लघु ऋण

खास बात

  • फिलहाल ३६ फीसदी ग्रामीण परिवार परिवार सांस्थानिक कर्जे के दायरे से बाहर हैं यानी सांस्थानिक कर्जे तक इनकी पहुंच नहीं है।*
  • अगर प्रति परिवार दो हजार की सालाना रकम को आधार मानें तो ग्रामीण इलाके के गरीब परिवारों के लिए सालाना १५००० करोड़ रुपये के कर्जे की जरुरत होगी।*
  • बड़े बैंकों और क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की ३३००० हजार शाखाएं गंवई इलाकों में और १४००० शाखाएं कस्बाई इलाकों में हैं। सहकारी बैंकों की ९४००० शाखाएं हैं। इन्हीं के माध्यम से ग्रामीण परिवारों को वित्तीय जरुरत पड़ने पर सेवा हासिल होती है।**
  • भारत सरकार का गरीबी उन्मूलन का मुख्य कार्यक्रम समेकित ग्रामीण विकास कार्यक्रम कहलाता है। यह लघु ऋण का विश्व का सबसे बड़ा कार्यक्रम है।***
  • द माइक्रो फाइनेंशियल सिस्टम(डेवलपमेंट एंड रेग्युलेशन) बिव के दो मुख्य उद्देश्य हैं-(क)छोटे कर्जों को बढ़ावा देना और उनकी निगरानी करना, (ख) छोटे कर्जे देने वाली संस्थाओं को अपने ग्राहकों से रकम वसूलने की अनुमति देना।***

* सा-धन द्वारा प्रस्तुत इमर्जेंस ऑव एमएफआई एंड द ग्रोथ ऑव माइक्रो फाइनेंस सेक्टर इन इंडिया नामक दस्तावेज।
** साधन द्वारा प्रस्तुत मैक्रो एन्वायरन्मेंट एंड रेग्युलेटरी फ्रेमवर्क, (२००२) नामक दस्तावेज
***एम-क्राइल द्वारा प्रस्तुत बेस्ट प्रैक्टिसेज फाव्लोड बाई लीडिंग एमएफआई नामक दस्तावेज
**** पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च, सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च, चाणक्यपुरी, नई दिल्ली

 

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सा-धन द्वारा प्रस्तुत [inside]इमर्जेंस ऑव एमएफआई एंड द ग्रोथ ऑव माइक्रो फाइनेंस सेक्टर इन इंडिया[/inside] नामक दस्तावेज के अनुसार-
http://sa-dhan.net/Adls/Microfinance/Reports/EmergenceofMFIs.doc

 

  • अनुमानतः देश में गरीब परिवारों की संख्या साढ़े सात करोड़ है। इसमें छह करोड़ परिवार ग्रामीण इलाकों में और डेढ़ करोड़ परिवार शहरी इलाकों में रहते हैं।अगर प्रति परिवार दो हजार की सालाना रकम को आधार मानें तो ग्रामीण इलाके के गरीब परिवारों के लिए सालाना १५००० करोड़ रुपये के कर्जे की जरुरत होगी।
  • एक अनुमान यह भी लगाया गया है कि अगर ग्रामीण इलाके के गरीब परिवार सालाना ६ हजार रुपये और शहरी इलाके के गरीब परिवार सालाना ९ हजार रुपये का कर्ज लेते हैं तो कुल कर्जे की सालाना जरुरत ५०००० करोड़ रुपये की होगी। इस आकलन में आवास निर्माण पर होने वाले खर्चे से उत्पन्न जरुरत का आकलन नहीं किया गया है।
  • फिलहाल ३६ फीसदी ग्रामीण परिवार परिवार सांस्थानिक कर्जे के दायरे से बाहर हैं यानी सांस्थानिक कर्जे तक इनकी पहुंच नहीं है।

सा-धन द्वारा प्रस्तुत मैक्रो एन्वायरन्मेंट एंड रेग्युलेटरी फ्रेमवर्क, (२००२) नामक दस्तावेज,
http://sa-dhan.net/Adls/Microfinance/Reports/MacroEnvironmentandLegal.doc

 

 

