9 प्रतिशत) परिवार अपवाद रहे। 2 परिवार (6 प्रतिशत) गैर काष्ठ वन उत्पाद (नॉन-टिम्बर फारेस्ट प्रोड्यूस – एनटीएफपी – ) एकत्रित कर रहे हैं जबकि 1 (3 प्रतिशत) किसी और के खेत में कटाई का काम कर रहा है।
4. कर्ज और उधारी – 8 (24 प्रतिशत) परिवारों पर कुल ₹21,250 का कर्ज है। 4 (12 प्रतिशत) परिवारों पर ₹3000-4000 के बीच कर्ज है और 3 (9 प्रतिशत) परिवारों ने ₹1000 रुपये से भी कम उधार लिया है। एक परिवार ने तो 150 से कम राशि उधार ली है। एक केस में 17,000 से ज्यादा की उधारी की सूचना है। कोविड-19 से इन परिवारों की जिंदगी में जो मुश्किलें खड़ी हुई हैं, उनसे मुकाबला करने और रोजमर्रा की जरूरतों को पूरा करने के लिए अनाज और सब्जियों के साथ-साथ तेल, मसाले और अन्य आवश्यक सामान खरीदने के लिए यह पैसा उधार लिया गया है।
5. टेक होम राशनः स्वयं सहायता समूह/आंगनवाड़ी कार्यकर्ता द्वारा वितरित किए जाने वाले टेक होम राशन (टीएचआर) पैकेट्स 21 (65 प्रतिशत) परिवारों को घर पर मिले, लेकिन शेष 12 (35 प्रतिशत) हितग्राही परिवारों को अब तक कोई पैकेट नहीं मिला है। 12 (38 प्रतिशत) परिवारों को टीएचआर के सिर्फ दो पैकेट मिले हैं।
6. रेडी टू ईट फूड (आरटीई): 60 प्रतिशत हितग्राहियों को अब तक कोई रेडी टू ईट (आरटीई) नहीं मिला है। जिन्हें अब तक आरटीई मिला है, उनमें महज 10 प्रतिशत को 500 ग्राम सत्तू मिला है जबकि 30 प्रतिशत को 1,200 ग्राम (600 ग्राम दो हफ्ते के लिए) सत्तू मिला है।
7. स्वयं सहायता समूह और पोषण आहार – कोविड19 के कारण उत्पन्न हुई जटिल परिस्थितियों में एकीकृत बाल विकास कार्यक्रम के तहत गरम पके हए पोषण आहार के हितग्राहियों को भी रेडी टू ईट पोषण आहार प्रदान करने के लिए निर्देश जारी किये गए थे. इस आदेश के तहत स्थानीय स्वयं सहायता समूहों को सत्तू या लड्डू चूरा बनाने और आंगनवाड़ी केन्द्रों को उपलब्ध करवाने के निर्देश दिए गए. किन्तु मैदानी अध्ययन से यह स्पष्ट हुआ कि समूहों को इसके बारे में कोई स्पष्ट जानकारी प्रदान नहीं की गयी किउन्हें कितने बच्चोंऔर महिलाओं के लिए पोषण आहार बनाना है? उसकी मात्रा कितनी होगी? इसके लिए कितनी राशि निर्धारित है? भुगतान कब किया जाएगा? आदि. ये जानकारियाँ इसलिए महत्व रखती हैं क्योंकि इन स्वयं सहायता समूहों का संचालन वंचित और आर्थिक रूप से कमज़ोर तबकों की महिलायें करती हैं. इनके पास इतनी जमा या पूँजी नहीं थी कि ये अपने स्तर पर निवेश करके पोषण आहार की आपूर्ति बनाए रख पाती. राज्य स्तर पर एक माकूल व्यवस्था के अभाव में बच्चों को पोषण आहार से वंचित रहना पडा.
7.1 स्वयं सहायता समूहों ने औसतन 67 ग्राम प्रतिदिन के मान से पोषण आहार उपलब्ध करवाया है, जबकि मानकों के अनुसार बच्चों को 200 ग्राम/दिन और महिलाओं को 250 ग्राम प्रतिदिन के मान से पोषण आहार उपलब्ध करवाए जाने का प्रावधान था.
7.2. इस तरह बच्चों को मानक से 66.5% और महिलाओं को 73% कम पोषण आहार प्राप्त हुआ.
7.3. 88 प्रतिशत स्वयं सहायता समूहों को उनके द्वारा उपलब्ध करवाए गए पोषण आहार का 2से 4 महीने तक का भुगतान नहीं हुआ है.
7.4. 88 प्रतिशत स्वयं सहायता समूहों को पोषण आहार आपूर्ति, व्यवस्था, मानकों आदि के बारे में कोई जानकारी नहीं दी गयी. 3.5. पोषण आहार में आपूर्ति में इस कमी का सबसे बड़ा कारण राज्य शासन के निर्देशों का सहायता समूहों का न पहुंचना और भुगतान की व्यवस्था नहीं होना रहा है.
8. (मॉडरेट एक्यूट मेलन्यूट्रीशन – एसएएम/एमएएम -) की पहचानः पिछले दो महीनों में किसी भी हितग्राही का वजन और कद नहीं नापा गया है। सभी जिलों में किसी भी बच्चे की वृद्धि की निगरानी नहीं हुई है।
9. गरम पका भोजनः कोविड-19 की वजह से सभी आंगनवाड़ी केंद्र बंद कर दिए गए हैं, इस वजह से 3-6 वर्ष आय वर्ग के 24 बच्चों में से किसी को भी किसी स्व-सहायता समूह (सेल्फ हेल्प ग्रुप-एसएचजी) की ओर से गरम पका भोजन नहीं दिया गया है। शासन दवारा निर्धारित मापदंडों के अनुसार बच्चों को टीएचआर पैकेट्स और आरटीई दिया जाना चाहिए था।
10. प्राथमिक स्कूलों में मध्याहन भोजन: 58 प्रतिशत स्कूल जाने वाले बच्चों को मध्याह्न भोजन के एवज में कोई भोजन भत्ता नहीं दिया गया है. जिन्हें मिला है, उन्हें अनुशंसित दिशानिर्देशों के तहत लाभ मिला है, जो राज्य में उपलब्ध प्रावधानों के अनुसार 3 किलो 300 ग्राम गेहं या चावल या दोनों है। 96 प्रतिशत बच्चों को अब भी 33 दिन के लिए ₹146 का अनुशंसित नगद भता नहीं मिला है। सतना की शकुंतला मवासी कहती हैं, "मेरा बड़ा बेटा रजनीश 8 साल का है और स्कूल जाता है। उसका एक समय का खाना स्कूल में ही हो जाता था। तब मुझे ज्यादा चिंता नहीं थी, लेकिन अब यह बंद हो गया है तो मुझे उसके भोजन की चिंता रहती है। उसे अब तक स्कूल से राशन नहीं मिला है…"
11. उच्चतर स्कूलों में मध्याह्न भोजन- अनुशंसाओं के अनुसार 80 प्रतिशत छात्रों को मध्याह्न भोजन भता (33 दिन के लिए 4,900 ग्राम) प्राप्त हुआ है, जबकि 20 प्रतिशत को अब भी कुछ मिलने का इंतजार है। इन हितग्राहियों में 30 प्रतिशत को नियमों के अनुसार नगद राशि प्राप्त हुई है, यानी 33 दिन के 221 रुपए, वहीं 70प्रतिशत को अब तक कुछ नहीं मिला है।
12. सार्वजानिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के जरिये राशन की उपलब्धता की स्थितिः 17 (52 प्रतिशत) परिवारों को राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (नेशनल फूड सिक्यूरिटी एक्ट – एनएफएसए.) की पात्रता के अनुसार योजना का लाभ मिला है, वहीं 6 (18 प्रतिशत) परिवार ऐसे हैं जो योजना के तहत आंशिक रूप से लाभान्वित हुए हैं यानी 100 प्रतिशत परिवार लाभ प्राप्त नहीं कर सके हैं।
13. स्तनपान की आवृत्तिः बढ़ी – दोनों आयु समूहों में स्तनपान की आवृत्ति बढ़ी है। स्तनपान में वृद्धि दिन में लगभग 12 बार है यानी आवृति दोगुनी हो गई है। स्पष्टतः, धात्री माता पर बोझ बढ़ा है तथा उसके पोषण आहार की आवश्यकता की प्रतिपूर्ति को अनदेखा नहीं किया जा सकता है।
14. आहार की आवृति घटी- 6 महीने से तीन साल तक के बच्चे के लिए आहार की आवृति दिन में 6 बार से घटकर 3 बार रह गई है.
15. पीडीएस: पीडीएस से राशन की उपलब्धता 50 प्रतिशत तक सीमित है। पीडीएस से दैनिक आधार पर प्रदान किए जाने वाले अनाज की गणना 206 (बच्चे 6 महीने – 3 वर्ष) ग्राम और 219 ग्राम (बच्चे 3 – 6 वर्ष) के रूप में की गई है।
16. लॉकडाउन के दौरान गर्भवती महिलाएं आईसीएमआर द्वारा निर्धारित दैनिक आहार की केवल 33 ऊर्जा, कुल 41 प्रतिशत प्रोटीन, कुल 66 प्रतिशत वसा और कुल 44 प्रतिशत आयरन ही ग्रहण कर पा रही.
17. इसी तरह स्तनपान कराने वाली माताएं आवश्यकताओं के मुकाबले एक दिन में 32 प्रतिशत कैलोरी, 47 प्रतिशत प्रोटीन, 24 प्रतिशत कैल्शियम और 77 प्रतिशत आयरन ही ग्रहण कर पा रही हैं।
18. इसी तरह, भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद द्वारा निर्धारित आरडीए की तुलना में बच्चों केवल आवश्यकता के मुकाबले केवल 49 प्रतिशत ऊर्जा , 59 प्रतिशत प्रोटीन, कुल 38 प्रतिशत कैल्शियम वसा और कुल 3 प्रतिशत आयरन ही ग्रहण कर पा रहे हैं.
