मानवाधिकार

 

 खास बात 

साल 2014 में बुजुर्गों के साथ होने वाले दुर्व्यवहार की घटनाओं में तेज इजाफा हुआ। पिछले (साल के 23 प्रतिशत से बढ़कर 2014 में 50 प्रतिशत) *
भारत की आबादी का 1.14 प्रतिशत हिस्सा यानी तकरीबन 1 करोड़ 40 लाख लोग गुलामी के आधुनिक रुपों के शिकार हैं। **
• साल २००६ में भारत में १४२३ कैदियों की प्राकृतिक अथवा अप्राकृतिक कारणों से जेलों में मौत हुई।***
•  उत्तरप्रदेश में विचाराधीन कैदियों की तादाद(८८८६) सर्वाधिक है। इसके बाद इस मामले में बिहार(८०७६) का स्थान है।***
• भारत के जेलों में बंद कुल कैदियों में विचाराधीन कैदियों की तादाद ६५.७ फीसदी है।***
• आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, केरल, उड़ीसा, दिल्ली, झारखंड और उत्तराखंड में पुलिस हिरासत में मौतों की संख्या में बढ़ोतरी हुई है। ****
• दिल्ली की जेलों में धारण-क्षमता से २२४ फीसदी अधिक कैदी हैं। इसके बाद झारखंड(१९५ फीसदी), छत्तीसगढ़(१११ फीसदी) और गुजरात (१०४ फीसदी) का नंबर है।****

*एल्डर्स एब्यूज इन इंडिया(2013-14)

** ग्लोबल स्लेवरी इंडेक्स 2014

****  प्रीजन स्टैटिक्स 2006

****एनुअल रिपोर्ट २००४-०५, नेशनल ह्यूमन राइटस् कमीशन

 

 

**page**

[inside]नेशनल कोलिशन फॉर स्ट्रॉन्गिंग एससी & एसटी एक्ट (NCSPA) द्वारा एनसीआरबी की हालिया रिपोर्ट पर एक प्रेस विज्ञप्ति जारी की है 30 अगस्त,22[/inside] 

प्रेस विज्ञप्ति के लिए यहां क्लिक कीजिए और एनसीआरबी की रिपोर्ट के लिए यहांयहां और यहां   

एनसीएसपीए एक ऐसा मंच है जिससे 500 से अधिक दलितों और आदिवासियों के मुद्दों पर काम करने वाली सिविल सोसाइटी जुड़ी हुई हैं.

क्राइम्स इन इंडिया रिपोर्ट के मुख्य बिंदु–

अनुसूचित जाति के विरुद्ध होने वाले अत्याचारों/अपराध में वर्ष 2021 में 1.2% की वृद्धि दर्ज हुई है.
साल 2021 में कुल 50,900 केस दर्ज हुए हैं जिसमें 25.82% की हिस्सेदारी के साथ उत्तर प्रदेश पहले स्थान पर है.

राजस्थान में 14.7% के साथ दूसरे सबसे अधिक मामले दर्ज हुए हैं.

राजस्थान के बाद क्रमशः मध्यप्रदेश (14.1%), बिहार (11.4%) और ओडिशा (4.5%) राज्य आते हैं.

कुल दर्ज मामलों में अकेले शीर्ष पांच राज्य में 70.8% केस दर्ज होते हैं.

साल 2021 में अनुसूचित जनजाति के विरुद्ध होने वाले अत्याचारों/अपराध के दर्ज मामलों में पिछले वर्ष की तुलना में 6.4% की वृद्धि दर्ज की गई है.

अनुसूचित जनजाति के विरुद्ध होने वाले अत्याचारों या अपराध में शीर्ष पांच राज्य–

मध्यप्रदेश– 29.8%

राजस्थान –24%

ओडिशा –7.6%

महाराष्ट्र –7.13%

तेलंगाना –5.81%

साल 2021 में कुल दर्ज होने वाले मामलों की संख्या 8,802 थी.
शीर्ष पांच राज्यों में 74.57% मामले दर्ज हुए हैं.

**page**

'एक्सटिंग्विशिंग लॉ एंड लाइफः पुलिस किलिंग्स एंड कवर-अप इन द स्टेट ऑफ उत्तर प्रदेश' नामक रिपोर्ट में उत्तर प्रदेश पुलिस द्वारा कथित गैर-न्यायिक हत्याओं के इन 17 मामलों में 18 युवकों की मौत की जांच करती है, जिनकी जांच राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) द्वारा भी की गई थी. पश्चिमी उत्तर प्रदेश-यूपी के छह जिलों से संबंधित ये हत्याएं मार्च 2017 और मार्च 2018 के बीच हुईं. रिपोर्ट इन 17 मामलों मेंकी गई जांच और जांच का मूल्यांकन करती है और जांच एजेंसी, कार्यकारी मजिस्ट्रेट, न्यायिक मजिस्ट्रेट और जांच एजेंसी और NHRC की भूमिका की जांच करती है, यह आकलन करने के लिए कि क्या उन्होंने मौजूदा कानूनी ढांचे का अनुपालन किया है.

रिपोर्ट में इन हत्याओं की जांच में जांच एजेंसी और न्यायिक मजिस्ट्रेटों द्वारा प्रक्रियात्मक और मूल दोनों तरह के कानून के घोर उल्लंघन का खुलासा किया गया है. एनएचआरसी जैसे स्वतंत्र निकाय और मजिस्ट्रियल पूछताछ जैसे निगरानी तंत्र कानून के इन उल्लंघनों की पहचान करने में विफल रहे हैं और घटनाओं के पुलिस संस्करण में तथ्यात्मक विरोधाभासों को नजरअंदाज कर दिया है. इसके बजाय, उन्होंने इन जांचों के दौरान पुलिस द्वारा अपनाई गई असंवैधानिक प्रक्रियाओं को नियमित रूप से अनदेखा किया है.

यूथ फॉर ह्यूमन राइट्स डॉक्यूमेंटेशन (YHRD), सिटीजन अगेंस्ट हेट (CAH) और पीपुल्स वॉच द्वारा तैयार की गई [inside]'एक्सटिंग्विशिंग लॉ एंड लाइफः पुलिस किलिंग्स एंड कवर-अप इन द स्टेट ऑफ उत्तर प्रदेश'[/inside] (अक्टूबर 2021 में जारी) नामक रिपोर्ट के प्रमुख निष्कर्ष इस प्रकार हैं:

1. विश्लेषण किए गए 17 मामलों में से एक भी मामले में हत्या में शामिल पुलिस टीम के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज नहीं की गई है. इसके बजाय, सभी 17 मामलों में, मृतक पीड़ितों के खिलाफ आईपीसी की धारा 307 और अन्य अपराधों के तहत हत्या के प्रयास के आरोप में प्राथमिकी दर्ज की गई है.

2. 17 मामलों में से प्रत्येक में मृतक पीड़ितों के खिलाफ दर्ज एफआईआर में हत्या की घटनाओं के एक समान क्रम का दावा किया गया है – पुलिस अधिकारियों और कथित अपराधियों के बीच एक सहज गोलीबारी का विवरण जिसमें पुलिस पर गोली चलाई जाती है, और फिर (स्वयं में) -डिफेंस) फायर बैक, जिससे कथित अपराधियों में से एक की मौत हो गई, जबकि उसका साथी हमेशा इन दावों की सत्यता के बारे में संदेह पैदा करने से बचने का प्रबंधन करता है.

3. पीयूसीएल एनएचआरसी और सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देशों का उल्लंघन करते हुए, अधिकांश मामलों में, प्रारंभिक जांच उसी पुलिस स्टेशन के एक पुलिस अधिकारी द्वारा की गई थी, जो अक्सर हत्या में शामिल पुलिस टीम के थाने से ही होता था और "एनकाउंटर" टीम में शामिल सबसे वरिष्ठ व्यक्ति के समान रैंक का अधिकारी होता था. इन सभी मामलों में पीयूसीएल के दिशानिर्देशों का अनुपालन दिखाने के लिए, जांच के बाद यह मामले दूसरे पुलिस स्टेशन में स्थानांतरित कर दिए गए.

4. रिपोर्ट में अध्ययन किए गए सभी मामलों में, एक अलग थाने के 'स्वतंत्र' जांच दल द्वारा की गई जांच अपर्याप्त थी. ये जांच पुलिस के संस्करण को स्वीकार करती है कि उन्होंने पीड़ितों को "आत्मरक्षा" में मार डाला, जबकि आत्मरक्षा के लिए हत्या के औचित्य को न्यायिक परीक्षण के माध्यम से साबित और निर्धारित किया जाना चाहिए. पुलिस के बयान से पुलिस के बचाव का अनुमान नहीं लगाया जा सकता है या जांच के माध्यमसेइसकी पुष्टि नहीं की जा सकती है. इस बात की कोई जांच नहीं की गई कि क्या बल प्रयोग आवश्यक और आनुपातिक था. तथ्यात्मक विसंगतियों और अंतर्विरोधों की भी अनदेखी की गई. इसमे शामिल है –

ए) पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट में दिखाया गया घातक बल प्रयोग: पीड़ितों में से 12 के शरीर में धड़, पेट और यहां तक ​​कि सिर पर भी कई गोलियों के घाव दिखाई दे रहे हैं, कुछ शवों में फ्रैक्चर भी दिखाई दे रहे हैं. पांच मृतक पीड़ितों की पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट में गोली के प्रवेश के घावों के आसपास कालापन और दाग था, जो करीब से फायरिंग का संकेत देता है. यह पुलिस के इस दावे का खंडन करता है कि कम से कम बल का प्रयोग किया गया था या कि गोलियों का उद्देश्य पीड़ितों के शरीर के निचले हिस्से को स्थिर करना और उनकी गिरफ्तारी सुनिश्चित करना था.

बी) पुलिस को केवल मामूली चोटें आईं: इन 17 पुलिस हत्याओं में शामिल लगभग 280 पुलिस कर्मियों में से केवल 20 पुलिस अधिकारी ही घायल हुए. विश्लेषण किए गए 17 मामलों में से 15 में, पुलिस को केवल मामूली चोटें आईं.

सी) अपर्याप्त सबूत कि मृतक या उसके साथी के पास हथियार थे या पुलिस पर गोली चलाई गई थी: सात मामलों में, मृतक के उंगलियों के निशान अपराध स्थल से बरामद हथियारों पर नहीं पाए गए थे. इसलिए, पुलिस का दावा है कि पीड़ितों ने उन पर गोली चलाने के लिए हथियारों का इस्तेमाल किया था, जोकि स्वतंत्र रिकॉर्ड के विपरीत है.