  • बड़े बैंकों और क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की ३३००० हजार शाखाएं गंवई इलाकों में और १४००० शाखाएं कस्बाई इलाकों में हैं। सहकारी समितियों की ९४००० शाखाएं हैं। इन्हीं के माध्यम से ग्रामीण परिवारों को वित्तीय जरुरत पड़ने पर सेवा हासिल होती है।
  • छोटे कर्जों के लेन-देन का मुख्य साधन स्व-सहायता समूह हैं। ये बचत करने और कर्जे के लेन देन में लगी अनौपचारिक संस्थाएं हैं। इनसे लगभग चालीस लाख ग्राहक जुड़े हुए हैं।
  • पिछले बीस-पच्चीस सालों में सेवा(एसईडब्ल्यूए) बैंक और कुछ स्वयंसेवी संस्थाओं के प्रयास से कई संस्थाएं छोटे कर्जे के बाजार में उतरीं हैं। शहरी सहकारी बैंक, गैर-बैंकिंग फाइनेस कंपनी और सेक्शन-२५ के अन्तर्गत आने वाली कंपनियां भी गरीबों को छोटे कर्जे की सुविधा प्रदान करती हैं। भारतीय रिजर्व बैंकके दिशा निर्देशों के अनुसार १९९६ में स्थानीय स्तर पर कुछ बैंक कायम किये गए जिनका दायरा दो-तीन जिलों तक सीमित है। ये बैंक ग्रमीण इलाकों में बैंकिग व्यवस्था को मजबूती देने के लिए कायम किए गए हैं।

 

 

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एम-क्राइल द्वारा प्रस्तुत [inside]बेस्ट प्रैक्टिसेज फाव्लोड बाई लीडिंग एमएफआई[/inside] नामक दस्तावेज
http://sa-dhan.net/Adls/Microfinance/BP/BestPractices.pdf

  • भारत सरकार का गरीबी उन्मूलन का मुख्य कार्यक्रम समेकित ग्रामीण विकास कार्यक्रम कहलाता है। यह लघु ऋण का विश्व का सबसे बड़ा कार्यक्रम है। इसके अन्तर्गत व्यवसायिक बैकों के माध्यम से गरीबों को १५ हजार रुपये से कम की करकम कर्जे के रुप देना शामिल है। पिछले बीस सालों में इस कार्यक्रम के अन्तर्गत साढ़े पांच करोड़ परिवारों को २५० अरब रुपये की रकम कर्जे के रुप में दी गई है।
  • समेकित ग्रामीण विकास कार्यक्रम की रचना इस तरह की गई है कि कर्जे के रुप में दी गई रकम का २५ से ५० फीसदी हिस्सा इनुदान के रुप में परिगणित होता है। नतीजतन इस कार्यक्रम में धन का दुरुपयोग हुआ है और कदाचार की घटनाएं आम हैं।
  • शुरुआती दौर में कई स्वयंसेवी माइक्रो फाइनेंस संस्थाओं (एमएफआई) को दाताहाल के माध्यम से छोटे कर्ज देने की व्यवस्था की गई। हाल के सालों में नाबार्ड, सिडबी और राष्ट्रीय महिला कोष जैसी छह संस्थाओं के माध्यम से माइक्रो फाइनेंस संस्थाओं को थोक में कर्ज प्रदान किया जा रहा है ताकि वे छोटे कर्जे की प्रणाली में योगदान करें।

छोटे कर्जे की जरुरत

[inside]माइक्रो क्रेडिट रेटिंग इंटरनेशनल लिमिटेड के दस्तावेज के अनुसार[/inside]- 
http://www.m-cril.com/pdf/M-CRIL-Review-of-Rural-Banking-in-India–Working-Paper-1.pdf

 

 