सर्वे आधारित निष्कर्ष
1. टेक होम राशन- टीएचआर वितरण सेवाएं आंशिक रूप से लगभग 61 (50 प्रतिशत) गांवों को प्राप्त होने के कारण आवंटन में देरी, टीएचआर के भण्डार की अनुपलब्धता, कोरोना प्रसार को रोकने के लिए आंगनवाड़ी केंद्रों के बंद होने आदि के कारण प्रभावित हुई हैं। 32 (26 प्रतिशत) गांवों में लाभार्थियों के बीच आंगनवाड़ी द्वारा आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं के सहयोग से टीएचआर को अच्छी तरह से वितरित भी किया गया है।
2. गरम पका भोजनः सरकार के आदेशों के अनुसार 85 प्रतिशत आंगनवाड़ी केंद्रों में गरम पका भोजन प्रदान करना पूरी तरह से बंद कर दिया गया है, जबकि पन्ना, सतना, शिवपुरी के 15 प्रतिशत गांवों में कोविड-19 को देखते हुए केंद्रों ने खुद ही इसे रोक दिया था। उन्हें इस संबंध में कोई आदेश नहीं मिला, लेकिन बाद में उन्हें फोन पर, व्हाट्सएप संदेश, मौखिक सन्देश या टेक्स्ट मैसेज के जरिये निर्देशित किया गया था।
3. गृह भमण (होम विजिट्स); सर्वे वाले गांवों में 53 प्रतिशत आंगनवाड़ी केंद्र लॉकडाउन से अप्रभावित रहे और आंगनवाड़ी कार्यकर्ता अप्रैल के दूसरे सप्ताह से शुरू हुए नियमित पोषण परामर्श दौरे कर रही हैं। 40 प्रतिशत गांवों की आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं ने कोरोना कोविड-19 लॉकडाउन होने के कारण घर-घर जाना पूरी तरह से बंद कर दियाहै।
4. सामुदायिक आयोजन औरग्राम स्वस्थ्य स्वच्छता पोषण दिवस (विलेज हेल्थ सैनिटेशन न्यूट्रीशन हे. वीएचएसएनडी-): 77 प्रतिशत गांवों में कोई सामुदायिक कार्यक्रम नहीं हुए और वीएचएसएनडी को सामुदायिक कोविड-19 प्रोटोकॉल के तहत 58 प्रतिशत गांवों में पूरी तरह से रोक दिया गया है। 26 प्रतिशत गांवों में, अग्रिम पंक्ति के कार्यकर्ताओं को इस बारे में निर्देशित नहीं किया जबकि 21 प्रतिशत गांवों में यह कार्यक्रम आयोजित करना प्राथमिकताओं में शामिल नहीं है।
5. वृद्धि निगरानी की स्थिति और गंभीर तीव्र कुपोषण (सीवियर एक्यूट मेलन्यूट्रीशन)/मध्यम तीव्र कुपोषण (मॉडरेट एक्यूट मेलन्यूटीशन – एसएएम/एमएएम-) की पहचानः 51 प्रतिशत गांवों में वृद्धि की निगरानी पूरी तरह से बंद है और 47 प्रतिशत गांवों की लगभग सभी आंगनवाड़ी में मध्यम तीव्र कुपोषण अकुपोषण बच्चों का प्रबंधन और पहचान रुक गई है।
6. समीक्षा बैठक और कन्वर्जेस बैठकः स्वास्थ्य और आईसीडीएस विभागों के बीच नियमित रूप से कन्वर्जेस बैठकें सभी 122 गांवों में रोक दी गई हैं। इसी तरह, 74 प्रतिशत गांवों में नियमित समीक्षा बैठकें और पोषण बैठकें पूरी तरह से बंद हो गई हैं।
7. बच्चों के लिए गरम पके भोजन का प्रावधानः किसी भी गांव ने लॉकडाउन में गर्म पका हआ भोजन (हॉट कुक्ड मील – एचसीएम-) की निरंतरता नहीं दिखाई, हालांकि, इसके एवज में मिलने वाला भता इस क्षेत्र में
सौ प्रतिशत नहीं हुआ।
8. प्राथमिक और उच्चतर स्कूलों के लिए मध्याहन भोजनः 80 प्रतिशत गांवों के स्कूलों और साथ ही मध्याहन भोजन कार्यक्रमों को बंद करने के कारण एमडीएम को पूरी तरह से बंद कर दिया है। 20 प्रतिशत गांवों के स्कूलों ने अनुशंसित मानकों के अनुसार एमडीएम के स्थान पर भोजन भते का वितरण किया है।
9. गांवों में पीडीएस की स्थिति: 78 प्रतिशत गांव इससे अप्रभावित रहे अर्थात् 95 गांवों ने कोविड-19 के दौरान राशन उपलब्ध कराना जारी रखा। इसके विपरीत जिलों के लगभग 22 प्रतिशत गांवों में कोविड-19 लॉकडाउन के दौरान आंशिक रूप से सेवाएं प्रभावित हुई हैं।
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यूनिसेफ द्वारा प्रकाशित ‘द स्टेट ऑफ द वर्ल्ड्स चिल्ड्रन 2019 – [inside]चिल्ड्रन, फूड एंड न्यूट्रीशन: ग्रोइंग वेल इन अ चेंजिंग वर्ल्ड’ (अक्टूबर, 2019 में जारी)[/inside] रिपोर्ट के प्रमुख निष्कर्ष निम्नानुसार हैं: (रिपोर्ट देखने के लिए कृपया यहां और यहां क्लिक करें.):
• वर्ष 2015 में भारत में 5 साल से कम उम्र के 54 प्रतिशत बच्चे वेस्टिंग (लंबाई के हिसाब से औसत से कम वजन), स्टटिंग (उम्र के हिसाब से कद में छोटे) या मोटापे के शिकार थे, अफगानिस्तान में 49 प्रतिशत, 2014 में बांग्लादेश में 46 प्रतिशत, 2016 में नेपाल में 43 प्रतिशत, 2018 में पाकिस्तान में 43 प्रतिशत बच्चे, 2010 में भूटान में 40 प्रतिशत, 2009 में मालदीव में 32 प्रतिशत, श्रीलंका में 28 प्रतिशत और दक्षिण एशिया क्षेत्र में 50 प्रतिशत बच्चे वेस्टिंग, स्टटिंग और मोटापे के शिकार थे.
• इस रिपोर्ट में अध्ययन किए गए सभी देशों में पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु के मामले में भारत दूसरे देशों से आगे है. 2018 में देश में पांच साल से कम उम्र के 8.82 लाख बच्चों की मौत हुई. नाइजीरिया में यह आंकड़ा 8.66 लाख और पाकिस्तान में 4.09 लाख था.
• 2018 में भारत में पांच वर्ष से कम आयु का औसतन मृत्यु दर (प्रति 1,000 नवजातों केजन्मों में पांच वर्ष से कम आयु के बच्चों की मृत्यु) 37 था. यह बांग्लादेश का 30, पाकिस्तान का 69, नेपाल का 32, चीन का 9, और श्रीलंका का 7 था.
• भारत की पांच वर्ष से कम आयु मृत्यु दर 1990 में 126 से घटकर 2000 में 92 और 2018 में 37 हो गई.
• देश की शिशु मृत्यु दर (प्रति 1,000 जीवित जन्मों में एक वर्ष से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु) 1990 में 89 से घटकर 2018 में 30 हो गई.
• देश की नवजात मृत्यु दर (प्रति 1,000 जीवित जन्मों में 28 दिन से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु) 1990 में 57 से घटकर 2000 में 45 और 2018 में 23 हो गई.
• 2018 में, देश के 28 दिनों से कम आयु के 5.49 लाख बच्चों की मृत्यु हुई.
• 2018 में, सभी 5 वर्ष से कम आयु की मौतों के मुकाबले नवजातों की मृत्यु का अनुपात 62 प्रतिशत था.
• भारत की जीवन प्रत्याशा 1970 में 48 वर्ष से बढ़कर 2000 में 63 वर्ष और 2018 में 69 वर्ष हो गई.
• 2018 में 5-14 वर्ष की आयु के बच्चों की मृत्यु की संख्या 1.43 लाख थी.
• 2017 में भारत में मातृ मृत्यु की कुल संख्या 35,000 थी. उस वर्ष देश का मातृ मृत्यु अनुपात 145 था. यह उन महिलाओं की संख्या को संदर्भित करता है जो उस वर्ष प्रति 100,000 जीवित जन्मों में गर्भावस्था या प्रसव की जटिलताओं के परिणामस्वरूप मर जाती हैं.
• वर्ष 2013-2018 के दौरान स्टंटिंग (उम्र के हिसाब से कद में छोटे) का शिकार हुए 0-4 वर्ष आयु वर्ग के बच्चों का अनुपात 38 प्रतिशत था. सबसे गरीब 20 प्रतिशत जनसंख्या के 51 प्रतिशत और सबसे अमीर 20 प्रतिशत जनसंख्या के 22 प्रतिशत बच्चे स्टंटिंग के शिकार थे.
• 2013-2018 के दौरान गंभीर रूप से वेस्टिंग (लंबाई के हिसाब से औसत से कम वजन) का शिकार हुए 0-4 वर्ष आयु वर्ग के बच्चों का अनुपात 8 प्रतिशत था. इसी समय अवधि के दौरान गंभीर और मध्यम रूप से वेस्टिंग (लंबाई के हिसाब से औसत से कम वजन) का शिकार हुए 0-4 वर्ष की आयु के बच्चों का अनुपात 21 प्रतिशत था.
• 2013-2018 के दौरान अधिक वजन वाले (मध्यम और गंभीर) आयु वर्ग के बच्चों का अनुपात 2 प्रतिशत था.
• 2016 के दौरान 5-19 वर्ष के आयु वर्ग के अधिक वजन वाले और मोटापे का शिकार हुए बच्चों का अनुपात 7 प्रतिशत था.
• 2016 में 18 वर्ष से ऊपर की लगभग 24 प्रतिशत महिलाओं का वजन कम था (बॉडी मास इंडेक्स <18.5 किलोग्राम प्रति मीटर वर्ग).
• 2016 में 15-49 वर्ष की आयु-समूह की लगभग 51 प्रतिशत महिलाएं हल्के, मध्यम और गंभीर रूप से एनीमिया से पीड़ित थीं.
• 2013-2018 में आयोडीन युक्त नमक का सेवन करने वाले 93 प्रतिशत परिवार थे.
• 2018 में, 6-23 महीने के बच्चे, पाकिस्तान में 15 प्रतिशत, भारत में 20 प्रतिशत, अफ़गानिस्तान में 22 प्रतिशत, बांग्लादेश में 27 प्रतिशत, नेपाल में 45 प्रतिशत, मालदीव में 71 प्रतिशत, दक्षिण एशिया क्षेत्र में 20 प्रतिशत और वैश्विक स्तर पर 29 प्रतिशत, 8 में से कम से कम 5 खाद्य समूह (न्यूनतम आहारविविधता) भोजन के रूप मेंखा रहे थे.
• दक्षिण एशिया में, 12-23 महीने के बच्चों की तुलना में 6-11 महीने के बच्चे कम विविध आहार खा रहे हैं.
• 2018 में, वैश्विक स्तर पर 5 वर्ष से कम आयु के 14.9 करोड़ बच्चे स्टंटिंग और लगभग 4.95 करोड़ बच्चे वेस्टिंग का शिकार थे. दक्षिण एशिया में, 5 साल से कम उम्र के 5.87 करोड़ बच्चे स्टंटिंग और 2.59 करोड़ बच्चे वेस्टिंग का शिकार थे.
• 2018 में, 5 साल से कम उम्र के विश्व स्तर पर 4 करोड़ बच्चे मोटापे का शिकार थे. वहीं दक्षिण एशिया में 5 साल से कम उम्र के 52 लाख बच्चे मोटापे का शिकार हैं.
• 2018 में, दक्षिण एशिया में लगभग तीन-चौथाई बच्चों को पशु स्रोत खाद्य पदार्थों से मिलने वाले बहुत जरूरी पोषक तत्व नहीं खिलाए जा रहे थे.
• दक्षिण एशिया में 56 प्रतिशत बच्चों को कोई फल या सब्जी नहीं खिलाई जा रही थी.
• कुपोषण का उपयोग अब बच्चों को स्टंटिंग (उम्र के हिसाब से छोटा कद) और वेस्टिंग (लंबाई के हिसाब से कम वजन), आवश्यक विटामिन और खनिजों की कमियों के चलते 'छिपी हुई भूख' के साथ-साथ मोटापे के शिकार हुए बच्चों की बढ़ती संख्या के बारे में बताने के लिए किया जाना चाहिए.
• लाखों करोड़ों बच्चे कुपोषण की चपेट में हैं. इसका प्रभाव पर्याप्त पोषण से वंचित बच्चों के छोटे और दुबले शरीर में पहले 1,000 दिनों से ही दिखाई देने लगता है.
• पर्याप्त पोषण से वंचित बच्चों के दुबले शरीर में भोजन की कमी, खराब दूध पिलाने की प्रथाओं और संक्रमण, अक्सर गरीबी, मानवीय संकटों और संघर्षों से जटिल होने जैसी परिस्थितियों से भी अविकसितता स्पष्ट होती है, और इस तरह के बहुत सारे मामलों में बच्चों की मौत तक हो जाती है.
• लंबे समय तक अधिक वजन और मोटापे को धनी लोगों की बीमारी समझा जाता था. मगर गरीब भी इसकी चपेट में आ रहे हैं, जोकि दुनिया भर में वसायुक्त और शर्करा युक्त खाद्य पदार्थों से मिलने वाली ’खराब कैलोरी’ की अधिक उपलब्धता के चलन को दर्शाता है. ऐसे भोजन और मोटापे से टाइप 2 डायबिटीज जैसी गैर-संचारी बीमारियां होने के खतरे बढ़ जाते हैं.
• बच्चे और युवा बहुत कम मात्रा में स्वस्थ भोजन और बहुत अधिक मात्रा में अस्वास्थ्यकर भोजन खा रहे हैं.
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[inside]फूड एंड न्यूट्रिशन सिक्योरिटी एनालिसिस, इंडिया 2019[/inside]नामक रिपोर्ट में तीन आयामों से डेटा का विश्लेषण करने का प्रयास किया है, जोकि विभिन्न अवधियों में भोजन की उपलब्धता, पहुंच और उपयोगिता के आधार पर भारत में भोजन और पोषण की स्थिति की सही तस्वीर खींचने में मदद करता है. एसडीजी 2 के तहत लक्ष्यों को प्राप्त करने की दिशा में प्रगति के पद चिन्हों को पहचानने के लिए, सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय (MoSPI) और विश्व खाद्य कार्यक्रम (WFP) ने एक साथ मिलकर उपलब्ध भोजन और पोषण सुरक्षा जानकारी का विश्लेषण किया.
सतत विकास लक्ष्य (एसडीजी) 2030 तक दुनिया भर के सभी लोगों के जीवन को बेहतर बनाने के लिए 17 वैश्विक लक्ष्यों का एक सेट है. एसडीजी 2 का मकसद- जीरो हंगर – भूख को समाप्त करने, भोजन सुरक्षा, पोषण में सुधार और सतत कृषि को बढ़ावा देना है. इस लक्ष्य का एक महत्वपूर्णघटक सभी के लिए भोजन की पहुंच में सुधार करना, कुपोषण के सभी प्रकारों को समाप्त करना, जिसमें बचपन के स्टंटिंग और वेस्टिंग पर सहमत लक्ष्य और कृषि आय में सुधार शामिल है. ये लक्ष्य सहस्राब्दी विकास लक्ष्यों (एमडीजी) से एक महत्वपूर्ण प्रगति का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो 2015 में समाप्त हो गया, जिसमें खाद्य सुरक्षा को केवल भोजन की खपत के न्यूनतम स्तर से कम आबादी के आधार पर और 5 साल से कम उम्र के अंडरवेट बच्चों की व्यापकता के आधार पर मापा गया था. इस प्रकार, एसडीजी 2 को प्राप्त करने के लिए इन दो परिणामों से इतर इसमें पौष्टिक आहार सेवन, कुपोषण के सभी रूपों, छोटे किसानों को सहायता, खाद्य प्रणालियों को मजबूत बनाने और जैव विविधता में सुधार पर ध्यान केंद्रित किया गया है.
सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय (MoSPI) और विश्व खाद्य कार्यक्रम (WFP) द्वारा प्रस्तुत, खाद्य और पोषण सुरक्षा विश्लेषण, भारत, 2019 (जून 2019 में जारी) नामक रिपोर्ट के प्रमुख निष्कर्ष इस प्रकार हैं। (एक्सेस करने के लिए कृपया यहां क्लिक करें):
भारत में खाद्यान्न की उपलब्धता
• उत्पादन: पिछले 20 वर्षों में, भारत में कुल खाद्यान्न उत्पादन 19.8 करोड़ टन से बढ़कर 26.9 करोड़ टन हो गया है. गेहूं और चावल भारतीयों के प्रमुख खाद्य पदार्थ हैं और खाद्यान्न उत्पादन का एक प्रमुख हिस्सा है, जो कुल खाद्यान्न उत्पादन का लगभग 75 प्रतिशत हिस्सा है और इस प्रकार लाखों लोगों की आय और रोजगार के प्रमुख स्रोत हैं. उत्तर प्रदेश राज्य गेहूँ, अनाज और खाद्यान्न के उत्पादन में सबसे अग्रसर है, इसके बाद पंजाब और मध्य प्रदेश आते हैं. पश्चिम बंगाल भारत का 'चावल का कटोरा' है, इसके बाद उत्तर प्रदेश, पंजाब और बिहार हैं.
• शुद्ध उपलब्धता: 1996 के बाद से, 2018 में खाद्यान्नों की प्रति व्यक्ति शुद्ध उपलब्धता 475 से बढ़कर 484 ग्राम / व्यक्ति / दिन हो गई है, जबकि दालों की प्रति व्यक्ति उपलब्धता 33 से बढ़कर 55 ग्राम / व्यक्ति / दिन हो गई है. हांलाकि चावल, गेहूं और अन्य अनाजों के उत्पादन में भारी वृद्धि हुई है, लेकिन जनसंख्या वृद्धि, अनाज के गलने-सड़ने और नुकसान होने और निर्यात के कारण उनकी प्रति व्यक्ति शुद्ध उपलब्धता समान स्तर पर नहीं बढ़ी है.
• उत्पादन रुझान: 1996-99 और 2015-18 के बीच, खाद्यान्न की वार्षिक वृद्धि दर 1.6 प्रतिशत थी. अन्य प्रमुख फसलों के उत्पादन को देखें तो दालों में 2.4 प्रतिशत, गेहूं में 1.8 प्रतिशत, अन्य अनाजों में 1.6 प्रतिशत, चावल में 1.4 प्रतिशत और बाजरे में 0.9 प्रतिशत तक वृद्धि हुई है. मक्का में सबसे ज्यादा 5.9 प्रतिशत वृद्धि दर्ज की गई है. इसके विपरीत, अन्य फसलों की वार्षिक वृद्धि दर में गिरावट देखी गई जैसे: ज्वार (-2.26 प्रतिशत), छोटे बाजरा (-1.71 प्रतिशत) और रागी (-1.21 प्रतिशत).
• कृषि उत्पादकता: हालांकि पिछले दो दशकों में खाद्यान्न की पैदावार में 33 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, लेकिन यह वांछित से काफी कम रही है. उदाहरण के लिए, भारत ने 2030 तक चावल, गेहूं और मोटे अनाजों के लिए 5,018 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की पैदावार हासिल करने का लक्ष्य रखा है, जबकि वर्तमान में प्रति हेक्टेयर 2,509 किलोग्राम की संयुक्तउपज है. हालांकि भारत में किसीभी राज्य या केंद्र शासित प्रदेश (केंद्रशासित प्रदेश) ने अभी तक इस लक्ष्य को हासिल नहीं किया है, चंडीगढ़ का यूटी वर्तमान स्तर के साथ लक्षित उत्पादकता 4,600 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर है, इसके बाद पंजाब में 4,297 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की पैदावार होती है.
पौष्टिक भोजन तक पहुंच
• खाद्य खर्च: एंगेल के नियम के अनुसार, आय से भोजन पर खर्च का हिस्सा घटा है, बेशक कुल भोजन खर्च में भी बढ़ोतरी हुई हो. भोजन के लिए कुल मासिक खर्च का एक बड़ा हिस्सा कम क्रय शक्ति को दर्शाता है और भोजन की पहुंच से संबंधित है, इसलिए यह खाद्य असुरक्षा का एक सापेक्ष उपाय है. औसतन, भारत के लोग अपने मासिक खर्च का लगभग 49 प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्रों में और 39 प्रतिशत शहरी क्षेत्रों में भोजन पर खर्च करते हैं. सबसे गरीब (सबसे कम 30 प्रतिशत) तबके का अपनी आय में खाद्य खर्च सबसे अधिक है. ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में, सबसे गरीब 30 प्रतिशत तबका भोजन पर क्रमशः 60 प्रतिशत और 55 प्रतिशत खर्च करते हैं.
• खाद्य खर्च के रुझान: 1972-73 और 2011-12 के बीच, भोजन पर खर्च की हिस्सेदारी ग्रामीण क्षेत्रों में लगभग 33 प्रतिशत और शहरी क्षेत्रों में 40 प्रतिशत घट गई है, जबकि इसी अवधि के दौरान गैर-खाद्य खर्चों में वृद्धि हुई है. 2004-05 से 2011-12 के बीच, सबसे गरीब लोगों में, भोजन पर होने वाले खर्च की हिस्सेदारी में ग्रामीण और भारत के शहरी क्षेत्रों में 8 प्रतिशत की गिरावट आई है. घटती प्रवृत्तियों से पता चलता है कि ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में आय में वृद्धि हुई है और यह कि भोजन अब लोगों के लिए एकमात्र प्रमुख खर्च नहीं रह गया है.
• खाद्य खपत पैटर्न: खाद्य आदतों से यह पता चला है कि शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में, अनाज और अनाज के विकल्प पर खर्च की हिस्सेदारी 1972-73 और 2011-12 के बीच ग्रामीण क्षेत्रों में 57 प्रतिशत से 25 प्रतिशत तक और शहरी क्षेत्रों में 36 प्रतिशत से 19 प्रतिशत तक घट गई है. इसी दौरान, कुछ विशेष पेय पदार्थ, दूध और दूध उत्पादों और फलों और बादाम आदि की उपयोगिता में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है, जो देश में खपत में वृद्धि की विविधता को दर्शाता है. ग्रामीण और शहरी भारत दोनों में अनाज से ऊर्जा और प्रोटीन की मात्रा कम हो गई है, इसका मुख्य कारण दूध और डेयरी उत्पादों, तेल और वसा और अपेक्षाकृत अस्वास्थ्यकर भोजन जैसे फास्ट फूड, प्रसंस्कृत अन्य खाद्य पदार्थों, मीठे पेयपदार्थों की बढ़ती खपत है. विशेष रूप से, अस्वास्थ्यकर ऊर्जा और प्रोटीन स्रोतों की खपत शहरी क्षेत्रों में बहुत अधिक है. जिससे भारत में मोटापे की समस्या उभर रही है.
• पोषक तत्वों का सेवन: 1993-94 से 2011-12 के बीच, ग्रामीण इलाकों में ऊर्जा और प्रोटीन दोनों की औसत दैनिक खपत में कमी आई, जबकि शहरी क्षेत्रों में कोई ऐसी प्रवृत्ति दर्ज नहीं हुई. घरेलू आय में वृद्धि के बावजूद गिरावट दर्ज की गई है. अकेले ऊर्जा खपत के लिए, ट्रैंड बताता है कि 1983 के बाद से वृद्धि के बावजूद, समग्र ऊर्जा का सेवन न्यूनतम आवश्यकता से थोड़ा कम है. प्रोटीन की मात्रा में गिरावट केबावजूद, ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में प्रति व्यक्ति खपत न्यूनतम दैनिक आवश्यकता से अधिक है. हालांकि 1983 से वसा का सेवन लगातार बढ़ा है और यह न्यूनतम दैनिक आवश्यकता से बहुत अधिक है.
• गरीब और पोषक तत्व: निम्न आय वर्ग के सबसे कम 30 प्रतिशत लोगों के बीच, ऊर्जा की औसत प्रति व्यक्ति खपत प्रति दिन 1811 किलो कैलोरी है, जो भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (ICMR) के 2,155 किलो कैलोरी प्रति दिन के मानक से काफी कम है. प्रोटीन लेने के मामले में 48 ग्राम प्रति दिन के मानदंड की तुलना में 47.5 ग्राम प्रति दिन है जबकि वसा के लिए यह 28 ग्राम प्रति दिन है जो ग्रामीण भारत के लिए ICMR मानदंड के समान है. शहरी क्षेत्रों के लिए, आईसीएमआर से 2,090 प्रति दिन के मानक की तुलना में प्रति व्यक्ति ऊर्जा की खपत 1,745 किलो कैलोरी प्रतिदिन है. प्रोटीन लेने के मामले में 50 ग्राम प्रति दिन के मानक की तुलना में 47 ग्राम प्रति दिन है और वसा के लिए यह 26 ग्राम प्रति दिन के मानक की तुलना में 35 ग्राम प्रति दिन है. ऊर्जा और प्रोटीन जैसे पोषक तत्वों का वर्तमान सेवन स्तर अखिल भारतीय औसत और दैनिक न्यूनतम उपभोग की आवश्यकता से कम था. केवल ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में वसा का सेवन दैनिक न्यूनतम उपभोग की आवश्यकता के बराबर या उससे अधिक है.
• सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) और पोषण: लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली (टीपीडीएस) ने भारत के सभी राज्यों में लोगों को एक महत्वपूर्ण पोषण पूरक प्रदान किया है. 2011-12 के दौरान, टीपीडीएस से प्रति व्यक्ति औसतन ग्रामीण क्षेत्रों में प्रतिदिन 453 किलो कैलोरी और शहरी भारत में 159 किलो कैलोरी प्रतिदिन पूरकता है. प्रोटीन के संदर्भ में, पीडीएस के माध्यम से पूरकता ग्रामीण क्षेत्रों में प्रति दिन 7.2 ग्राम और शहरी क्षेत्रों में 3.8 ग्राम प्रति दिन औसत है. सबसे गरीब 30 प्रतिशत आबादी के लिए पीडीएस पूरकता 339 किलो कैलोरी प्रति दिन रही है. यह देखा गया है कि सबसे गरीब 30 प्रतिशत परिवारों के पास भोजन तक पहुंचने की क्षमता कम थी, और परिणामस्वरूप, पीडीएस समर्थन के बावजूद, वे ऊर्जा और प्रोटीन इंटेक के अनुशंसित आहार ऊर्जा (आरडीए) स्तर तक पहुंचने में सक्षम नहीं थे.
उपयोग
• राष्ट्रीय कुपोषण के दशकीय रुझान: भारत में 6-59 महीने के बच्चों में कुपोषण का प्रचलन 2005-06 से 2015-16 के बीच घट गया है, जिसमें क्रोनिक कुपोषण, या स्टंटिंग, 2005-06 में 48.0 प्रतिशत से घटकर 2015-16 में 38.4 प्रतिशत हो गया है. और 2005-06 में 42.5 प्रतिशत से घटकर 2015-16 में 35.7 प्रतिशत रह गया है. तीव्र कुपोषण, या वेस्टिंग की व्यापकता, इसी अवधि के दौरान 19.8 प्रतिशत से 21.0 प्रतिशत तक बढ़ गई है. छोटे बच्चों में एनीमिया का प्रसार भी 2005-06 में 69.5 प्रतिशत से घटकर 2015-16 में 58.5 प्रतिशत हो गया है.
• स्टंटिंग: पिछले दशक के दौरान स्टंटिंग में एक प्रतिशत की वार्षिक गिरावट दर्ज की गई है. केरल को छोड़ दें तो स्टंटिंग का प्रचलन भारत के सभी राज्यों में 30 प्रतिशत है. भारत में स्टंटिंग को कम करने के प्रक्षेपवक्र पर प्रकाश डालागया है कि, स्टंटिंग में कमी कीवर्तमान दर (प्रति वर्ष 1 प्रतिशत) के साथ, 2022 तक, 31.4 प्रतिशत बच्चे स्टंटिंग का शिकार होंगे. भारत सरकार ने राष्ट्रीय पोषण मिशन (एनएनएम) के माध्यम से अपने लिए एक चुनौतीपूर्ण लक्ष्य की परिकल्पना की है, जिसमें 2022 तक 25 प्रतिशत तक पहुँचने के लिए स्टंटिंग को कम से कम 2 प्रतिशत प्रति वर्ष कम करने का लक्ष्य रखा गया है. गोवा और केरल पहले ही NFHS-4 में इस स्तर को प्राप्त कर चुके हैं. चार अन्य राज्य (दमन और दीव, अंडमान और निकोबार, पुडुचेरी और त्रिपुरा) पहले ही मिशन 25 को पूरा कर चुके हैं और पंजाब (25.7 प्रतिशत) इसे (NFHS-4) प्राप्त करने के करीब है.