डी) इस बात का कोई सबूत नहीं है कि पुलिस द्वारा जवाबी फायरिंग आवश्यक थी: बुलेटप्रूफ जैकेट पर लगी गोलियों के निशान दिखाकर यह पेश करने का प्रयास किया गया कि जवाबी फायरिंग की आवश्यकता थी. कम से कम 16 बुलेट प्रूफ जैकेट में गोलियां लगी हुई थीं. हालांकि, इन गोलियों का उन हथियारों से कोई संबंध नहीं है जिनके बारे में मृतक के पास से बरामद होने का दावा किया जा रहा है. यह भी निर्णायक रूप से नहीं दिखाया गया है कि ये बुलेटप्रूफ जैकेट वास्तव में कथित "मुठभेड़" में इस्तेमाल किए गए थे. कुछ मामलों में, पुलिस द्वारा गोली लगने से लगी चोटों का मृतक द्वारा कथित रूप से इस्तेमाल किए गए हथियारों से कोई संबंध नहीं है.

5. विश्लेषण किए गए 17 मामलों में से 16 में, जांच अधिकारी ने न्यायिक मजिस्ट्रेट के समक्ष अदालत में क्लोजर रिपोर्ट दाखिल करके जांच को बंद कर दिया. सबूतों से उभरने वाले तथ्यात्मक विरोधाभासों को देखते हुए, सभी 16 मामलों में क्लोजर रिपोर्ट पुलिस के संस्करण की पुष्टि करती है कि फायरिंग आत्मरक्षा में की गई थी. सभी मामलों को इस आधार पर बंद कर दिया गया था कि पीड़ित – जिन्हें "आरोपी" के रूप में नामित किया गया था, मर चुके थे और पुलिस को उस साथी के बारे में कोई जानकारी नहीं मिली जो अपराध स्थल से भाग गया था. इस प्रक्रिया को अन्य मामलों में उच्चन्यायालयों और NHRC द्वारा असंवैधानिक माना गया है.

6. 16 में से 11 मामलों में जहां पुलिस द्वारा क्लोजर रिपोर्ट दायर की गई थी, ऐसा प्रतीत होता है कि मजिस्ट्रेट ने न्यायिक शक्तियों का त्याग कर दिया है, जिन्होंने निर्विवाद रूप से जांच के समापन को स्वीकार कर लिया. इन मामलों में मृतक को "आरोपी" के रूप में नामित करके, अदालत द्वारा मामले को बंद करने से पहले पीड़ित परिवार को नोटिस जारी करने की आवश्यकता को समाप्त कर दिया गया. इसके बजाय, मजिस्ट्रेट ने प्राथमिकी में शिकायतकर्ता पुलिस अधिकारी को नोटिस जारी किया, जो बदले में जांच बंद करने के लिए "अनापत्ति" पत्र देता है. इस प्रक्रिया के माध्यम से न्यायिक मजिस्ट्रेट जांच को बंद करना स्वीकार करते हैं.

7. कानून (सीआरपीसी की धारा 176(1ए)) के लिए न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा मौत के कारणों की जांच की आवश्यकता होती है, हालांकि, कम से कम आठ मामलों में, एक कार्यकारी मजिस्ट्रेट द्वारा सीआरपीसी प्रावधानों के उल्लंघन में जांच की गई थी. यह उल्लंघन इस ओर इशारा करता है कि पीयूसीएल दिशानिर्देशों में स्पष्टता की कमी का फायदा जवाबदेही से बचने के लिए उठाया जा रहा है. कार्यकारी मजिस्ट्रेटों ने उनकी शक्तियों और अधिकार क्षेत्र से परे जाकर पुलिस हत्याओं को "वास्तविक" माना, जबकि उनका काम केवल मृत्यु का कारण निर्धारित करना है, और यह निर्धारित करना नहीं है कि कोई अपराध किया गया है या नहीं. कार्यकारी मजिस्ट्रेट के निष्कर्ष और रिपोर्ट पुलिस संस्करण पर आधारित हैं, और अधिकांश रिपोर्ट फोरेंसिक या बैलिस्टिक साक्ष्य पर भी विचार नहीं करती हैं. परिवार के सदस्यों के बयान या तो दर्ज नहीं किए गए हैं या सही तरीके से दर्ज नहीं किए गए हैं.

8. एनएचआरसी द्वारा इस रिपोर्ट में विस्तृत 17 मामलों की जांच के निर्देश के तीन साल बाद, 14 मामलों का फैसला किया गया है, दो मामले अभी भी लंबित हैं और एक मामले की स्थिति सार्वजनिक डोमेन में उपलब्ध नहीं है. NHRC द्वारा तय किए गए 14 मामलों में से, 12 मामलों को बंद कर दिया गया, पुलिस की ओर से कोई गड़बड़ी नहीं पाई गई, और एक मामला यूपी राज्य मानवाधिकार आयोग को स्थानांतरित कर दिया गया. केवल एक मामले में, NHRC ने माना कि मृतक पुलिस द्वारा एक 'फर्जी मुठभेड़' में मारा गया था. NHRC द्वारा की गई अन्य पूछताछ में पुलिस की कहानी में तथ्यात्मक विरोधाभासों और विसंगतियों की अनदेखी की गई है. यह प्रक्रियात्मक और मूल कानून के उल्लंघन पर भी आंखें मूंद लेता है, उदाहरण के लिए, मृतक पीड़ितों के खिलाफ सभी प्राथमिकी दर्ज करना और आत्मरक्षा के पुलिस संस्करण के आधार पर जांच बंद करने वाली पुलिस के खिलाफ कोई प्राथमिकी नहीं, कोई न्यायिक निर्धारण नहीं आत्मरक्षा के औचित्य, संग्रह में उल्लंघन और अपराध के दृश्य से सबूत हासिल करना, अक्सर उसी पुलिस स्टेशन से संबंधित पुलिस अधिकारियों द्वारा किया जाता है जो हत्याओं में शामिल पुलिस होती है.

style="font-family:Calibri,">9.जांच और जवाबदेही सुनिश्चित करने का भार पूरी तरह पीड़ित परिवारों पर पड़ता है. झूठे और मनगढ़ंत आपराधिक मामलों के माध्यम से परिवारों को धमकी, धमकियों और उत्पीड़न का सामना करना पड़ा. पीड़ित परिवारों के राज्य और गैर-राज्य एक्टरों और परिवारों को कानूनी सहायता और सहायता प्रदान करने वाले मानवाधिकार रक्षकों द्वारा उत्पीड़न के बारे में NHRC को कम से कम 13 पत्र प्रस्तुत किए गए हैं. एनएचआरसी ने पीड़ितों के परिवारों के उत्पीड़न से संबंधित पत्रों का न तो कोई जवाब दिया और न ही रिकॉर्ड में लिया. इसने मानवाधिकार रक्षकों के उत्पीड़न के मामलों में जांच का निर्देश दिया लेकिन उन पूछताछों को भी बंद कर दिया.

10. यह रिपोर्ट पुलिस हत्याओं के लिए जवाबदेही सुनिश्चित करने में आपराधिक न्याय प्रणाली की घोर विफलता को उजागर करती है. यह दिखाता है कि कैसे न्याय प्रणाली मौत का कारण बनने वाले बल प्रयोग के लिए पुलिस अधिकारियों को जिम्मेदार ठहराने में असमर्थ है. यह पीयूसीएल बनाम महाराष्ट्र राज्य में सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देशों में अस्पष्टता और अंतर्विरोधों को उजागर करता है, जो प्रभावी रूप से हत्याओं के लिए दण्ड से मुक्ति का कारण बन कर रहा है. इनमें पुलिस के खिलाफ दर्ज की जाने वाली एफआईआर पर अस्पष्टता शामिल है जो पुलिस द्वारा आत्मरक्षा की दलील का दुरुपयोग करने की अनुमति देता है और ट्रायल के बजाय जांच के स्तर पर दावा किया जाता है. एक न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा अनिवार्य जांच के संबंध में अस्पष्टता पुलिस हत्याएं, और राज्य पुलिस विभाग द्वारा अपने ही सहयोगियों द्वारा अपराधों की निष्पक्ष और स्वतंत्र जांच की असंभव अपेक्षा के रास्ते खोलता है.

**page**

 

[inside]नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के दस्तावेज क्राइम इन इंडिया 2016 स्टैटिक्स[/inside](नवंबर 2017 में जारी) के मुताबिक http://ncrb.gov.in/ :

 

मानवाधिकार उल्लंघन के मामले

• साल 2016 में पुलिसकर्मियों द्वारा मानवाधिकार उल्लंघन करने के कुल 209 मामले दर्ज हुए. इनमें 73 मामले झूठे पाये गये. मानवाधिकार उल्लंघन के कुल 50 मामलों में पुलिसकर्मियों पर आरोप-पत्र दाखिल हुए. साल 2016 में मानवाधिकार उल्लंघन के किसी भी मामले में पुलिसकर्मियों पर दोषसिद्धि नहीं हो सकी. 

 

• साल 2016 में अखिल भारतीय स्तर पर पुलिसकर्मियों के खिलाफ अपराध के 3082 मामले दर्ज हुए.

 

•  साल 2016 में राष्ट्रीय स्तर पर पुलिस हिरासत में मौत के कुल 92 मामले प्रकाश में आये. इनमें 8 मामलों में बंदी की मौत पुलिस हिरासत में पिटाई के कारण हुई कही जा सकती है. जबकि 1 मामले में बंदी की मौत हिरासत में लिए जाने से पहले लगी चोट के कारण हुई. पुलिस हिरासत में मौत का एक मामला भीड़ के हाथों लगी चोट का है जबकि 2 मामलों में अपराधियों द्वारा हुए हमले जिम्मेवार रहे. पुलिस हिरासत में मौत के 38 मामले आत्महत्या के हैं जबकि 4 मामलों में बंदी की मौत पुलिस हिरासत से भागने की घटना में हुई. पुलिस हिरासत में मौत के 28 मामले बीमारी से मृत्यु के हैं जबकि 7 मामले स्वाभाविक मृत्यु के. ऐसा 1 मामला सड़क-दुर्घटना में हुई मृत्यु का है जबकि 2 मामलों में अन्य कारण जिम्मेवार हैं.

 

• साल 2016 में पुलिस फायरिंग में 92 नागरिकों की मौतहुई और 351 नागरिक घायल हुए.