  • खुलेपन की नीति के तहत भारत के वित्तीय क्षेत्र में बड़े पैमाने पर बदलाव  हुए हैं। वित्तीय सेवाओं में बड़े पैमाने पर बढ़ोतरी हुई है। इसके बावजूद आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा वित्तीय सेवाओं से महरुम है।
  • विश्व बैंक द्वारा साल २००३ में रुरल फाइनेन्शियल सर्वे करवाया गया। इस सर्वेक्षण का आकलन है कि उत्तरप्रदेश और आंध्रप्रदेश के ५९ फीसदी ग्रामीण परिवारों के पास किसी किस्म का औपचारिक बैंकिंग बचत खाता नहीं है और ७९ फीसदी ग्रामीण परिवारों की पहुंच कर्ज देने वाले औपचारिक संस्थानों तक नहीं है।
  • ८७ फीसदी सीमांत किसानों और ७० फीसदी छोटे किसानों को कर्ज की सांस्थानिक व्यवस्था से कर्ज का लाभ नहीं मिल पाता। सीमांत किसानों में ७० फीसदी और छोटे किसानों में ४५ फीसदी के पास कोई औपचारिक बचत खाता नहीं है।
  • भारतीय वित्तीय व्यवस्था के अन्तर्गत ग्रामीण बैंकों की भूमिका महत्त्वपूर्ण है लेकिन इसे प्रयाप्त नहीं कहा जा सकता । क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक जिला केंद्रित बैंकों को एक साथ रखकर देखें तो इनकी संख्या मार्च २००७ में कुल बैंक शाखाओं(लगभग ८७ हजार) के बीच ३२ फीसदी बैठती है।
  • ग्रामीण और अर्ध-ग्रामीण बैंकिंग नेटवर्क में व्यवसायिक बैंकों का योगदान(कुल का ३८ फीसदी) क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की(कुल का ३८ फीसदी) तुलना में ज्यादा है।
  • ग्रामीण क्षेत्रों में व्यावसायिक बैंकों का योगदान भले ही महत्त्वपूर्ण हो लेकिन ये बैंक समाज के गरीब तबके की सेवा करने के इच्छुक नहीं हैं और न ही ये बैंक समाज के गरीब तबके की वित्तीय जरुरतों को पूरा कर पा रहे हैं। तुलनात्मक रुप से देखेंतो२६ फीसदी खेतिहर कर्जा किसानों को क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों से हासिल होता है और दस्तकारी या फिर कुटीर उद्योगों को चलाने के लिए लिए जाने वाले कर्जे में  क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों का हिस्सा ५५ फीसदी है।
  • इन आंकड़ों से जाहिर होता है कि क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक चाहे व्यावसायिक बैंकों की तुलना में ग्रामीण इलाके में कम योगदान कर रहे हों लेकिन समाज के वंचित तबके तक इनकी पहुंच ज्यादा है क्योंकि ज्यादा आमदनी वाले परिवारों की तुलना में कम आमदनी वाले परिवारों में कर्ज की छोटी रकम की जरुरत होती है और कम आमदनी वाले परिवारों के कर्जे की जरुरत सबसे ज्यादा क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक पूरा करते हैं।
  • सालों से क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक के साथ भारतीय बैंकिंग व्यवस्था में सातेलेपन का बरताव हुआ है। सहकारी कर्जे की प्रणाली और क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकिग की व्यवस्था को कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ा और १९९० के दशक में ये दोनों ही पंगु हो उठे। इन्हें इस वक्त बाहर से पूंजी लेने की जबर्दस्त जरुरत पड़ी। हालांकि साल २००० के बाद से कर्ज देने की इस सांस्थानिक व्यवस्था की संहत कुछ सुधरी है। ८५ फीसदी क्षेत्रीय ग्रामीण बैक और ७५ फीसदी सहकारी बैंक अब लाभ में चल रहे हैं। क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की सेहत तो काफी कुछ सुधर तली है लेकिन जिला स्तर पर कर्द देने के लक्ष्य से बनाई गई संस्थाओं की सेहत डांवाडोल है। ये संस्थाएं एक साल लाभ में होती है तो दूसरे साल घाटे में। मार्च २००३ के आंकड़े कहते हैं कि ३६७ जिला केंद्रित बैंकों में से १४४ की जमा पूंजी डूब गई।
  • सहकारी तौर पर कर्ज देने की जो व्यवस्था कायम की गई है उसे खत्म करने के बजाय उसे सुधारना कहीं ज्यादा श्रेयस्कर है- यह सोचकर भारत सरकार एशियन डेवलपमेंट बैंक, विश्व बैंक तथा विकास के मद में कर्ज देने वाले अन्य बड़े बैंकों से कर्ज मांगा ताकि सहकारी कर्जे की व्यवस्था को सुधारा जा सके। भारत सरकार के साथ हुए समझौते के अनुसार एशियन डेवलपमेंट बैंक, विश्व बैंक और जर्मन डेवलपमेंट बैंक ने निम्नलिखित बातें मानी हैं-
  • साल २००७-१० की अवधि के लिए एशियन डेवलपमेंट बैंक सहकारी स्तर पर दिए जाने वाले कर्जे की सांस्थानिक बनावट को मजबूत करने के लिए १ अरब डॉलर का कर्जा देगा। यह कर्जा आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, गुजरात और राजस्थान में सहकारी ऋण व्यवस्था की स्थिति को सुधारने के लिए दिया जा रहा है।
  • विश्व बैंक साल २००८-१२ के लिए ६० करोड़ डॉलर का कर्जा दे रहा है। इस कर्जे का इस्तेमाल सरकार गुजरात, हरियाणा, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में सहकारी ऋण व्यवस्था की स्थिति को सुधारने के लिए केंद्र की तरफ से दी जा रही अनुदान राशि के रुप में करेगी।
  • एशियन डेवलपमेंट बैंक के साथ जर्मन डेवलपमेंट बैंक की सहमति बनी। इस सहमति के अन्तर्गत १४ करोड़ जर्मन मार्क की रकम एशियन डेवलपमेंट बैंक के साथ जर्मन डेवलपमेंट बैंक भारत को देने के लिए तैयार हुआ है। इसमें १ करोड़ जर्मन मार्क की रकम तकनीकी सहायता के मद में मिलेगी।