• कुपोषण में विविधताएं: पांच से कम उम्र के बच्चों में स्टंटिंग बिहार (48 प्रतिशत), उत्तर प्रदेश (46 प्रतिशत), झारखंड (45 प्रतिशत), और मेघालय (44 प्रतिशत) में सबसे ज्यादा है और केरल व गोवा (प्रत्येक 20 प्रतिशत) में सबसे कम. झारखंड में भी अंडरवेट (48 प्रतिशत) और वेस्टिंग (29 प्रतिशत) का प्रचलन सबसे अधिक है. कुपोषण की जिला स्तर की मैपिंग में काफी अंतर है. हालांकि, उत्तरी और उत्तर-पूर्वी राज्यों में बहुत कम जिलों ने कम मात्रा में वेस्टिंग (2.5-4.9 प्रतिशत) और अंडरवेट (10 प्रतिशत से कम) दर्शाया है.
• भारत के चिंताजनक क्षेत्र: जैसा कि उल्लेख किया गया है, स्टंटिंग और अंडरवेट के ज्यादातर पीड़ित झारखंड, बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, गुजरात और महाराष्ट्र में पाए जाते हैं. कुछ राज्यों में कुपोषण चिंताजनक स्थिति में है. देश की सबसे गरीब आबादी स्टंटिंग की सबसे ज्यादा शिकार है. पहले उल्लेख किए गए राज्यों के अलावा, हरियाणा, मेघालय, कर्नाटक, राजस्थान और पंजाब में दो सबसे गरीब समूह में स्टंटिंग बहुत ज्यादा है. राष्ट्रीय स्तर पर, सामाजिक समूहों के बीच, अनुसूचित जनजातियों (43.6 प्रतिशत), अनुसूचित जातियों (42.5 प्रतिशत) और अन्य पिछड़ी जातियों (38.6 प्रतिशत) के बच्चे स्टंटिंग के सबसे अधिक शिकार हैं. राजस्थान, ओडिशा और मेघालय में अनुसूचित जनजाति के बच्चों में स्टंटिंग सबसे अधिक है, जबकि अनुसूचित जनजाति और अनुसूचित जाति दोनों राज्यों के बच्चों में स्टंटिंग महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ और कर्नाटक में अधिक है.
• बच्चों में कुपोषण के कई प्रकारों की व्यापकता: कुपोषण को तीन तरीकों से देखा जाता है: स्टंटिंग, वेस्टिंग और अंडरवेट. NFHS-4 के विश्लेषण से पता चलता है कि पांच वर्ष से कम आयु के 6.4 प्रतिशत बच्चे स्टंटिंग, वेस्टिंग और अंडरवेट का शिकार हैं, जबकि 18.1 प्रतिशत बच्चे स्टंटिंग और अंडरवेट का शिकार हैं, और 7.9 प्रतिशत बच्चे दोनों ही वेस्टिंग और अंडरवेट का शिकार हैं. यह विश्लेषण सबसे कमजोर वर्ग की पहचान करने में मदद करता है जहां बच्चे मैक्रोन्यूट्रिएंट कुपोषण के कई रूपों से पीड़ित हैं.
• सूक्ष्म पोषक कुपोषण: विटामिन ए, आयरन और आयोडीन की कमी के विकार दुनिया में सूक्ष्म पोषक कुपोषण के सबसे आम रूप हैं. बड़े पैमाने पर इन कमियों से निपटने के लिए सपलिमैंटेशन और फॉर्टिफिकेशन मुख्य तरीके हैं. भारत में, 9-59 महीने की आयु के केवल 60 प्रतिशत बच्चों को 2015-16 में विटामिन-ए की खुराक मिली, और 36 राज्यों में से 13 कुछ बड़े राज्यों और उत्तर-पूर्वी राज्यों सहित राष्ट्रीय औसत से पीछे हैं. फॉर्टिफिकेशन के संदर्भ में, लगभग 93 प्रतिशत घरों में 2015-16 मेंआयोडीन युक्त नमक का उपयोग किया गया था जो बहुत सकारात्मक है.
• एनीमिया की व्यापकता: भारत में आयरन की कमी से होने वाला एनीमिया एक प्रमुख सार्वजनिक स्वास्थ्य चिंता का विषय बना हुआ है, जहाँ 15-49 वर्ष की आधी महिलाएँ एनीमिक हैं, चाहे वे किसी भी उम्र, निवास या गर्भावस्था की स्थिति की हो. पिछले दशक में, प्रजनन आयु की महिलाओं में एनीमिया केवल 2.3 प्रतिशत अंक कम हुई; 0.4 प्रतिशत की वार्षिक गिरावट. 2015-16 में, एनीमिया का प्रसार पुरुषों (23.3 प्रतिशत) की तुलना में महिलाओं (53.1 प्रतिशत) में अधिक है. 2015-16 में 6-59 महीने की उम्र के 58.5 प्रतिशत बच्चे 2005-6 के 69.5 प्रतिशत की तुलना में एनीमिक थे. हरियाणा में बच्चों में एनीमिया का प्रसार सबसे अधिक (71.7 प्रतिशत) है, इसके बाद झारखंड (69.9 प्रतिशत) और मध्य प्रदेश (68.9 प्रतिशत) है. कई केंद्र शासित प्रदेशों में एनीमिया का अधिक प्रचलन है: दादरा और नगर हवेली (84.6 प्रतिशत), दमन और दीव (73.8), और चंडीगढ़ (73.1 प्रतिशत). 2015-16 में मिजोरम एकमात्र राज्य था, जिसमें WHO थ्रेसहोल्ड के अनुसार एनीमिया का स्तर कम था, जिसके बाद मणिपुर था. एक जिला स्तर के विश्लेषण से पता चलता है कि लगभग सभी जिले 'गंभीर' (40 प्रतिशत से अधिक) श्रेणी में आते हैं, 'मामूली' (20-39.9) श्रेणी में बहुत कम और 'हल्के' (5-19.9) में लगभग 10 जिले वर्ग.
• कुपोषण का दोहरा बोझ: कई दशकों से भारत केवल कुपोषण के एक प्रकार से निपट रहा था – अल्पपोषण. हालाँकि, पिछले एक दशक में, दोहरे बोझ जिसमें अधिक और अल्पपोषण दोनों शामिल हैं, प्रमुख होता जा रहा है और भारत के लिए एक नई चुनौती बन गया है. 2005 से 2016 तक भारतीय महिलाओं में निम्न (<18/.5 किलोग्राम / एम2) बॉडी मास इंडेक्स (बीएमआई) का प्रचलन 36 प्रतिशत से घटकर 23 प्रतिशत और भारतीय पुरुषों में 34 प्रतिशत से 20 प्रतिशत हो गया है. हालांकि, इसी अवधि के दौरान महिलाओं में अधिक वजन (मोटापा / बीएमआई> 30 किग्रा / एम 2) का प्रचलन 13 प्रतिशत से बढ़कर 21 प्रतिशत और 9 प्रतिशत से 19 प्रतिशत हो गया. सामान्य बीएमआई या उच्च बीएमआई वाली महिलाओं की तुलना में कम बीएमआई वाली महिलाओं से पैदा होने वाले बच्चों में स्टंटिंग, वेस्टिंग और अंडरवेट होने की संभावना अधिक होती है.
• बच्चों के बीच कुपोषण के सामाजिक-आर्थिक निर्धारक: स्टंटिंग के शिकार हुए आधे से अधिक बच्चे उन माताओं की कोख से पैदा होते हैं जो स्कूल नहीं जा सकीं. जबकि 12 साल या इससे अधिक स्कूली शिक्षा वाली माताओं की कोख से पैदा होने वाले 24 प्रतिशत बच्चे स्टंटिंग का शिकार होते हैं. अशिक्षित माताओं की कोख से पैदा होने वाले बच्चों में 47 प्रतिशत अंडरवेट होते हैं, जबकी शिक्षित माताओं की कोख से 22 प्रतिशत बच्चे अंडरवेट होते हैं. धन मे होती बढ़ोतरी के साथ कुपोषण की व्यापकता लगातार कम हो जाती है. कुपोषण राष्ट्रीय स्तर पर अनुसूचित जातियों की तुलना में अनुसूचित जनजातियों में अपेक्षाकृत अधिक प्रचलित है, जबकि राज्यों के बीच काफी भिन्नता मौजूद है. स्टंटिंग और बेहतर स्वच्छता के बीच एक मजबूत नकारात्मक सहसंबंध है.
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पिछले राष्ट्रीय सर्वेक्षणों में राष्ट्रीय स्तरपर 5 से 14 वर्ष की आयु केबच्चों का प्रतिनिधि डेटा एकत्र नहीं किया था. आबादी के इस हिस्से पर उन लोगों की तुलना में कम ध्यान दिया गया, जिन्हें अधिक असुरक्षित (स्कूल न जाने वाले छोटे बच्चे और किशोर) माना जाता है. स्कूल जाने वाले बच्चे दुनिया के सबसे बड़े स्कूल फीडिंग प्रोग्राम (मिड-डे मील योजना, 2014) के लाभार्थी हैं. इस वजह से ही इस महत्वपूर्ण, लेकिन उपेक्षित आयु वर्ग का कुपोषण और संबंधित कारकों पर प्रतिनिधि डेटा प्राप्त करना, व्यापक राष्ट्रीय पोषण सर्वेक्षण (CNNS) का एक प्रमुख उद्देश्य था.
पूर्व राष्ट्रीय और उप-राष्ट्रीय सर्वेक्षण (राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-(NFHS), जिला स्तर पर घरेलू और सुविधा सर्वेक्षण-DLHS, वार्षिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण-AHS और राष्ट्रीय पोषण निगरानी ब्यूरो-NNMB) ने कुछ आकंड़े जरूर प्रदान किए, लेकिन गैर-संचारी रोगों और उनके जोखिम भरे कारकों पर पर्याप्त जानकारी नहीं दी. पिछले सर्वेक्षणों और CNNS के बीच पहचाने गए सूचना अंतराल इस प्रकार हैं: 1. आयु समूहों में सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमियों पर सीमित या कोई डेटा नहीं; 2. अधिकांश पोषण संकेतकों में 5-14 आयु वर्ग के लिए सीमित डेटा; 3. 5 से 10 वर्ष के आयु वर्ग के लिए एनसीडी पर कोई डेटा नहीं; 4. स्कूली बच्चों और किशोरों में हृदय रोग के जोखिम का आकलन करने के लिए लिपिड प्रोफाइल पर डेटा की कमी; 5. स्कूली बच्चों और किशोरों में क्रोनिक किडनी रोग (सीकेडी) के उपाय; और 6. ट्रंकल एडिपोसिटी (कमर परिधि), एडिपोसिटी के अन्य उपाय (स्किनफोल्ड थिकनेस), मांसपेशियों की ताकत, और शारीरिक फिटनेस सहित एनसीडी के सहसंबंध.
CNNS भारत के सभी 30 राज्यों में ग्रामीण और शहरी घरों को कवर करने वाले एक बहु-चरण सर्वेक्षण डिजाइन का उपयोग करके आयोजित किया गया था. सर्वेक्षण में तीन लक्षित जनसंख्या समूहों से डेटा एकत्र किया गया: प्री-स्कूलर्स (0–4 वर्ष), स्कूल-आयु वाले बच्चे (5-9 वर्ष) और किशोर (10-19 वर्ष). लगभग 112,316 बच्चों और किशोरों को CNNS के उद्देश्य के लिए इंटरव्यू किया गया.
CNNS ने भारत के 30 राज्यों के तीन आबादी समूहों के लिए डेटा एकत्र किया: (क) 38,060 प्री-स्कूलर्स जिनकी आयु 0-4 वर्ष है; (ख) 5- 9 वर्ष की आयु के 38,355 स्कूली बच्चों; और (ग) 10-19 वर्ष की आयु के 35,830 किशोर.
[inside]भारत: व्यापक राष्ट्रीय पोषण सर्वेक्षण 2016-2018 (अक्टूबर 2019 में जारी) (Comprehensive National Nutrition Survey 2016-2018)[/inside] (अक्टूबर 2019 में जारी), जिसे संयुक्त रूप से स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय (MoHFW), भारत सरकार, यूनिसेफ और जनसंख्या परिषद द्वारा तैयार किया गया है, के प्रमुख निष्कर्ष इस प्रकार हैं: (देखने के लिए कृपया यहाँ क्लिक करें.),
स्तनपान की शुरूआत
• 0-24 महीने की उम्र के 57 प्रतिशत बच्चों को जन्म के एक घंटे के भीतर स्तनपान कराया गया.