 

• साल 2016 में पुलिस के लाठी-चार्ज में 35 नागरिक मारे गये और 759 घायल हुए थे.

 

महिलाओं के खिलाफ अपराध

 

•  साल 2016 में महिलाओं के विरुद्ध हुए संज्ञेय अपराधों की दर 55.2 रही, साल 22015 में यह दर 54.2 थी. यहां अपराध दर की गणना के लिए महिलाओं के विरुद्ध हुए कुल संज्ञेय अपराधों में महिला आबादी की कुल संख्या से भाग देकर उसे 100000 की संख्या से गुणा किया गया है. संक्षेप में प्रति लाख महिला आबादी के खिलाफ हुए संज्ञेय अपराधों की संख्या. 

 

•  महिलाओं के खिलाफ हुए कुल अपराध(इंडियन पेनल कोड तथा एसएलएल के तहत) में हिस्सेदारी के प्रतिशत के हिसाब से देखें तो यूपी सबसे आगे(14.5 प्रतिशत) है. इसके बाद पश्चिम बंगाल(9.6 प्रतिशत), महाराष्ट्र(9.3 प्रतिशत) तथा राजस्थान(8.1 प्रतिशत) है.

 

• महिलाओं के खिलाफ हुए कुल संज्ञेय अपराधों की दर के लिहाज से असम सबसे आगे(131.3 अपराध प्रति लाख महिला आबादी) है. इसके बाद ओड़िशा(84.5) तथा तेलंगाना(83.7) का नंबर है.   

 

• साल 2016 में केंद्र शासित प्रदेशों में दिल्ली में महिलाओं के खिलाफ हुए संज्ञेय अपराधों की दर सबसे ज्यादा(160.4) थी

 

• बलात्कार से संबंधित संज्ञेय अपराधों की दर सिक्किम में सबसे ज्याद( 30.3) रही. बलात्कार संबंधी संज्ञेय अपराधों की दर के मामले में साल 2016 में इसके बाद दिल्ली (22.6) तथा अरुणाचल प्रदेश (14.7) का नंबर है.

 

• बलात्कार के 94.6  फीसद मामलों( आईपीसी के सेक्शन 376 तथा पोक्सो एक्ट के सेक्शन 4 और 6 के तहत दर्ज) मामलों में आरोपी को पीड़ित का परिचित पाया गया. 

 

• साल 2016 में बलात्कार संबंधी संज्ञेय अपराधों के कुल 38,947 मामले प्रकाश में आये.

 

• साल 2015 में बलात्कार संबंधी कुल 34651 मामले प्रकाश में आये थे, साल 2016 में ऐसे अपराधों की संख्या(38,947 ) में 12.4 प्रतिशत का इजाफा हुआ है.

 

• मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश में क्रमश 4,882 (12.5 प्रतिशत) और 4,816 (12.4 प्रतिशत) बलात्कार के मामले प्रकाश में आये जो कि देश में सर्वाधिक है. साल 2016 में महाराष्ट्र में बलात्कार के 4,189  मामले (10.7 प्रतिशत)  प्रकाश में आये.

 

• महिला की गरिमा पर हमला करने की नीयत से हुए संज्ञेय अपराधों की की दर 13.8 रही. कुल संख्या के लिहाज से आंकड़ा 84,746 रही. 

 

•  साल 2016 में महिला के पति या उसके रिश्तेदारों के द्वारा क्रूरता के व्यवहार से संबंधित अपराधों की दर 18.0 रही. साल 2016 में ऐसे कुल अपराधों की संख्या 1,10,378 रही.

 

•  महिलाओं के खिलाफ हुए अपराधों की संख्या में एक साल के भीतर( 2015 से 2015) 2.9 फीसद का इजाफा हुआ है. साल 2016 में महिलाओं के खिलाफ हुए कुल अपराधों की संख्या 3,38,954 थी जबकि 2015 में ऐसे अपराधों की तादाद  3,29,243 थी.

 

बच्चों के खिलाफ अपराध

• साल 2016 में भारत में बच्चों के खिलाफ हुए संज्ञेय अपराधों की दर 2014 में 20.1 थी, 2015 में यह बढ़कर 21.1 हो गई और 2016 में 24.0 पर जा पहुंची है. 

 

• बच्चों के खिलाफ हुए संज्ञेय अपराधों की दर के मामले में दिल्ली (146.0) सबसे आगे है. इसके बाद अंडमान निकोबार (61.4), चंडीगढ़ (55.5) तथा सिक्किम (55.0) का स्थान है.

 

• बच्चों को जान से मार देने के अपराध सबसे ज्यादा (21) उत्तरप्रदेश में हुए.इसके बाद ऐसेमामलों में राजस्थान और मध्यप्रदेश का नंबर है. इन दोनों राज्यों में प्रत्येक में साल 2016 में बच्चों को मार देने की 14 घटनाएं प्रकाश में आयीं.

 

•  साल 2016 में भ्रूणहत्या के सबसे ज्यादा मामले(52) उत्तरप्रदेश में प्रकाश में आये. भ्रूणहत्या के मामले में दूसरे और तीसरे नंबर पर क्रमशः राजस्थान ((21) और मध्यप्रदेश (19) हैं.

 

• बच्चों के खिलाफ होने वाले अपराध 2015 की तुलना में 2016 में बढ़े हैं. साल 2015 में बच्चों के खिलाफ 94,172 मामले प्रकाश में आये थे जबकि 2016 में 1,06,958 मामले. यह 13.6 फीसद की बढ़ोत्तरी है.

 

•  बच्चों के खिलाफ होने वाले अपराध में अगवा और अपहरण के वारदात 52.3 फीसद रहे. इसके बाद एक बड़ी संख्या पोक्सो अधिनियम में वर्णित(बच्चों को यौन दुर्व्यवहार से बचाने का कानून) प्रावधानों के तहत दर्ज मामलों की संख्या रही.

 

अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के विरुद्ध अपराध-

 

• अनुसूचित जाति के विरुद्ध होने वाले कुल संज्ञेय अपराधों की दर 2014 के 20.1 से घटकर 19.2 पर पहुंची लेकिन 2016 में इसमें इजाफा हुआ और अनुसूचित जाति के विरुद्ध होने वाले संज्ञेय अपराधों की दर 2016 में 20.3 हो गई है.(यहां अपराध की दर की गणना के लिए अनुसूचित जाति के विरुद्ध हुए कुल दर्ज संज्ञेय अपराधों की संख्या को अनुसूचित जाति की आबादी में कुल तादाद से भाग देकर उसमें 100000 से गुणा किया गया है यानि अनुसूचित जाति के व्यक्तियों की प्रति लाख संख्या पर संज्ञेय अपराधों की संख्या)

 

• साल 2016 में अनुसूचित जाति के विरुद्ध हुए कुल संज्ञेय अपराधों में सबसे ज्यादा तादाद मध्यप्रदेश(43.4) में रही. इसके बाद राजस्थान(42.0) तथा गोवा(36.7) का स्थान है.

 

• अनुसूचित जाति के व्यक्तियों के खिलाफ हुए अपराधों की संख्या में 2016 में 5.5 प्रतिशत का इजाफा हुआ है. साल 2015 में इस श्रेणी के अपराधों की संख्या 38,670 थी जबकि 2016 में 40,801.

 

•  साल 2016 में अनुसूचित जाति के खिलाफ हुए कुल अपराधों में प्रतिशत मात्रा में हिस्सेदारी के लिहाज से देखें तो सबसे ज्यादा तादाद (25.6 प्रतिशत) यूपी की दिखती है. इसके बाद बिहार(14.0प्रतिशत) तथा राजस्थान(12.6 प्रतिशत) का स्थान है. 

 

•  अनुसूचित जनजाति के खिलाफ हुए संज्ञेय अपराधों की दर साल 2014 में 6.5 थी जो साल 2015 में घटकर 6.0 प्रतिशत हो गई लेकिन साल 2016 में इसमें इजाफा(6.3) हुआ है.

 

• साल 2016 में अनुसूचित जनजाति के खिलाफ हुए कुल संज्ञेय अपराधों की दर सबसे ज्यादा केरल(37.5) में रही. इसके बाद अंडमान निकोबार(21.0) तथा आंध्रप्रदेश(15.4) का स्थान है.

 

•साल 2015 की तुलना में अनुसूचित जनजाति के खिलाफ हुए अपराधों में 4.7 प्रतिशत का इजाफा हुआ है. साल 2015 में इस श्रेणी के कुल 6276 मामले प्रकाश में आये जबकि साल 2016 में 6568 मामले.

 

• साल 2016 में अनुसूचित जनजाति के खिलाफ हुए कुल अपराधों में सर्वाधिक हिस्सेदारी मध्यप्रदेश(27.8 प्रतिशत) की रही. इसके बाद राजस्थान(18.2 प्रतिशत) तथा ओड़िशा(10.4 प्रतिशत) का स्थान है.

 

 

**page**  

सेंटर फॉर इक्विटी स्टडीज द्वारा प्रस्तुत [inside]इंडिया एक्सक्लूजन रिपोर्ट- 2015[/inside] के प्रमुख तथ्य–

http://www.im4change.org/law-justice/social-justice-20500.html?pgno=2#india-exclusion-report-2015 

इन्क्लूसिव मीडिया फॉर चेंज की टोली ने अपने पाठकों के लिए सार्वजनिक सेवा और समान की हिस्सेदारी में मौजूद सामाजिक गैर-बराबरी का संकेत करने वाले इंडिया एक्सक्लूजन रिपोर्ट-2015 के कुछ तथ्यों का नीचे संकलन किया है—

झुग्गी-बस्तियां

 

• नेशनल सैंपल सर्वे कीरिपोर्ट की इंडिकेटर्स ऑफ स्लमस् इन इंडिया(2012) के तथ्यों के मुताबिक एक तिहाई से ज्यादा झुग्गी-बस्तियों में बिजली की सुविधा नहीं, तकरीबन एक तिहाई झुग्गी-बस्तियों में टैपवाटर, शौचालय या कूड़ा निस्तारण की व्यवस्था नहीं है.

 

— जवाहरलाल नेहरु नेशनल अरबन रिन्युअल मिशन, राजीव गांधी आवास योजना जैसे कार्यक्रमों से 23.9 फीसद ही झुग्गियों को लाभ पहुंचा है.