ताजा हाल 

भारत में छोटे ऋण का तंत्र तेजी से फैल रहाहै लेकिन इस दायरे में ली गई सारी रकम व्यवसाय में नहीं लग रही। कई मामलों में देखा गया है कि कर्जदार अपना पिछला कर्ज चुकाने के लिए नया कर्ज ले रहा है।

 

 

 

 

  • २००,०००  — साल १९९६ में लोगों ने छोटे कर्ज लिए 
  • १ करोड़ ७० लाख ५० हजार  — साल २००६ में लोगों ने छोटे कर्ज लिए 
  • ४० लाख डॉलर  — साल १९९६ में लिए गए कर्ज का मूल्य .
  • १.३ अरब डॉलर  — साल २००६ में लिए गए कर्ज का मूल्य .
  • ७५ डॉलर  — छोटे कर्ज के तहत ली गई औसत रकम

 

 

 
आंकड़े मार्च २००६ तक के हैं।

स्रोत: माइक्रो क्रे़डिट रेटिंग इंटरनेशनल
http://www.rediff.com/money/2006/nov/10spec.htm 

क्या कहता है भारतीय रिजर्व बैंक? [inside]भारतीय रिजर्व बैंक का आकलन [/inside]
http://www.rbi.org.in/scripts/FAQView.aspx?Id=7

1. क्या है माइक्रो क्रेडिट?

माइक्रो क्रेडिट के तहत एक छोटी रकम ग्रामीण, अर्ध ग्रामीण या शहरी इलाके के गरीबों को बतौर कर्ज जीवन स्तर सुधारने और आमदनी बढ़ाने के लिए दी जाती है। इस रकम के अन्तर्गत गरीबों को कोई जरुरी आर्थिक सामान भी दिया जा सकता है। जो संस्थाएं ऐसे कर्ज मुहैया कराती हैं उन्हें माइक्रो क्रेटिड इंस्टीट्यूशन(एमएफआई) कहते हैं।

2. कितना सूद लगता है?