सिर्फ स्तनपान
• छह महीने से कम उम्र के अठारह प्रतिशत शिशुओं को विशेष रूप से सिर्फ स्तनपान कराया गया था.
एक वर्ष की आयु में स्तनपान जारी
• 12 से 15 महीने के 83 प्रतिशत बच्चों ने एक वर्ष की आयु में स्तनपान जारी रखा
पूरक भोजन/ स्तनपान के अलावा
• 6 से 8 महीने की आयु के 53 प्रतिशत शिशुओं के लिए समय पर पूरक आहार शुरू किया गया था
न्यूनतम आहार विविधता, भोजन आवृत्ति और स्वीकार्य आहार
• 6 से 23 महीने की आयु के 42 प्रतिशत बच्चों को उनकी आयु केहिसाब से प्रति दिन न्यूनतम संख्या में खिलाया गया, 21 प्रतिशत को पर्याप्त रूप से विविध आहार दिया गया और 6 प्रतिशत को न्यूनतम स्वीकार्य आहार प्राप्त हुआ.
स्कूली बच्चों और किशोरों की आहार श्रंखला
• स्कूल जाने वाले 85 प्रतिशत से अधिक बच्चों और किशोरों ने कम से कम सप्ताह में एक बार हरी पत्तेदार सब्जियाँ और दालें या फलियाँ खाईं
• एक तिहाई स्कूली बच्चों और किशोरों ने प्रति सप्ताह कम से कम एक बार अंडे, मछली या चिकन या मांस का सेवन किया
• 60 प्रतिशत स्कूली बच्चों और किशोरों ने प्रति सप्ताह कम से कम एक बार दूध या दही का सेवन किया.
प्री-स्कूल बच्चों में कुपोषण (0–59 महीने)
• पांच साल से कम उम्र के 35 प्रतिशत बच्चे स्टंटिंग (उम्र के हिसाब से कद में छोटे) का शिकार थे. (HAZ <-2 SD यानी जिनकी उम्र के हिसाब से लंबाई कम है; SD का अर्थ है स्टैंडर्ड डेविएशन)
• स्टंटिंग, या उम्र के हिसाब से कम लंबाई होना, पुराने कुपोषण का संकेत है जो लंबी अवधि में पर्याप्त पोषण प्राप्त करने में विफलता को दर्शाता है और यह आवर्तक और पुरानी बीमारी से भी प्रभावित होता है. अगर बच्चों की लंबाई उम्र के हिसाब से कम से कम दो मानक अंको से नीचे है तो उस बच्चे को स्टंटिंग का शिकार कहा जाएगा. (<-2SD) WHO चाइल्ड ग्रोथ स्टैंडर्ड्स मेडियन (WHO, 2009)
• बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश सहित कई सबसे अधिक आबादी वाले राज्यों के बच्चे ज्यादा बड़ी संख्या में स्टंटिंग (37-42 प्रतिशत) का शिकार हैं. सबसे कम स्टंटिंग (16–21 प्रतिशत) गोवा और जम्मू और कश्मीर के बच्चों में पाई गई.
• शहरी क्षेत्रों (27 प्रतिशत) की तुलना में ग्रामीण क्षेत्रों (37 प्रतिशत) में पांच वर्ष से कम के बच्चे स्टंटिंग के अधिक शिकार पाए गए. इसके अलावा, सबसे गरीब तबके में सबसे अधिक बच्चे स्टंटिंग (49 प्रतिशत) का शिकार थे, जबकि इसकी तुलना में सबसे अमीर तबके के 19 प्रतिशत बच्चे इसका शिकार थे.
• पांच साल से कम उम्र के 17 प्रतिशत बच्चे वेस्टिंग (लंबाई के हिसाब से औसत से कम वजन) का शिकार थे (WHZ <-2 SD अर्थात जिनका लंबाई के हिसाब से कम वजन है)
• वेस्टिंग, या लंबाई के हिसाब से कम वजन होना, तीव्र कुपोषण का एक संकेत है और तेजी से वजन गिरने या वजन न बढ़ने का मुख्य कारण पर्याप्त पोषण न मिल पाना है. उन बच्चों को वेस्टिड कहा जाता है जिनका वजन लंबाई के हिसाब से दो मानक अंकों से कम है (<-2SD) WHO बाल विकास मानक माध्य (WHO, 2009). पर्याप्त भोजन उपलब्ध न होने या बीमारी के हालिया प्रकरण की वजह से वजन कम होने की वजह से बच्चे वेस्टिंग का शिकार होते हैं.
• वेस्टिंग (20 प्रतिशत से अधिक या इसके बराबर) का उच्च दर वाले राज्यों में मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु और झारखंड शामिल थे. वहीं सबसे कम वेस्टिंग के शिकार हुए राज्य मणिपुर, मिजोरम और उत्तराखंड (प्रत्येक 6 प्रतिशत) थे.
• सबसे अधिक अमीर आबादी (13 प्रतिशत) की तुलना में सबसे गरीब आबादी में पांच वर्ष से कम आयु के बच्चों कावेस्टिंग दर (21 प्रतिशत) था.
• पांच वर्ष से कमआयु के 33 प्रतिशत बच्चों में कम वजन पाया गया (WAZ <-2 SD अर्थात जिनका आयु के हिसाब से कम वजन है).
• कम वजन या उम्र के हिसाब से कम वजन होना, एक समग्र सूचकांक का संकेतक है जो तीव्र कुपोषण और लंबे समय से कुपोषित दोनों प्रकार के कुपोषणों की वजह से होता है. उन बच्चों को कम वजन के रूप में परिभाषित किया जाता है जिनका वजन-आयु के हिसाब से दो मानक अंको से कम होता है. (<-2SD) WHO बाल विकास मानक माध्य (WHO, 2009)
• भारत के उत्तर-पूर्व में कई राज्य, जैसे कि मिजोरम, सिक्किम, मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश और नागालैंड के बच्चे सबसे कम अंडरवेट (16 प्रतिशत से कम या बराबर) पाए गए.
• सबसे ज्यादा अंडरवेट का शिकार हुए बच्चे (39 प्रतिशत से अधिक) बिहार, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और झारखंड से थे. ग्रामीण क्षेत्रों (36 प्रतिशत) में शहरी क्षेत्रों (26 प्रतिशत) की तुलना में ज्यादा बच्चे अंडरवेट थे.
• अनुसूचित जातियों (36 प्रतिशत), अन्य पिछड़े वर्गों (33 प्रतिशत), और अन्य समूहों (27 प्रतिशत) की तुलना में अनुसूचित जनजातियों में सबसे अधिक अंडरवेट बच्चे (42 प्रतिशत) पाए गए.
• सबसे गरीब तबके के पांच से कम आयु के अंडरवेट बच्चों (48प्रतिशत)की संख्या अमीर तबके के बच्चों(19 प्रतिशत) से दुगने से भी ज्यादा थी. (48 प्रतिशत बनाम 19 प्रतिशत)
• मध्य-ऊपरी बांह परिधि (MUAC-for-age <-2 SD) द्वारा मापने पर 6-59 महीने के 11 प्रतिशत बच्चे पूर्ण रूप से कुपोषित थे.
• (MUAC <125mm) के अनुसार 6–59 महीने के 5 प्रतिशत बच्चे पूर्ण कुपोषित थे.
• MUAC के अनुसार बच्चों में तीव्र कुपोषण (7 प्रतिशत से अधिक या बराबर) वाले राज्य जम्मू और कश्मीर, उत्तर प्रदेश, मेघालय, असम और नागालैंड थे. ऐब्सल्यूट MUAC (MUAC <125 मिमी) के अनुसार तीव्र कुपोषण के शिकार हुए बच्चे सबसे कम (1 प्रतिशत से कम या बराबर) उत्तराखंड और अरुणाचल प्रदेश से थे.
• पांच वर्ष से कम आयु के 2 प्रतिशत बच्चे अधिक वजन वाले या मोटापे का शिकार (WHZ> +2 SD) थे.
• अधिक वजन और मोटापा, शरीर के वजन को प्रतिबिंबित करते हैं जो कि दी गई लंबाई के हिसाब से स्वस्थ वजन माना जाता है. पांच वर्ष से कम उम्र के उन बच्चों को अधिक वजन या मोटे के रूप में परिभाषित किया जाता है जिनका वजन लंबाई के हिसाब से WHO चाइल्ड ग्रोथ स्टैंडर्ड्स मेडियन (WHO, 2010) के दो मानक अंकों (> + 2SD) से अधिक है.
• पांच वर्ष से कम आयु के बच्चों का वजन ट्राइसेप्स स्किनफोल्ड मोटाई (TSFT-for-age> +2 SD) द्वारा मापा गया था, जिसमें 1 प्रतिशत बच्चे मोटापे का शिकार निकले.
• टीएसएफटी के आंकड़ों के अनुसार सबसे अधिक मोटापे का शिकार (4 प्रतिशत से अधिक या उससे अधिक) मिजोरम, त्रिपुरा और उत्तराखंड के बच्चे थे.
• 1 से 4 वर्ष के 2 प्रतिशत बच्चे मोटापे का शिकार मिले, जिन्हें सबस्कुलर स्किनफोल्ड मोटाई (SSFT-for-age> + 2 SD) द्वारा मापा गया था.
• SSFT द्वारा मापे गए, मोटापे के शिकार बच्चे (5 प्रतिशत से अधिक या उससे अधिक) सबसे अधिक आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, मिजोरम, त्रिपुरा और उत्तराखंड के थे.
• एसएसएफटी के अनुसार सामाजिक-आर्थिक स्थिति के हिसाब से अमीर तबके के 3 प्रतिशत और सबसे गरीब तबके के 1 प्रतिशतबच्चे मोटापे के शिकार थे.
स्कूली बच्चों में कुपोषण (5-9 वर्ष)
• स्कूली उम्र (5-9 वर्ष) के 22 प्रतिशत बच्चे स्टंटिंग (उम्र के हिसाब से कद में छोटे) का शिकार थे. (HAZ <-2 SD)
• 5 से 9 वर्ष की आयु के बच्चे स्टंटिंग के सबसे कम शिकार तमिलनाडु में सबसे कम (10 प्रतिशत) और केरल (11 प्रतिशत) में थे और मेघालय में सर्वाधिक (34 प्रतिशत) थे.
• 10 प्रतिशत स्कूली बच्चों का वजन कम (अंडरवेट) था. (WAZ <-2 SD)
• अरुणाचल प्रदेश, जम्मू और कश्मीर, मणिपुर और सिक्किम में सबसे कम (17 प्रतिशत) और झारखंड में सबसे अधिक (45 प्रतिशत) बच्चे अंडरवेट (कम वजन) के शिकार थे.
• स्कूली उम्र के 23 प्रतिशत बच्चे मरियल यानी पतले थे (BMI-for-age <-2 SD; BMI का अर्थ है बॉडी मास इंडेक्स)
• कम बीएमआई के प्रचलन में एक लिंग अंतर देखा गया, जिसमें मरियल लड़कियों की तुलना में मरियल लड़कों की संख्या अधिक है, दोनों (5-9 साल) के बीच 26 प्रतिशत लड़कों की तुलना में 20 प्रतिशत लड़कियां पतली हैं.
• 4 प्रतिशत स्कूली बच्चे अधिक वजन वाले या मोटापे के शिकार थे. (BMI-for-age> +1 SD)
• बच्चों और किशोरों (5-19 वर्ष), अधिक वजन और मोटापे को बीएमआई-फॉर-एज> + 1SD और WHO चाइल्ड ग्रोथ स्टैंडर्ड्स मेडियन (WHO, 2007) के ऊपर 2SD के रूप में परिभाषित किया गया है.
• टीएसएफटी (TSFT-for-age> +1 SD) द्वारा मापने पर स्कूली आयु के 2 प्रतिशत बच्चे मोटापे का शिकार मिले.
• SSFT (SSFT-for-age> +1 SD) द्वारा मापने पर 8 प्रतिशत स्कूली बच्चे मोटापे का शिकार पाए गए.
• स्कूली बच्चों में 2 प्रतिशत बच्चे पेट के मोटापे का शिकार थे.(कमर की परिधि-आयु- +1 एसडी)
किशोरों में कुपोषण (10-19 वर्ष)
• 24 प्रतिशत किशोर उम्र के हिसाब से पतले थे. (BMI-for-age <-2 SD)
• 5 प्रतिशत किशोर उम्र के हिसाब से अधिक वजन वाले या मोटे थे (BMI-for-age> +1 SD)
• टीएसएफटी (TSFT-for-age> +1 SD) द्वारा मापे जाने पर 4 प्रतिशत किशोर अधिक वजन वाले या मोटे पाए गए.
• SSFT (SSFT-for-age> +1 SD) द्वारा मापे जाने पर 6 प्रतिशत किशोर अधिक वजन वाले या मोटे पाए गए.