 

— राष्ट्रीय स्तर पर 33510 झुग्गी-बस्तियों के होने के अनुमान हैं, इसमें 59 फीसद झुग्गी बस्तियां अनधिकृत हैं यानी झुग्गियों में रहने वाले तकरीबन 3.25 मिलियन परिवारों को सरकार झुग्गी-बस्तियों का वैध निवासी नहीं मानती. 

 

—– के सी शिवरामकृष्णन, ए कुंडू तथा बीएन सिंह(2005) द्वारा प्रस्तुत हैंडबुक ऑफ अरबनाइजेशन इन इंडिया के अनुसार पैसों की कमी के कारण कुछ लोगों को फुटपाथ और गलियों के कोने-अंतरे में रहना पड़ता है ताकि वे अपनी मजदूरी मिले कुछ पैसे बचा सकें.

 

—- 2011 के स्लमस् सेन्सस के तथ्यों से पता चलता है कि तमिलनाडु में 32 फीसद और पंजाब में 39 फीसद झुग्गी-बस्ती आबादी दलितजन की है और 2001 से 2011 के बीच झुग्गी-बस्तियों की दलित जन की आबादी में 37 फीसद का इजाफा हुआ है.

 

— नेशनल अर्बन हैल्थ मिशन से संबद्ध टेक्निकल रिसोर्स ग्रुप का आकलन है कि झुग्गी-बस्तियों में शिशु मृत्यु दर गैर झुग्गी-बस्ती रिहायश की तुलना में 1.8 फीसद ज्यादा है.

 

—-   शहरी इलाकों में शिशुओं की मृत्यु की प्रमुख वजह(तकरीबन 50 फीसद मामलों में) झुग्गी-बस्तियों में स्वच्छ पेयजल का ना होना है.

 

चिकित्सा

 

—– नेशनल सैंपल सर्वे के 71 वें दौर की गणना के अनुसार प्रति बीमारी व्यक्तिगत खर्चा बहुत ज्यादा है- शहरों में पुरुषों के लिए यह खर्च प्रति बीमारी 741 रुपये है और महिलाओं के लिए 629 रुपये. गांवों में पुरुषों के लिए यह खर्च प्रति बीमारी 549 रुपये और महिलाओं के लिए 589 रुपये है. 

 

—- नेशनल सैंपल सर्वे के 71 वें दौर की गणना के हिसाब से शहरों में सरकारी अस्पताल की तुलना में निजी अस्पतालों में प्रति बीमारी व्यक्तिगत खर्चा पुरुषों के लिए डेढ़ गुना तो महिलाओं के लिए दोगुना ज्यादा बढ़ जाता है.

 

— इस सर्वे के मुताबिक गांवों में सरकारी अस्पतालों की तुलना में निजी अस्पतालों में प्रति बीमारी उपचार का खर्चा पुरुषों के लिए 1.9 गुना ज्यादा है तो महिलाओं के लिए 1.6 गुना ज्यादा.  

 

—- सर्वे के मुताबिक सबसे ज्यादा गरीब लोगों की पांचवी श्रेणी में शुमार लोगों के लिए प्रति व्यक्ति प्रति बीमारी खर्च उनके पूरे परिवार के दस महीनों के खर्च के बराबर है, इस श्रेणी के जो व्यक्ति निजी अस्पतालों में उपचार के लिए जाते हैं उनका खर्च इससे भी ज्यादा होता है.

 

— शहरी इलाकों में निजी अस्पताल में दाखिल कर उपचार करने की प्रसंग बढ़ रहे हैं. 1995-96 में निजी अस्पतालों में दाखिल कर उपचार करने के प्रसंग 56.9 फीसद थे तो 2014 में बढ़कर 68 फीसद हो गये यानी दो दशक के भीतर ऐसे मामलों में 10 फीसद का इजाफा हुआ. 

 

जलापूर्ति और साफ-सफाई

 

• शहरी विकास मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार अधिकतर घरों में पानी की जरुरत से कम आपूर्ति होती है. 1493 शहरों में औसत प्रतिव्यक्ति जलापूर्ति 73 लीटर पर कैपिटा डेली((lpcd) है जबकि इसकी वांचित मात्रा 135 लीटर पर कैपिटा डेली(lpcd)होना चाहिए. मंत्रालय केअनुसार फिलहाल शहरी इलाकों में प्रति दिन जलापूर्ति औसतन तीन घंटे होती है जबकि इसे 24 घंटे होना चाहिए. 

 

— नेशनल सैंपल सर्वे(2013) के तथ्य बताते हैं कि तकरीबन एक चौथाई घर प्रतिदिन की जलापूर्ति से वंचित हैं. तकरीबन 23 फीसद घरों में जलापूर्ति के लिए कोई ना कोई पूरक उपाय किया गया है जिससे जाहिर होता है कि उन्हें पर्याप्त मात्रा में जलापूर्ति नहीं होती. 

 

—- 2011 की जनगणना के मुताबिक तकरीबन एक चौथाई( यानी 1 करोड़ 80 लाख से 2 करोड़ 30 लाख तक) परिवारों को अपने आवासीय अहाते में पानी की सुविधा हासिल नहीं है, लगभग 50 फीसद घर ही ऐसे हैं जिनके पास अपने लिए खासतौर से पानी के इस्तेमाल का साधन है, आवासीय परिसर में जलापूर्ति की सुविधा ना होने के कारण परिवारों को औसतन 31 मिनट प्रतिदिन पानी लाने में खर्च करना पड़ता है.

 

• प्रथन एजुकेशन फाउंडेशन के एक सर्वे का निष्कर्ष है कि दिल्ली की झुग्गी बस्तियों में 42 फीसद परिवार का पेयजल कोलीफॉर्म बैक्टीरिया से संदूषित है.

 

शौचालय 

 

—- 2011 की जनगणना के मुताबिक तकरीबन 1 करोड़ परिवारों को साफ-सफाई की कोई सुविधा हासिल नहीं है और उन्हें खुले में शौच करना पडता है जबकि 6 फीसद परिवार सार्वजनिक शौचालय अथवा साझे के शौचालय का उपयोग करते हैं और 4 फीसद परिवार जिन शौचालयों का इस्तेमाल करते हैं उन्हें उचित ढंग से बना हुआ शौचालय नहीं कहा जा सकता. 

 

— 2011 की जनगणना के मुताबिक एक तिहाई शहरी आबादी नेटवर्कड सीवरेज सिस्टम से जुड़ी है, ऐसा ज्यादातर महानगरों और उनके मध्यवर्गीय रिहायशों में है जबकि ज्यादातर शहरी आबादी सेप्टिक टैंक तथा पिट लैट्रिन का उपयोग करती है.

 

—-भारत को साफ-सफाई की सुविधा के अभाव के कारण सालाना 2.4 ट्रिलियन रुपये का घाटा उठाना पड़ता है जो देश की जीडीपी(2006) का 6.4 फीसद है.

 

 —- साफ-सफाई की सुविधा के पर्याप्त ना होने से सेहत पर जो असरात होते हैं उनकी आर्थिक कीमत तकरीबन 1.75 ट्रिलियन रुपये आंकी गई है.

 

.—– 2011 की जनगणना के मुताबिक देश में तकरीबन 8 लाख ड्राई लैट्रिन हैं जिन्हें किसी ना किसी मनुष्य को साफ करना पड़ता है, ऐसे 2 लाख ड्राई लैट्रिन सिर्फ शहरों में हैं.

 

— 1989 में योजना आयोग द्वारा गठित एक टास्कफोर्स का आकलन था कि मानव-मल साफ करने वाले कुल सात लाख लोगों में दलित जातियों के सदस्यों की संख्या 4 लाख है और इनमें 83 फीसद शहरी इलाकों में रहते हैं जबकि 17 फीसद ग्रामीण इलाकों में. मानव-मल साफ करने को मजबूर अन्य तीन लाख लोग मुस्लिम, ईसाई तथा जनजातीय समुदाय के हैं.

 

—- सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय ने 2002-2003 में बताया कि मानव-मल साफ करने वाले लोगों की संख्या देश में तकरीबन 6.8 लाख है और उनमें 95 फीसद दलित हैं जिनसे परंपरागत पेशा कहकर यह काम बलात करवाया जाता है.

 

— 2011 की जनगणना के मुताबिक तकरीबन 7.5 लाख परिवार अब भी मैला साफ करने का पेशा अपनाने पर मजबूर हैं और ऐसे ज्यादातर परिवार यूपी, राजस्थान, बिहार, मघ्यप्रदेश, गुजरात तथा जम्मू-कश्मीर में हैं. इन मामलों पर सक्रिय संगठनों द्वारा करवाये गये सर्वेक्षण से ऐसे परिवारों की संख्या ज्यादा(12-13 लाख) होने की बात पता चलती है क्योंकि जनगणना में रेलवे-ट्रैकपर पड़ा मानव-मल साफ करने वाले लोगों की गणना नहीं की जाती. 

 

**page** 

 

[inside]नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो द्वारा प्रस्तुत क्राइम इन इंडिया 2014[/inside] नामक दस्तावेज के तथ्यों के अनुसार– 

http://ncrb.gov.in/

 

 

•  भारत में महिलाओं के विरुद्ध किए गए कुल संज्ञेय अपराधों की दर 56.3 है

 

• भारत में 2014 में महिलाओं के विरुद्ध सर्वाधिक अपराध उत्तरप्रदेश (11.4 प्रतिशत) में हुए, इसके बाद पश्चिम बंगाल (11.3 प्रतिशत), राजस्थान (9.2 प्रतिशत), मध्यप्रदेश (8.5 प्रतिशत) और महाराष्ट्र (7.9 प्रतिशत) का नंबर है.

 

•  प्रति लाख महिला आबादी के हिसाब से महिलाओं के विरुद्ध हुए संज्ञेय अपराधों की संख्या के लिहाज से देखें तो राज्यों के बीच असम शीर्ष पर हैं. यहां प्रतिलाख महिला आबादी पर संज्ञेय अपराधों की संख्या 123.4 रही.. इसके बाद राजस्थान( प्रतिलाख महिला आबादी पर 91.4), त्रिपुरा (88)  तथा पश्चिम बंगाल (85.4) का स्थान है. राष्ट्रीय स्तर पर तथा संघ शासित प्रदेशों के बीच महिलाओं के विरुद्ध  सर्वाधिक संज्ञेय अपराध(169.1) दिल्ली में दर्ज हुए हैं.   