साल १९९१ में भारत में वित्तीय क्षेत्र में सुधार लागू किए गए। सूद की दरों में बदलाव इसका एक जरुरी हिस्सा है। इन बदलावों के तहत बैंकों द्वारा माइक्रो फाइनेंस इस्टीट्यूशन को या फिर माइक्रो फाइनेंस इंस्टीट्यूशन द्वारा स्व सहायता समूहों को माइक्रो क्रेडिट के तहत दी गई रकम पर सूद लगाने का अधिकार दिया गया है। ये संस्थान अपने विवेक से सूद की दर तय कर सकते हैं। अगर कोई कर्ज लेने वाला बैंकों से सीधे छोटे ऋण लेता है तो उस पर तय की गई अधिकतम सीमा से ज्यादा सूद नहीं लिया जा सकता ।

3. माइक्रो क्रेडिट लेने की शर्तें क्या हैं?

जमीनी हकीकत को देखते हुए बैंक खुद माइक्रो क्रेडिट देने के बारे में नियम तय कर सकते हैं। इस क्रम में बैंक ऋण के आकार, लागत, परिपक्वता अवधि, ग्रेस पीरियड और मार्जिन आदि का खुद फैसला कर सकते हैं। माइक्रो क्रेडिट के तहत खेतिहर और गैर खेतिहर दोनों तरह के कर्जे दिए जा सकते हैं। इसमें आवास आदि के लिए भी कर्जे दिए जा सकते हैं।

4. सेल्फ हेल्फ ग्रुप(स्व सहायता समूह) क्या है?

एक सी सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि के छोटे-मोटे उद्यमियों का एक समूह जब आपस में मिलकर तय करे कि समूह के प्रत्येक सदस्य को कुछ पैसे बचाने हैं और उस पैसे को एक सर्व सामान्य कोष में जमा करना है ताकि जरुरत के वक्त समूह का कोई सदस्य नियमानुसार उसका इस्तेमाल कर सके, तो सेल्फ हैल्प ग्रुप बनता है। ये समूह पंजीकृत हो सकता है और नहीं भी। समूह के सदस्य अपने सामूहिक विवेक से तय करते हैं कि समान्य कोष से ली गई रकम का इस्तेमाल समूह का कोई सदस्य समुचित तरीके से करे और समय पर उस पैसे को लौटा दे। ऐसे समूह में प्रत्येक सदस्य की एक दूसरे से जान पहचान रहने के कारण पैसे की वापसी आसान होती है।

5. स्व सहायता समूहके जरिएवित्त प्रदान करने के क्या फायदे हैं?

किसी स्व सहायता समूह का सदस्य बनकर किसी गरीब व्यक्ति को आर्थिक ताकत मिलती है। इसके अतिरिक्त स्व सहायता समूह के जरिए लेन-देन करने पर कर्ज लेने और देने वाले को लागत में कमी आने के कारण सुविधा होती है। कर्जे देने वाले को अलग अलग व्यक्तियों के खाते का हिसाब किताब ना रखकर सिर्फ एक स्व सहायता समूह के खाते का हिसाब रखना पड़ता है, दूसरी तरफ कर्ज लेने वाले को कर्ज लेने के लिए कही दूर दराज नहीं आना जाना पड़ता। इससे उसके खर्चे में कमी आती है। कर्ज लेने वाला आने-जाने मे लगे समय को अपने रोजाना के काम में लगा पाता है और वह ढेर सारी कागजी कार्रवाहियों से भी निजात पा जाता है।

6. माइक्रो क्रेडिट के लेनदेन में किसी एनजीओ (स्वयंसेवी संगठन) की क्या भूमिका है?

स्वयंसेवी संगठन स्वैच्छिक होते हैं। वे स्वेच्छा से समाजिक सहायता के काम के लिए आगे आते हैं। ऐसे समूह स्व सहायता समूहो के निर्माण में प्रेरक की भूमिका निभाते हैं और उनके तथा दाता संगठन के बीच माइक्रो क्रडिट के लेन देन में मध्यस्थ की भूमिका निभाते हैं। ऐसे संगठन किसी बैंक से थोक में कर्ज लेकर उसे स्व सहायता समूहों को दे सकते हैं।

7. फिलहाल देश में माइक्रो क्रेडिट के लेन देन की क्या स्थिति है?