• 2 प्रतिशत किशोर पेट के मोटापे के शिकार थे. (कमर की परिधि-आयु- +1 एसडी)
एनीमिया और आयरन की कमी
• छोटे बच्चों (0-4 वर्ष) में 41 प्रतिशत, स्कूली बच्चों (5-9 वर्ष) में 24 प्रतिशत और किशोरों (10-19) में 28 प्रतिशत एनीमिक पाए गए.
• दो साल से कम उम्र के बच्चों में एनीमिया सबसे अधिक प्रचलित था.
• किशोर अवस्था में लड़कियों(40 प्रतिशत) में लड़कों (18 प्रतिशत) के मुकाबले एनीमिया का अधिक प्रचलन था.
• 27 राज्यों में प्री-स्कूल बच्चों(0-4 वर्ष), 15 राज्यों में स्कूल-आयु के बच्चों (5-9 वर्ष) और 20 राज्यों में किशोरों (10-19 वर्ष) के बीच एनीमिया एक मध्यम या गंभीर सार्वजनिक स्वास्थ्य समस्या थी.
• 0-4 वर्ष आयु के 32 प्रतिशत बच्चों, स्कूली (5-9 वर्ष) आयु के 17 प्रतिशत बच्चों और 22 प्रतिशत किशोरों (10-19 वर्ष) में आयरन (लोहे) की कमी थी. (कम सीरम फेरिटिन)
• 10-19 वर्ष आयु के लड़कों (12 प्रतिशत) की तुलना में लड़कियों (31 प्रतिशत) में लोहे की कमी अधिक मात्रा थे.
• शहरी क्षेत्रों में बच्चों और किशोरों में उनके ग्रामीण समकक्षों की तुलनामें लोहे की कमी अधिक मात्रा में थी.
माइक्रोन्यूट्रीएंट्स
• विटामिनए की कमी की व्यापकता प्री-स्कूल बच्चों में 18 प्रतिशत, स्कूली बच्चों में 22 प्रतिशत और किशोरों में 16 प्रतिशत थी.
• प्री-स्कूल बच्चों में 14 प्रतिशत, स्कूल-आयु वर्ग के 18 प्रतिशत बच्चों और 24 प्रतिशत किशोरों में विटामिन डी की कमी पाई गई.
• प्री-स्कूली बच्चों में 19 प्रतिशत, स्कूली बच्चों में 17 प्रतिशत और 32 प्रतिशत किशोरों में जिंक की कमी पाई गई.
• विटामिन बी12 की कमी की व्यापकता प्री-स्कूल के बच्चों में 14 प्रतिशत, स्कूल-आयु के बच्चों में 17 प्रतिशत और किशोरों में 31 प्रतिशत थी.
• प्री-स्कूल के बच्चों में से लगभग एक-चौथाई (23 प्रतिशत), स्कूली आयु वर्ग के 28 प्रतिशत बच्चों और 37 प्रतिशत किशोरों में फोलेट की कमी पाई गई.
• पर्याप्त आयोडीन की स्थिति (औसत यूरीनरी आयोडीन की सांद्रता 100 /g / L से अधिक या 300 µg / L से कम या बराबर) तीनों आयु समूहों में पाई गई. प्री-स्कूल के बच्चों में 213 /g / L, स्कूली बच्चों में 175 µg / L और किशोरों के बीच 173 /g / L थी.
• तमिलनाडु को छोड़कर सभी राज्यों में बच्चों और किशोरों में यूरिनरी आयोडीन की मात्रा का पर्याप्त स्तर था. तमिलनाडु के अनुमान से पता चला कि यूरिनरी आयोडीन की सघनता अतिरिक्त सेवन की कम सीमा पर थी (मध्य ~ 320 Lg / showed)
गैर-संचारी रोग
• भारत में 5 से 9 वर्ष और किशोर (10–19 वर्ष) उम्र के बच्चों में गैर-संचारी रोगों का खतरा बढ़ रहा है.
• दस में से एक स्कूली उम्र के बच्चों और किशोरों में प्लाज्मा ग्लूकोज> 100 मिलीग्राम / डीएल और 126 मिलीग्राम / डीएल के बराबर या उससे कम ग्लाइकोसिलेटेड हीमोग्लोबिन (एचबीए 1 सी) 5.7 प्रतिशत और 6.4 प्रतिशत के साथ शुरूआती मधुमेह (pre-diabetic) था
• स्कूली बच्चों और किशोरों में एक प्रतिशत फासटिंग प्लाज्मा ग्लूकोज> 126 मिलीग्राम / डीएल मधुमेह से ग्रसित थे.
• तीन प्रतिशत स्कूली बच्चों और 4 प्रतिशत किशोरों में हाई टोटल कोलेस्ट्रॉल (200 मिलीग्राम / डीएल से अधिक या बराबर) और उच्च कम घनत्व वाले लिपोप्रोटीन (एलडीएल) (130 मिलीग्राम / डीएल से अधिक या बराबर) था.
• स्कूली बच्चों के एक-चौथाई (26 प्रतिशत) और 28 प्रतिशत किशोरों में उच्च-घनत्व वाले लिपोप्रोटीन (एचडीएल) (<40 mg / dl) पाए गए.
• स्कूली उम्र के बच्चों में से एक तिहाई (34 प्रतिशत) (100 मिलीग्राम / डीएल से अधिक) और 16 प्रतिशत किशोरों (130 मिलीग्राम / डीएल से अधिक या उससे अधिक) में हाई सीरम ट्राइग्लिसराइड्स पाए गए.
• स्कूली उम्र के बच्चों और किशोरों में सात प्रतिशत क्रोनिक किडनी रोग (सीरम क्रिएटिनिन> 0.7 मिलीग्राम / डीएल के लिए 5-12 साल और> 1.0 मिलीग्राम / डीएल 13 वर्ष से अधिक या बराबर) के जोखिम से ग्रसित थे.
• पांच प्रतिशत किशोरों को उच्च रक्तचाप (सिस्टोलिक रक्तचाप> 139 mmHg या डायस्टोलिक रक्तचाप> 89 mmHg) का शिकार पाया गया.
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[inside]भुखमरी और कुपोषण की दशा पर केंद्रित अर्बन हंगामा( Urban HUNGaMA) रिपोर्ट[/inside] नंदी फाउंडेशन ने फरवरी 2018 में जारी की. यह रिपोर्ट देश की सर्वाधिक आबादी वाले शहरों मुंबई, दिल्ली, बंगलुरु, हैदराबाद, अहमदाबाद, चेन्नई, कोलकाता, सूरत, पुणे और जयपुर में हुए एक सर्वेक्षण पर आधारित है. सर्वेक्षण में जानने की कोशिश की गई कि 0-59 माह के बच्चोंके पोषण की स्थिति कैसी है. जिन शहरों में सर्वेक्षण हुआ उनमें समवेत रुप से देखें तो देश की आबादी का 5.3 फीसद तथा 0-71 माह के बच्चों का 4.1 प्रतिशत हिस्सा रहता है.
सर्वेक्षण में कुल 12,286 माताओं का साक्षात्कार लिया गया तथा 0-59 माह के कुल 14,616 बच्चों का लंबाई और भार के लिहाज से आकलन हुआ.
अर्बन हंगामा रिपोर्ट: न्यूट्रीशन एंड द सिटी के मुख्य तथ्य :
मूल रिपोर्ट के लिए यहां क्लिक करें
• जन्म के समय कम वजन(2.5 किलोग्राम से कम) वाले बच्चों की तादाद 15.7 प्रतिशत पायी गई. हैदराबाद में ऐसे बच्चों की तादाद 13.5 प्रतिशत है तो कोलकाता में 25.1 प्रतिशत.
• पांच साल से कम उम्र के कुल 22.3 प्रतिशत बच्चे लंबे वक्त से कुपोषण का शिकार होने के कारण स्टटिंग के शिकार हैं. कुल 7.6 प्रतिशत बच्चों में स्टटिंग की स्थिति को अत्यंत गंभीर माना जा सकता है.
• स्टटिंग के शिकार बच्चों की संख्या चेन्नई में 14.8 प्रतिशत थी जबकि दिल्ली में 30.6 प्रतिशत. जिन परिवारों में बच्चों की माताओं की स्कूली शिक्षा पांच साल या इससे कम है उनमें स्टटिंग की चपेट में आये बच्चों की संख्या ज्यादा(35.3 प्रतिशत) है जबकि 10 साल या इससे ज्यादा समय की स्कूली शिक्षा वाली माताओं वाले परिवारों में ऐसे बच्चों की तादाद कम(16.7 प्रतिशत) है.
• आर्थिक संपदा के लिहाज से जो परिवार श्रेणीक्रम में सबसे निचले स्तर पर हैं उन परिवारों में स्ट्टिंग के शिकार बच्चों की संख्या( 29.3 प्रतिशत) आर्थिक संपदा के लिहाज से सबसे ऊपरली श्रेणी के परिवारों की तुलना में ज्यादा है.(ऊपरली श्रेणी के परिवारों में स्ट्टिंग के शिकार बच्चों की संख्या 15.0 प्रतिशत)
• लगभग 13.9 प्रतिशत बच्चे वेस्टिंग के शिकार हैं. 3.2 प्रतिशत बच्चों में वेस्टिंग की स्थिति अत्यंत गंभीर मानी जा सकती है.
• जयपुर में वेस्टिंग के शिकार बच्चों की संख्या 10.8 प्रतिशत है तो मुंबई में 19.0 प्रतिशत.
• स्टटिंग की ही तरह वेस्टिंग के मामले भी उन परिवारों में ज्यादा हैं जहां माताओं की स्कूली शिक्षा कम सालों तक हुई है. जिन परिवार के माताओं की स्कूली शिक्षा पांच साल या इससे कम समय तक हुई है उन परिवारों में वेस्टिंग के शिकार बच्चों की संख्या 17.6 प्रतिशत है जबकि जिन परिवारों में माताओं की स्कूली शिक्षा 10 साल या उससे ज्यादा समय तक हुई है उन परिवारों में वेस्टिंग के शिकार बच्चों की संख्या 12.2 प्रतिशत है. आर्थिक श्रेणीक्रम में सबसे निचली सीढ़ी के परिवारों में वेस्टिंग के शिकार बच्चों की संख्या 16.7 प्रतिशत है जबकि आर्थिक श्रेणीक्रम में सबसे ऊपरली सीढ़ी के परिवारों में 10.5 प्रतिशत.
• मानक से ज्यादा भार के बच्चों की तादाद 2.4 प्रतिशत है. हैदराबाद में ऐसे बच्चों की तादाद 0.7 प्रतिशत है तो चेन्नई में 3.7 प्रतिशत.
• आर्थिक श्रेणीक्रम में सबसे ऊपरली सीढ़ी के परिवारों में मानक से ज्यादा भार वाले बच्चों की तादाद 3.6 प्रतिशत है जबकि आर्थिक श्रेणीक्रम में सबसे निचली सीढ़ी के परिवारों में ऐसे बच्चों की तादाद 1.8 प्रतिशत है.
• देश की सबसे ज्यादा आबादी वाले 10 शहरों में हर 4 बच्चे में 1 बच्चा लंबे समय से कुपोषण का शिकार चलाआ रहा है और इस कारण उसका शारीरिक विकास सामान्य सेकम हुआ है.
• देश के दस सर्वाधिक आबादी वाले शहरों में केवल 22.5 प्रतिशत (यानि चार बच्चों में एक से भी कम) बच्चों को ही वैसा भोजन मिल पाता है जो उनके सेहतमंद शारीरिक विकास के लिए जरुरी है.
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[inside]नेशनल फैमिली हैल्थ सर्वे-4 के आंकड़ों के अनुसार भारत में स्टटिंग और वेस्टिंग के शिकार बच्चों की संख्या[/inside]–
मूल रिपोर्ट के लिए यहां क्लिक करें
राज्यवार वेस्टिंग के शिकार बच्चों का अनुपात–
देश के 29 राज्यों में मात्र 12 राज्य ऐसे हैं जहां 2005-06 से 2015-16 के बीच पांच साल या इससे कम उम्र के वेस्टिंग के शिकार बच्चों की संख्या में तुलनात्मक रुप से कमी आयी है.
2015-16 में पांच साल तक की उम्र के वेस्टिंग के शिकार बच्चों की संख्या झारखंड में सबसे ज्यादा(29 प्रति.) थी. गुजरात (26.4 प्रति.), कर्नाटक (26.1 प्रति.), मध्यप्रदेश (25.8 प्रति.), और महाराष्ट्र (25.6 प्रति.) में भी ऐसे बच्चों की तादाद 20 प्रतिशत से ज्यादा है.
मिजोरम में वेस्टिंग के शिकार बच्चों की तादाद आनुपातिक रुप से सबसे कम (6.1 प्रति.) कम है. जिन राज्यों में वेस्टिंग के शिकार बच्चों की संख्या 15 फीसद से कम है उनके नाम हैं मणिपुर (6.8 प्रति.), नगालैंड (11.2 प्रति.), जम्मू-कश्मीर (12.1 प्रति.), और हिमाचल प्रदेश (13.7 प्रति.).