 

•  बालात्कार से संबंधित अपराध की दर साल 2004 के 3.5 प्रतिशत से बढ़कर साल 2014 में 6.1 प्रतिशत हो गई है. साल 2004 में ऐसे अपराधों की संख्या 18,233 थी जो साल 2014 में तकरीबन दोगुना बढ़कर 36,735 हो गई है.

 

• साल 2014 में पारिवारिक दायरे में बालात्कार का शिकार होने वाली महिलाओं में 29.6 प्रतिशत महिलाएं 12.16 साल के आयुवर्ग की थीं जबकि 28.5 प्रतिशत 18-30 साल के आयु वर्ग की. साल 2014 में बलात्कार का शिकार होने वाली महिलाओं में 43.8 प्रतिशत महिलाएं 18-30 आयु-वर्ग की थीं. 

 

• साल 2004 में महिलाओं के मान-हनन के उद्देश्य से किए गए हमलों की दर 6.6 प्रतिशत थी जो साल 2014 में बढ़कर 13.7 प्रतिशत हो गई है. साल 2004 में इस कोटि के 34,567 अपराध हुए जबकि साल 2014 में ऐसे अपराधों की संख्या 82,235 रही.

 

बच्चों के विरुद्ध होने वाले अपराध

 

• बच्चों के विरुद्ध होने वाले संज्ञेय अपराध की दर भारत में 20.1 है.

•  साल 2014 में बच्चों पर हुए कुल संज्ञेय अपराधों की दर सबसे ज्यादा दिल्ली(166.9) में रही, इसके बाद गोवा (63.5) में.  

 

•  साल 2014 में बाल-हत्या के सबसे ज्यादा(33) मामले राजस्थान में प्रकाश में आये. भ्रूण हत्या के मामलों के लिहाज से मध्यप्रदेश अव्वल रहा जहां भ्रूणहत्या के 30 मामले प्रकाश में आये जबकि राजस्थान में 24.

 

 अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के विरुद्ध होने वाले अपराध

 

•  भारत में अनुसूचित जाति के विरुद्ध होने वाले कुल संज्ञेय अपराधों की दर 23.4 है.

 

•  साल 2014 में गोवा में अनुसूचित जाति के विरुद्ध होने वाले अपराधों की दर (66.8) सबसे ज्यादा रही, इसके बाद राजस्थान का स्थान (65.7) है. 

 

• अनुसूचित जाति के विरुद्ध सबसे ज्यादा अपराध साल 2014 में उत्तरप्रदेश (17.2 प्रतिशत) में हुए,  इसके बाद राजस्थान (17.1 प्रतिशत) तथा बिहार (16.8 प्रतिशत) का स्थान है..

 

•  अनुसूचित जनजाति के विरुद्ध होने वाले अपराधों की दर भारत में 11.0 है.

 

•  साल 2014 में अनुसूचित जनजाति के विरुद्ध होने वाले कुल संज्ञेय अपराधों की दर सबसे ज्यादा (42.8) राजस्थान में रही,  इसके बाद केरल (27.8), अंडमान निकोबार (24.5) तथा आंध्रप्रदेश (23.8) का स्थान है. 

 

•  अनुसूचित जनजाति पर सबसे ज्यादा संज्ञेय अपराध के मामले साल 2014 में राजस्थान (34.5प्रतिशत) में प्रकाश में आये, इसके बाद मध्यप्रदेश (19.9 प्रतिशत), ओड़ीशा (11 प्रतिशत) तथा छत्तीसगढ़ (6.3 प्रतिशत) का स्थान है. 

**page** 

 

वाक फ्री फाऊंडेशन द्वारा प्रस्तुत [inside]ग्लोबल स्लेवरी इंडेक्स 2014 [/inside]नामक रिपोर्ट के तथ्यों के अनुसार-

Accent 3"/>

http://d3mj66ag90b5fy.cloudfront.net/wp-content/uploads/2014/11/Global_Slavery_Index_2014_final_lowres.pdf

 

•    भारत की आबादी का 1.14 प्रतिशत हिस्सा यानी तकरीबन 1 करोड़ 40 लाख लोग गुलामी के आधुनिक रुपों के शिकार हैं।.

•    दासता की आशंका के मामले मं भारत 56.7 अंकों के साथ 167 देशोंमें 63वें स्थान पर है।

•    भारतमें सर्वाधिक सामाजिक सुरक्षा से सर्वाधिक वंचित दलितजन हैं। शोषण के दुष्चक्र और दासता के आधुनिक रुपों से जकड़ने की सर्वाधिक आशंका दलितों के बारे में है।.

•    भारत में तकरीबन 90 फीसदी कामगार अर्थव्यवस्था के अनियोजित क्षेत्र में काम करते हैं. अनियोजित क्षेत्र में काम की दशाएं अत्यंत अनियत हैं.

•    सरकारी प्रयासों द्वारा दासता के विभिन्न रुपों को समाप्त करने के मामले में भारत 167 देशों के बीच 59 वें स्थान पर है।
 
•    2013 में प्रकाशित ग्लोबल स्लेवरी इंडेक्स की तुलना में 2014 के स्लेवरी इंडेक्स रिपोर्ट में दासता में जकड़े लोगों की संख्या बढ़ी हुई दर्ज की गई है। वर्ष 2013 की रिपोर्ट में दासता के आधुनिक रुपों में जकड़े लोगों की संख्या 29.8 मिलियन थी जो 2014 में बढ़कर 35.8 मिलियन हो गई है।

•    गुलामी के नये रुपों ने विश्व में एक बड़े उद्योग का रुप ले लिया है। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार लोगों से जबरिया मजदूरी कराके सालाना 150 अरब डॉलर के अवैध लाभ की उगाही की जाती है। दुनिया के कम से कम 58 देशों के 122 वस्तुओं के उत्पादन में लोगों से एक ना एक रुप में गुलामी करवायी जाती है।

•    भारत में मानव-तस्करी की जांच के लिए 215  इकाइयां काम कर रही हैं। मानव-तस्करी को रोकने के ऐसे प्रयास के बावजूद बीते साल मात्र 13 लोगों को मानव-व्यापार के मामले में दोषी सिद्ध किया जा सका। साल 2014 में गृह-मंत्रालय ने मानव-तस्करी निरोधी गतिविधियों के संबंध में सूचना देने के लिए एक एंटी-ट्रैफिकिंग               पोर्टल बनायी गई लेकिन इस पोर्टल पर बंधुआ मजदूरी से संबंधित जानकारी नदारद है।

 

 

**page**

Priority="62" SemiHidden="false" UnhideWhenUsed="false" Name="Light Grid Accent 1"/> Locked="false" Priority="69" SemiHidden="false" UnhideWhenUsed="false" Name="Medium Grid 3 Accent5"/>

हेल्पेज इंडिया द्वारा प्रस्तुत [inside]एल्डर्स एब्यूज इन इंडिया(2013-14)[/inside] नामक रिपोर्ट के तथ्यों के अनुसार :

 

http://www.im4change.org/siteadmin/tinymce//uploaded/Elder%20Abuse%20in%20India%202014.pdf

 

 • साल 2014 में बुजुर्गों के साथ होने वाले दुर्व्यवहार की घटनाओं में तेज इजाफा हुआ। पिछले (साल के 23 प्रतिशत से बढ़कर 2014 में 50 प्रतिशत)

 • दुर्व्यवहार के शिकार 46 फीसदी बुजुर्गों ने अपने साथ होने वाले ऐसे बरताव के प्रमुख कारण की पहचान करते हुए कहना है कि दुर्व्यवहार करने वाले पर उनकी भावनात्मक निर्भरता थी इसलिए वे दुर्व्यवहार के शिकार हुए। 45 फीसदी बुजुर्गों ने कहा कि दुर्व्यवहार का प्रमुख कारण दुर्व्यवहार करने वाले पर आर्थिक रुप से निर्भर रहना है जबकि 38 प्रतिशत बुजुर्गों ने कहा कि दुर्व्यवहार के लिए बदलती मान-मर्यादाओं जिम्मेवार हैं।

 •दुर्व्यवहार के अंतर्गत अपशब्द का प्रयोग (41%), अवमानना (33%) और उपेक्षा (29%) का बरताव सर्वाधिक पाया गया।

 • बुजुर्गों से सर्वेक्षण के दौरान दुर्व्यहार करने वाले व्यक्ति के रुप में अपने परिवार के सदस्यों को लक्ष्य करने के लिए कहा गया। परिवार की बहू((61%) और बेटा (59%) इस मामले में बुजुर्गों की नजर में सर्वाधिक दोषी करार पाए गए। यही रुझान पिछले साल के सर्वेक्षण में भी पाया गया था। सर्वेक्षण में 77 फीसदी ऐसे बुजुर्ग शामिल थे जो अपने परिवारजन के साथ रहते हैं।

 • सर्वेक्षण में बड़े शहरों(टायर-1) में दिल्लीमें बुजुर्गों के साथ दुर्व्यवहार के मामले सबसे कम(22 प्रतिशत) पाए गए लेकिन ध्यान देने की बात यह भी है कि पिछले साल के सर्वेक्षण में दिल्ली में बुजुर्गों के साथ दुर्व्यवहार के मामले 20 फीसदी पाए गए थे। बड़े शहरों में बंगलुरु बुजुर्गों से दुर्व्यवहार के मामले में सबसे आगे(75 प्रतिशत) है। छोटे शहरों(टायर-2) में कानपुर में बुजुर्गों से दुर्व्यवहार के मामले सर्वाधिक कम(13 प्रतिशत) पाए गए जबकि नागपुर(85 प्रतिशत) में सबसे ज्यादा।

दुर्व्यवहार का शिकार होने वाले बुजुर्गों में महिलाओं की तादाद(52 प्रतिशत) पुरुषों(48 प्रतिशत) से ज्यादा है। रिपोर्ट में कहा गया है कि बुजुर्गों के साथ दुर्व्यवहार के मामले तो बढ़े हैं लेकिन तकरीबन 41 प्रतिशत बुजुर्ग इसके बारे में किसी से कहना ठीक नहीं समझते।

 • दुर्व्यवहार के बारे में किसी से ना कहने को लेकर कारण के रुप में एक रोचक तथ्य रिपोर्ट से यह निकलकर सामने आता है कि बड़े शहरों में किसी व्यक्ति अथवा संस्था में इसे समस्या से निपटने के लिए जरुरी आत्मविश्वास की कमी है, और यह भी कि बुजुर्गों के साथ हो रहे दुर्व्यवहार की समस्या से कैसे निपटा जाये इसके बारे में जानकारी की कमी है।