गरीबों को आसानी से कर्ज मिले और यह कर्ज सार्थक सिद्ध हो सके-इस विचार से नाबार्ड ने साल १९९१-९२ में एक शुरूआती परियोजना शुरु की। इसके अन्तर्गत सेव सहायता समूहों और बैकों को माइक्रो क्रेडिट के लेन देन के लिए आपस में जोड़ने का काम किया गया। भारतीय रिजर्व बैंक ने व्यावसायिक बैंकों को निर्देश दिया कि वे इस कार्यक्रम में सक्रियता से भागीदारी करें। इस योजना के दायरे में बाद में क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक और सहकारी बैंकों को भी शामिल कर लिया गया। साल २००२ के ३१ मार्च तक ४६१४७८ स्व सहायता समूह बैंकों से जुड़ चुके थे।इस तरह ७० लाख ८७ हजार गरीब परिवार औपचारिक बैंकिंग व्यवस्था के दायरे में आ गये हैं। स्व सहायता समूहों में ९० फीसदी समूह महिलाओं के हैं। ३१ मार्च २००२ तक बैंकों से जुड़े स्व सहायता समूहों को १०२६.३४ करोड़ रुपये के कर्ज का आबंटन किया गया था। इस तरह औसतन हर स्व सहायता समूह पर २२ हजार २४० रुपये का क्रज था और स्व सहायता समूह से जुड़े हर गरीब परिवार पर औसत कर्जा१३१६ रुपये का था।

8. क्या माइक्रो क्रेडिट परियोजना में विदेशी बैंकों को भागीदारी करने की अनुमति दी गई है?

भारत सरकार ने २९ अगस्त २००० के दिन एक अधिसूचना जारी कर नन-बैकिंग फाइनेन्शिय कंपनियों को माइक्रो क्रेडिट और रुरल क्रेडिट से संबंधित सूचि में शामिल किया। इस तरह माइक्रो क्रेडिट प्रणाली में विदेशी कंपनियों के निवेश का रास्ता खुल गया।

9. माइक्रो फाइनेंस डेवलपमेंट फंड क्या है? 

जो संस्थाएं माइक्रो क्रेडिट प्रदान कर रही हैं उन्हें चाहिए कि सिर्फ नकदी कर्जा देने के बजाय इस सिलसिले में एक समग्र दृष्टि अपनायें। सिर्फ कर्जा देने से ही बात नहीं बनने वाली बल्कि कर्ज देने के साथ साथ यह भी सोचना होगाकि उद्यमियों के बीतर बाजार के लिए जरुरी कौशल का विकास कैसे हो, बाजार में इन उद्यमियों का प्रवेश कैसे सुगम बनाया जाय और उद्यमियों के काम में प्रद्योगिकी का किस तरह समुचित रीति से इस्तेमाल संभव बनाया जाय। इस दिशा में माइक्रो फाइनेंस डेवलपमेंट फंड की स्थापना एख महत्त्वपूर्ण कदम है। साल २००१-०२ के बजट अभिभाषण के अनुसार १०० करोड़ रुपये का एक माइक्रो फाइनेंस डेवलपमेंट फंड नाबार्ड के अन्तर्गत कायम किया गया है। इसके कंधे पर निम्मलिखित जिम्मेदारियां डाली गई हैं-(क)स्वसहायता समूह के सदस्यों,साथी स्वयंसेवी संगठन, बैंक और सरकारी एजेंसियों को प्रशिक्षण देना तथा माइक्रो क्रेडिट के बारे में जागरुक बनाना, (ख) माइक्रो फाइनेंस की संस्थाओं को शुरुआती रकम प्रदान करना और उनके शुरूआती घाटे की भरपाई करना, (ग) स्व सहायता समूहों के निर्माण और बढ़ोतरी में कर्च होने वाली रकम का भार वहन करना,(घ) कर्ज देने के नए तंत्र का विकास करना आदि। भारतीय रिजर्व बैंक और नाबार्ड ने फंड के निर्माण में ४०-४० करोड़ की रकम दी है जबकि सार्वजनिक क्षेत्र के ११ बैंकों ने २० करोड़ की रकम मिलकर दी है।

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