एनएफएचएस-4 के नये आंकड़ों से यह भी जाहिर होता है कि वेस्टिंग के शिकार बच्चों की संख्या ग्रामीण इलाकों (21.5 प्रति.) में शहरों(20.0 प्रति.) की तुलना में ज्यादा है.
राज्यवार अंडरवेट बच्चों की संख्या–
दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र को छोड़कर बाकी सभी 28 राज्यों में एनएफएचएस-3 की तुलना में एनएफएचएस-4 में अंडरवेट बच्चों की संख्या में कमी आई है.
2015-16 में झारखंड में अंडरवेट बच्चों की संख्या सबसे ज्यादा (47.8 प्रति.) थी. बिहार (43.9 प्रति.), मध्यप्रदेश (42.8 प्रति.), उत्तरप्रदेश (39.5 प्रति.), और गुजरात (39.3 प्रति.) में भी अंडरवेट बच्चों की संख्या तुलनात्मक रुप से ज्यादा है.
मिजोरम में अंडरवेट बच्चों की संख्या का अनुपात सबसे कम (11.9 प्रति.) है. मणिपुर (13.8 प्रति.), सिक्किम (14.2 प्रति.), केरल (16.1 प्रति.) और जम्मू-कश्मीर (16.6 प्रति.) में भी अंडरवेट बच्चों की संख्या झाऱखंड की तुलना में कम से कम तीन गुणा कम है.
एनएफएचएस-4 के आंकड़ों से यह भी जाहिर होता है कि ग्रामीण इलाकों में अंडरवेट बच्चों की संख्या का अनुपात (38.3 प्रति.) शहरी इलाकों (29.1 प्रति.) की तुलना में ज्यादा है.
राज्यवार स्टटिंग के शिकार बच्चों की संख्या–
सभी 29 राज्यों में स्टटिंग के शिकार बच्चों की संख्या में एनएफएचएस-3 की तुलना में एनएफएचएस-4 में कमी आई है.
2015-16 में स्टटिंग के शिकार बच्चों की सबसे ज्यादा तादाद बिहार (48.3 प्रतिशत) में पायी गई. यूपी((46.3 प्रति.), झारखंड (45.3 प्रति.), मेघालय (43.8 प्रति.), और मध्यप्रदेश (42.0 प्रति.) में भी स्टंटिंग के शिकार बच्चों की संख्या राष्ट्रीय औसत से ज्यादा है.
केरल में स्टंटिंग के शिकार बच्चों की संख्या आनुपातिक रुप में सबसे कम (19.7 प्रति.) है. इसके बाद गोवा (20.1 प्रति.), त्रिपुरा (24.3 प्रति.), पंजाब (25.7 प्रति.), और हिमाचल प्रदेश (26.3 प्रति.) का स्थान है.
एनएफएचएस-4 के नये आंकड़ों से यह भी जाहिर होता है कि स्टंटिंग के शिकार बच्चों की संख्या गांवों(41.2 प्रतिशत) में ज्यादा है, शहरों में तुलनात्मक रुप से कम(31.0 प्रतिशत).
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[inside]नेशनल फैमिली हैल्थ सर्वे- 4 के नये तथ्य[/inside] के मुताबिक–
http://rchiips.org/NFHS/factsheet_NFHS-4.shtml
–नेशनल फैमिली हैल्थ सर्वे-4 के अद्यतन आंकड़ोंके मुताबिक 15-49 आयु वर्ग के 20 फीसद से तनिक ज्यादा स्त्री-पुरुषों का बीएमआई सामान्य से कम है.
–राष्ट्रीय स्तर पर देखें तो 22.9 फीसद महिलाओं और 20.2 फीसद पुरुषों(15-49 आयु वर्ग) का बीएमआई 18.5 किलोग्राम प्रतिवर्ग मीटर से कम है
—नेशनल फैमिली हैल्थ सर्वे-3 के मुताबिक साल 2005-06 में 33 फीसद महिलाओं और 28.1 प्रतिशत पुरुषों का बीएमआई सामान्य से कम था.
—कम वजन की समस्या से जूझ रही महिलाओं की संख्या सबसे ज्यादा झारखंड में है. झारखंड में 31.5 फीसद महिलाओं का बीएमआई सामान्य से कम है. इसके बाद बिहार का स्थान है जहां 30.4 फीसद महिलाओं का बीएमआई सामान्य से कम है. मध्यप्रदेश(28.3 प्रतिशत), गुजरात(27.2 प्रतिशत) और राजस्थान(27.0 प्रतिशत) में भी कम वजन की समस्या से जूझ रही महिलाओं की संख्या बहुत ज्यादा है.
—सामान्य से कम बीएमआई की महिलाओं की सबसे कम संख्या सिक्किम में है. यहां 6.4 फीसद महिलाओं का बीएमआई सामान्य से कम है. इसके बाद मिजोरम(8.3 प्रतिशत), अरुणाचल प्रदेश(8.5 प्रतिशत), मणिपुर(8.8 प्रतिशत) और केरल(9.7 प्रतिशत) का स्थान है.
—तुलनात्मक रुप से देखें तो 2015-16 में मध्यप्रदेश में सामान्य से कम बीएमआई वाले पुरुषों की संख्या सबसे ज्यादा(28.4 प्रतिशत) है. इसके बाद उत्तरप्रदेश(25.9 प्रतिशत), बिहार(25.4 प्रतिशत), गुजरात(24.7 प्रतिशत) और छतीसगढ़(24.1 प्रतिशत) का स्थान है.
—सामान्य से कम बीएमआई वाले पुरुषों की सबसे कम संख्या सिक्किम में है. यहां केवल 2.4 फीसद पुरुषों का बीएमआई सामान्य से कम है. इसके बाद मिजोरम(7.2 प्रतिशत), अरुणाचल प्रदेश(8.3 प्रतिशत) और गोवा(10.8 प्रतिशत) का स्थान है.
—सामान्य से कम बीएमआई वाले स्त्री-पुरुषों के बीच सबसे ज्यादा अन्तर वाला राज्य झारखंड है. इसके बाद ओड़ीशा, असम और बिहार, हरियाणा तथा महाराष्ट्र का स्थान है.
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[inside]IFPRI द्वारा प्रस्तुत 2015 ग्लोबल न्यूट्रीशन रिपोर्ट: एक्शन एंड अकाउंटबिलिटी टू एडवांस न्यूट्रीशन एंड सस्टेनेबल डेवलपमेंट[/inside]( सितंबर 2015 में जारी) नामक दस्तावेज के अनुसार :
http://www.im4change.org/siteadmin/tinymce//uploaded/global%20nutrition%20report%202015.pdf
• साल 2013-14 में राष्ट्रीय स्तर पर कराये गये एक नये सर्वेक्षण रैपिड सर्वे ऑन चिल्ड्रेन के अनुसार स्टंटिंग के शिकार बच्चों की संख्या 48 प्रतिशत से घटकर 39 प्रतिशत हो गई है.
• आरएसओसी सर्वेक्षण के आंकड़ों से पता चलता है 2006 से 2014 के बीच बच्चों के कुपोषण के मामले में(उम्र और लंबाई के मानक के हिसाब तथा उम्र और वज़न के मानक के हिसाब से) तकरीबन सभी राज्यों में कमी आई है तथा इसी अवधि में नवजात शिशुओं को स्तनपान कराने की परिघटना में बढ़ोत्तरी हुई है.
• बिहार, झारखंड और उत्तरप्रदेश में साल 2006 से 2014 के बीच बच्चों के कुपोषण के मामले में प्रगति धीमी रही है.
• ज्यादातर राज्यों में बच्चों के कुपोषण(उम्र और लंबाई के मानक के हिसाब से) से कमी आई है लेकिन सभी राज्यों के साथ ऐसा समान रुप से नहीं हुआ है। अरुणाचलप्रदेश, महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, गोवा तथा मिजोरम में बच्चों के कुपोषण(वेस्टिंग- उम्र और लंबाई के मानक के हिसाब से) से बढ़ोत्तरी हुई है, भले ही अरुणाचलप्रदेश तथा महाराष्ट्र में यह बढ़ोत्तरी नाम-मात्र की हुई है.
• इन आंकड़ों को तनिक सावधानीपूर्वक पढ़ने की जरुरत है क्योंकि बच्चों के कुपोषण के दो प्रकारों वेस्टिंग( वज़न और लंबाई के मानक के हिसाब से) और स्टंटिंग( उम्र और लंबाई के मानकके हिसाब से) के आंकड़ों में क्षेत्रवार बहुत ज्यादा भिन्नता है. इसबात के लिए और शोध की जरुरत है कि वेस्टिंग को कम करने में रफ्तार क्षेत्रवार इतनी ज्यादा असमान क्यों प्रतीत हो रही है.
• अखिल भारतीय स्तर पर शिशुओं को स्तनपान कराने की दर 34 प्रतिशत से बढ़कर 62 प्रतिशत हो गई है. साल 2005-06 में केवल पाँच राज्य स्तनपान की दर 60 प्रतिशत या इससे अधिक थी लेकिन अब 17 राज्यों स्तनपान की दर 60 प्रतिशत से ज्यादा है. यह भी महत्वपूर्ण तथ्य है कि 2005-06 में जिन राज्यों में स्तनपान की दर कम थी वहां भी स्तनपान की दर 60-70 प्रतिशत हो गई है.
• बिहार स्तनपान की दर के मामले में 2005-2006 में सबसे नीचे था लेकिन अब वहां स्तनपान की दर में चार गुने की बढ़ोत्तरी हुई है और बिहार देश के 16 राज्यों से ऊपर आ गया है.
• मोटापे जनित कुपोषण(लड़के और लड़कियों दोनों के लिए) 2010 के 4.0 प्रतिशत से बढ़कर 2014 में 4.9 प्रतिशत हो गया है. लड़कों के लिए मोटापाजनित कुपोषण में बढ़त 2010 के 2.5 प्रतिशत से बढ़कर 2014 में 3.2 प्रतिशत हुई है जबकि महिलाओं के लिए इस अवधि में यह बढ़त 5.6 प्रतिशत से आगे आकर 6.7 प्रतिशत हुई है.
• यह बात ध्यान में रखी जानी चाहिए कि बच्चों की लंबाई उनके जन्म के महीने के हिसाब से बहुत ज्यादा विभिन्नता धारण करती है. जिन बच्चों का जन्म दिसंबर में होता है उनकी तुलना में गर्मी और बारिश के महीनों में जन्म लेने वाले बच्चों की लंबाई अपेक्षाकृत कम होती है.
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[inside]पब्लिक अकाऊंटस् कमिटी (2014-15) रिपोर्ट ऑन इंटीग्रेटेड डेवलपमेंट सर्विसेज[/inside] के तथ्यों के अनुसार
http://www.im4change.org/siteadmin/tinymce//uploaded/Public%20Accounts%20Commitee%20report%20on%20ICDS.pdf
समेकित बाल विकास कार्यक्रम के बारे में लोक लेखा समिति के प्रमुख तथ्य
आँगनबाड़ी केंद्रों के संचालित ना होने के बारे में लोक लेखा समिति की रिपोर्ट में तीन प्रमुख कारण बताये गये हैं- अदालती मुकदमे, केंद्रों के संचालन से संबंधित वित्तीय प्रक्रिया तथा आंगनबाड़ी कर्मियों और सहायकों की नियुक्ति में विलंब।
महिला एवं बाल विकास मंत्रालय द्वारा प्रदत्त सूचना के अनुसार समेकित बाल विकास कार्यक्रम में 31 दिसंबर 2013 तक बाल विकास परियोजना पदाधिकारी के 3209 पद, पर्यवेक्षक के 19831 पद तथा आंगनबाड़ी कार्यकर्ता के 114368 पद खाली थे।
सुप्रीम कोर्ट ने 13 दिसंबर 2006 को आदेश दिया था कि अनुसूचित जाति, जनजाति की बसाहटों में प्राथमिकता के आधार पर आंगनबाड़ी केंद्र खोले जायें लेकिन आदेश के 8 साल बाद केवल 19 राज्य़ ही इसके अनुकूल आचरण कर पाये हैं। पूरी अवधि में महिला और बाल विकास मंत्रालय ने इस मोर्चे पर सक्रियता नहीं दिखायी और राज्यों से सूचना हासिल होने का इंतजार करती रही।
महिला एवं बाल विकास मंत्रालय या फिर राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों द्वारा अभी तक ऐसा कोई सर्वेक्षण नहीं करवाया जा सका है जिससे पता चले कि अनुसूचित जाति, जनजाति अथवा अल्पसंख्यक समुदाय की सारी बसाहटों में आंगनबाड़ी केंद्र संचालित हो रहे हैं या नहीं।
महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के पास इस बात की कोई पक्की सूचना नहीं है कि कितनी बसाहटों में समेकित बाल विकास कार्यक्रम के अंतर्गत केंद्र खुले हैं। राज्यों द्वारा सूचना ना भेजना मंत्रालय के पास जानकारी ना होने की प्रमुख वजह है।
सुप्रीम कोर्ट नें ताकीद की थी कि अगर आंगनबाड़ीकेंद्र से वंचित कोई ग्रामीण समुदाय जहां कम से कम 40 बच्चे 6 साल से कम उम्र के हों आंगनबाड़ी केंद्र खोलने की मांग करता है तो उसे मांग के तीन महीने के अंदर आंगनबाड़ी केंद्र प्रदान किया जाय। हालांकि महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने समेकित बाल विकास कार्यक्रम के तीसरे चरण में ऐसी मांग वाले कुल 20 हजार आंगनबाड़ी केंद्रों की स्थापना की मंजूरी दी लेकिन लोक लेखा समिति ने अपनी रिपोर्ट में पाया कि साल 2011-12 में मंत्रालय द्वारा छह राज्यों में केवल 20130 मांग आधारित आंगनबाड़ी केंद्रों को अनुमोदित किया गया।
महिला एवं बाल विकास मंत्रालय द्वारा प्रदान की गई सूचना के अनुसार आंगनबाड़ी केंद्रों में वज़न के लिहाज से मापे गये बच्चों में सामान्य वज़न के बच्चों की संख्या 31 मार्च 2007 के 49.9% प्रतिशत से बढ़कर 31 मार्च 2011 को 58.84% और 31 दिसंबर 2013 को 71.62% हो गई है।
लोक लेखा समिति की रिपोर्ट के अनुसार समेकित बाल विकास कार्यक्रम का 7067 पूर्ण रुप से संचालित परियोजनाओं तथा 13.42 लाख आंगनबाड़ी केंद्रों के जरिए संचालन किया जा रहा है। यह संख्या मार्च 2014 की है। समेकित बाल विकास कार्यक्रम की सेवाएं 1045.08 लाख लाभार्थियों को दी जा रही हैं जिसमें 849.40 लाख बच्चे 6 साल से कम उम्र के हैं जबकि 195.68 लाख संख्या गर्भवती और दूध पिलाने वाली माताओं की है। 3-6 साल की उम्र के तकरीबन 370.7 लाख बच्चों को प्रीस्कूल शिक्षा दी जा रही है जिसमें लड़कों की संख्या 188.19 लाख और लड़कियों की संख्या 182.51 लाख है।
समेकित बाल विकास कार्यक्रम के अंतर्गत छह तरह की सेवाएं प्रदान की जाती हैं। इसके अंतर्गत पूरक पोषाहार, टीकाकरण, रेफरल सेवा, स्वास्थ्य जांच, प्रीस्कूल अनौपचारिक शिक्षा तथा स्वास्थ्य एवं पोषण से संबंधित शिक्षा की सेवा आंगनबाड़ी केंद्रों द्वारा प्रदान की जाती है।
महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने साल 2011 में आंगनबाड़ियों से संबंधित दिशानिर्देश जारी किए थे। दिशानिर्देशों में कहा गया था कि आंगनबाड़ी केंद्रों में महिलाओं और बच्चों के बैठने के लिए अलग से कमरा होना चाहिए, रसोईघर अलग से होना चाहिए, खाद्य-पदार्थ के संग्रह के लिए भंडारघर होना चाहिए, बच्चों की सुविधा के अनुकूल शौचालय होना चाहिए, बच्चों के खेलने के लिए अलग से जगह होनी चाहिए साथी ही स्वच्छ पेयजल की व्यवस्था होनी चाहिए।
सीएजी की रिपोर्ट के आधार पर लोक लेखा समिति की रिपोर्ट में कहा गया है कि कुल 2701 आंगनबाड़ी केंद्रों को नमूने के तौर पर जांचने के बाद पाया गया कि 866 आंगनबाड़ी केंद्र अपने विहित स्थान से कहीं और किसी प्राइमरी स्कूल या किराये की जगह पर चल रहे हैं और अगर स्कूल चल रहे हों तो आंगनबाड़ी केंद्रों को खुली जगह पर चलाया जा रहा है।विभिन्न राज्यों में नमूने के तौर पर जांचे गये 40 से 60 प्रतिशत आंगनबाड़ी केंद्रों में अलग से भंडारघर, रसोईघर या खेलने-कूदने की जगह नहीं थी।
लोक लेखा समिति की रिपोर्ट में कहा गया है कि जांचे गये आंगनबाड़ी केंद्रों में से 52 प्रतिशत आंगनबाड़ी केंद्रों में शौचालय नहीं था जबकि 32 प्रतिशत आंगनबाड़ी केंद्रों में स्वच्छ पेयजल की व्यवस्था नहींथी।
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इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट की [inside]ग्लोबल फूड पॉलिसी रिपोर्ट 2014-15[/inside] केतथ्यों के अनुसार
http://www.im4change.org/news-alerts/miles-to-go-for-achieving-food-security-4675677.html
ग्लोबल फूड पॉलिसी रिपोर्ट 2014-15 के मुख्य तथ्य :
• विश्व में 57 करोड़ फार्मस् हैं। इसमें तकरीबन तीन चौथाई फार्मस् एशिया में है और इसका 60 प्रतिशत हिस्सा सिर्फ चीन तथा भारत में है।
• भारत केन्या तथा जांबिया के साक्ष्यों से पता चलता है कि मूल्यों में स्थिरता लाने के लिए राष्ट्रीय रिजर्व प्रभावकारी हो सकता है।
• भारत में फल और सब्जियों का थोक मूल्य साल 2012-13 की तुलना में साल 2013-14 में 23 प्रतिशत ज्यादा था।
• भारत और चीन में आर्थिक वृद्धि की रफ्तार तेज है लेकिन दोनों देशों में भुखमरी और कुपोषण के शिकार लोगों की तादाद ज्यादा है जबकि मैक्सिको और ब्राजील जैसी अर्थव्यवस्था में लोग ज्यादा वज़न तथा मोटापा जैसी समस्याओं से पीड़ित हो रहे हैं।
• सूक्ष्म पोषाहार(माइक्रो न्यूट्रीएन्टस्) की कमी की वजह से भारत को अपनी जीडीपी के 3 प्रतिशत का नुकसान उठाना पड़ता है।
• ब्राजील, चीन, भारत, इंडोनेशिया और मैक्सिको जैसे देशों में निरंतर भोजन की कमी से जूझ रहे लोगों की संख्या में कमी लाने के लगातार प्रयास किए गए हैं। इन प्रयासों के बावजूद समावेशी विकास को जारी रखना मुश्किल साबित हो रहा है। भोजन की कमी से जूझ रही विश्व की कुल आबादी का तकरीबन पचास प्रतिशत(36 करोड़ 60 लाख) हिस्सा इन्हीं देशों में है।
• भारत में साल 2004-06 में कुपोषण की शिकार आबादी की संख्या 21.5 प्रतिशत थी जो साल 2011-13 में घटकर 17 प्रतिशत हो गई है। ठीक इसी तरह साल 2004-05 में मानक से कम वज़न के बच्चों(पाँच साल से कम उम्र के) की तादाद भारत में 43.5 प्रतिशत थी जो साल 2011-13 में घटकर 30.7 प्रतिशत हो गई है।
• विश्व में खुले में शौच करने वाले कुल लोगों की संख्या का 60 प्रतिशत हिस्सा भारत में रहता है। साफ-सफाई और पोषण की स्थितियों पर इसका गहरा असर है।
• भारत के 29 राज्यों में से केवल पाँच राज्यों में खाद्य सुरक्षा अधिनियम पूरी तरह लागू किया गया है, 6 राज्यों में यह आंशिक रुप से लागू हुआ है।
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आईएफपीआरआई द्वारा तैयार [inside]ग्लोबल न्यूट्रीशन रिपोर्ट 2014[/inside]: एक्शन एंड अकाउंटबिलिटी टू एक्सीलेरेट द वर्ल्डस् प्रोग्रेस ऑन न्यूट्रीश नामक दस्तावेज के अनुसार :
http://www.im4change.org/siteadmin/tinymce//uploaded/Global%20Nutrition%20Report%202014.pdf
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• साल 2005-06 में 5 साल के कम उम्र के 47.9 प्रतिशत बच्चे स्टंटिंग के शिकार यानि मानक से कम लंबाई के थे, ऐसे बच्चों की संख्या साल 2013-14 में घटकर 38.8 प्रतिशत हो गई है। नतीजतन स्टंटिंग के शिकार बच्चों की संख्या 5.82 करोड़ से घटकर साल 2013-14 में 4.38 करोड़ रह गई है।
• साल 2005-06 में 5 साल के कम उम्र के 20.0% बच्चे वेस्टिंग के शिकार थे यानि ऐसे बच्चे का वज़न उनकी लंबाई के लिए मान्य वज़न से कम था। ऐसे बच्चों की संख्या साल 2013-14 में घटकर 15.0% हो गई है। नतीजतन स्टंटिंग के शिकार बच्चों की संख्या 2.43 करोड़ से घटकर साल 2013-14 में 1.69 करोड़ रह गई है।
• स्टंटिंग के घटने की सालाना दर 2.6 प्रतिशत है जबकि भारत के लिए वांछित सालाना दर 3.7 प्रतिशत है। लेकिन यह दर पिछले सर्वे के अनुमान( तब स्टंटिंग के घटने की दर 1.7 बतायी गई थी) से ज्यादा है।
• साल 2005-06 से 2013-14 यानि आठ सालों की अवधि में स्तनपान की परिघटना में सालाना 5.5 प्रतिशत( 46.4 से 71.6 प्रतिशत) की दर से बढोत्तरी हुई है— यह दर वर्ल्ड हैल्थअसेंबली द्वारा साल 2025 के लिए निर्धारित लक्ष्य (भारत के लिए 1.5 प्रतिशत) से ज्यादा है।
• दुनिया की सर्वाधिक आबादी वाले देशों में दूसरे नंबर पर कायम भारत से संबंधित आंकड़ों के संकेत हैं कि वह वर्ल्ड हैल्थ असेंबली द्वारा निर्धारित सूचकांकों पर अपेक्षा से कहीं अधिक तेजी से प्रगति कर रहा है। मिसाल के लिए, अगर प्रारंभिक के दौर के आंकड़ों में अगर बहुत ज्यादा परिवर्तन नहीं होता तो कहा जा सकता है कि स्टंटिंग के शिकार बच्चों की संख्या भारत में 1 करोड़ से ज्यादा की संख्या में कम की जा चुकी है।
• भारत सरकार ने बच्चों के पोषण से संबंधित एक नया सर्वेक्षण किया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन और यूनिसेफ ने अभी तक इस सर्वेक्षण के आंकड़ों तथा अपनायी गई पद्धति का पुनरावलोकन नहीं किया है। इस वजह से नये सर्वेक्षण के तथ्य विश्व स्वास्थ्य संगठन के डेटाबेस में अभी शामिल नहीं हो पाये हैं। लेकिन अगर कुपोषण से संबंधित भारत सरकार के नये आंकड़ों का अंतिम रुप भी वही रहता है जैसा कि प्रारंभिक गणना से संबंधित रिपोर्ट में है तो फिर वर्ल्ड हैल्थ असेंबली द्वारा निर्धारित लक्ष्य को हासिल करने के संदर्भ में और भी ज्यादा आशावान हुआ जा सकता है।
• महाराष्ट्र राज्य के अनुभवों से संकेत मिलते हैं कि अगर 6-12 साल तक लगातार प्रयास किए जायें तो पोषणगत स्थितियों को सुधारने में महत्वपूर्ण परिणाम हासिल किए जा सकते हैं।
• महाराष्ट्र से संबंधित एक नये राजव्यापी सर्वेक्षण (Haddad et al 2014) का निष्कर्ष है कि वहां बच्चों में स्टंटिंग की परिघटना में महज सात सालों के अंदर एक तिहाई की कमी(36.5 से 24.0 प्रतिशत) आई। वहां स्टंटिंग के घटने की सालाना दर 5.8 प्रतिशत रही। स्टंटिंग की घटना में कमी के लिए पोषणगत उपायों के अतिरिक्त, भोजन और शिक्षा की उपलब्धता की स्थिति को बेहतर बनाना तथा गरीबी और प्रजनन दर को कम करना जरुरी है।
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यूनिसेफ द्वारा प्रस्तुत [inside]इम्प्रूविंग चाइल्ड न्यूट्रीशन: द एचीवेवल इम्पीरेटिव फॉर ग्लोबव प्रोग्रेस (अप्रैल, 2013)[/inside] नामक दस्तावेज के अनुसार
http://www.unicef.org/publications/files/Nutrition_Report_final_l
o_res_8_April.pdf:
• साल 2011 तक भारत में, कुपोषण के कारण सामान्य के कम लंबाई के बच्चों की संख्या 6,17,23,000 (लगभग 6.17 करोड़) थी यानि विश्व में कुपोषण के कारण जिन बच्चों की लंबाई सामान्य से कम है, उनकी कुल संख्या का 37.9 फीसदी