 •सर्वेक्षण में शामिल ज्यादातर बुजुर्ग(67 फीसदी) पुलिस हैल्पलाईन के बारे में जानते थे। दुर्व्यवहार क शिकार बुजुर्गों में से 67 प्रतिशत पुलिस हैल्पलाइन के बारे में आगाह थे लेकिन उनमें से मात्र 12 फीसदी ने पुलिस को सूचित किया।

 • राष्ट्रीय स्तर पर देखें तो अधिकतर बुजुर्गों(30फीसदी) का मानना था कि दुर्व्यवहार की समस्या से निपटने के लिए उनका आर्थिक रुप से आत्मनिर्भर होना एक प्रभावकारी उपाय सिद्ध हो सकता है। 21 फीसदी बुजर्गों का कहना था कि पीढ़ीगत स्नेह-सबंधों को मजबूत करना और नयी पीढ़ी को उसके दायित्वों के प्रति सवेदनशील बनाना एक कारगर उपाय हो सकता है। केवल 14 प्रतिशत बुजुर्गों ने कहा कि स्वसहायता समूह इस मामले में मददगार हो सकते हैं।

 • टायर-1 और टायर-2 शहरों के कई बुजुर्गों का कहना था कि विधिक रिपोर्टिंग और शिकायत निवारण की प्रणाली विकसित करने से बुजुर्गों के साथ होने वाले दुर्व्यवहार की समस्या से एक हद तक निजात मिल सकती है।

 

 **page**

 DefQFormat="false" DefPriority="99" LatentStyleCount="267"> Priority="9" SemiHidden="false" UnhideWhenUsed="false" QFormat="true" Name="heading 1"/> नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो(एनसीआरबी) की रिपोर्ट [inside] क्राईम इन इंडिया-2011 [/inside] के आंकड़ों के अनुसार-
Priority="39" Name="toc 2"/> Name="toc 4"/> Priority="63" SemiHidden="false" UnhideWhenUsed="false" Name="Medium Shading 1 Accent 4"/>

http://ncrb.gov.in/

 

Locked="false" Priority="1" SemiHidden="false" UnhideWhenUsed="false" QFormat="true" Name="No Spacing"/> Priority="72" SemiHidden="false" UnhideWhenUsed="false" Name="Colorful List Accent 4"/>

महिला

देश में साल 2011 में महिलाओं के साथ अपराध की कुल 228650 घटनाएं दर्ज हुईं जबकि साल 2010 में महिलाओं के साथ अपराध की कुल 213585 घटनाएं दर्ज हुई थीं।

महिलाओं के साथ आपराधिक कर्म की सर्वाधिक घटनाएं (12.7%) पश्चिम बंगाल से प्रकाश में आईं जबकि त्रिपुरा में महिलाओं के साथ अपराधिक कर्म की दर(क्राईम रेट) सर्वाधिक (37.0) रही।इस मामले में राष्ट्रीय औसत 18.9 का है।

महिलाओं के साथ आपराधिक कर्म का प्रतिशत आईपीसी के अंतर्गत आने वाले कुल अपराधिक कृत्य की तादाद में पिछले पाँच सालों में बढ़ा है। साल 2007 में महिलाओं पर होने वाले अपराधों का प्रतिशत कुल अपराधों में अगर 8.8% था तो साल 2011 में 9.4% फीसदी।

मध्यप्रदेश में महिलाओं के साथ बलात्कार (3,406), छेड़खानी (6,665) और इम्पोर्टेशन (आईपीसी की धारा- 366-B) की घटनाएं (45) देश में सर्वाधिक हुईं। इनका प्रतिशत क्रमश 14.1%, 15.5% और 56.3% रहा।

आंध्रप्रदेश में महिलाओं के साथ यौन-दुराचार की 42.7% (3,658) घटनाएं हुईं।

महिलाओं के अपहरण 21.2% (7,525) और उनकी देहज-हत्या के सर्वाधिक मामले 26.9% (2,322) उत्तरप्रदेश में प्रकाश में आये।

महिलाओं के साथ आपराधिक कृत्य के कुल मामलों में 13.3% (4,489) दिल्ली में, 5.6% (1,890) बंगलुरु में और 5.5%(1,860) हैदराबाद में प्रकाश में आये।.

 

अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति

साल 2011 में अनुसूचित जाति के व्यक्तियों के साथ अपराध की कुल 33719 घटनाएं हुईं जबकि अनुसूचित जनजाति के साथ 5756। साल 2010 में अनुसूचित जाति के व्यक्तियों के साथ अपराध की कुल 32712 घटनाएं हुईं थीं जबकि अनुसूचित जनजाति के साथ 5885।

साल 2011 में अनुसूचित जाति के साथ आपराधिक कृत्य के कुल मामलों में 22.8%( कुल 33,719 में 7,702 ) उत्तरप्रदेश से है जबकि मध्यप्रदेश से 22.3%( कुल 5,756 में 1,284) मामले अनुसूचित जनजाति के साथ आपराधिक कृत्य के हैं।

अनुसूचित जाति के साथ आपराधिक कृत्य की दर का राष्ट्रीय औसत 2.8. है जबकि राजस्थान के मामले में यह साल 2011 में (7.6) का रहा। अनुसूचित जनजाति के साथ आपराधिक कृत्य की सर्वाधिक ऊंची दर अरुणाचल प्रदेश (2.5) में रही। इस मामले में राष्ट्रीय औसत 0.5 का है।

साल 2011 में अनुसूचित जाति के साथ आपराधिक कृत्य के कुल 33,719 मामलों में 11,342 मामलों प्रीवेंशन ऑव एड्रोसिटिज एक्ट- 1989 के तहत दर्ज किए गए जबकि अनुसूचित जनजाति के साथ आपराधिक कृत्य के कुल 5,756  मामलों में से 1,154 मामले इस एक्ट के तहत दर्ज हुए।

 

पुलिस और मानवाधिकार

साल 2011 में पुलिसकर्मियों के बरताव के विरुद्ध कुल 61,765 शिकायतें आईं। इसमें से कुल 11,171 मामलों को दर्ज किया गया और 47 पुलिसकर्मियों पर मुकदमें चले।

साल 2011 में पुलिस कर्मियों के बरताव के विरुद्ध सर्वाधिक शिकायतें( 17 प्रतिशत) दिल्ली से आईं। मध्यप्रदेश का स्थान इस मामले में दूसरा है। यहां पुलिसिया बरताव के विरुद्ध शिकायतों का प्रतिशत (14.7) का रहा।

साल 2011 में पुलिस द्वारा मानवाधिकार उल्लंघन के 72 मामले प्रकाश में आये। इसमें 46 मामलों में आरोपत्र दाखिल हुआ। पुलिस द्वारा मानवाधिकार उल्लंघन के सर्वाधिक मामले(50) दिल्ली से हैं।

 

  **page**

 एशियन ह्यूमन राइटस् कमीशन (एएचआरसी) नामक संस्था द्वारा प्रस्तुत [inside]टार्चर इन इंडिया(२०१०)[/inside] नामक दस्तावेज के अनुसार-
 http://www.achrweb.org/reports/india/torture2010.pdf:  

• साल २००० के बाद के उन आंकड़ों पर गौर करें जो गृहमंत्रालय ने संसद में पेश किए हैं तो पायेंगे कि साल २००८ तक जेल में मौत की घटनाओं में ५४.०२ फीसदी की बढ़ोतरी हुई है जबकि पुलिस हिरासत में मौत की घटनाओं में इसी अवधि में १९.८८ फीसदी की बढ़त हुई। वस्तुत साल २००४-०५ से साल २००७-०८ के बीच के यूपीए के शासन काल में जेल में हुई मौत की घटनाओं में ७०.७२ फीसदी का इजाफा हुआ है औएशियन सेंटर फॉर ह्यूमन राइटस् र पुलिस हिरासत में मौत की घटनाओं में १२.६० फीसदी का। .

• आठ अप्रैल २०१० को मंत्रिमंडल ने प्रीवेंशन ऑव टार्चर बिल को संसद में पेश करने का फैसला किया ताकि यूएन कन्वेंशन ऑन टार्चर के मानकों के अनुसार कानून बनाया जा सके। इस बिल को बड़ा गोपनीय रखा गया है। इससे पहले साल २००८ में भी प्रीवेंशन ऑव टार्चर बिल का प्रारुप तैयार किया गया था। प्रारुप में मात्र तीन अनुच्छेदों में यातना की परिभाषा, यातना के लिए दिया जाने वाला दंड और अपराध के संज्ञान के संबंध में शर्तों आदि का ब्यौरा दिया गया था। यहप्रारुप अत्यंत दोषपूर्ण था और एएचआरसी ( एशियन सेंटर फॉर ह्यूमन राइटस् ) सरकार को इस मुद्दे पर राष्ट्रीय स्तर पर बहस चलाने के बारे में सुझावों के साथ पत्र लिखा।

•साल १९९९-२००९ के बीच कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस शासित महाराष्ट्र में पुलिस हिरासत मेंसबसे ज्यादा मौतें(२४६ मामले) हुईं। इसके बाद उत्तरप्रदेश(१६५),गुजरात(१३९), पश्चिम बंगाल(११२ मामले), आंध्रप्रदेश(९९ मामले), तमिलनाडु(९३ मामले), असम(९१ मामले), पंजाब( ७१ मामले), कर्नाटक(६९ मामले), हरियाणा(६६ मामले), बिहार(४३ मामले), दिल्ली(४२ मामले) केरल(४१ मामले) , राजस्थान(३८ मामले), झारखंड((३१ मामले), उड़ीसा(२७ मामले) , छत्तीसगढ़(२३ मामले), मेघालय(१७ मामले), उत्तराखंड(१६ मामले), अरुणाचलप्रदेश(१५ मामले) त्रिपुरा(९ मामले), गोवा(५ मामले) का स्थान रहा। हिमाचलप्रदेश, जम्मू-कश्मीर और चंड़ीगढ़ में हिरासत मेंमौत के ४ मामले प्रकाश में आए।

• साल २००८-०९ में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने पुलिसिया हिरासत में मौत के कुल १२७ मामले दर्ज किए थे। इसमें सर्वाधिक मामले उत्तरप्रदेश(२४) से दर्ज हुए। इसके बाद महाराष्ट्र(२३), आंध्रप्रदेश और गुजरात( प्रत्येक १२) और असम (कुल ७) का स्थान था।तमिलनाडु और हरियाणा से पुलिसिया हिरासत में मौत की कुल  6-6 मामले प्रकाश में आये। बिहार और मध्यप्रदेश से ऐसे पाँच –पाँच, पंजाब, राजस्थान और पश्तिम बंगाल से चार-चार, झारखंड, कर्नाटक, अरुणाचलप्रदेश, उड़ीसा और केरल से 2-2 और मेघालय, त्रिपुरा, चंडीगढ़,छत्तीसगढ़ और दादर नगरहवेली से ऐसा एक मामला आयोग में दर्ज हुआ।

• पुलिसिया हिरासत में मौत के मामले में पुलिस की तरफ से रुटीनी तौर पर कहा गया कि मामला आत्महत्या का है।राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार साल 2007 में पुलिसिया हिरासत में 31 लोगों की मौत को आत्महत्या करार दिया गया। साल 2006 में ऐसे मामलों की तादाद ब्यूरो ने 24 और 2005 में 30 बतायी थी।

• राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार साल 2007 में हिरासत में बलात्कार का एक मामला प्रकाश में आया जबकि साल 2006 में ऐसे मामलों की संख्या दो और 2005 में सात थी।
 
• उपर्युक्त रिपोर्ट (टार्चर इन इंडिया-२०१०) के अनुसार नक्सलवादी या माओवादी राज्यविरोधी सशस्त्र संघर्ष करने वालों में संभवतया सबसे बड़े मानवाधिकार उल्लंघनकर्ता हैं। वे आम नागरिक को पुलिस का मुखबिर बताकर मारते हैं, वे अपने अपहृत की निर्मम तरीके से हत्या करते हैं और इस हत्या के लिए वे अपनी खास पंचायत(जमअदालत) भी करते हैं।

• देश के मानवाधिकार आयोग ने साल 2006-2007 में कैदियों की प्रताड़ना के 1,996 मामले, साल 2007-2008 में ऐसे 1,596 मामले और साल 2008-2009 में 11 दिसंबर 2008 तक ऐसे 1,596 मामले दर्ज किए।

• गृहमंत्रालय के अधीन कार्यरत राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार साल 2006 में 1424 कैदियों की, साल 2005 में 1387 कैदियों की,  साल 2004 में 1169 एवम् 2003 में 1060 कैदियों की जेल में मृत्यु हुई। साल 2006 में जो कैदी मृत्यु का शिकार हुए उनमें 80 की मृत्यु अप्राकृतिक कारणों से हुई।

• नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के 2007 की वार्षिक रिपोर्ट में अनुसूचित जाति पर हुए अत्याचार के कुल 30031 मामले दिखाए गए हैं। इसमें 206 मामले प्रोटेक्शन ऑव सिविल राइटस् एक्ट के तहत और 9819 मामले एससी-एसटी प्रीवेंशन ऑव एट्रोसिटीज एक्ट के तहत दिखाये गए हैं। हालांकि एससी जातियों के साथ हुए अपराध में चार्जशीट दायर करनेकी दर 90.6 फीसदी है लेकिन महज 30.9 फीसदी मामलों में हीअभियुक्त पर किसी किस्म का फैसला दिया जा सका। गिरप्तार कुल 65554 लोगों को (यानी 78 फीसदी)  अनुसूचित जाति के ऊपर किसी किस्म का अत्याचार करने के मामले में चार्जशीट किया गया लेकिन इसमें सिर्फ 29 फीसदी यानी कुल 13871 लोगों पर ही(47136 में से जिन पर आरोप लगे) फैसला सुनाया जा सका।
**page**

 

नेशनल क्राइम रिकार्डस् ब्यूरो द्वरा प्रस्तुत [inside]प्रीजन स्टैटिक्स 2006[/inside] के अनुसार

(http://ncrb.nic.in/PSI2006/prison2006.htm):

 

  • साल 2006 के दौरान जेलों में प्राकृतिक अथवा अप्राकृतिक कारणों से कुल 1423 कैदियों की मृत्यु हुई। इसमें 1343 को प्राकृतिक मृत्यु की श्रेणी में रखा गया है और 80 को अप्राकृतिक कारणों से हुई मृत्यु की श्रेणी में।
  • कैदी द्वारा साथी कैदी की हत्या की घटना छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक में हुई(प्रत्येक में एक)
  • उत्तरप्रदेश के जेलों में सबसे ज्यादा विचाराधीन कैदियों (3101)  को  दो से तीन साल की अवधि तक जेल में रोककर रखा गया। बिहार इस मामले में 2565 बंदियों के साथ दूसरे नंबर पर है। मेगालय में 2-3 साल तक रोक कर रखे गए विचाराधीन कैदियों की प्रतिशत तादाद(9.6) सबसे ज्यादा है। इसके बाद नगालैंड(7.7),झारखंड(7.2)और उत्तराखंड(7.1) का नंबर है।
  • छह माह से एक साल की अवधि तक बगैर मुकदमा चलाये जेल में रोकने की घटना को आधार मानें तो उत्तरप्रदेश इस मामले में भी 8886 विचाराधीन कैदियों के साथ अव्वल स्थान पर है और बिहार 8076 विचाराधीन कैदियों के साथ दूसरे नंबर पर।
  • देश के विभिन्न जेलों में 1569 कैदी 5 या उससे ज्यादा सालों से बंद हैं मगर उनके मुकदमे की सुनवाई अभी नहीं हो पायी है।
  • देश के विभन्न जेलों में बंद विचाराधीन कैदियों की तादाद कुल कैदियों में 65.7 फीसदी है जबकि सजायाफ्ता कैदियों की तादाद 31.3 फीसदी।
  • विचाराधीन कैदियों में हत्या के आरोप में बंदी बनाये गए कैदियों की तादाद सबसे ज्यादा(28.0 फीसदी) है। उत्तरप्रदेश में ऐसे कैदियों की संख्या देश में सबसे ज्यादा(9936) है। हत्या का आरोप झेल रहे विचाराधीन कैदियों की तादाद बिहार में 8102 है।
  • 1569 यानी कुल विचाराधीन कैदियों में 0.6 प्रतिशत को साल 2006 के अंतिम माह में जेल में रहते हुए 5 या उससे ज्यादा वर्ष हो चुके थे। पंजाब में ऐसे कैदियों की संख्या सबसे ज्यादा(377) है जबकि बिहार इस मामले में दूसरे नंबर(356) है।
  • साल २००६ के अंत में देश के विभिन्न जेलों में बंद कैदियों में फांसी की सजा प्राप्त कैदियों की संख्या ३४७ थी जिसमें २ महिलाएं हैं।
  • सजायाफ्ता कुल मुजरिमों में ५३.३ फीसदी यानी ६२,१८० कैदी ऐसे हैं जिन्हें उम्र कैद की सजा सुनाई गई है।
  • सजा काट चुके कुल १३,०८४ कैदी फिर से किसी आरोप के अधीन जेल में पहुंचे हैं। साल २००६ में जेल पहुंचे कुल कैदियों में इनकी तादाद ५.१ फीसदी थी।
  • सजायाफ्ता ६४ कैदियों १६-१८ आयु वर्ग के हैं जबकि सजायाफ्ता ४४३७१ कैदी १८ से ३० साल के। सजायाफ्ता ५६,४७९ कैदी ३० से ४० साल के आयु वर्ग के हैं जबकि ५० साल या उससे अधिक उम्र के सजायाफ्ता कैदियों की संख्या १५,७६१ है।
  • ५६७ विचाराधीन कैदी १६-१८ साल के आयु वर्ग के हैं, १,०६,३३५ विचाराधीन कैदी१८-३० आयु वर्ग के हैं, १,०९,०३९ विचाराधीन कैदी ३०-५० साल के आयु वर्ग के हैं और २९,३०३ विचाराधीन कैदी ५० या उससे अधिक साल के हैं।

 **page**

 

[inside]मानवाधिकार आयोग,भारत सरकार के वार्षिक रिपोर्ट(२००४-०५)[/inside] के अनुसार-

 

(http://nhrc.nic.in/Documents/AR/AR04-05ENG.pdf):

 

हिरासत में मौत की घटनायें-

 

  • आयोग द्वारा जारी दिशानिर्देशों का पालन करते हुए राज्य सरकार के प्रतिनिधियों ने आयोग को हिरासत में हुई मौतों की जानकारी भेजी है। साल २००४-०५ में आयोग को हिरासत में मौत की १४९३ घटनाओं की सूचना मिली। इसमें १३६ मौतें पुलिस हिरासत में हुईं जबकि १३५७ मौत न्यायिक हिरासत में।
  • आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, केरल, उड़ीसा, दिल्ली,झारखंड और उत्तराखंड में पुलिस हिरासत में हुई मृत्यु की संख्या में बढोतरी हुई है।
  • आयोग ने साल २००३ के २ दिसंबर को संशोधित दिशानिर्देश जारी किये। इसके जवाब में आयोग को विभिन्न राज्य सरकारों से मुठभेड़ में हुई मृत्यु की घटनाओं के बारे में १२२ सूचनाएं हासिल हुईं। इसमें ६६ सूचनाएं उत्तरप्रदेश से थीं, १८ आंध्रप्रदेश से, ९ दिल्ली से और पांच-पांच की संख्या में महाराष्ट्र तथा मध्यप्रदेश से। आयोग को फर्जी मुठभेड़ में मारे जाने के बारे में ८४ शिकायतें मिलीं।

 

 

कैदियों की तादाद

 

  • जेलों में बंद कुल कैदियों की तादाद ३.३६,१५१ है जबकि क्षमता के लिहाज से फिलहाल जेलों में २,३७,६१७ कैदियों को ही रखा जा सकता है। इस तरह जेलों में धारण-क्षमता से ४१ फीसदी ज्यादा कैदी रखे गये हैं। ग्यारह राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों-बिहार, छ्त्तीसगढ़, गुजरात, हरियाणा, झारखंड, मध्यप्रदेश, उड़ीसा, सिक्किम ,त्रिपुरा, उत्तरप्रदेश और दिल्ली में कहीं जेलों में कैदियों की तादाद ५२ फीसदी से ज्यादा है तो कहीं २२४ फीसदी।
  • जेलों में धारण-क्षमता से अधिक कैदियों की रखने के मामले में दिल्ली सबसे अव्वल है। यहां जेलों में कैदियों की तादाद धारण-क्षमता से २२४ फीसदी ज्यादा है। इसके बाद झारखंड(१९५फीसदी), छ्तीसगढ़(१११ फीसदी) और गुजरात(१०४ फीसदी) का नंबर है। जेलों की धारण क्षमता के अनुकूल कैदी रखने वाले राज्यों के नाम हैं-जम्मू-कश्मीर, मणिपुर, नगालैंड, राजस्थान, उत्तराखंड,पश्चिम बंगाल, चंडीगढ़, दमन और दीऊ, दादरा और नगर हवेली तथा लक्षद्वीप।
  • देश में कैदियों की कुल तादाद में ७१.१४ फीसदी हिस्सा विचाराधीन कैदियों का है। कुल ग्यारह राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में विचाराधीन कैदियों की संख्या ८० फीसदी से भी ज्यादा है।इन राज्यों और केंद्रशासित प्रेदशों के नाम हैं- दादरा और नगर हवेली (१००फीसदी), मेघालय(९४.७१ फीसदी), मणिपुर(९२.५१ फीसदी), जम्मू-कश्मीर(८८.९० फीसदी), बिहार(८५.६६फीसदी), दमन और दीऊ(८४.१५ फीसदी), नगालैंड(८३.३१ फीसदी), उत्तरप्रदेश(८२.४७ फीसदी), दिल्ली(८१.४५ फीसदी), चंड़ीगढ़(८०.४२ फीसदी) और पश्चिम बंगाल(८०.२० फीसदी)। छ्तीसगढ़ एकमात्र ऐसा राज्य है जहां विचाराधानी कैदियों की संख्या कुल कैदियों की संख्या के ५० फीसदी से कम है। 
  • देश में मौजूद कुल कैदियों की तादाद में महिलाओं की संख्या ३.९७ फीसदी है। सबसे ज्यादा महिला कैदियों की संख्या उत्तराखंड(११.६९ फीसदी)  में है।इसके बाद महिला कैदियों की संख्या के मामले में मिजोरम(१०.४५फीसदी) तमिलनाडु(९.२५ फीसदी). चंडीगढ़(६.४७ फीसदी)आंध्रप्रदेश(५.७७ फीसदी) पश्चिम बंगाल(५.७१ फीसदी) और पंजाब(५.६८ फीसदी) का नंबर है।
  • माताओं के साथ जेल में बंद बच्चों की कुल तादाद १५४४ है। इस मामले में उत्तरप्रदेश सबसे आगे है जहां ३८५ बच्चे अपनी माताओं के साथ जेल में हैं।इसके बाद पश्चिम बंगाल(१६३) महाराष्ट्र(१४३), झारखंड(१४२) और मध्यप्रदेश(१२७) का नंबर है।

 

**page**

मानवाधिकारोंका उल्लंघन

 

  • साल २००४-०५ में मानवाधिकार से संबंधित ७४,४०१ मामले मानवाधिकार आयोग में दर्ज हुए जबकि इसके पिछले साल(२००३-०४) ऐसे मामलों की तादाद ७२,९९० थी। साल २००४-०५ में दर्ज मामलो में ७२,७७५ मामले मानवाधिकार उल्लंघन के थे जबकि १५०० मामले हिरासत में मौत के। दर्ज मामलों में ४ हिरासत में बालात्कार के थे जबकि १२२ फर्जी मुठभेड़ के।
  • साल २००४-०५ में मानवाधिकार आयोग को हिरासत में मौत की जितनी सूचनाएं मिलीं उनमें ७ मौतें (तथाकथित) सुरक्षाबलों या अर्धसैनिक बलों के हिरासत में और १३६ मौते पुलिस हिरासत में हुईं। १३५७ मौतें न्यायिक हिरासत में हुईं।
  • विगत सालों की भांति साल २००४-०५ में भी मानवाधिकार उल्लंघन की सबसे ज्यादा शिकायतें उत्तरप्रदेश से आयीं। उत्तरप्रदेश से मानवाधिकार उल्लंघन की कुल ४४,३५१ शिकायतें आयीं जो आयोद द्वारा दर्ज कुल शिकायतों की संख्या के ५९.६ फीसदी है। उत्तरप्रदेश के बाद इस मामले में दिल्ली(५२२१ शिकायतें) और बिहार(३९१७) का नंबर है।

 

 

एशियन सेंटर फॉर ह्यूमन राइटस् द्वारा प्रस्तुत [inside]टार्चर इन इंडिया २००८-अ स्टेट ऑव डिनायल[/inside] नामक दस्तावेज के अनुसार- (http://www.achrweb.org/reports/india/torture2008.pdf): 

 

  • जिन संस्थाओं की जिम्मेदारी लोगों को राज्यतंत्र की प्रताड़ना से बचाने की है उनमें गंभीर कमियां हैं। अदालतें राज्यतंत्र की प्रताड़ना के खिलाफ एक कारगर संस्था साबित हुई हैं लेकिन खास किस्म के कानूनों के अभाव और आपराधिक दंड संहिता तथा राष्ट्रीय सुरक्षा के कानूनों के तहत प्राप्त विशेषाधिकार और अदालती प्रक्रिया में देरी के कारण अदालतों की इस मामले में इंसाफ देने की शक्ति बाधित होती है।
  • साल २००६-०७ में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को हिरासत में मौत की १५९७ सूचनाएं मिलीं। इसमें १८ मामलों में मृत्यु पुलिस हिरासत में हुई थी और १४७७ मामले न्यायिक हिरासत में मृत्यु के थे। दो मामले ऐसे थे जिसमें मृत्यु सेना या अर्ध सैनिक बलों की हिरासत में हुई। 
  • साल २००५-०६ में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को हिरासत में मौत की १५७५ सूचनाएं मिलीं। इसमें १२४ मामले पुलिस हिरासत में मौत के थे और १४५१ मामले न्यायिक हिरासत में मौत के। साल २००४-०५ में मानवाधिकार आयोग को हिरासत में मौत की १४९३ सूचनाएं हासिल हुई थीं इसमें १३६ पुलिस हिरासत में मौत के मामले थे और १३५७ मामले न्यायिक हिरासत में मौत के।
     
  • साल २००३-०४ में हिरासत में मौत की कुल १३४० घटनाएं हुई थीं। इसमें १८३ मामले पुलिस हिरासत में मौत के थे और ११५७ मामले न्यायिक हिरासत में मौत के। साल २००२-०३ में आयोग को हिरासत में मौत की १४६३ सूचनाएं मिलीं जिसमें १६२ मामले पुलिस हिरासत में मौत के थे और १३०० मामले में न्यायिक हिरासत में मौत के। १ मामला सैन्यबलों की हिरासत में मौत का था। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के आंकड़ों से पता चलता है कि पिछले पांच सालों में हिरासत में मौत की कुल ७४६८ घटनाएं हुई हैं जिसका सालाना औसत १४९४ मौतों का या फिर रोजाना का औसत ४ मौतों का बैठता है। बहरहाल ये आंकड़े राज्यतंत्र के हाथो हो रही प्रताडना की पूरी तस्वीर बयां नहीं करते। इन आंकड़ों में ये नहीं बताया गया है कि मृत्यु की घटनाएं कानूनी तौर पर जायज कारणों मसलन-बुढ़ापा आदि के कारण हुईं और कितनी मौतेंनाजायज कारणों से। फिर इन आंकड़ों से इस बात की भी सूचना नहीं मिलती कि सैन्यबलों या पुलिस के हाथों प्रताड़ना देने की ऐसी कितनी घटनाएं हुईं जिसमें पीडित की मृत्यु नहीं हुई। इसके अतिरिक्त मानवाधिकार आयोग को यह अधिकार नहीं है कि वह सैन्य या अर्धसैन्य बलों के हाथों हो रहे मानवाधिकार उल्लंघन के मामलों का ब्यौरा रखे या फिर उनकी जांच करे। मानवाधिकार आयोग अक्सर यह बात कहता है कि संघर्षाच्छान्न इलाके मसलन मणिपुर या फिर जम्मू-कश्मीर में हिरासत में मृत्यु की घटनाएं नहीं हो रही हैं जबकि इन राज्यों में तलाशने पर  हिरासत में मौत के मामलों से जुड़े दस्तावेज आसानी से मिल जाते हैं।
  • प्रताड़ना और हिरासत में मौत के अधिकांश मामलों में देखा गया है कि छोटे मोटे गुनाह(मससन छीनझपट या चोरी) कबूल करवाने के लिए सैन्यबलों या फिर पुलिस ने जो यातना दी उससे पीडित की मृत्यु हो गई।इससे जाहिर होता है कि आर्थिक रुप से समाज के वंचित तबके राज्यतंत्र की प्रताड़ना के ज्यादा शिकार होते हैं।

 **page**

एशियन सेंटर फॉर ह्यूमन राइटस् द्वारा प्रस्तुत इंडिया ह्यूमन राइटस् रिपोर्ट(२००८) के अनुसार-  (http://www.achrweb.org/reports/india/AR08/AR2008.pdf):

 

  • मध्यप्रदेश में साल २००७ में जनजातीय भूमि के लेन-देन से जुड़े २९,५९६ मामलों की सुनवाई अदालत में हुई और इसमें किसी भी मामले में अदालत ने जनजातियों के पक्ष में फैसला नहीं सुनाया। 
  • मुठभेड़ में मार गिराया शब्द का व्यवहार अक्सर गैरकानूनी तरीके से किसी को जान से मारने की घटना को छुपाने के लिए किया जाता है। सच्चाई यह है कि साल २००६ के १ अप्रैल से ३१ मार्च २००७ तक राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को मुठभेड़ में मार गिराने के ३०१ मामलों की सूचना मिली। इसमें २०१ मामले सिर्फ उत्तरप्रदेश से थे जहां किसी किस्म का सशस्त्र संघर्ष नहीं चल रहा। और यह तथ्य मुठभेड़ में मारे जाने की घटनाओं की सच्चाई पर संदेह जगाता है।
  • साल २००७ में नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो ने कहा कि १३९ लोगों की मृत्यु पुलिस हिरासत में हुई। इसमें २३ लोगों की मृत्यु अदालती कार्रवाई के दौरान अथवा तहकीकात के लिए की गई यात्रा के दौरान हुई। ३८ लोगों की मत्युI अस्पताल में उपचार के लिए भर्ती करवाने पर, ९ की मृत्यु भीड़ के हमले और २ की मृत्यु अपराधियों के हाथो हुई। ३१ ने आत्महत्या की, ७ भागने के क्रम में मारे गए और २९ की मृत्यु प्राकृतिक कारणों से हुई।

 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *