शिक्षा

खास बात

• साल १९९३-९४ में ग्रामीण इलाकों में पुरुष साक्षरता की दर(राष्ट्रीय स्तर) ६३ फीसदी थी जो साल १९९९-२००० में बढ़कर ६८ फीसदी हो गई।*

• साल १९९३-९४ में ग्रामीण इलाकों में महिला साक्षरता की दर(राष्ट्रीय स्तर) ३६ फीसदी थी जो साल १९९९-२००० में बढ़कर ४३ फीसदी हो गई।*

 • भारत के ग्रामीण अंचल में अनुसूचित जनजाति के तबके के लोगों में साक्षरता दर सबसे कम(४२ फीसदी) पायी गई है। इसके तुरंत बाद अनुसूचित जाति के परिवार के लोगों में साक्षरता दर की कमी(४७ फीसदी) लक्षित की जा सकती है।*

• शिक्षा के हर मरहले पर पुरुषों की तुलना में स्त्रियों की मौजूदगी कम है। इससे शिक्षा के मामले में स्त्री-पुरुष के बीच अन्तर का खुलासा होता है। *

• मध्यप्रदेश और राजस्थान में साल १९९३-९४ से १९९९-२००० के बीच साक्षरता दर में सर्वाधिक तेज बढ़ोतरी हुई।*

•  सर्वाधिक कम भूमि की मिल्कियत वाले वर्ग में साक्षरता दर ५२ फीसदी है जबकि सर्वाधिक बड़े आकार की भू-मिल्कियत वाले वर्ग में साक्षरता दर ६४ फीसदी है।*
• ग्रामीण भारत में 6-14 साल की उम्र के 96.7% बच्चे स्कूलों में नामांकित हैं। साल 2010 से इस संख्या में खूब तेज बढ़त हुई है।**
• निजी स्कूलों में नामांकन में बढोत्तरी करीब-करीब सभी राज्यों में देखने को मिल रही है। 2012 में जम्मू-कश्मीर, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, उत्तरप्रदेश, गोवा और मेघालय में 6-14 आयुवर्ग के 40 फीसदी से अधिक बच्चे निजी स्कूलों में नामांकित थे। केरल और मणिपुर के लिए यह प्रतिशत 60 से ज्यादा था। **

• 2010 में राष्ट्रीय स्तर पर कक्षा 5 के आधे से अधिक (53.7 फीसदी) विद्यार्थी कक्षा 2 के स्तर का पाढ़ पढ़ पाने में सक्षम थे और ऐसे बच्चों का अनुपात गिरकर साल 2011 में 48.2 फीसदी पहुंचा तो साल 2012 में 46 फीसदी। **

• 2010 में 10 में 7(70.9 फीसदी) कक्षा 5 में नामांकित बच्चे दो अंकों का घटाव(जिसमें हासिल लेना पड़ता हो) कर सकते थे। 2011 में यह अनुपात घटकर 10 में 6(61 फीसदी) और 2012 में गिरकर 10 में से 5(53.5फीसदी) हो गया है। **
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* लिटरेसी एंड लेवलस् ऑव एजुकेशन इन इंडिया १९९९-२००० ५५ वें दौर की गणना एनएसएस जुलाई १९९९-जूल २०००

** एनुअल स्टेटस् ऑव एजुकेशन रिपोर्ट(असर) 2012

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[inside] 14 से 18 वर्ष की आयु के युवा कक्षा 2 के स्तर का पाठ नहीं पढ़ पा रहे हैं: असर 'बियॉन्ड बेसिक रिपोर्ट- 2023 [/inside]

बुधवार को नई दिल्ली स्थित इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में ऐन्युअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट (ASER)- 2023: बियॉन्ड बेसिक जारी की गई। यह रिपोर्ट, असर 2023 के भागीदार संगठनों के प्रतिनिधियों की मौजूदगी में जारी की गई। इस रिपोर्ट को प्राप्त करने के लिए कृपया यहाँ, यहाँ और यहाँ क्लिक करें।

क्या है यह रिपोर्ट
'प्रथम' नाम के एक एनजीओ ने वर्ष 2005 में 'असर' नाम से एक रिपोर्ट जारी की। इसे बेसिक असर रिपोर्ट भी कहा जाता है। यह रिपोर्ट वर्ष 2014 तक प्रतिवर्ष जारी की जाती रही। वर्ष 2014 के बाद इसे दो वर्षों के अन्तराल पर जारी किया जाता है। बेसिक असर रिपोर्ट में दो विषयों पर ध्यान केन्द्रित किया जाता है; पहला- ग्रामीण भारत के 3 से 16 वर्षीय बच्चों की स्कूली शिक्षा की स्थिति जानना और दूसरा 5-16 वर्षीय बच्चों की बुनियादी पढ़ने और गणित की समझ को परखना।
बीच के वर्षों में चुनिन्दा विषयों पर रिपोर्टें जारी की जाने लगीं। जैसे वर्ष 2017 में, असर 'बियॉन्ड बेसिक्स' जारी की गई। यह रिपोर्ट, 14 से 18 आयु वर्ग के युवाओं पर ध्यान केन्द्रित थी। वर्ष 2019 की रिपोर्ट को 4 से 8 साल के बच्चों की (प्री-प्राइमरी और प्रारंभिक प्राथमिक स्कूली शिक्षा) पर केन्द्रित किया।

वर्ष 2023 की रिपोर्ट ग्रामीण भारत के 14 से 18 वर्षके युवाओं पर केन्द्रित है। ऐसी ही रिपोर्ट 2017 में जारी की गई थी। 6 वर्षों की अवधि के बाद इस आयु वर्ग की प्रगति को अंकित करने की कोशिश करती है।

इस रिपोर्ट में तीन विषयों पर अधिक ज़ोर दिया है। ये विषय कुछ इस प्रकार से हैं- 
• गतिविधि : भारत के युवा वर्तमान में क्या गतिविधियाँ कर रहे हैं ?
• क्षमता : क्या वे सरल पाठ पढ़ सकते हैं ? और बुनियादी गणित हल कर सकते हैं ? और इनका दैनिक जीवन में प्रयोग कर सकते हैं ?
• डिजिटल जागरूकता और कौशल : क्या उनके पास स्मार्टफोन है ? वे स्मार्टफ़ोन का उपयोग किस लिए करते हैं ? क्या वे स्मार्टफोन पर कुछ सरल डिजिटल कार्य कर सकते हैं ?

रिपोर्ट की मुख्य बातें- 

1.गतिविधि 

  • 14 से 18 आयु वर्ग के 86.8% युवा किसी शैक्षणिक संस्थान में नामांकित हैं।
  • लड़के और लड़कियों के नामांकन में अंतर कम हैं, परंतु उम्र के साथ-साथ अंतर बढ़ता जाता है। 14 वर्ष के 3.9% युवा और 18 वर्ष के 32.6% युवा किसी भी शैक्षणिक संस्थान में नामांकित नहीं हैं।
  • इस आयु वर्ग के अधिकतम युवा कला/मानविकी स्ट्रीम में नामांकित हैं। कक्षा 11 या उससे ऊपर नामांकित युवाओं में आधे से अधिक युवा कला/मानविकी (55.7%) मे नामांकित हैं। लड़कियों (28.1%) की तुलना में अधिक लड़के (36.3%) STEM (विज्ञान, प्रौद्योगिकी, इंजीनियरिंग और गणित) में नामांकित हैं।
  • सर्वेक्षित युवाओं में से केवल 5.6% युवा व्यावसायिक प्रशिक्षण ले रहे हैं या अन्य संबंधित कोर्स कर रहे हैं। कॉलेज में नामांकित युवाओं में यह अनुपात सबसे अधिक (16.2%) है। अधिकांश युवा कम अवधि के कोर्स कर रहे हैं (6 माह या उस से कम अवधि वाले।)
  • युवाओं से यह भी पूछा गया था कि क्या उन्होंने पिछले महीने में 15 या उससे अधिक दिन कोई अन्य काम किया है। लड़कियों (28%) की तुलना में लड़कों (40.3%) में अन्य काम करने का अनुपात अधिक है।
  • अन्य काम कर रहे ज़्यादातर युवा अपने परिवार के कृषि-संबंधित कार्यों में संलग्न थे।

2.क्षमता

  • युवाओं की क्षमता परखने के लिए सर्वेक्षण में भाग लेने वाले युवाओं को पाँच प्रकार के काम दिए। इनमें से चार कामों से जुड़े आँकड़े नीचे दिये हैं:- 
  • पाठ पढ़ने की बुनियादी क्षमता, गणित और अंग्रेजी समझने की क्षमता
  • रोजमर्रा की गणनाओं में बुनियादी कौशल का अनुप्रयोग;
  • लिखित निर्देशों को पढ़ना और समझना
  • ऐसी वित्तीय गणनाएँ करना जिनकी वास्तविक जीवन में आवश्यकता होती है।
  • पाँचवे प्रकार के काम में डिजिटल कार्यों पर युवाओं के प्रदर्शन को रखा है। इसका विवरण डिजिटल जागरूकता और कौशल वाले भाग में दिया है।

14-18 आयुवर्ग के युवाओं में बुनियादी क्षमताएँ

  • इस आयुवर्ग के सभी युवाओं में से लगभग 25% युवा अब तक अपनी क्षेत्रीय भाषा में कक्षा 2 के  स्तर का पाठ नहीं पढ़ सकते हैं।
  • आधे से ज़्यादा युवा भाग (3-अंक से 1-अंक) का सवाल नहीं कर पाते हैं। सिर्फ 43.3% युवा यह सवाल सही कर पाए। यह क्षमता कक्षा 3 या 4 के बच्चों से अपेक्षित की जाती है।
  • आधे से अधिक युवा अंग्रेजी में वाक्य पढ़ सकते हैं (57.3%)। इनमें से, लगभग तीन चौथाई युवा ही उनका अर्थ बता सकते हैं (73.5%)।
  • सभी नामांकन स्थितियों में, लड़कों (70.9%) के मुकाबलेज़्यादा लड़कियाँ(76%) अपनी भाषा में कक्षा 2 के स्तर का पाठ पढ़ सकती हैं। इसके विपरीत, गणित और अंग्रेजी में लड़के लड़कियों से बेहतर प्रदर्शन करते हैं।

दैनिक गणनाएँ
सभी लोगों से अपेक्षा की जाती है कि वे ऐसे कई दैनिक कार्य करने में सक्षम हों, जिनमें बुनियादी गणित करने की क्षमता की आवश्यकता होती है। युवाओं के दैनिक जीवन से संबंधित ऐसे विभिन्न कार्यों को असर 2023 में शामिल किया गया।
लगभग 85% से अधिक सर्वेक्षित युवा स्केल का प्रयागे करके तब लंबाई माप सकते हैं जब उसे 0 cm से शरू किया जाए। परंतु शुरुआती बिंदु बदलने पर यह अनुपात तेज़ी से गिरकर 39% हो जाता है। लगभग 50% युवा अन्य दैनिक गणनाएँ कर सकते हैं।

  • लगभग 85% से अधिक सर्वेक्षित युवा स्केल का प्रयागे करके तब लंबाई माप सकते हैं जब उसे 0 cm से शरू किया जाए। परंतु शुरुआती बिंदु बदलने पर यह अनुपात तेज़ी से गिरकर 39% हो जाता है। लगभग 50% युवा अन्य दैनिक गणनाएँ कर सकते हैं।

लिखित निर्देशों को पढना और समझना दैनिक जीवन में इसका उपयोग
युवाओं को O.R.S. (ओआरएस) पैकेट पर दिए गए निर्देश पर आधारित कुछ प्रश्न पूछे गए थे। यह कार्य केवल उन युवाओं को दिया गया जो असर पढ़ने की जाँच में कम से कम कक्षा। स्तर का पाठ पढ़ सके।

  • उन युवाओं में से जो कम से कम कक्षा। स्तर का पाठ पढ़ सकते हैं, लगभग दो-तिहाई युवा पैकेट के आधार पर 4 में से कम से कम 3 प्रश्नों के उत्तर दे सकते हैं।

वित्तीय गणनाएँ
जो युवा असर गणित की जाँच में कम से कम घटाव कर सके, उन्हें कुछ आम तौर पर की जाने वाली वित्तीय गणनाओं पर कार्य दिए गए।

  • जो युवा असर गणित की जाँच में कम से कम घटाव कर सके, उनमें से लगभग 60% युवा बजट का प्रबंधन और लगभग 37% युवा छूट की गणना कर सकते हैं। लेकिन केवल 10% ही ऋण भुगतान की गणना कर सकते हैं।

'क्षमता' डोमेन का डाटा बताता है कि बुनियादी पढ़ने और गणित करने की क्षमताएँ दैनिक गणनाएँ और निर्देश समझने जैसे रोजमर्रा के कार्यों को करने में मदद करती हैं। हालाँकि, लगभग सभी कार्यों में लड़कों का प्रदर्शन लड़‌कियों की तुलना में बेहतर था।

डिजिटल जागरूकता और कौशल

असर 2023 में डिजिटल कनेक्टिविटी और क्षमताओं को समझने के लिए एक सेल्फ़ रिपोर्टेड प्रश्नावली द्वारा युवाओं में डिजिटल उपकरणों की उपलब्धता और उपयोग पर जानकारी ली गई। साथ ही, उनके डिजिटल कौशल का मूल्यांकन किया गया – उनसे सर्वेक्षकों के सामने एक स्मार्टफोन पर कुछ डिजिटल कार्य करवाएँ गए।

डिजिटल उपकरणों की उपलब्धता 

  • लगभग 90% युवाओं के घर में स्मार्टफोन हैं, और उतने ही युवा इसका प्रयोग करना जानते हैं। उनमें से जो स्मार्टफोन का प्रयोग कर सकते हैं, लड़‌कियों (19.8%) की तुलना में दोगुने से अधिक लड़कों (43.7%) के पास स्वयं का स्मार्टफोन हैं।
  • लड़कों की तुलना में कम लड़कियाँ बताती हैं कि वे स्मार्टफोन या कंप्यूटर चलाना जानती हैं।

संचार और ऑनलाइन सरक्षा

  • लगभग सभी युवाओं (90.5%) ने बताया कि उन्होंने सर्वेक्षण से पिछले सप्ताह में सोशल मीडिया का प्रयोग किया। लड़‌कियों (87.8%) की तुलना में लड़कों (93.4%)में इसका अनुपात थोड़ा अधिक है।
  • सोशल मीडिया का प्रयोग करने वाले सभी युवाओं में से लगभग आधे ही उन सुरक्षा संबंधित सेटिंग्स के बारे में जानते हैं जो सर्वेक्षण में पूछे गए थे। लड़कियों की तुलना में ज्यादा लड़के इन सुरक्षा सेटिंग्स के बारे में जानते हैं।

पढ़ाई और सीखने संबंधित

  • उन युवाओं में से जो स्मार्टफोन का प्रयोग कर सकते हैं, दो-तिहाई ने सर्वेक्षण से पिछले सप्ताह में स्मार्टफोन का प्रयोग पढ़ाई से संबंधित गतिविधियों जैसे ऑनलाइन वीडियो देखना, शंकाओं का समाधान या नोट्स को साझा करने के लिए किया।
  • वर्तमान में अनामांकित युवाओं में से भी एक-चौथाई ने सर्वेक्षण से पिछले सप्ताह में अपने स्मार्टफोन पर पढ़ाई संबंधित गतिविधियाँ की हैं।

ऑनलाइन सेवाएँ और मनोरंजन

 

  • सभी युवाओं में से एक-चौथाई से थोड़े अधिक ने बताया कि उन्होंने स्मार्टफोन का उपयोग ऑनलाइन सेवाएँ जैसे भुगतान करने, फॉर्म/बिल भरने और टिकट बुक करने के लिए किया है।
  • लगभग 80% युवाओं ने बताया कि उन्होंने पिछले सप्ताह में फिल्म देखने और गाने सुनने जैसी मनोरंजन संबंधित गतिविधियों के लिए स्मार्टफोन का प्रयोग किया।

डिजिटल कार्य

(यह कार्य सर्वेक्षक की उपस्थिति में स्मार्टफोन पर किए गए।)

सर्वेक्षण के दौरान डिजिटल कार्यों को करने के लिए युवा से अपना, परिवार के सदस्य का, या पड़ोसी का अच्छी कनेक्टिविटी वाला स्मार्टफोन लाने के लिए कहा गया था।

सर्वेक्षण के दौरान दो-तिहाई से थोड़े अधिक युवा यह कार्य करने के लिए स्मार्टफोन ला सके। लड़कियों (62%) की तुलना में ज्यादा लड़के (72.9%) स्मार्टफोन ला पाए।

जो युवा स्मार्टफोन ला सके, उनमें से लगभग 80% युवा यूट्यूब पर पूछे गए वीडियो को ढूँढ सके और इनमें से लगभग 90% इसे किसी के साथ साझा कर पाए। 70% युवा इंटरनेट का प्रयोग कर किसी प्रश्न का उत्तर खोज सके। लगभग दो-तिहाई युवा निर्धारित समय का अलार्म सेट कर सके। एक-तिहाई से कुछ अधिक युवा दो स्थानों के बीच यात्रा में लगने वाले समय का पता लगाने के लिए गूगल मैप्स का प्रयोग कर सके।

  • सभी कार्यों में, लड़कों ने लड़कियों से बेहतर प्रदर्शन किया।
  • कक्षा स्तर के साथ डिजिटल कार्यों पर प्रदर्शन में सुधार होता है।
  • बुनियादी पढ़ने के स्तर के बढ़ने के साथ डिजिटल कार्य करने की क्षमता बढ़ती है।

 

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[inside]असर–2022 : एनुअल स्टेटस ऑफ एज्युकेशन रिपोर्ट जारी, पढ़ें रिपोर्ट की मुख्य बातें [/inside] 

प्रथम नाम का एक एनजीओ असर शीर्षक के साथ रपट जारी करता है। ये रपट गँवईं क्षेत्र में बच्चों के नामांकन की स्थिति और बुनियादी लिखाई–पढ़ाई की हकीकत को दर्ज करती है। वर्ष 2005 से हर साल, शिक्षा की वार्षिक स्थिति पर रिपोर्ट जारी की जाती थी। वर्ष 2016 और 2018 में दो वर्ष के अंतराल पर प्रकाशित की गई। हाल ही में 18 जनवरी, 2023 को असर रिपोर्ट 2022 प्रकाशित हुई है। इस रिपोर्ट में 616 जिलों के 19,060 गांव और 3,74,554 घरों सहित 6,99,597 बच्चों को शामिल किया है।

इस रपट में ग्रामीण भारत के 5 से 16 साल की आयु वर्ग के बच्चों को शामिल किया जाता है।

कृपया रपट के लिए यहां, यहां और यहां क्लिक कीजिए।

शुरुआत करते हैं विद्यालय में नामांकन के आंकड़ों से–

विद्यालय में नामांकन

 

6 से 14 आयु वर्ग के 1.6 फीसदी बच्चेविद्यालय नहीं जारहे हैं। 7 से 16 आयु वर्ग में ये अनुपात बढ़कर 2.3 फीसद हो जाता है।

लैंगिक आधार पर इन आंकड़ों को देखें तो 11 से 14 आयु वर्ग में स्कूल नहीं जाने वाले लड़कों का अनुपात 1.6 फीसद है और लड़कियों में यह अनुपात बढ़कर 2.0 प्रतिशत हो जाता है।

15 से 16 के आयु वर्ग में विद्यालय जाने वाले बच्चे, कुल बच्चों का 7.5 प्रतिशत थे। लड़कियों में यह अनुपात बढ़कर 7.9 हो जाता है और लड़कों में घटकर 7.0 हो जाता है।

 

सरकारी और निजी स्कूल के आधार पर देखें तो 11 से 14 आयु वर्ग वाले 69.2 % लड़के सरकारी स्कूल में और 28.7 निजी स्कूल में। लड़कियों के मामले में 74.1 फीसदी सरकारी स्कूल में और 23.4 फीसद सरकारी स्कूल में।

नीचे दी गई टेबल को देखिए-

 

15 से 16 के आयु वर्ग को देखें तो सभी विद्यार्थियों का सरकारी स्कूल में नामांकन 64.9 था और निजी में 27.2 प्रतिशत। लेकिन लैंगिक पहचान के चश्मे से देखें तो निजी स्कूलों में लड़कों की नामांकन स्थिति बढ़ जाती है, 29.2 फीसद हो जाती है। वहीं लड़कियों की तुलनात्मक रूप से (25.3%) कम है।

पूर्व प्राथमिक और प्राथमिक विद्यालयों में नामांकित (3 से 8 के आयु वर्ग)

3 वर्ष के आयु वाले 21.7 फीसदी बच्चे किसी पूर्व विद्यालय या विद्यालय में नहीं जाते हैं। उम्र बढ़ने के साथ स्कूल नहीं जाने वालों का अनुपात घटता जाता है।

4 वर्ष की आयु वर्ग से स्कूल नहीं जाने वाले 12.3 फीसद हैं। घटते हुए 8 वर्ष की आयु वर्ग में केवल 1 फीसदी बच्चे स्कूल नहीं जाते हैं। नीचे दी गई टेबल को देखिए

 

  • सरकारी विद्यालयों में नामांकन– वर्ष 2018 के बाद 6 से 14 आयु वर्ग वाले बच्चों का सरकारी विद्यालयों में नामांकन बढ़ा है। साल 2018 में 65.6 फीसदी बच्चे सरकारी स्कूल में थे जो कि बढ़कर 2022 में 72.9 प्रतिशत हो जाते हैं।

 

पढ़ना

 

नीचे दी गई सारणी में पढ़ने के स्तर के अनुसार बच्चों का प्रतिशत दिया गया है।

  • कक्षा 1 के बच्चों में 43.9 % अक्षर भी नहीं समझ पाते हैं, 35.3% अक्षर समझ लेते हैं, 12% शब्द भी समझ लेते हैं, 4.3% कक्षा 1 के स्तर का पाठ पढ़ लेते हैं, 4.5% बच्चे कक्षा 2 के स्तर का पाठ पढ़ लेते हैं।
  • कक्षा 5 के 6.1% बच्चे अक्षर भी नहीं समझ पाते हैं।
  • कक्षा 8 के 2.5 % बच्चे अक्षर भी नहीं समझ पाते हैं। कक्षा 8 में पढ़ने वाले मात्र 69.5 % बच्चे कक्षा 2 के स्तर का पाठ पढ़ पा रहे थे।
  • कक्षा 6 में पढ़ने वाले 13 प्रतिशत बच्चे शब्द को नहीं पढ़ या समझ पाए।
  • कक्षा 3 के ऐसे बच्चे जो कक्षा 2 के पाठ को पढ़ सकते हैं, का प्रतिशत 20.5 है। सरकारी स्कूलों में ये घटकर 16.3 % हो जाता है और निजी स्कूलों में बढ़कर 33.0% हो जाता है।
  • वर्ष 2018 में सरकारी स्कूलों में पढ़ रहे कक्षा 3 के बच्चे जो कक्षा 2 के पाठ को पढ़ लेते थे, का प्रतिशत घटा है, 20.9% से 16.3 प्रतिशत हुआ है। ऐसा ही नज़ारा निजी स्कूलों के मामले मेंभी दिख रहा है।

गणित

वर्ष 2022 में कक्षा 8 के 1.6 फीसदी बच्चे 9 तक के अंकों की पहचान नहीं कर पा रहे थे। कक्षा 7 में पढ़ने वाले 1.9% बच्चे 9 तक के अंकों की पहचान नहीं कर पा रहे थे।

कक्षा 8 में पढ़ने वाले केवल 44.6% बच्चों को ही भाग विधि आती थी।

कक्षा 7 के केवल 24.7 फीसदी बच्चे ही घटाव कर सकते थे। कृपया नीचे दी गई सारणी को देखिए–

कक्षा 3 में पढ़ने वाले 25.9 फीसदी बच्चे घटाव या उससे अधिक कर सकते थे। निजी स्कूलों में यह अनुपात 43.1 फीसदी के आस–पास ठहरता है और सरकारी स्कूलों के संदर्भ में 20.2 प्रतिशत। समग्र, निजी स्कूलों और सरकारी स्कूलों, तीनों के अनुपात वर्ष 2018 की तुलना में कम है।

 

अंग्रेजी पढ़ना और समझना–

 

कक्षा 1 के 48.3 प्रतिशत बच्चे अंग्रेजी के बड़े अक्षर भी नहीं पहचान पा रहे थे।

कक्षा 8 के 4.0 प्रतिशत बच्चे अंग्रेजी के बड़े अक्षर भी नहीं पहचान पा रहे थे।

कक्षा 7 के केवल 39.7 फीसदी बच्चे ही सरल वाक्य पढ़ पा रहे थे।

कक्षा 8 के मात्र 46.6 प्रतिशत बच्चे सरल वाक्य पढ़ पा रहे थे। कृपया नीचे दी गई सारणी को देखिए–

कक्षा 7 के ऐसे बच्चे जो अंग्रेजी शब्द पढ़ सकते थे, उनमें से केवल 54.4% बच्चे ही उसका अर्थ बता पा रहे थे।

कक्षा 8 के ऐसे बच्चे जो अंग्रेजी वाक्य पढ़ सकते थे, उनमें से केवल 68.5 प्रतिशत ही उसका अर्थ बता पा रहे थे।

 

शुल्क देकर प्राप्त की गई ट्यूशन

 

कक्षा 1 से 8 तक के बच्चों में शुल्क देकर ट्यूशन पढ़ने वालों बढ़ोतरी हो रही है। बात सरकारी स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों की करें तो वर्ष 2010 में ट्यूशन पढ़ने वाले बच्चों का अनुपात 22.5 % था जो कि 2022 में बढ़कर 30.9% हो जाता है।

निजी स्कूलों के मामले में यह बढ़ोतरी थोड़ी कम हुई है, 22.5% से 29.7 प्रतिशत की। कृपया नीचे दी गई सारणी को देखें!

अब बात वर्ष 2022 में फीस देकर ट्यूशन लेने वाले बच्चों की– कक्षा 1 से लेकर 8 तक के आंकड़े (सरकारी और निजी दोनों) क्रमशः 26.9%, 29.9%, 31.7%, 31.9%, 31.3%, 30.6%, 30.5% और 31.8 प्रतिशत था।

सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे भी शुल्क देकर ट्यूशन ले रहे हैं। कक्षा 1 में 26 फीसदी बच्चे ट्यूशन ले रहे थे। कक्षा 8 में 33.8 फीसद विद्यार्थी फीस देकर ट्यूशन पढ़ रहे थे।

 

विद्यालय अवलोकन

 

  • मध्यान्ह भोजन के लिए रसोई की व्यवस्था में निरंतर सुधार आ रहा था। लेकिन, वर्ष 2018 की तुलना में वर्ष 2022 में कमी देखी गई। साल 2018 में 91.0 फीसदी स्कूलों में रसोई सुविधा थी जो कि घटकर वर्ष 2022 में 89.4 फीसदी हो जाती है।
  • मिड डे मील प्राप्त करने वाले बच्चों के अनुपात में निरंतर वृद्धि हो रही है। वर्ष 2010 में ये अनुपात 84.6 % था जो कि बढ़ते हुए वर्ष 2014 में 85.1%, 2018 में 87.1 % और वर्ष 2022 में 89.5% हो जाता है।
  • वर्ष 2022 में 12.5 फीसदी स्कूल ऐसे हैं जहां पर पेयजल की कोई सुविधा नहीं है 11.4 फीसदी स्कूल ऐसे हैं जहां सुविधा तो हैपर पेयजल नहीं।
  • वर्ष 2022के आंकड़ों के अनुसार 2.9 प्रतिशत स्कूलों में शौचालय की कोई सुविधा नहीं है। 21.9 फीसदी स्कूलों में शौचालय तो हैं पर प्रयोग करने योग्य नहीं हैं।

 

साल 2022 तक 10.8 फीसदी स्कूलों में लड़कियों के लिए अलग शौचालय की सुविधा नहीं थी। 8.1 प्रतिशत स्कूलों में सुविधा थी पर ताला जड़ा हुआ था।

साल 2022 में 21.7% स्कूलों में पुस्तकालय नहीं था। 34.3% स्कूलों में पुस्तकालय तो है पर किसी बच्चे द्वारा उसका उपयोग नहीं किया जा रहा था।

21 वीं सदी के साल 2022 में करीब 77.3 फीसदी स्कूलों में कम्प्यूटर उपलब्ध नहीं था। 14.8 फीसदी स्कूलों में कम्प्यूटर तो था पर कोई भी विद्यार्थी उसका उपयोग नहीं कर रहा था।

 

उपस्थिति

प्राथमिक स्कूल में – वर्ष 2022 में सर्वेक्षण के दिन प्राथमिक विद्यालयों में कुल दाखिला ले चुके बच्चों में से 72.9 % उपस्थित थे। शिक्षकों की उपस्थिति 86.8 फीसदी थी।

उच्च प्राथमिक विद्यालयों के मामले में बच्चों की उपस्थिति 71.3% की थी और शिक्षकों की 87.5 प्रतिशत।

 

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[inside]झारखंड में स्कूली शिक्षा पर संकट, स्कूल की भूल शीर्षक के साथ रिपोर्ट जारी. पढ़ें रिपोर्ट की खास बातें [/inside]
रिपोर्ट के लिए कृपया यहाँ, यहाँ और यहाँ क्लिक कीजिए.

रिपोर्ट को ज्ञान विज्ञान समिति झारखंड द्वारा सितंबर और अक्टूबर 2022 के बीच तैयार किया गया है। इस रिपोर्ट में झारखंड के 138 प्राथमिक और उच्च प्राथमिक विद्यालयों को शामिल किया है।
झारखंड में शुरू से स्कूली शिक्षा कमजोर रही है उसे कोविड महामारी ने और कमजोर कर दिया है। इस कमजोरी से उभारने के लिए शुरू किए गए प्रयास अपर्याप्त हैं।

 

रिपोर्ट के मुख्य बिंदु–  झारखंड में स्कूली शिक्षा प्रणाली शिक्षकों की कमी से जूझ रही है।

  • सर्वेक्षण के लिए जुटाए गए आंकड़ों में पाया कि केवल 53 फीसदी प्राथमिक विद्यालय और 19 फीसदी उच्च प्राथमिक विद्यालयों में छात्र–शिक्षक अनुपात 30 से कम था।

आपको ज्ञात होगा शिक्षा के अधिकार अधिनियम के तहत शिक्षक और छात्रों के बीच 30:1 का अनुपात तय किया गया है।

  • सर्वेक्षण के लिए शामिल किए गए 138 विद्यालयों में से करीब 28 विद्यालयों के केवल एक शिक्षक ही है। इनमें से भी ज्यादातर विद्यालयों में शिक्षक, पुरुष पारा शिक्षक है। इकलौते शिक्षक वाले विद्यालयों में लगभग 90 फीसदी विद्यार्थी दलित या आदिवासियों के बच्चे हैं।
  • सर्वेक्षण में शामिल लगभग 40 फीसदी प्राथमिक विद्यालय पूरी तरह से पारा शिक्षकों के द्वारा संचालित है। प्राथमिक स्तर में 55 फीसदी और उच्च प्राथमिक स्तर पर 37 फीसदी शिक्षक, पारा शिक्षक हैं।
  • ज्यादातर स्कूलों के शिक्षकों का मानना है कि फरवरी 2022 में स्कूलों के फिर से खुलने तक अधिकांश छात्र पढ़ना -लिखना भूल गए थे. सर्वेक्षण के दिन विद्यार्थियों की उपस्थिति (नामांकित बच्चों के मुकबले उपस्थित बच्चे) प्राइमरी स्कूलों में केवल 68 फीसद और अपर-प्रा इमरी स्कूलों में 58 फीसद थी .

सैंपल में शामिल एक भी स्कूल में कार्यात्मक शौचालय, बिजली और पानी की सुविधा नहीं थीं.

  • सैंपल के दो -तिहाई प्राइमरी स्कूलों में चारदीवारी नहीं थी , 64 फीसद में खेल का मैदान नहीं था और 37 फीसद में ला इब्रेरी की कि ता बें नहीं थीं .
  • बातचीत करने वाले ज्यादातर शिक्षकों (दो -तिहाई) ने कहा कि सर्वेक्षण के समय स्कूल केपास मिड-डे मील के लिए पर्याप्त पैसा नहीं है.
  • कई स्कूल (10 फीसद शिक्षक और ज्यादातर, सर्वेक्षण टीमों के मुताबिक) अब भी हफ्ते में दो बार अंडे नहीं दे रहे हैं, जो तय कि या गया था .
  • ज्यादातर सैंपल स्कूलों में, फाउंडेशनल लिटरेसी ऐंड न्यूमरेसी  (एफएलएन) सामग्री बांटने को छोड़कर, उन बच्चों की मदद के लिए खास कुछ नहीं किया गया जो कोविड-19 संकट के दौरान पढ़ना -लिखना भूल गए थे.

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[inside]2021 स्टेट ऑफ द एजुकेशन रिपोर्ट फॉर इंडिया: नो टीचर, नो क्लास (अक्टूबर, 2021 जारी)[/inside]

इस रिपोर्ट को यूनेस्को के दिल्ली ऑफिस ने, टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस के सेंटर ऑफ एक्सीलेंस इन टीचर एजुकेशन की मदद से तैयार किया है। (अन्य विशेषज्ञों की मदद भी ली है)

यह स्टेट एजुकेशन पर आई तीसरी रिपोर्ट है। इस रिपोर्ट का मुख्य केंद्र अध्यापकों, तालीम देने और आध्यपकों के शिक्षण पर है। यह रिपोर्ट, तालीम देने के पेशे पर मोटी–मोटी समझ देने की कोशिश करती है। 
यूनेस्को की इस रिपोर्ट का मकसद नई शिक्षा नीति को लागू करने में सहज मार्ग बनाना और सतत विकास के शिक्षा संबंधी लक्ष्य की समय सीमा में प्राप्ति को आसान बनाना है।

साथ ही इस रिपोर्ट ने कई अन्य पहलुओं जैसे– सूचना और संचार प्रौद्योगिकी के साथ अध्यापकों के अनुभव, कोविड महामारी का शिक्षक के पेशे पर प्रभाव, को छुआ है।महामारी के इस काल ने शिक्षकों की महत्ता और गुणवत्तापूर्ण तालीम देने की जरूरत पर भी ध्यान आकर्षित किया है। यह रपट इसी ध्यानाकर्षण का परिणाम है।

तो जानते हैं रिपोर्ट की मुख्य बातें (कृपया रिपोर्ट के लिए यहां, यहां और यहां क्लिक कीजिए)

शिक्षा के लिए एकीकृत जिला सूचना प्रणाली के आंकड़ों का इस्तेमाल करते हुए, रपट में मौजूदा अध्यापकों की संख्या, शिक्षकों की सुलभता और काम करने की स्थिति को उकेरा गया है।
निजी क्षेत्र की शैक्षणिक संस्थानों से 30 फीसदी और सरकारी क्षेत्र के शैक्षणिक संस्थानों से 50 फीसदी मास्टर ताल्लुकात रखते हैं।
उच्च माध्यमिक विद्यालयों में शिक्षकों की कमी पाई गई है।
विशेष शिक्षण, संगीत, कला सहित शारीरिक शिक्षा के अध्यापकों की उपलब्धता के बारे में कोई आंकड़ा प्रदान नहीं किया गया है।

भारत के उत्तर पूर्वी राज्यों में शिक्षकों की सुलभता और योग्यता युक्त शिक्षकों की नियुक्ति जरूरी है। शिक्षकों के लिए मूलभूत जरूरतों व कार्य स्थलों की यथास्थिति उत्तर पूर्वी राज्यों सहित आकांक्षी जिलों में निम्नतर है। जिन्हें सुधारने की आवश्यकता है।
कुल मिलाकर अध्यापकों के पेशे में संख्या बल के संदर्भ में लैंगिक भेदभाव नजर नहीं आता है, लेकिन अंतरराज्यीय और ग्रामीण भारत के चश्मे से देखें तो अलग–अलग रंग लिए हुआ है।

शहरी इलाकों में महिला शिक्षकों की बहुलता है (गँवई इलाकों से विपरीत)। बच्चों की प्रारंभिक शिक्षा, विशेष शिक्षा और निजी क्षेत्र की पाठशालाओं में भी महिला शिक्षक अधिक हैं।
मौजूदा समय में जितने शिक्षकों की जरूरत है उसकी तुलना में 10 लाख शिक्षक कम हैं। और जरूरतें समय के साथ बढ़ रही हैं। आने वाले 15 वर्षों के बाद वर्तमान की लगभग 30 फीसदी फैकल्टी को प्रतिस्थापित करना होगा।

पेशे का ओहदा और शर्तें

तालीम देने का ओहदा भारत में सामान्य श्रेणी का है। परइसे ‘भविष्य के पेशे कीतर्ज’ पर महिलाएं और ग्रामीण क्षेत्रों के युवा देखते हैं। प्रारंभिक शिक्षा के लिए अध्यापक और निजी विद्यालयों के शिक्षकगण दुर्लभ स्थिति में है। इनके वेतन, स्वास्थ्य लाभ और मातृत्व लाभ की निश्चिंतता नहीं होती है।

शिक्षकों के उत्तम गुणवत्ता की प्राप्ति के क्रम में, कई राज्यों ने शिक्षक पात्रता परीक्षा को भर्ती प्रक्रिया में एक अहम पहलू के तौर पर शामिल किया है।

शिक्षक और सूचना व संचार प्रौद्योगिकीरपट में महामारी के काल में शिक्षकों के सूचना और संचार प्रौद्योगिकी (आईसीटी) के साथ के अनुभवों को वर्णित किया है। अधिकतर शिक्षकों का आईसीटी के प्रति दृष्टिकोण और विश्वास सकारात्मक था। हालांकि, उन्हें लगता है कि यह माध्यम अधिक समय लेता है और साथ ही उनमें इतना व्यावसायिक कौशल भी नहीं है।

दस सिफारिशें

  • निजी और सरकारी दोनों तरह के शिक्षकों की रोजगार शर्तों में सुधार करना।
  • उत्तर पूर्वी राज्यों में शिक्षकों की संख्या और कार्यस्थल की गुणवत्ता में बेहतरी करना।
  • अध्यापकों को अग्रिम पंक्ति के कामगारों का दर्जा दें।
  • पेशे की स्वायत्तता का सम्मान किया जाए।शारीरिक शिक्षक, संगीत, कला, व्यावसायिक शिक्षा, बाल्यवस्था में दी जा रही शिक्षा, के पदों में बढ़ोतरी के जाए।
  • शिक्षक के तरक्की का रास्ता सुदृढ़ किया जाए।
  • शिक्षकगण के समुदाय के गठन को बढ़ावा दिया जाए।
  • अध्यापकों को आईसीटी का जरूरी प्रशिक्षण प्रदान किया जाए।
  • आपसी पूछताछ के तहत तालीम देने के लिए जरूरी माहौल को तैयार किया जाए।

सन्दर्भ के लिए कृपया यहाँ और यहाँ क्लिक कीजिये

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[inside]नेशनल कोलिशन ऑन एजुकेशन इमरजेंसी (NCEE) ने -क्रीज एंगुइस- नाम से एक रिपोर्ट जारी की है(मार्च,2022 में)[/inside]
 (कृपया रिपोर्ट के लिए यहाँ, यहाँ और यहाँ क्लिक कीजिए)

इस रिपोर्ट में कर्नाटक, तेलंगाना और तमिलनाडु के परिवारों पर अध्ययनकिया है. गरीब अभिभावक अपने बच्चों की शिक्षा के बारे में क्या सोचते हैं. उनके बच्चों के सामाजिक भावनात्मक विकास कैसे होता है.
यह पहला अध्ययन है जिसमें महामारी के बाद विद्यालय खोलने पर अभिभावक क्या सोचते, उल्लेखित किया गया है.

बोस्टन कंसल्टिंग ग्रुप और टीच फॉर इंडिया ने कई गैर सरकारी संगठनों और सीएसओ के साथ मिलकर एक रिपोर्ट जारी की है – इंडिया नीड टू लर्न–– ए केस फॉर कीपिंग स्कूल ओपन यह रिपोर्ट वर्ष 2022 के जनवरी माह में जारी हुई थी. (कृपया रिपोर्ट के लिए यहाँ क्लिक कीजिए)

रिपोर्ट के प्रमुख बिंदु-

विश्व बैंक के अनुसार, स्कूली शिक्षा के प्रत्येक साल का नुकसान एक छात्र को संभावित रूप से भविष्य में  9% कम कमाई की तरफ धकेलता है. महामारी के कारण 2 साल से स्कूल बंद हैं. स्कूल मार्च 2020 से साल के अंत तक बंद रहे; और साल 2021 में थोड़े बहुत ही खुल पाए.
हालांकि ऑनलाइन शिक्षा के कई प्रयास किये हैं पर पैठ और प्रभावशीलता अपर्याप्त रूप से बहुत कम रही. पढ़िए हमारा न्यूज अलर्ट समाचार यहाँ से.
80 फीसदी से अधिक अभिभावक चाहते हैं कि ऑनलाइन की तुलना में व्यक्तिगत पढाई हो यानी स्कूलों में पढाई हो.
71% अभिभावकों के अनुसार 3 माह में बच्चों ने कोई परीक्षा नहीं दी है. साथ ही 37% अभिभावकों का कहना हैं कि पिछले तीन माह में बच्चों ने कुछ भी पढाई नहीं की है.
 2020 से, बड़े पैमाने पर स्कूल बंद होने सेबचने के लिए कई देश राष्ट्रीय/राज्य स्तर से शासन की निचली इकाई में चले गए हैं

उदाहरण के लिए, यूएस, यूके, ऑस्ट्रेलिया, पाकिस्तान, नेपाल ने जिला/काउंटी/स्कूल स्तर पर स्कूल खोलने और बंद करने के लिए स्पष्ट मानदंड परिभाषित किए हैं. जिन देशों ने स्कूल फिर से खोले हैं, उन्होंने कई आयामों पर प्रसारण को रोकने के लिए पहल की है

सोशल डिस्टेंसिंग जैसे, 'फेस-टू-बैक' सेटिंग (हांगकांग), आउटडोर क्लासेस (डेनमार्क) में सिंगल रो डेस्क की व्यवस्था
मास्क/चेहरे की ढालें ​​जैसे, अनिवार्य मास्क (स्पेन), युवा छात्रों के लिए फेस शील्ड जनादेश (सिंगापुर)

छात्र पॉड बनाना जैसे, सहपाठियों को समूहों में विभाजित करना, और अन्य समूहों (नॉर्वे) के सदस्यों के साथ घुलना-मिलना नहीं है. टीकाकरण जैसे, शिक्षकों के लिए प्राथमिक बूस्टर खुराक (कनाडा, यूएस), छात्रों के लिए स्कूल में टीकाकरण (यूके)

इसलिए, भारत के लिए स्कूलों के "आखिर में बंद, पहले खुलने वाले" के दर्शन की ओर बढ़ना और 4 प्रमुख निहितार्थों पर कार्य करना महत्वपूर्ण है

स्पष्ट रूप से परिभाषित मानदंडों के साथ स्कूल को फिर से खोलने और बंद करने (जैसे, वार्ड, ग्राम पंचायत, स्कूल स्तर) का विकेंद्रीकरण. साल भर मिश्रित शिक्षण निर्माण की पेशकश करें यानी ऑफ़लाइन के अलावा, ऑनलाइन शिक्षा जारी रखें

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बोस्टन कंसल्टिंग ग्रुप (बीसीजी), टीच फॉर इंडिया और विभिन्न गैर सरकारी संगठनों और सीएसओ के सहयोग से संयुक्त रूप से तैयार की गई [inside]इंडिया नीड्स टू लर्न – ए केस फॉर कीपिंग स्कूल्स ओपन (जनवरी 2022 में जारी)[/inside] नामक रिपोर्ट के प्रमुख निष्कर्ष इस प्रकार हैं: (कृपया एक्सेस करने के लिए यहां क्लिक करें)

–भारत में अब महामारी के कारण ~ 2 साल से स्कूल बंद हैं.

स्कूल मार्च 2020 से साल के अंत तक बंद रहे; और साल 2021 में थोड़े बहुत ही खुल पाए.

2021 में, जबकि माध्यमिक विद्यालय 40-50% समय के लिए खुले थे, प्राथमिक विद्यालय ज्यादातर 12/22 प्रमुख भारतीय राज्यों के लिए बंद रहे.

–हालांकि ऑनलाइन शिक्षा की दिशा में कई प्रयास किए गए हैं, लेकिन पैठ और प्रभावशीलता अपर्याप्त रूप से बहुत कम रही.

40-70% बच्चों के पास घर पर कोई उपकरण नहीं है; >80% शिक्षकों ने भावनात्मक जुड़ाव बनाए रखने में असमर्थता व्यक्त की

• ~90% बच्चों ने कम से कम एक विशिष्ट भाषा क्षमता खो दी, महत्वपूर्ण एसईएल (सामाजिक और भावनात्मक शिक्षा) नुकसान (विशेष आवश्यकता वाले बच्चों के लिए और अधिक)

विश्व बैंक के अनुसार, स्कूली शिक्षा के हर साल का नुकसान एक छात्र के लिए संभावित रूप से भविष्य में ~ 9% कम कमाई की तरफ धकेलता है.

– लंबे समय तक स्कूल बंद रहने के गंभीर निहितार्थ हैंstyle="font-size:11.0pt">, जो सीखनेसे परे हैं, जैसे, बाल शोषण में वृद्धि, बाधित मध्याह्न भोजन के साथ कम पोषण, सामाजिक और भावनात्मक मुद्दे

–80%+ माता-पिता चाहते हैं कि ऑनलाइन सीखने के साथ कई चुनौतियों को देखते हुए, कई सर्वेक्षणों में व्यक्तिगत रूप से सीखने के लिए स्कूल खुले:

शैक्षणिक: ~37% माता-पिता ने जवाब दिया कि उनके बच्चे ने घर पर बिल्कुल भी अध्ययन नहीं किया, 71% ने जवाब दिया कि पिछले 3 महीनों में बच्चे की कोई परीक्षा/परीक्षा नहीं है

व्यवहारिक: ~49% माता-पिता ने जवाब दिया कि उनका बच्चा अनुचित कार्यक्रम का सामना कर रहा है (उदाहरण के लिए, पढ़ाई, सोने, खाने आदि के लिए)

– जबकि 2020 (पहली छमाही) में स्कूल विश्व स्तर पर बंद थे, कई देशों ने 2021 तक स्कूलों को बड़े पैमाने पर खुला रखा; उदाहरण के लिए, ऑस्ट्रेलिया (85-90% खुला), जापान (85-90% खुला), दक्षिण अफ्रीका (80-85% खुला), यूएस (75-80% खुला), यूके (70-75% खुला), पुर्तगाल ( 60-65% खुला), चीन (90%+ खुला)

यह भारत (प्रति दस लाख जनसंख्या पर 25 हजार मामले) की तुलना में यूके (197k), यूएस (169k), पुर्तगाल (141k), दक्षिण अफ्रीका (58k) जैसे अधिक मामले वाले देशों में काफी अधिक बीमारी की घटनाओं के बावजूद है.

वास्तव में, कई देशों ने मॉल, दुकानों, जिम आदि (जैसे, फ्रांस, यूके, कनाडा) की तुलना में स्कूलों को खुला रखने को प्राथमिकता दी ताकि स्कूल बंद होने के बाद सबसे पहले और सबसे पहले खुले.

-सार्वजनिक स्वास्थ्य तर्क कम स्कूल फिर से खोलने के जोखिम का संकेत देते हैं

बच्चे <20 साल में 3-6x कम घटना हुई; 17x+ कम मृत्यु दर बनाम वयस्क यहां तक ​​कि खुले स्कूलों वाले देशों में भी

स्कूल जाने वाले बच्चों में संक्रमण संचरण कम देखा गया, उदाहरण के लिए, स्कूली बच्चों बनाम समुदाय में प्रति 1000 जनसंख्या पर कम नए मामले; 2021 के मध्य में चुनिंदा भारतीय राज्यों मेंस्कूल फिर से खुलने के बावजूद, मामले नहीं बढ़े (जैसे, पंजाब, महाराष्ट्र आदि)

टीकाकरण की बढ़ती पैठ (~ 45% भारत में पूरी तरह से टीकाकरण) से अस्पताल में भर्ती होने और मृत्यु दर कम होने की संभावना है; और ओमिक्रॉन बनाम डेल्टा (टीकाकृत व्यक्तियों के लिए) में संक्रमण की गंभीरता 40%+ और कम होने की उम्मीद है

–भारत के निरंतर केंद्रीकृत निर्णय लेने का तात्पर्य यह है कि <25 दैनिक मामलों वाले जिलों में भी, स्कूल बंद हैं (~ भारत भर में 70% जिले)

2020 से, बड़े पैमाने पर स्कूल बंद होने से बचने के लिए कई देश राष्ट्रीय/राज्य स्तर से शासन की निचली इकाई में चले गए हैं

उदाहरण के लिए, यूएस, यूके, ऑस्ट्रेलिया, पाकिस्तान, नेपाल ने जिला/काउंटी/स्कूल स्तर पर स्कूल खोलने और बंद करने के लिए स्पष्ट मानदंड परिभाषित किए हैं.

– जिन देशों ने स्कूल फिर से खोले हैं, उन्होंने कई आयामों पर प्रसारण को रोकने के लिए पहल की है

सोशल डिस्टेंसिंग जैसे, 'फेस-टू-बैक' सेटिंग (हांगकांग), आउटडोर क्लासेस (डेनमार्क) में सिंगल रो डेस्क की व्यवस्था

मास्क/चेहरे की ढालें ​​जैसे, अनिवार्य मास्क (स्पेन), युवा छात्रों के लिए फेस शील्ड जनादेश (सिंगापुर)

परीक्षण जैसे, सप्ताह में दो बार अनिवार्य रैपिड एंटीजन परीक्षण (यूके और जर्मनी)

अचंभित कर देने वाला स्कूल का समय जैसे, 2 पारियों में कक्षाएं (हांगकांग), स्कूल के प्रारंभ/अवकाश/समाप्ति समय (यूके)

छात्र पॉड बनाना जैसे, सहपाठियों को समूहों में विभाजित करना, और अन्य समूहों (नॉर्वे) के सदस्यों के साथ घुलना-मिलना नहीं है

टीकाकरण जैसे, शिक्षकों के लिए प्राथमिक बूस्टर खुराक (कनाडा, यूएस), छात्रों के लिए स्कूल में टीकाकरण (यूके)

–इसलिए, भारत के लिए स्कूलों के "आखिर में बंद, पहले खुलने वाले" के दर्शन की ओर बढ़ना और 4 प्रमुख निहितार्थों पर कार्य करना महत्वपूर्ण है

स्पष्ट रूप से परिभाषित मानदंडों के साथ स्कूल को फिर सेखोलने और बंद करने (जैसे,वार्ड, ग्राम पंचायत, स्कूल स्तर) का विकेंद्रीकरण

साल भर मिश्रित शिक्षण निर्माण की पेशकश करें यानी ऑफ़लाइन के अलावा, ऑनलाइन शिक्षा जारी रखें

परीक्षण (जैसे, साप्ताहिक प्रतिजन परीक्षण), टीकाकरण (जैसे, स्कूल के कर्मचारियों के लिए अनिवार्य), सुरक्षा प्रोटोकॉल (जैसे, मास्किंग आदि) और वेंटिलेशन (जैसे, बाहरी स्थानों का लाभ उठाना, दरवाजे/खिड़कियां खुला रखना, वेंटिलेशन की निगरानी आदि) को मजबूत करना.

महामारी के कारण स्कूल बंद होने के कारण सीखने की कमियों को पाटने की तैयारी करें और इसके लिए पर्याप्त संसाधन आवंटित करें

– हालांकि, केवल फिर से खोलने से परे, सभी हितधारकों से जो छूट गया है उसे हासिल करने और बेहतर तरीके से वापस रास्ते पर लाने के लिए मिशन-मोड लचीलापन की आवश्यकता होगी.

सरकार: पर्याप्त बुनियादी ढांचे के उन्नयन और वित्त पोषण सहायता के साथ, सीखने की खाई को पाटने के लिए एक मजबूत मध्यावधि (3-5 वर्ष) रोडमैप तैयार करें

स्थानीय प्रशासक और स्कूल कर्मचारी: स्कूल में तैयारियों की नियमित निगरानी और प्रोटोकॉल का पालन करके शिक्षा को प्राथमिकता दें

माता-पिता: अपने बच्चों को स्कूल भेजकर व्यवस्था पर भरोसा करें और बच्चों को कोविड-उपयुक्त व्यवहार का पालन करने के लिए प्रोत्साहित करें

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17 नवंबर 2021 को शिक्षा पर सोलहवीं वार्षिक स्थिति रिपोर्ट (ग्रामीण) 2021 को ऑनलाइन जारी किया गया. एएसईआर 2021 के लिए 25 राज्यों और 3 केंद्र शासित प्रदेशों में सर्वेक्षण किया गया, जिसमें कुल 76,706 परिवारों और 5-16 वर्ष के आयु वर्ग के 75,234 बच्चों के अलवा, प्राथमिक ग्रेड तक के 7,299 सरकारी स्कूलों के शिक्षकों या प्रधानाध्यापकों को शामिल किया गया.

2005 से हर साल, वार्षिक शिक्षा रिपोर्ट-असर (ASER) ने स्कूलिंग की स्थिति और ग्रामीण भारत में 5-16 आयु वर्ग के बच्चों की बुनियादी पढ़ने और अंकगणितीय कार्यों को करने की क्षमता पर रिपोर्ट तैयार की है. वार्षिक रिपोर्ट तैयार करने के दस साल बाद, 2016 में, असर (ASER) एक वैकल्पिक-वर्ष चक्र में बदल गया, जिसके तहतअसर अपनी रिपोर्ट हर दूसरे वर्ष (2016, 2018 और 2020 में अगला) तैयार करता है; और वैकल्पिक वर्षों में असर बच्चों के स्कूली शिक्षा और सीखने के एक अलग पहलू पर केंद्रित होकर कार्य करता है. 2017 में आई, ASER की रिपोर्ट, 'बियॉन्ड बेसिक्स', 14-18 आयु वर्ग में युवाओं की क्षमताओं, अनुभवों और आकांक्षाओं पर केंद्रित थी.

पिछले साल, COVID-19 ने इस प्रक्षेपवक्र को बाधित किया. लेकिन मार्च 2020 से स्कूल बंद होने के कारण, स्कूलों, परिवारों और बच्चों पर महामारी के प्रभाव को समझना महत्वपूर्ण था. बच्चों की शिक्षा पर महामारी के प्रभाव पर बड़े पैमाने पर राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिनिधि डेटा की आवश्यकता को पूरा करने के लिए, एएसईआर ने 2020 में एक पूरी तरह से नया डिज़ाइन विकसित किया, जिसमें एक फोन-आधारित सर्वेक्षण शामिल था जिसने सीखने के अवसरों तक बच्चों की पहुंच का पता लगाया.

महामारी के एक और वर्ष में फैले संक्रमण के कारण, राष्ट्रीय स्तर पर क्षेत्र-आधारित सर्वेक्षण संचालन अभी भी संभव नहीं था. परिणामस्वरूप, ASER 2021 ने फ़ोन-आधारित सर्वेक्षण के समान प्रारूप का अनुसरण किया. पहले लॉकडाउन के अठारह महीने बाद सितंबर-अक्टूबर 2021 में आयोजित इस सर्वेक्षण में यह पता लगाया गया है कि महामारी की शुरुआत के बाद से 5-16 आयु वर्ग के बच्चों ने घर पर कैसे अध्ययन किया और स्कूलों और परिवारों को अब अध्ययन करवाने के लिए किन-किन चुनौतियों का सामना करना पड़ता है.

[inside]शिक्षा पर सोलहवीं वार्षिक स्थिति रिपोर्ट (ग्रामीण) 2021 (17 नवंबर, 2021 को जारी)[/inside] के प्रमुख निष्कर्ष इस प्रकार हैं (please click hereherehereherehere, and here to access):

स्कूलों में दाखिले के पैटर्न

असर 2021, 2020 और 2018 के दाखिले के डेटा से पता चलता है कि:

अखिल भारतीय स्तर पर, निजी से सरकारी स्कूलों में एक स्पष्ट बदलाव आया है: 6-14 आयु वर्ग के बच्चों के लिए, निजी स्कूलों में दाखिले का आंकड़ा साल 2018 के 32.5 प्रतिशत से घटकर 2021 में 24.4 प्रतिशत हो गया है. यह बदलाव सभी ग्रेडों में और लड़कों और लड़कियोंदोनों में देखा गया. हालांकि, style="font-size:10.5pt">लड़कियों की तुलना में लड़कों के अभी भी निजी स्कूलों में दाखिला दिलवाने की अधिक संभावना है.

स्कूल में दाखिल 6-14 आयु वर्ग के बच्चों में कोई बदलाव नहीं: वर्तमान में स्कूलों में दाखिला न लेने वाले बच्चों का अनुपात 2020 में 1.4 प्रतिशत से बढ़कर 4.6 प्रतिशत हो गया. यह अनुपात 2020 और 2021 के बीच अपरिवर्तित रहा.

स्कूल में पहले से कहीं अधिक बड़े (उम्र) के बच्चे: 15-16 आयु वर्ग के बड़े बच्चों में, सरकारी स्कूल में नामांकन 2018 में 57.4 प्रतिशत से बढ़कर 67.4 प्रतिशत हो गया है. इस आयु वर्ग के बच्चे, जिन्होंने स्कूलों में दाखिला नहीं लिया, 2018 में 12.1 प्रतिशत से घटकर 2021 में 6.6 प्रतिशत हो गया है. साथ ही निजी स्कूलों में दाखिले में कमी आई है.

राज्य स्तर पर नामांकन में काफी भिन्नता है. सरकारी स्कूलों में नामांकन में राष्ट्रीय वृद्धि उत्तर प्रदेश, राजस्थान, पंजाब और हरियाणा जैसे बड़े उत्तरी राज्यों और महाराष्ट्र, तमिलनाडु, केरल और आंध्र प्रदेश जैसे दक्षिणी राज्यों में देखी गई. इसके विपरीत, कई पूर्वोत्तर राज्यों में, इस अवधि के दौरान सरकारी स्कूलों में दाखिला लेने में गिरावट आई है, और स्कूल में नामांकित बच्चों के अनुपात में वृद्धि नहीं हुई है.

शिक्षा

असर सर्वेक्षण नियमित रूप से छात्रों दवारा ली गईं निजी ट्यूशन कक्षाओं पर डेटा एकत्र करता है, जो बच्चे अपनी शिक्षा में सहायता के लिए लेते हैं.

ट्यूशन लेने वाले बच्चों में बड़ी वृद्धि: अखिल भारतीय स्तर पर, 2018 में, 30 प्रतिशत से भी कम बच्चों ने निजी ट्यूशन कक्षाएं लीं. साल 2021 में यह अनुपात बढ़कर लगभग 40 प्रतिशत हो गया है. यह अनुपात दोनों लिंगों और सभी ग्रेड और स्कूल प्रकारों में बढ़ा है।

कम सुविधा वाले छात्रों द्वारा ट्यूशन लिए जाने में वृद्धि: अधिक पढ़े-लिखे अभिभावकों के मुकाबले कम पढ़े लिखे माता-पिता द्वारा अपने बच्चों को ट्यूशन दिलवाए जाने के अनुपात में 7.2 के मुकाबले 12.6 प्रतिशत अंक की वृद्धि हुई है. 'उच्च' शिक्षा श्रेणी में माता-पिता वाले बच्चों में प्रतिशत अंक की वृद्धि।

जिन बच्चों के स्कूल फिर से खुल गए हैं ऐसे कम बच्चे ट्यूशन ले रहे हैं: स्कूल के फिर से खुलने की स्थिति के अनुसार ट्यूशन लेने वाले बच्चों के अनुपात में कुछ अंतर दिखाई दे रहे हैं, style="font-size:10.5pt">ट्यूशन कक्षाएं उन बच्चों में अधिक आम हैं जिनके स्कूल अभी भी (सर्वेक्षण के समय) बंद थे.

देश भर में है ट्यूशन: केरल को छोड़कर सभी राज्यों में ट्यूशन लेने वाले छात्रों में वृद्धि हुई है.

स्मार्टफोन तक पहुंच

जब स्कूल बंद हो गए और पिछले साल शिक्षण-अध्ययन का एक दूरस्थ मॉडल अपनाना पड़ा, तो स्मार्टफोन शिक्षण-अध्ययन का प्रमुख स्रोत बन गया, जिसकी वजह से सबसे अधिक हाशिए पर रहने वाले लोगों के बारे में चिंताओं को जन्म दिया.

2018 से स्मार्टफोन का स्वामित्व लगभग दोगुना हो गया है: स्मार्टफोन की उपलब्धता 2018 में 36.5 प्रतिशत से बढ़कर 2021 में 67.6 प्रतिशत हो गई है. हालांकि, सरकारी स्कूल जाने वाले बच्चों (63.7 प्रतिशत) की तुलना में निजी स्कूलों में अधिक बच्चों (79 प्रतिशत) के पास घर पर स्मार्टफोन है.

घरेलू आर्थिक स्थिति से स्मार्टफोन की उपलब्धता में फर्क देखने को मिलते हैं: जैसे-जैसे माता-पिता की शिक्षा का स्तर बढ़ता है (आर्थिक स्थिति के लिए एक प्रॉक्सी), घर में स्मार्टफोन होने की संभावना भी बढ़ जाती है. 2021 में, 80 प्रतिशत से अधिक बच्चों के माता-पिता, जिन्होंने कक्षा IX या उच्चतर तक पढ़ाई की है, के पास घर पर स्मार्टफोन उपलब्ध था. जबकि केवल 50 प्रतिशत से अधिक बच्चे जिनके माता-पिता ने कक्षा V या उससे कम तक पढ़ाई की, के पास घर पर स्मार्टफोन उपलब्ध था. हालाँकि, जिन बच्चों के माता-पिता 'निम्न' शिक्षा श्रेणी में हैं, उनमें से एक चौथाई से अधिक ने मार्च 2020 से अपनी पढ़ाई के लिए एक स्मार्टफोन खरीदा है.

स्मार्टफोन की उपलब्धता बच्चों के लिए एक्सेस में तब्दील नहीं होती: हालांकि नामांकित सभी बच्चों में से दो-तिहाई से अधिक के पास घर पर स्मार्टफोन (67.6 प्रतिशत) है, इनमें से एक चौथाई से अधिक (26.1 प्रतिशत) के पास इसकी पहुंच नहीं है. कक्षाई स्तर पर एक स्पष्ट पैटर्न भी है, छोटी कक्षाओं के बच्चों की तुलना उच्च कक्षाओं में अधिक बच्चों के पास में स्मार्टफोन तक पहुंच है.

घर पर अध्ययन का माहौल

ASER 2021 ने ASER 2020 में पूछे गए प्रश्नों का अनुसरण किया कि क्या बच्चे को घर पर सीखने में मदद की जाती है और कौन मदद कर रहा है.

पिछले वर्ष की तुलना में घर पर सीखने में सहायता करने में कमी आई है: नामांकित बच्चों का अनुपात, style="font-size:10.5pt">जिन्हें घर पर अध्ययन में मदद मिलीstyle="color:#333333">, 2020 में नामांकित सभी बच्चों के तीन-चौथाई से घटकर 2021 में दो-तिहाई हो गया है, जिसमें बच्चों में सबसे तेज गिरावट बड़ी कक्षाओं के बच्चों में दिखाई दे रही है.

स्कूल फिर से खुलने से कम मदद मिल रही है: सरकारी और निजी स्कूल जाने वाले बच्चों में, जिनके स्कूल फिर से खुल गए हैं, उन्हें घर से कम मदद मिल रही है. उदाहरण के लिए, निजी स्कूल जाने वाले 75.6 प्रतिशत बच्चे जिनके स्कूल फिर से नहीं खुले हैं, उन्हें घर पर सहायता मिलती है, जबकि इसके मुकाबले 70.4 प्रतिशत बच्चे जिनके स्कूल फिर से खुल गए हैं, उनका घर पर मदद मिल पा रही है. मदद में कमी बड़े पैमाने पर पिताओं द्वारा मदद न किए जाने से प्रेरित है.

सीखने की सामग्री तक पहुंच

ASER 2021 ने ASER 2020 में पूछे गए प्रश्नों का अनुसरण किया कि क्या बच्चों के पास उनकी वर्तमान कक्षा के लिए पाठ्यपुस्तकें हैं और क्या उन्हें सर्वेक्षण (संदर्भ सप्ताह) से पहले सप्ताह में अपने स्कूल के शिक्षकों से कोई अतिरिक्त सामग्री प्राप्त हुई है. ये प्रिंट या वर्चुअल रूप में वर्कशीट जैसी पारंपरिक सामग्री हो सकते हैं; ऑनलाइन या रिकॉर्ड की गई कक्षाएं; और वीडियो या अन्य गतिविधियां फोन के माध्यम से भेजी जाती हैं या व्यक्तिगत रूप से प्राप्त की जाती हैं. जिन बच्चों के स्कूल फिर से खुल गए हैं, उनके लिए इन सामग्रियों में स्कूल द्वारा दिया गया होमवर्क भी शामिल हो सकता है.

लगभग सभी बच्चों के पास पाठ्यपुस्तकें हैं: लगभग सभी नामांकित बच्चों के पास उनके वर्तमान ग्रेड (91.9 प्रतिशत) के लिए पाठ्यपुस्तकें हैं. सरकारी और निजी दोनों स्कूलों में नामांकित बच्चों के लिए यह अनुपात पिछले वर्ष की तुलना में बढ़ा है.

प्राप्त अतिरिक्त सामग्री में मामूली वृद्धि: कुल मिलाकर, नामांकित बच्चों में, जिनके स्कूल फिर से नहीं खुले थे, 39.8 प्रतिशत बच्चों ने संदर्भ सप्ताह के दौरान अपने शिक्षकों से किसी प्रकार की शिक्षण सामग्री या गतिविधियाँ (पाठ्यपुस्तकों के अलावा) प्राप्त कीं. यह 2020 की तुलना में मामूली वृद्धि है जब 35.6 प्रतिशत बच्चों को संदर्भ सप्ताह में शिक्षण सामग्री प्राप्त हुई.

दोबारा खोले गए स्कूलों में अधिक बच्चों को मिली सीखने की सामग्री: संदर्भ सप्ताह में, जिन बच्चों के स्कूल फिर से खुल गए हैं, ऐसे 46.4 प्रतिशत बच्चों को सीखने की सामग्री / गतिविधियाँ मिलीं, जबकि 39.8 प्रतिशत बच्चे जिनके स्कूल अभी नहीं खुले थे, संदर्भ सप्ताह के दौरान अपने शिक्षकों से किसी प्रकार की शिक्षण सामग्री यागतिविधियाँ (पाठ्यपुस्तकों के अलावा) प्राप्त हुईं.  मुख्य रूप से फिर से खोले गए स्कूलों में होमवर्क शामिल करने के कारण सीखने की सामग्री मिली.

नीति क्रियान्वयन

जैसा कि 18 महीने के लॉकडाउन के बाद स्कूल फिर से खुलने लगे हैं, स्कूल बंद होने के प्रभाव को समझना आवश्यक है ताकि इन मुद्दों के समाधान के लिए नीतियां बनाई जा सकें. असर 2021 से कुछ व्यापक नीतिगत निहितार्थ इस प्रकार हैं:

नामांकन: पिछले दो वर्षों में सरकारी स्कूलों में बच्चों के नामांकन में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है. इस आमद से निपटने के लिए सरकारी स्कूलों और शिक्षकों को सुसज्जित करने की आवश्यकता है.

परिवार की मदद से बच्चों का निर्माण: 2020 से स्कूल फिर से खुलने के बाद से परिवारों से मिलने वाली मदद कम हो गई है, लेकिन विशेष रूप से प्रारंभिक प्राथमिक ग्रेड के लिए महत्वपूर्ण बना हुआ है. बच्चों की शिक्षा के साथ माता-पिता के जुड़ाव को सीखने में सुधार की योजना में एकीकृत किया जा सकता है, जैसा कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति द्वारा समर्थित है. "माता-पिता तक सही स्तर पर पहुंचना" यह समझने के लिए आवश्यक है कि वे अपने बच्चों की मदद कैसे कर सकते हैं.

• "हाइब्रिड" अध्ययन: बच्चे घर पर तरह-तरह की विभिन्न गतिविधियाँ कर रहे हैं; इनमें से कई स्कूलों के अलावा परिवार के सदस्यों और निजी शिक्षकों द्वारा प्रदान किए जाते हैं. "हाइब्रिड" सीखने के प्रभावी तरीकों को विकसित करने की आवश्यकता है जो पारंपरिक शिक्षण-शिक्षण को "पहुंच-सीखने" के नए तरीकों से जोड़ते हैं.

ट्यूशन: निजी ट्यूशन कक्षाओं में भाग लेने वाले बच्चों का अनुपात 2018 के बाद से स्कूल बंद होने और अनिश्चितता की विस्तारित अवधि के दौरान बढ़ गया है. यह उन छात्रों के बीच एक बड़ा सीखने का अंतर पैदा कर सकता है जो भुगतान किए गए ट्यूशन का खर्च उठा सकते हैं और नहीं.

• "डिजिटल डिवाइड" में मध्यस्थता करना: अपेक्षित रूप से, ऐसे परिवारों के बच्चे जिनकी शिक्षा कम थी और जिनके पास स्मार्टफोन जैसे संसाधन नहीं थे, उनकी सीखने के अवसरों तक कम पहुंच थी. इन घरों में भी प्रयास के प्रमाण हैं: माता-पिता विशेष रूप से अपने बच्चों की शिक्षा के लिए स्मार्टफोन खरीद रहे हैं. हालाँकि, इन बच्चों को स्कूलों के फिर से खुलने पर दूसरों की तुलना में और भी अधिक मदद की आवश्यकता होगी.

स्मार्टफ़ोन एक्सेस: ASER 2021 इस बात की पुष्टि करता है कि भले ही परिवार में स्मार्टफोन हो, बच्चों के पास अक्सर उस तक पहुंच नहीं होती है. इस खोज को ध्यान में रखाजाना चाहिए क्योंकि भविष्य की योजनाएं दूरस्थ शिक्षा या डिजिटलसामग्री और उपकरणों के उपयोग के लिए बनाई गई हैं.

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अगस्त 2021 (पहले दौर) के महीने में 15 राज्यों / केंद्र शासित प्रदेशों में किए गए 1,362 घरों के 1,362 स्कूली बच्चों (कक्षा 1-8 में नामांकित) को कवर करने वाला सर्वेक्षण, इस दौरान पिछले डेढ़ साल में विस्तारित स्कूलों के बंद रहने के "विनाशकारी परिणामों" का खुलासा करता है. यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि देश में प्राथमिक और उच्च-प्राथमिक विद्यालय पूरे 17 महीने – 500 दिनों से अधिक के लिए बंद रहे हैं. महामारी से प्रेरित स्कूलों के बंद रहने से शिक्षा के अधिकार और समाज के हाशिए पर रहने वाले स्कूली बच्चों के सीखने के स्तर पर भारी असर पड़ा है. हाल ही में जारी रिपोर्ट में कहा गया है कि " ऑनलाइन शिक्षा की वजह से खासकर छोटे बच्चों के सबसे अच्छे 17 महीनों तक स्कूल में न होना उनके लिए अभिशाप साबित हुआ है."

यहां यह गौरतलब है कि स्कूली बच्चों का ऑनलाइन और ऑफलाइन अध्ययन (स्कूल) सर्वेक्षण अपेक्षाकृत वंचित बस्तियों और मोहल्लों पर केंद्रित है, जहां बच्चे आमतौर पर सरकारी स्कूलों में जाते हैं. लॉक्ड आउटइमरजेंसी रिपोर्ट ऑन स्कूल एजुकेशन नामक रिपोर्ट, जिसे समन्वय दल (निराली बाखला, जीन द्रेज, विपुल पैकरा, रीतिका खेड़ा सहित) ने लगभग 100 स्वयंसेवकों की उदार मदद से तैयार किया था, ने अपने पाठकों को आगाह किया है कि स्कूल का सर्वेक्षण वंचित परिवारों पर केंद्रित है, और निष्कर्षों को उन्हीं के संदर्भ में पढ़ा जाना चाहिए. नई जारी की गई रिपोर्ट हमें बताती है कि नमूने के लिए चुने गए लगभग 60 प्रतिशत परिवार ग्रामीण क्षेत्रों में रहते थे, और लगभग 60 प्रतिशत अनुसूचित जाति (दलित) या अनुसूचित जनजाति (आदिवासी) समुदायों से संबंधित थे. इसके अलावा, चार राज्यों में लगभग 50 प्रतिशत नमूने लिए गए थे: दिल्ली, झारखंड, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश. सर्वेक्षण के लिए बच्चों को कमोबेश लिंग और ग्रेड द्वारा समान रूप से वितरित किया गया था. रिपोर्ट में, ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के लिए अलग-अलग सभी 15 राज्यों / केंद्र शासित प्रदेशों के अनिर्धारित आंकड़े प्रस्तुत किए गए हैं.

समन्वय दल (निराली बाखला, जीन द्रेज, विपुल पैकरा, रीतिका खेड़ा सहित) व लगभग 100 स्वयंसेवकों की उदार मदद से तैयार [inside]लॉक्ड आउट: इमरजेंसी रिपोर्ट ऑन स्कूल एजुकेशन[/inside] नामक रिपोर्ट, के प्रमुख बिंदु इस प्रकार हैं, (देखने के लिए यहां क्लिक करें.)

ऑनलाइन अध्ययन

सर्वेक्षण में ग्रामीण क्षेत्रों में केवल 8 प्रतिशत स्कूली बच्चे नियमित रूप से ऑनलाइन पढ़ते पाए गए, जबकि 37 प्रतिशत बिल्कुल भी नहीं पढ़ रहे थे, और 48 प्रतिशत कुछ शब्दों से अधिक पढ़ने में असमर्थ थे. ऐसे क्षेत्रों में केवल 28 प्रतिशत स्कूली बच्चे ही नियमित रूप से पढ़ पा रहे थे और 35 प्रतिशत रुक-रुक कर पढ़ाई कर रहे थे.

ग्रामीण परिवारों में स्मार्टफोन तक पहुंच की कमी (केवल 51 प्रतिशत ग्रामीण परिवारों में स्कूली बच्चों के पास यह था) ऑनलाइन पढ़ाई के लिए एक बड़ी बाधा थी. स्मार्टफोन वाले ग्रामीण परिवारों में, नियमित रूप से ऑनलाइन पढ़ाई करने वाले बच्चों का अनुपात सिर्फ 15 प्रतिशत था. रिपोर्ट में कहा गया है कि स्कूल पढ़ाई के लिए ऑनलाइन सामग्री नहीं भेज रहे थे, या अगर उन्होंने भेजी भी हो, तो माता-पिता को इसकी जानकारी नहीं थी. कुछ स्कूली बच्चे, विशेष रूप से छोटे बच्चे, ऑनलाइन कक्षाओं को नहीं समझते थे, या उन्हें ध्यान केंद्रित करने में कठिनाई होती थी. अध्ययन से पता चलता है कि इन कारकों ने ग्रामीण क्षेत्रों मेंडिजिटल पढ़ाई को प्रभावित किया.

जब ग्रामीण क्षेत्रों के माता-पिता से बच्चों के नियमित रूप से ऑनलाइन पढ़ाई न करने के दो मुख्य कारण बताने के लिए कहा गया (जिन घरों में स्मार्टफोन था), उनमें से अधिकांश ने उत्तर दिया कि: ए) बच्चों के पास अपना स्मार्टफोन नहीं है (36 प्रतिशत); बी) स्कूल द्वारा कोई ऑनलाइन सामग्री नहीं भेजी जा रही थी (43 प्रतिशत); सी) ऑनलाइन पढ़ाई बच्चों की समझ से परे थी (10 प्रतिशत); डी) खराब कनेक्टिविटी (9 प्रतिशत); इ) "डेटा" खरीदने के लिए पैसे नहीं (6 प्रतिशत); और एफ) अन्य कारण (10 प्रतिशत).

ग्रामीण क्षेत्रों में स्थिति के विपरीत, सर्वेक्षण में भाग लेने वाले शहरी क्षेत्रों में केवल 24 प्रतिशत बच्चे नियमित रूप से ऑनलाइन पढ़ रहे थे, 19 प्रतिशत बिल्कुल भी नहीं पढ़ रहे थे, और 42 प्रतिशत कुछ शब्दों से अधिक पढ़ने में असमर्थ थे. शहरी क्षेत्रों में लगभग 47 प्रतिशत स्कूली बच्चे नियमित रूप से पढ़ रहे थे और 34 प्रतिशत समय-समय पर अध्ययन कर रहे थे.

शहरी क्षेत्रों में, सर्वेक्षण में स्मार्टफोन वाले परिवार में रहने वाले बच्चों का अनुपात 77 प्रतिशत था. स्मार्टफोन वाले शहरी परिवारों में, नियमित रूप से ऑनलाइन पढ़ाई करने वाले बच्चों का अनुपात 31 प्रतिशत था.

ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में, स्मार्टफोन, काफी हद तक, कामकाजी वयस्कों द्वारा उपयोग किया जाता था, और स्कूली बच्चों के बीच उनकी उपलब्धता अनिश्चित थी, खासकर छोटे भाई-बहनों के बीच. सर्वेक्षण में शामिल सभी बच्चों में से केवल 9 प्रतिशत के पास अपने स्मार्टफोन थे.

जब शहरी क्षेत्रों के माता-पिता से बच्चों के नियमित रूप से ऑनलाइन पढ़ाई न करने के दो मुख्य कारण बताने के लिए कहा गया (जिन घरों में स्मार्टफोन था), उनमें से अधिकांश ने कहा कि: ए) बच्चों के पास अपना स्मार्टफोन नहीं था (30 प्रतिशत); बी) स्कूल द्वारा कोई ऑनलाइन सामग्री नहीं भेजी जा रही थी (14 प्रतिशत); सी) ऑनलाइन पढ़ाई बच्चों की समझ से परे थी (12 प्रतिशत); डी) खराब कनेक्टिविटी (9 प्रतिशत); इ) "डेटा" (9 प्रतिशत) खरीदने के लिए कोई पैसा नहीं; और एफ) अन्य (15 प्रतिशत).

अध्ययन के समय ऑनलाइन (नियमित या कभी-कभी) पढ़ाई कर रहे ग्रामीण स्कूली बच्चों के सर्वेक्षण से पता चलता है कि 12 प्रतिशत के पास अपने स्मार्टफोन थे, 12 प्रतिशत ने लाइव कक्षाएं देखीं, न कि केवल वीडियो, 65 प्रतिशत को कनेक्टिविटी की समस्या थी (अक्सर / कभी-कभी) और 43 प्रतिशत ने ऑनलाइन कक्षाओं/वीडियो का पालन करना मुश्किल पाया.

अध्ययन (रिपोर्ट) के समय ऑनलाइन (नियमित या कभी-कभी) अध्ययन कर रहे शहरी स्कूली बच्चों के सर्वेक्षण से संकेत मिलता है कि 11 प्रतिशत के पास अपने स्मार्टफोन थे, 27 प्रतिशत ने लाइव कक्षाएं देखीं (न कि केवल वीडियो), 57 प्रतिशत को कनेक्टिविटी समस्याओं (अक्सर/कभी-कभी) का सामना करना पड़ा और 46 प्रतिशत ने ऑनलाइन कक्षाओं/वीडियो से अध्ययन करना मुश्किल पाया.

अध्ययन (रिपोर्ट) के समय ऑनलाइन (नियमित या कभी-कभी) पढ़ाई कर रहे ग्रामीण स्कूली बच्चों के माता-पिता के सर्वेक्षण से पता चलता है कि केवल एक-चौथाई ने महसूस किया कि उनके बच्चों के पास पर्याप्त ऑनलाइन अध्ययन सामग्री पहुंच रही है, और एक-पांचव अभिभावक ऑनलाइन अध्ययन सामग्री से संतुष्ट थे, और लगभग 70 प्रतिशत ने महसूस किया कि स्कूल बंद होने के दौरान उनके बच्चों की पढ़ने और लिखने की क्षमता में गिरावट आई है.

अध्ययन (रिपोर्ट) के समय ऑनलाइन (नियमित या कभी-कभी) पढ़ाई कररहे शहरी क्षेत्रों में स्कूली बच्चों के माता-पिता का सर्वेक्षण यह दर्शाताहै कि केवल 44 प्रतिशत ने महसूस किया कि उनके बच्चों के पास पर्याप्त ऑनलाइन सामग्री पहुंच रही है, 29 प्रतिशत ऑनलाइन अध्ययन सामग्री से संतुष्ट थे, और लगभग 65 प्रतिशत ने महसूस किया कि स्कूलों की तालाबंदी के दौरान उनके बच्चों की पढ़ने और लिखने की क्षमता में गिरावट आई है.

ऑफलाइन अध्ययन

स्कूल सर्वेक्षण में पाया गया कि जिन स्कूली बच्चों की ऑनलाइन शिक्षा तक पहुँच नहीं थी, उनमें नियमित अध्ययन के बहुत कम प्रमाण मिले. सर्वेक्षण किए गए अधिकांश "ऑफ़लाइन बच्चे" या तो बिल्कुल भी नहीं पढ़ रहे थे, या समय-समय पर घर पर अकेले ही पढ़ रहे थे. जबकि कई राज्यों (असम, बिहार, झारखंड और उत्तर प्रदेश सहित) में स्कूल बंद होने के दौरान ऑफ़लाइन बच्चों को किसी न किसी तरह से पढ़ाई जारी रखने में मदद करने के लिए राज्य सरकारों द्वारा लगभग कोई पहल नहीं की गई थी, कुछ राज्यों (जैसे कर्नाटक, महाराष्ट्र, पंजाब और राजस्थान) में उन बच्चों के बीच समावेशी शिक्षा को बढ़ावा देने के प्रयास किए गए जो स्कूलों के बंद रहने के दौरान शिक्षा के घेरे से बाहर हो गए थे. बाद के राज्यों के समूह ने होमवर्क के माध्यम से ऑफ़लाइन बच्चों को "कार्यपत्रक" दिए, या शिक्षकों को सलाह के लिए समय-समय पर माता-पिता के घर जाने का निर्देश दिया. हालाँकि, लॉक्ड आउट: इमरजेंसी रिपोर्ट ऑन स्कूल एजुकेशन नामक रिपोर्ट कहती है कि इनमें से अधिकांश प्रयास संतोषजनक नहीं थे, न केवल माता-पिता और बच्चों की गवाही से, बल्कि इस तथ्य से भी कि लॉकडाउन के दौरान बच्चों की पढ़ने और लिखने की क्षमता में गिरावट आई. सबसे छोटे बच्चों, विशेषकर कक्षा 1 और 2 के बच्चों को बहुत कम सहायता मिली.

शहरी क्षेत्रों में ऑफ़लाइन बच्चे निजी ट्यूटर्स पर निर्भर थे और विशेषाधिकार प्राप्त वर्गों के ऐसे बच्चे नियमित रूप से पढ़ते देखे गए. हालांकि, ज्यादातर मामलों में ऑफलाइन बच्चे परिवार के सदस्यों के साथ या उनकी मदद के बिना घर पर ही पढ़ाई करते हैं. ऐसे बच्चे "नियमित" के बजाय "कभी-कभी" पढ़ रहे थे.

स्कूल सर्वेक्षण में ग्रामीण बच्चों का अनुपात जो निम्नलिखित माध्यमों से 'नियमित' पढ़ाई कर पा रहे थे: ए) ऑनलाइन कक्षाएं या वीडियो 8.0 प्रतिशत; बी) टीवी देखना सिर्फ 0.1 प्रतिशत था; सी) निजी ट्यूशन 14.0 प्रतिशत था; डी) घर पर पढ़ाई (पारिवारिक मदद से) 12.0 प्रतिशत थी; इ) घर पर पढ़ाई (बिना मदद के) 15.0 प्रतिशत; एफ) एक-दूसरे के घरों में दोस्तों के साथ पढ़ाई करना 3.0 प्रतिशत.

इसके विपरीत, शहरी स्कूल के बच्चों का अनुपात जो निम्नलिखित माध्यमों से 'नियमित'  पढ़ाई कर पा पढ़ रहे थे: a) ऑनलाइन कक्षाएं या वीडियो 25.0 प्रतिशत; ब) टीवी देखना 3.0 प्रतिशत; सी) निजी ट्यूशन 24.0 प्रतिशत; डी) घर पर पढ़ाई (पारिवारिक मदद से) 15.0 प्रतिशत; इ) घर पर पढ़ाई (बिना मदद के) 19.0 प्रतिशत; एफ) एक-दूसरे के घरों में दोस्तों के साथ पढ़ाई करना 2.0 प्रतिशत.

स्कूल सर्वेक्षण में ग्रामीण बच्चों का अनुपात जो निम्मलिखित माध्यमों से 'कभी-कभी' पढ़ पा रहे थे: ए) ऑनलाइन कक्षाएं या वीडियो 8.0 प्रतिशत; बी) टीवी देखना 1.0 प्रतिशत; सी) निजी ट्यूशन 4.0 प्रतिशत था; डी) घर पर पढ़ाई (पारिवारिक मदद से) 25.0 प्रतिशत;  इ) घर पर पढ़ाई (बिना मदद के) 31.0 प्रतिशत; एफ) एक-दूसरे के घरों में दोस्तों के साथ पढ़ाई 11.0 फीसदी.

स्कूल सर्वेक्षण में शहरी बच्चों का अनुपात जो निम्नलिखित माध्यमों से 'कभी-कभी' पढ़ पा रहे थे: a) ऑनलाइन कक्षाएं या वीडियो 16.0 प्रतिशत; बी) टीवी देखना 5.0 प्रतिशत; सी) निजी ट्यूशन6.0 प्रतिशत; डी) घर पर पढ़ाई (पारिवारिक मदद से) 29.0 प्रतिशत; इ) घर पर पढ़ाई (बिना मदद के) 30.0 प्रतिशत; एफ) एक-दूसरे के घरों में दोस्तों के साथ पढ़ाई 13.0 प्रतिशत.

सर्वेक्षण में केवल 1.0 प्रतिशत ग्रामीण बच्चों और 8.0 प्रतिशत शहरी बच्चों ने टीवी कार्यक्रमों को नियमित या कभी-कभार अध्ययन के रूप में स्वीकार किया.

स्कूल आउटरीच

शैक्षिक सहायता के संदर्भ में, स्थानीय स्कूलों (अर्थात सरकारी स्कूलों) ने ऑफ़लाइन बच्चों को "होमवर्क" दिया. रिपोर्ट में कहा गया है कि ऑफलाइन दिया गया होमवर्क अक्सर बच्चों की समझ से परे होता था और ऐसे कई बच्चों को उनके होमवर्क पर कोई फीडबैक नहीं मिला. होमवर्क को कक्षा में सीखने के लिए एक खराब विकल्प के रूप में पाया गया, खासकर उन बच्चों के लिए जो अध्ययन के लिए घर पर किसी भी मदद से वंचित थे. शहरी ऑफ़लाइन बच्चों (पिछले 3 महीनों में) के बीच आयोजित समसामयिक परीक्षणों / परीक्षाओं ने उनकी मदद नहीं की, हालांकि इससे शिक्षकों को रिपोर्टिंग आवश्यकताओं को पूरा करने में मदद मिली.

ग्रामीण ऑफ़लाइन स्कूली बच्चों का अनुपात (अर्थात जो ऑनलाइन नहीं पढ़ रहे थे) जिन्हें पिछले तीन महीनों के दौरान स्थानीय स्कूल से शैक्षिक सहायता प्राप्त हुई थी: ए) 16 प्रतिशत – स्कूल ने घर पर या कहीं और परीक्षा की व्यवस्था की; बी) 25 प्रतिशत – शिक्षक ने बच्चे को कुछ गृहकार्य दिया; सी) 12 प्रतिशत – शिक्षक बच्चे के बारे में पूछने या सलाह देने के लिए घर आए; डी) 13 प्रतिशत – शिक्षक ने पूछताछ या सलाह देने के लिए फोन किया; ई) 2 प्रतिशत – शिक्षक ने घर पर बच्चे की मदद की; एफ) 5 प्रतिशत – कोई अन्य शैक्षिक सहायता [जैसे स्कूल में कक्षाएं आयोजित की जाती थीं (जैसे पंजाब में); मोहल्ला कक्षाएं; शिक्षक फोन पर मदद करता है; शिक्षक ऑनलाइन अध्ययन के लिए अपना फोन उधार देते हैं; शिक्षक ने कहानी की किताबें दीं; शिक्षक बच्चों के फोन रिचार्ज करता है; स्कूल ने एक टैबलेट प्रदान किया; शिक्षक बच्चे को पढ़ने के लिए प्रेरित करता है; शिक्षक मुफ्त ट्यूशन देता है; शिक्षक-छात्र की व्यक्तिगत मदद; अभिभावक-शिक्षक बैठक].

शहरी ऑफ़लाइन स्कूली बच्चों का अनुपात (अर्थात जो ऑनलाइन नहीं पढ़ रहे थे) जिन्हें पिछले तीन महीनों के दौरान स्थानीय स्कूल से शैक्षिक सहायता प्राप्त हुई थी: ए) 27 प्रतिशत – स्कूल ने घर पर या कहीं और परीक्षा की व्यवस्था की;  बी) 39 प्रतिशत – शिक्षक ने बच्चे को कुछ गृहकार्य दिया; सी) 5 प्रतिशत – शिक्षक बच्चे के बारे में पूछने या सलाह देने के लिए घर आए; डी) 36 प्रतिशत – शिक्षक ने पूछताछ या सलाह देने के लिए फोन किया; ई) 3 प्रतिशत – शिक्षक ने घर पर बच्चे की मदद की; एफ) 6 प्रतिशत – कोई अन्य शैक्षिक सहायता [जैसे स्कूल में कक्षाएं आयोजित की जाती थीं (जैसे पंजाब में); मोहल्ला कक्षाएं; शिक्षक फोन पर मदद करता है; शिक्षक ऑनलाइन अध्ययन के लिए अपना फोन उधार देते हैं; शिक्षक ने कहानी की किताबें दीं; शिक्षक बच्चों के फोन रिचार्ज करता है; स्कूल ने एक टैबलेट प्रदान किया; शिक्षक बच्चे को पढ़ने के लिए प्रेरित करता है; शिक्षक मुफ्त ट्यूशन देता है; शिक्षक-छात्र की व्यक्तिगत मदद; अभिभावक-शिक्षक बैठक].

शिक्षक का संपर्क में न होना

ग्रामीण क्षेत्रों में लगभग 58 प्रतिशत स्कूली बच्चे और 51 प्रतिशत शहरी स्कूली बच्चे पिछले 30 दिनों मेंअपने शिक्षकों से नहीं मिल सके. समय-समय पर उनमें से कुछ (या, अधिकसंभावना है, उनके माता-पिता) को व्हाट्सएप द्वारा Youtube लिंक फॉरवर्ड करने जैसे प्रतीकात्मक ऑनलाइन इंटरैक्शन को छोड़कर, शिक्षक अपने विद्यार्थियों के साथ संपर्क से बाहर पाए गए.

हालांकि, कुछ शिक्षक उन बच्चों की मदद करने के लिए जो ऑनलाइन नहीं सीख पा रहे थे, लीक से हटकर उन बच्चों तक ऑफ़लाइन भी पहुंचे. कुछ शिक्षकों ने खुले में, या किसी के घर पर, या यहाँ तक कि अपने घर पर भी छोटे समूह की कक्षाएं बुलाईं. दूसरों ने उन बच्चों के फोन रिचार्ज किए जिनके पास पैसे की कमी थी, या उन्हें ऑनलाइन अध्ययन के लिए अपने फोन उधार दिए. कुछ शिक्षकों ने फोन पर या यहां तक ​​कि उनके पास जाकर भी बच्चों की पढ़ाई में मदद की. रिपोर्ट में कहा गया है कि मूल्यवान इशारे होने के बावजूद, ये प्रयास अभी भी बंद स्कूलों और कक्षाओं के लिए नहीं किए गए.

निजी स्कूलों से पलायन

कम कमाई या बच्चों के ऑनलाइन कक्षाओं के माध्यम से पर्याप्त नहीं सीखने के कारण, अधिकांश गरीब माता-पिता अक्सर फीस और अन्य लागतों (स्मार्टफोन और रिचार्ज सहित) का भुगतान करने में अनिच्छुक हो जाते हैं. इनमें से कुछ अभिभावकों ने अपने बच्चों को निजी स्कूलों से सरकारी स्कूलों में स्थानांतरित कर दिया. सर्वेक्षण में भाग लेने वाले स्कूली बच्चों में से लगभग 26 प्रतिशत प्रारंभिक रूप से निजी स्कूलों में नामांकित थे. कुछ अभिभावकों को अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में स्थानांतरित करने के लिए निजी स्कूलों से "स्थानांतरण प्रमाणपत्र" नहीं मिला क्योंकि वे बकाया फीस का भुगतान करने में विफल रहे.

मध्याह्न भोजन बंद होना

स्कूल बंद होने के कारण मध्याह्न भोजन (एमडीएम) बंद कर दिया गया. अपने बच्चे के मध्याह्न भोजन के विकल्प के रूप में, लगभग 80 प्रतिशत ने पिछले 3 महीनों के दौरान कुछ खाद्यान्न (मुख्य रूप से चावल या गेहूं) प्राप्त करने की सूचना दी. कुछ माता-पिता ने शिकायत की कि जितने के वे हकदार थे, उन्हें उससे कम प्राप्त हुआ था (अर्थात प्राथमिक स्तर पर प्रति बच्चा प्रति दिन 100 ग्राम). रिपोर्ट में कहा गया है कि मध्याह्न भोजन के विकल्प का वितरण काफी छिटपुट और बेतरतीब लग रहा था.

सरकारी स्कूलों में नामांकित ग्रामीण बच्चों का अनुपात जिन्हें पिछले 3 महीनों में मध्याह्न भोजन के बदले खाद्यान्न या नकद प्राप्त हुआ था: ए) 15 प्रतिशत – खाद्यान्न और नकद; बी) 63 प्रतिशत – केवल खाद्यान्न; सी) 8 प्रतिशत – केवल नकद; डी) 14 प्रतिशत – कुछ नहीं.

सरकारी स्कूलों में नामांकित शहरी बच्चों का अनुपात जिन्हें पिछले 3 महीनों में मध्याह्न भोजन के बदले खाद्यान्न या नकद प्राप्त हुआ था: a. 11 प्रतिशत – खाद्यान्न और नकद;  बी) 69 प्रतिशत – केवल खाद्यान्न;  सी) 0 प्रतिशत – केवल नकद; डी) 20 प्रतिशत को कुछ नहीं मिला.

खाद्यान्न का अर्थ आम तौर पर अनाज (जैसे चावल या गेहूं) होता है.

पठन परीक्षण

ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में ग्रेड 3-5 के बच्चों का एक बड़ा हिस्सा बड़े फ़ॉन्ट में छपे निम्नलिखित वाक्य के कुछ शब्दों से अधिक पढ़ने में असमर्थ था.

कक्षा 3-5 में ग्रामीण स्कूली बच्चों का अनुपात जो वाक्य पढ़ सकते हैं: ए) 26 प्रतिशत – धाराप्रवाह पढ़ने में सक्षम;  बी) 19 प्रतिशत – कठिनाई से पढ़ने में सक्षम;  सी) 13 प्रतिशत – केवल कुछ शब्दों को पढ़ने में सक्षम;  डी) 42 प्रतिशत – कुछ अक्षरों से अधिकपढ़ने में असमर्थ.

कक्षा 3-5 में शहरी स्कूली बच्चों का अनुपात जो वाक्य पढ़ सकते हैं: ए)  31 प्रतिशत – धाराप्रवाह पढ़ने में सक्षम;  बी) 22 प्रतिशत – कठिनाई से पढ़ने में सक्षम;  सी) 13 प्रतिशत – केवल कुछ शब्दों को पढ़ने में सक्षम;  डी) 35 प्रतिशत – कुछ अक्षरों से अधिक पढ़ने में असमर्थ।

कक्षा 6-8 में ग्रामीण स्कूली बच्चों का अनुपात जो वाक्य पढ़ सकते हैं: ए)   57 प्रतिशत – धाराप्रवाह पढ़ने में सक्षम;  बी) 19 प्रतिशत – कठिनाई से पढ़ने में सक्षम;  सी) 8 प्रतिशत – केवल कुछ शब्दों को पढ़ने में सक्षम; डी) 16 प्रतिशत – कुछ अक्षरों से अधिक पढ़ने में असमर्थ।

कक्षा 6-8 में शहरी स्कूली बच्चों का अनुपात जो वाक्य पढ़ सकते हैं: ए)   58 प्रतिशत – धाराप्रवाह पढ़ने में सक्षम;  बी) 23 प्रतिशत – कठिनाई से पढ़ने में सक्षम;  सी) 8 प्रतिशत – केवल कुछ शब्दों को पढ़ने में सक्षम;  डी) 12 प्रतिशत – कुछ अक्षरों से अधिक पढ़ने में असमर्थ.

रिपोर्ट स्पष्ट करती है कि 44 बच्चे जो पढ़ने में बहुत शर्मीले थे. इसलिए, उन्हें सर्वेक्षण के परिणामों से बाहर रखा गया है.

रिपोर्ट में कहा गया है कि कक्षा 2 के स्कूली बच्चों को भी शामिल नहीं किया गया था क्योंकि उनमें से अधिकांश (शहरी क्षेत्रों में 65 प्रतिशत और ग्रामीण क्षेत्रों में 77 प्रतिशत) कुछ अक्षरों से अधिक नहीं पढ़ सकते थे.

पढ़ने की क्षमता में गिरावट

ग्रामीण (75 प्रतिशत) के साथ-साथ शहरी (76 प्रतिशत) क्षेत्रों में रहने वाले लगभग तीन-चौथाई माता-पिता ने महसूस किया कि स्कूल बंद होने के दौरान उनके बच्चों की पढ़ने की क्षमता में गिरावट आई है. रिपोर्ट में कहा गया है कि सर्वेक्षण में भाग लेने वाले, केवल 4 प्रतिशत माता-पिता ने महसूस किया कि तालाबंदी के दौरान उनके बच्चों की पढ़ने और लिखने की क्षमता में सुधार हुआ है – कुछ ऐसा जो आदर्श होना चाहिए था.

लॉकडाउन शुरू होने के बाद से ग्रामीण क्षेत्रों में माता-पिता का अनुपात जिन्होंने महसूस किया कि उनके बच्चों की पढ़ने और लिखने की क्षमता में गिरावट आई है: ए) 70 प्रतिशत – ऑनलाइन बच्चे;  बी) 76 प्रतिशत – ऑफ़लाइन बच्चे;  सी) 79 प्रतिशत – ग्रेड 1-5;  डी) 70 प्रतिशत – ग्रेड 6-8.

लॉकडाउन शुरू होने के बाद से शहरी क्षेत्रों में माता-पिता का अनुपात जिन्होंने महसूस किया कि उनके बच्चों की पढ़ने और लिखने की क्षमता में गिरावट आई है: ए)  65 प्रतिशत – ऑनलाइन बच्चे;  बी) 82 प्रतिशत – ऑफ़लाइन बच्चे;  सी) 78 प्रतिशत – ग्रेड 1-5;  डी) 72 प्रतिशत – ग्रेड 6-8.

चार्ट से बाहर साक्षरता दर

2011 की जनगणना के अनुसार, बिहार (83 प्रतिशत) को छोड़कर सभी स्कूल राज्यों / केंद्र शासित प्रदेशों में 10-14 वर्ष के आयु वर्ग में औसत साक्षरता दर 88 प्रतिशत से 98 प्रतिशत के बीच थी; अखिल भारतीय औसत 91 प्रतिशत रहा. 10 साल बाद स्कूली बच्चों के बीच किए गए स्कूल सर्वेक्षण से पता चलता है कि 10-14 आयु वर्ग में साक्षरता दर शहरी क्षेत्रों में 74 प्रतिशत, ग्रामीण क्षेत्रों में 66 प्रतिशत और ग्रामीण अनुसूचित जाति (दलित) और अनुसूचित जनजाति (आदिवासी) के लिए 61 प्रतिशत थी.

स्कूल सर्वेक्षण में, एक बच्चे को साक्षर माना जाता है यदि वह परीक्षण वाक्य, "धाराप्रवाह" या "कठिनाई से" पढ़ने मेंसक्षम था. 2011 की भारत की जनगणना में, एक व्यक्ति "जो किसी भी भाषामें समझ के साथ पढ़ और लिख सकता है" को साक्षर के रूप में गिना जाता था – जो कि स्कूल सर्वेक्षण के लिए उपयोग की जाने वाली परिभाषा से अधिक प्रतिबंधात्मक लगता है.

स्कूल सर्वेक्षण में भाग लेने वाले (39 प्रतिशत) ग्रामीण अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति के परिवारों में 10-14 आयु वर्ग में "निरक्षरता दर" दस साल पहले स्कूल राज्यों में 10-14 आयु वर्ग (9 प्रतिशत) के सभी बच्चों के औसत से चार गुना अधिक थी.

दलित और आदिवासी: तालाबंदी से अधिक प्रभावित

ग्रामीण क्षेत्रों में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के परिवारों में डिजिटल विभाजन अधिक प्रमुख रूप से देखा गया. ग्रामीण अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के केवल 4 प्रतिशत बच्चे नियमित रूप से ऑनलाइन अध्ययन कर रहे थे, जबकि अन्य ग्रामीण बच्चों में 15 प्रतिशत बच्चे ऑनलाइन अध्ययन कर पा रहे थे. ग्रामीण घरों में स्मार्टफोन के बिना रहने वाले अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के बच्चों का अनुपात 55 प्रतिशत था, जबकि अन्य समुदायों (ग्रामीण क्षेत्रों में) के बच्चों का यह आंकड़ा 38 प्रतिशत था.

ग्रामीण अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के बच्चे जो बिल्कुल भी नहीं पढ़ रहे थे, उनका अनुपात 43 प्रतिशत था, नियमित रूप से पढ़ने वाले बच्चों का अनुपात 22 प्रतिशत था और नियमित रूप से ऑनलाइन अध्ययन करने वाले बच्चों का अनुपात सिर्फ 4 प्रतिशत था.

अन्य समुदायों के ग्रामीण बच्चे जो बिल्कुल भी नहीं पढ़ रहे थे, उनका अनुपात 25 प्रतिशत था, नियमित रूप से पढ़ने वाला 40 प्रतिशत था और नियमित रूप से ऑनलाइन पढ़ाई करने वाले बच्चों का अनुपात सिर्फ 15 प्रतिशत था.

ऑनलाइन क्लास (सिर्फ वीडियो ही नहीं) देखने वाले बच्चों (ग्रामीण एससी/एसटी) का अनुपात 5 प्रतिशत था, जबकि ऑनलाइन क्लास (न केवल वीडियो देखने वाले) देखने वाले ग्रामीण क्षेत्रों के अन्य समुदायों के बच्चों का अनुपात 29 प्रतिशत था.

ऑनलाइन अध्ययन सामग्री से संतुष्ट बच्चों (ग्रामीण अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति) के माता-पिता का अनुपात 13 प्रतिशत था, जबकि ऑनलाइन अध्ययन सामग्री से संतुष्ट बच्चों (ग्रामीण क्षेत्रों के अन्य समुदायों से) के माता-पिता का अनुपात 26 प्रतिशत था.

ग्रामीण अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के बच्चे जो कुछ अक्षरों से अधिक पढ़ने में असमर्थ थे, उनका अनुपात 45 प्रतिशत था, जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में अन्य समुदायों के बच्चों का अनुपात जो कुछ अक्षरों से अधिक पढ़ने में असमर्थ थे, 24 प्रतिशत था.

10-14 वर्ष के ग्रामीण अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के बच्चों की साक्षरता दर 61 प्रतिशत थी, जबकि 10-14 वर्ष के बच्चों (ग्रामीण क्षेत्रों के अन्य समुदायों के) की साक्षरता दर 77 प्रतिशत थी.

तालाबंदी के दौरान अपने बच्चों (ग्रामीण अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति) की पढ़ने और लिखने की क्षमता में कमी महसूस करने वाले माता-पिता का अनुपात 83 प्रतिशत था. हालांकि, तालाबंदी के दौरान अपने बच्चों की (ग्रामीण क्षेत्रों के अन्य समुदायों से) पढ़ने और लिखने की क्षमता में कमी महसूस करने वाले माता-पिता का अनुपात 66 प्रतिशत था.

रिपोर्ट में बताया गया है कि कुछ स्थानों (जैसे झारखंड राज्य के लातेहार जिले के कुटमू गांव) में शिक्षकों की उच्च जाति की पृष्ठभूमि कभी-कभी एससी/एसटी स्कूली बच्चों के सीखने में बाधा बनी.

प्रगति के बिना पदोन्नति

पढ़ने और लिखने की क्षमता में भारी गिरावट के बावजूद बच्चों को उच्च कक्षाओं में प्रोन्नत करने की नीति – तालाबंदी पूर्व स्तर से दो ग्रेड ऊपर, बच्चों की शिक्षा के लिए प्रभावीसाबित नहीं हो रही है. रिपोर्ट बताती है कि "स्कूल फिर से खुल गए हैं, बच्चे अपने ग्रेड के पाठ्यक्रम से खुद को "तीन तरह से" पीछे पाते हैं. इस ट्रिपल गैप में (1) प्री-लॉकआउट गैप, (2) तालाबंदी के दौरान साक्षरता और पढ़ने संबंधित क्षमताओं में गिरावट, (3) उस अवधि में पाठ्यक्रम का आगे निकल जाना. उदाहरण के लिए, एक बच्चा जो तालाबंदी से पहले ग्रेड 3 में नामांकित था, लेकिन वास्तव में उसके वंचित होने के कारण ग्रेड 2 से आगे के पाठ्यक्रम में महारत हासिल नहीं थी. स्थिति, और अब खुद को उस संबंध में ग्रेड 1 के करीब पाता है, आज ग्रेड 5 में नामांकित है, और कुछ महीनों के समय में उच्च-प्राथमिक स्तर पर पदोन्नत हो जाएगा!"

युवा डांवा-डोल हो रहे हैं और स्कूलों को फिर से खोलने की मांग

स्कूल सर्वेक्षण में पाया गया है कि यद्यपि 10 वर्ष से कम आयु के बच्चों में बाल श्रम असामान्य था, लेकिन यह 10-14 वर्ष के आयु वर्ग में काफी सामान्य था. उस आयु वर्ग की बड़ी संख्या में लड़कियां स्कूल बंद होने के दौरान अवैतनिक घरेलू काम करती पाई गईं. जबकि कुछ बच्चे मजदूरों की श्रेणी में शामिल हो गए, अन्य आलस्य, व्यायाम की कमी, फोन की लत, पारिवारिक तनाव और बंद होने के अन्य दुष्प्रभावों से जूझ रहे थे. कुछ माता-पिता ने शिकायत की कि उनके बच्चे अनुशासनहीन, आक्रामक या हिंसक हो गए हैं.

ग्रामीण (लगभग 97 प्रतिशत) और शहरी (लगभग 90 प्रतिशत) क्षेत्रों में अधिकांश माता-पिता चाहते थे कि स्कूल जल्द से जल्द फिर से खुल जाएं. रिपोर्ट इंगित करती है कि माता-पिता स्कूलों के फिर से खुलने का बेसब्री से इंतजार कर रहे थे क्योंकि उनमें से कई के लिए, स्कूली शिक्षा ही एकमात्र उम्मीद थी कि उनके बच्चों को उनके अपने जीवन से बेहतर जीवन और भविष्य हो सकता है.

रिपोर्ट में कहा गया है कि पहले वाले रास्ते पर आगे बढ़ना अब सही नहीं होगा. रिपोर्ट में सरकार से कहा गया है कि स्कूलों को फिर से खोलने से पहले स्कूल भवनों की मरम्मत, सुरक्षा दिशानिर्देश जारी करने, शिक्षकों को प्रशिक्षण, नामांकन अभियान आदि जैसी तैयारी पूरी करने की आवश्यकता है. रिपोर्ट में कहा गया है, "स्कूली शिक्षा प्रणाली को न केवल बच्चों को एक उचित पाठ्यक्रम के साथ पकड़ने में सक्षम बनाने के लिए बल्कि उनके मनोवैज्ञानिक, सामाजिक और पोषण संबंधी कल्याण को बहाल करने के लिए एक विस्तारित परिवर्तन काल से गुजरने की जरूरत है."

सर्वेक्षण के बारे में अधिक जानने के लिए कृपया रोड स्कॉलर्ज़ की ट्विटर आईडी का अनुसरण करें.

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 शिक्षा मंत्रालय द्वारा प्रकाशित [inside]पर्फोरमेंस ग्रेडिंग इंडेक्स (पीजीआई) 2019-20 फॉर स्टेट्स एंड यूनियन टेरिटरीज (जून, 2021 में जारी)[/inside] नामक रिपोर्ट के प्रमुख निष्कर्ष इस प्रकार हैं (देखने के लिए कृपया यहां और यहां क्लिक करें):

राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों (यूटी) के लिए पर्फोरमेंस ग्रेडिंग इंडेक्स (पीजीआई) पहली बार 2019 में संदर्भ वर्ष 2017-18 के लिए प्रकाशित किया गया था. संदर्भ वर्ष 2018-19 के लिए पीजीआई वर्ष 2020 में प्रकाशितहुआ था. वर्तमान प्रकाशन, पीजीआई 2019-20राज्य / केंद्रशासित प्रदेश स्तर पर, पिछले दो पीजीआई के लिए उपयोग किए गए 70 मापदंडों के समान सेट के साथ तैयार किया गया है. वर्तमान पीजीआई में 70 मापदंडों में से 54 के आंकड़े वर्ष 2019-20 के हैं. इन आंकड़ों को अद्यतन करना और उनकी जांच करना संबंधित राज्यों / केंद्र शासित प्रदेशों द्वारा विभिन्न स्तरों पर किया गया है, अर्थात् स्कूल, जिला और राज्य / केंद्रशासित प्रदेश स्तर पर शगुन के ऑनलाइन पोर्टल, शिक्षा के लिए एकीकृत जिला सूचना प्रणाली प्लस (यूडीआईएसई +) और मिड-डे मील (एमडीएम), स्कूल शिक्षा और साक्षरता विभाग (डीओएसईएल), शिक्षा मंत्रालय (एमओई) द्वारा बनाया और बनाए रखा. शेष 16 मापदंडों के लिए, राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) द्वारा आयोजित राष्ट्रीय उपलब्धि सर्वेक्षण (एनएएस) 2017 के अंकों का उपयोग तीनों पीजीआई, अर्थात् पीजीआई 2017-18, पीजीआई 2018-19 और पीजीआई 2019-20 में किया गया है.

पीजीआई में परिकल्पना की गई है कि सूचकांक राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को बहु-आयामी हस्तक्षेप करने के लिए प्रेरित करेगा जो कि बहुत वांछित इष्टतम शिक्षा परिणाम लाएगा. पीजीआई राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों को अंतराल को इंगित करने में मदद करता है और तदनुसार हस्तक्षेप के लिए क्षेत्रों को प्राथमिकता देता है ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि स्कूली शिक्षा प्रणाली हर स्तर पर मजबूत है.

सरकार ने स्कूली शिक्षा के क्षेत्र में परिवर्तनकारी परिवर्तन को उत्प्रेरित करने के लिए 70 मापदंडों के एक सेट के साथ पर्फोरमेंस ग्रेडिंग इंडेक्स की शुरुआत की. पीजीआई को दो श्रेणियों में संरचित किया गया है, अर्थात् परिणाम और शासन और प्रबंधन और 1000 के कुल भार के साथ कुल 70 संकेतक शामिल हैं. रिपोर्ट के अनुलग्नक में प्रत्येक डोमेन के तहत संकेतकों की विस्तृत सूची, संबंधित भार, डेटा स्रोत और बेंचमार्क स्तर विस्तृत हैं.

पीजीआई के तहत कुल वेटेज 1000 अंक है जिसमें 70 संकेतकों में से प्रत्येक में 10 या 20 अंक का निर्धारित भार है. कुछ संकेतकों के लिए, उप-संकेतक हैं. इन सब-इंडिकेटर में इन सब-इंडिकेटर के बीच इंडिकेटर के टोटल पॉइंट्स बांट दिए गए हैं. यदि सभी उप-संकेतकों की भी गणना की जाती है, तो पीजीआई में माने जाने वाले मापदंडों की कुल संख्या 96 हो जाती है.

प्रत्येक संकेतक के लिए वेटेज को 10 समूहों में विभाजित किया गया है: 0, 1-10, 11-20और इसी तरह 91-100 तक. इस प्रकार, एक राज्य जिसने एक संकेतक के बेंचमार्क का 91 प्रतिशत हासिल किया है, उसे अधिकतम अंक (10 या 20, जो भी विशेष संकेतक के लिए लागू हो) मिलेगा. हालांकि, कुछ संकेतकों के मामले में, कम मूल्य एक उच्च वेटेज स्कोर करेगा, उदाहरण के लिए इक्विटी संकेतक, फंड जारी करने में लगने वाला समय और एकल शिक्षक स्कूल. इक्विटी संकेतकों के लिए, विभिन्न श्रेणियों के बीच '' (शून्य) के अंतर को सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन माना गया है और अंतर के पूर्ण मूल्य को ग्रेडिंग के लिए माना गया है.

पीजीआई में उच्चतम प्राप्त करने योग्य चरण स्तर- I है, जो स्कोर 951-1000 के लिए है. पीजीआई में, लेवल- II का मतलब पीजीआई स्कोर 901-950, लेवल- III: 851-900, लेवल- IV: 801-850, और इसी तरह लेवल-IX: 551-600 तक है। आखिरी वाला, जिसका नाम लेवल-एक्स है, स्कोर 0-550 के लिए है. पीजीआई 2019-20 में उच्चतम स्कोर लेवल II यानी स्कोर रेंज 901-950 पर पहुंच गया है. इस स्कोर रेंज को अब ग्रेड I++ (ग्रेड ए++ भी कहा जाता है) के रूप में नामित किया गया है, जो ग्रेड I+ से अधिक है.

2019-20 में राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों द्वारा प्राप्त पीजीआई स्कोर और ग्रेड पीजीआई प्रणाली की प्रभावकारिता का प्रमाण हैं. कई राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों ने अपने शासन-और-प्रबंधन-संबंधित मापदंडों में औसत दर्जे के सुधार के साथ-साथ कई परिणाम मापदंडों में पर्याप्त सुधार किए हैं.

पंजाब, चंडीगढ़, तमिलनाडु, अंडमान और निकोबार द्वीप समूह और केरल ने 2019-20 के लिए उच्चतम ग्रेड (ग्रेड ए ++) प्राप्त किए हैं.

एक केंद्र शासित प्रदेश, जिसका नाम लद्दाख है, ग्रेड-VII में है, जिसका स्कोर 0-550 है. कोई भी राज्य/केंद्र शासित प्रदेश ग्रेड-VI में नहीं है, और एक राज्य, मेघालय ग्रेड-V यानी स्कोर रेंज 601-650 में है.

अधिकांश राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों ने पिछले वर्षों की तुलना में पीजीआई 2019-20 में अपने ग्रेड में सुधार किया है. 2018-19 कीतुलना में कुल 33 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों ने 2019-20 में अपने कुल पीजीआईस्कोर में सुधार किया है.

तीन राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों, अंडमान और निकोबार द्वीप समूह (ग्रेड I++), पंजाब (ग्रेड I++) और अरुणाचल प्रदेश (ग्रेड- IV) ने अपने स्कोर में 20 प्रतिशत से अधिक सुधार किया है.

अंडमान और निकोबार द्वीप समूह, लक्षद्वीप और पंजाब ने पीजीआई डोमेन: एक्सेस में 10 प्रतिशत (8 अंक) या उससे अधिक का सुधार दिखाया है.

13 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों ने पीजीआई डोमेन: इंफ्रास्ट्रक्चर और सुविधाएं में 10 प्रतिशत (15 अंक) या उससे अधिक का सुधार दिखाया है. अंडमान और निकोबार द्वीप समूह और ओडिशा ने 20 प्रतिशत या उससे अधिक सुधार दिखाया है.

अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर और ओडिशा ने पीजीआई डोमेन: इक्विटी में 10 प्रतिशत से अधिक सुधार दिखाया है.

उन्नीस राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों ने पीजीआई डोमेन: शासन प्रक्रिया में 10 प्रतिशत (36 अंक) या उससे अधिक का सुधार दिखाया है. अंडमान और निकोबार द्वीप समूह, आंध्र प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, पंजाब, राजस्थान और पश्चिम बंगाल में कम से कम 20 प्रतिशत (72 अंक या अधिक) का सुधार हुआ है.

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UNCEF द्वारा तैयार की गई [inside]COVID-19 एंड स्कूल क्लोजर: वन ईयर ऑफ एजुकेशन डिसरप्शन (मार्च, 2021 में जारी)[/inside] नामक रिपोर्ट (कृपया एक्सेस करने के लिए यहां क्लिक करें) के प्रमुख निष्कर्ष इस प्रकार हैं:

11 मार्च,  और 2 फरवरी, 2021 के बीच की अवधि में, वैश्विक स्तर पर औसतन 95 शिक्षण दिनों के लिए स्कूल पूरी तरह से बंद कर दिए गए हैं, जोकि कक्षा निर्देश का लगभग आधा समय है.

लैटिन अमेरिका और कैरिबियाई क्षेत्र के देश सबसे अधिक प्रभावित हुए, जहां औसतन 158 दिन पूरे स्कूल बंद रहे, इसके बाद दक्षिण एशिया के देशों में 146 दिनों तक स्कूल बंद रहे. पूर्वी और दक्षिणी अफ्रीका क्षेत्र के देश 101 दिनों के औसत के साथ तीसरे सबसे अधिक प्रभावित हुए.

इस अवधि के दौरान सबसे लंबे समय तक स्कूल बंद रहने वाले शीर्ष 20 देशों में आधे से अधिक लैटिन अमेरिका और कैरेबियन क्षेत्र में स्थित हैं.

वैश्विक स्तर पर, 23 देशों में प्री-प्राइमरी से लेकर उच्च माध्यमिक शिक्षा तक के 21.4 करोड़ छात्रों ने मार्च 2020 से प्री-प्राइमरी से अपर सेकेंडरी स्तर पर कम से कम तीन-चौथाई कक्षाओं का समय गंवा दिया है.

इन 21.4 करोड़ छात्रों में से, 14 देशों में 16.8 करोड़ छात्र स्कूल बंद होने के कारण लगभग सभी कक्षा निर्देश समय से चूक गए.

जिन देशों में स्कूलबंद होने की सबसे लंबी अवधि होती है, वहां स्कूल जाने वाले बच्चों की संख्या कम होती है और उनके पास घर पर निश्चित इंटरनेट कनेक्शन होता है.

जबकि अधिकांश देशों ने पूरी तरह से स्कूल (53 प्रतिशत) खोले हैं और दुनिया के लगभग एक चौथाई देशों ने आंशिक रूप से स्कूल खोले हैं, 27 देशों (विश्व स्तर पर 13 प्रतिशत) में 19.6 करोड़ छात्रों के पास ऐसे स्कूल हैं जो 2 फरवरी, 2021 तक पूरी तरह से बंद हो गए थे. ( सबसे हाल की तारीख जिसके लिए डेटा उपलब्ध है.)

औसतन, उन देशों में जहां 2 फरवरी, 2021 तक स्कूल अभी भी बंद थे, मार्च 2020 से ग्यारह महीने की अवधि में लगभग 80 प्रतिशत कक्षा निर्देश छूट गए हैं.

 

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पंद्रहवीं वार्षिक शिक्षा स्थिति रिपोर्ट (असर (ASER) 2020 वेव 1) 28 अक्टूबर 2020 को ऑनलाइन जारी की गई थी. असर 2020-वेव 1 को एक ऑनलाइन इवेंट में जारी किया गया, जिसमें दुनिया भर के 11,000 से अधिक लोग शामिल हुए.

2005 से हर साल, वार्षिक शिक्षा रिपोर्ट-असर (ASER) ने स्कूलिंग की स्थिति और ग्रामीण भारत में 5-16 आयु वर्ग के बच्चों की बुनियादी पढ़ने और अंकगणितीय कार्यों को करने की क्षमता पर रिपोर्ट तैयार की है. वार्षिक रिपोर्ट तैयार करने के दस साल बाद, 2016 में, असर (ASER) एक वैकल्पिक-वर्ष चक्र में बदल गया, जिसके तहत असर अपनी रिपोर्ट हर दूसरे वर्ष (2016, 2018 और 2020 में अगला) तैयार करता है; और वैकल्पिक वर्षों में असर बच्चों के स्कूली शिक्षा और सीखने के एक अलग पहलू पर केंद्रित होकर कार्य करता है. 2017 में आई, ASER की रिपोर्ट, 'बियॉन्ड बेसिक्स', 14-18 आयु वर्ग में युवाओं की क्षमताओं, अनुभवों और आकांक्षाओं पर केंद्रित थी. 2019 में, असर (ASER 2019) ने शुरुआती वर्षों में महत्वपूर्ण मुद्दों को उठाने का प्रयास करते हुए, स्कूली शिक्षा की स्थिति के साथ-साथ 4-8 आयु वर्ग के छोटे बच्चों के लिए महत्वपूर्ण विकास संकेतकों पर काम किया है.

2020 में, COVID-19 संकट ने इस 15-वर्षीय प्रक्षेपवक्रको बाधित किया. लेकिन देश भर में बच्चों के स्कूली शिक्षा और सीखने के अवसरों परमहामारी के प्रभाव को व्यवस्थित रूप से जांचने की तत्काल आवश्यकता थी. यद्यपि बच्चों को सीखने में मदद करने के लिए बहुत सारी डिजिटल सामग्री उत्पन्न और प्रेषित की गई है, इस बात का सीमित प्रमाण है कि यह सामग्री बच्चों तक किस हद तक पहुँच रही है; चाहे वे इससे एंगेज कर रहे हों; और इसका असर उनकी भागीदारी और सीखने पर पड़ रहा है.

असर (ASER) 2020 पहला फोन आधारित ASER सर्वेक्षण है. सितंबर 2020 में आयोजित, राष्ट्रीय स्तर पर छह महीने से बंद हुए स्कूलों पर सर्वेक्षण में ग्रामीण भारत में बच्चों के लिए दूरस्थ शिक्षा तंत्र, सामग्री और गतिविधियों के प्रावधान और उनतक पहुंच की जानकारी इकट्ठा की गई हैं और अपने घर पर रहकर इन दूरस्थ शिक्षा विकल्पों से बच्चे और उनके परिवार किस तरह से जुड़ रहे हैं.

असर (ASER) 2020 रिपोर्ट के लिए सर्वेक्षण 26 राज्यों और 4 केंद्र शासित प्रदेशों में आयोजित किया गया था. सर्वे में 52,227 परिवारों और 5-16 वर्ष की आयु के कुल 59,251 बच्चों के साथ-साथ प्राथमिक शिक्षा देने वाले 8963 सरकारी स्कूलों के शिक्षकों या मुख्य शिक्षकों को शामिल किया गया.

[inside]असर (ASER) 2020 वेव -1 फॉर रूरल एरियाज (अक्टूबर, 2020 में जारी)[/inside]  के प्रमुख निष्कर्ष इस प्रकार हैं (​​देखने के लिए कृपया यहां, यहां, यहां और यहां क्लिक करें):

स्कूल में दाखिला लेने के पैटर्न

स्कूल में भर्ती (एडमिशन) होने के पैटर्न में आया बदलाव केवल तभी सही तरीके से मापा जा सकता है जब स्कूल फिर से खुलते हैं और बच्चे अपनी कक्षाओं में लौटने में सक्षम होते हैं. 2018 की तुलना में, असर 2020 में इस अंतरिम माप से पता चलता है कि:

अखिल भारतीय स्तर पर, सरकारी स्कूलों में थोड़ा सा बदलाव आया है. असर-2018 के आंकड़ों की तुलना में, असर 2020 (सितंबर 2020) के डेटा निजी से लेकर सरकारी स्कूलों में सभी ग्रेडों और लड़कियों और लड़कों के दाखिला प्रक्रिया में बहुत थोड़ा सा बदलाव देखा गया है. सरकारी स्कूलों में भर्ती हुए लड़कों का अनुपात 2018 में 62.8% से बढ़कर 2020 में 66.4% हो गया है. इसी प्रकार, सरकारी स्कूलों में नामांकित लड़कियों का अनुपात उसी अवधि के दौरान 70% से बढ़कर 73% हो गया है.

कई छोटे बच्चों को अभी तक स्कूल में प्रवेश (दाखिला) नहीं मिला है.असर 2020 से पता चलता है कि साल 2018 के आंकड़ो की तुलना में, 2020-21 स्कूली वर्ष के लिए उन बच्चों का अनुपात अधिक है जो वर्तमान में स्कूलों में नामांकित (दाखिल) नहीं है, अधिकांश आयु समूहों के लिए ये अंतर कम हैं. स्कूलों में दाखिला न लेने वाले बच्चों के उच्च अनुपात ज्यादातर सबसे कम उम्र (6 और 7 वर्ष) के बच्चों में दिखाई देते हैं, संभवतः इसलिए कि उन्होंने अभी तक स्कूल में प्रवेश(दाखिला) नहीं लिया है. यह अनुपात विशेष रूप से कर्नाटक में (11.3% 6 और 7 वर्ष के बच्चों को 2020 में नामांकित नहीं किया गया है), तेलंगाना (14%), और राजस्थान (14.9%) में अधिक है.

परिवार के संसाधन

इस महामारी में स्कूल बंद हैं, इसलिए बच्चे मुख्य रूप से सीखने के लिए घर पर उपलब्ध संसाधनों पर निर्भर हैं. परिवार के संसाधनों में ऐसे लोग (उदाहरण के लिए, शिक्षित माता-पिता); प्रौद्योगिकी (टीवी, रेडियो या स्मार्टफोन); या सामग्री (जैसे कि वर्तमान ग्रेड के लिए पाठ्यपुस्तकें) हो सकती है जो उन्हें अध्ययन करने में मदद कर सकती है.

स्कूल में छात्रों का अपेक्षाकृत कम अनुपात आज पहली पीढ़ी के स्कूल जाने वाले हैं. चार में से तीन बच्चों के पास कम से कम एक माता-पिता है जिन्होंने प्राथमिक विद्यालय (कक्षा V) पूरा किया है. एक चौथाई से अधिक दोनों माता-पिता हैं जिन्होंने कक्षा-9 से आगे की पढ़ाई की है.

नामांकित बच्चों में, 60% से अधिक कम से कम एक स्मार्टफोन वाले परिवारों में रहते हैं. यह अनुपात पिछले दो वर्षों में नामांकित बच्चों में 36.5% से 61.8% तक बहुत बढ़ गया है. प्रतिशत में वृद्धि सरकारी और निजी स्कूलों में नामांकित बच्चों के घरों में समान है. महाराष्ट्र, गुजरात, मध्य प्रदेश, हिमाचल प्रदेश और त्रिपुरा जैसे राज्यों में उन बच्चों के अनुपात में 30 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि हुई है, जिनके परिवार के पास स्मार्टफोन है.

मार्च 2020 में स्कूल बंद होने से पहले या बाद में, 80% से अधिक बच्चों के पास अपनी वर्तमान कक्षा के लिए पाठ्यपुस्तकें हैं. यह अनुपात निजी स्कूलों (72.2%) की तुलना में सरकारी स्कूलों (84.1%) में नामांकित छात्रों के बीच अधिक है. सभी राज्यों में, पाठ्यपुस्तकों की उपलब्धता वाले बच्चों का अनुपात केवल तीन राज्यों में 70% से नीचे है, वे हैं राजस्थान (60.4%), तेलंगाना (68.1%), style="color:#333333">और आंध्र प्रदेश (34.6%).

अध्ययन के लिए पारिवारिक माहौल

style="color:#333333">असर-2020 के आंकड़ों से पता चलता है कि माता-पिता के शिक्षा स्तर के बिना भी, परिवार बच्चों के सीखने में सहायता के लिए महत्वपूर्ण प्रयास करते हैं.

जब स्कूल बंद होते हैं, तो सभी बच्चों में लगभग तीन चौथाई परिवारों के सदस्य किसी न किसी रूप में उनको सीखने में मदद करते हैं. विशेष रूप से, यहां तक ​​कि उन बच्चों में भी जिनके माता-पिता ने प्राथमिक विद्यालय से आगे की पढ़ाई की नहीं की है, उनके परिवार के दूसरे सदस्य मदद करते हैं. इन घरों में बच्चों को सीखने में मदद करने में बड़े भाई-बहनों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है.

छोटी कक्षाओं के बच्चों को बड़ी कक्षाओं वाले छात्रों की तुलना में अधिक पारिवारिक सहायता मिलती है. इसी तरह, अधिक शिक्षित माता-पिता वाले बच्चों को कम शिक्षित माता-पिता की तुलना में अधिक परिवार का समर्थन प्राप्त होता है. उदाहरण के लिए, जिनके माता-पिता कक्षा-5 तक शिक्षित हैं उनमें 54.8% बच्चों को परिवार से कुछ मदद मिली है, जबकि जिनके माता-पिता ने 9वीं कक्षा से ज्यादा पढ़ाई की थी, उनमें 89.4% बच्चों को परिवार से कुछ मदद मिली है.

जब बच्चे बड़ी कक्षाओं में हो जाते हैं, तो माता-पिता कम मदद देने में सक्षम होते हैं. उदाहरण के लिए, कक्षा 1 और 2 में छोटे बच्चों की 33% माताएं अपने बच्चों की मदद करने में सक्षम थीं, और इसके उल्ट कक्षा-9वीं और उससे ऊपर के बच्चों की 15% माताएं ही अपने बच्चों की मदद करने में सक्षम थीं. लेकिन बड़ी कक्षाओं के बच्चों के लिए, बड़े भाई-बहनों का समर्थन लगातार अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है.

प्रशिक्षण सामग्री और गतिविधियों तक पहुंच

सरकार और अन्य लोगों ने स्कूल बंद होने के दौरान छात्रों के साथ विविध शिक्षण सामग्रियों को साझा करने के लिए कई प्रकार के तंत्रों का उपयोग किया है. इनमें पाठ्य पुस्तकों या वर्कशीट जैसी पारंपरिक सामग्रियों का उपयोग करने वाली गतिविधियाँ शामिल हैं; ऑनलाइन या रिकॉर्ड की गई कक्षाएं; और वीडियो या अन्य सामग्रियों को फोन या व्यक्ति के माध्यम से, अन्य लोगों के बीच साझा किया जाता है. ASER 2020 ने पूछा कि सितंबर 2020 में सर्वेक्षण से पहले सप्ताह में घरों में बच्चों के स्कूलों से ऐसी कोई सामग्री प्राप्त हुई थी या नहीं.

कुल मिलाकर, लगभग एक तिहाई नामांकित बच्चों ने सर्वेक्षण से पहले सप्ताह के दौरान अपने शिक्षकों से कुछसीखने की सामग्री या गतिविधियाँ प्राप्त की थीं. यह अनुपात छोटी कक्षाओं की तुलना में बड़ी कक्षाओं में अधिक था; और सरकारी स्कूलों की तुलना में निजी स्कूलों में छात्रों के बीच भी अधिक था.

हालांकि, संदर्भ सप्ताह के दौरान बच्चों द्वारा अधिगम (लर्निंग) सामग्री या गतिविधियों की प्राप्ति में राज्यवार महत्वपूर्ण भिन्नताएँ हैं. जिन राज्यों में एक चौथाई से भी कम बच्चों को कोई सामग्री मिली है, उनमें राजस्थान (21.5%), उत्तर प्रदेश (21%), और बिहार (7.7%) शामिल हैं.

स्कूल प्रकार के बावजूद, व्हाट्सएप सबसे आम माध्यम था जिसके माध्यम से गतिविधियों और सामग्रियों को प्राप्त किया गया था. हालांकि, सरकारी स्कूलों (67.3%) की तुलना में निजी स्कूलों (87.2%) में बच्चों के बीच यह अनुपात बहुत अधिक था.

दूसरी ओर, जिन बच्चों ने कुछ सामग्री प्राप्त की थी, उनमें निजी स्कूलों (11.5%) की तुलना में सरकारी स्कूलों (31.8%) में अध्यापक के साथ व्यक्तिगत संपर्क के माध्यम से सामग्री प्राप्त करने की बहुत अधिक संभावना थी, या तो शिक्षक घर आया या फिर जब घर का कोई सदस्य स्कूल गया.

सभी घरों में लगभग दो-तिहाई लोगों ने संदर्भ सप्ताह के दौरान सीखने की सामग्री प्राप्त नहीं होने की बात कही, अधिकांश ने कहा कि स्कूल ने कोई सामग्री नहीं भेजी थी.

बच्चों के प्रशिक्षण और गतिविधियों के साथ बच्चों का सहयोग

शिक्षण सामग्री और गतिविधियों के साथ नियमित रूप से जुड़ाव स्कूल से लंबे समय तक अनुपस्थित रहने के कारण 'सीखने के नुकसान' से बचने के लिए महत्वपूर्ण है. असर 2020 सर्वे में पूछा गया कि क्या बच्चों ने पिछले सप्ताह के दौरान किसी भी प्रकार की सीखने की गतिविधि की थी, चाहे उस सप्ताह के दौरान स्कूल ने शिक्षण सामग्री साझा की हो या नहीं.

हालांकि सर्वेक्षण से पहले सप्ताह के दौरान केवल एक तिहाई बच्चों ने अपने शिक्षकों से सामग्री प्राप्त की थी, उस सप्ताह के दौरान अधिकांश बच्चों (70.2%) ने कुछ प्रकार की सीखने की गतिविधि की थी. इन गतिविधियों को विभिन्न स्रोतों जैसे कि निजी ट्यूटर्स और स्वयं परिवार के सदस्यों द्वारा साझा किया गया था, या स्कूलों से प्राप्त किया गया था.

प्रमुख प्रकार की गतिविधियों में पाठ्यपुस्तक (59.7%) और कार्यपत्रक (वर्कशीट) (35.3%)शामिल हैं. इन गतिविधियों को करने वाले सरकारी स्कूलों और निजी स्कूलों में बच्चों का अनुपातसमान था.

हालांकि, स्कूल प्रकार द्वारा दिखाई देने वाला एक बड़ा अंतर यह है कि निजी स्कूलों में बच्चों को सरकारी स्कूलों की तुलना में ऑनलाइन संसाधनों तक पहुंचने की अधिक संभावना थी. उदाहरण के लिए, निजी स्कूलों में नामांकित 28.7% बच्चों ने सरकारी स्कूल के छात्रों के 18.3% की तुलना में ऑनलाइन वीडियो या अन्य पूर्व-निर्धारित सामग्री देखी थी.

संदर्भ सप्ताह के दौरान सभी छात्रों में से एक तिहाई के लिए, शिक्षक किसी न किसी रूप में परिवारों के साथ व्यक्तिगत संपर्क में थे.

नीति क्रियान्वयन

जबकि बच्चों और बच्चों की शिक्षा में न्यूनतम व्यवधान सुनिश्चित करने के लिए सरकारों और अन्य लोगों ने जो उपाय किए हैं, उनके बारे में कुछ जानकारी उपलब्ध है, लेकिन बच्चों को इन तंत्रों तक पहुंचने और उपयोग करने में सक्षम होने के बारे में कोई व्यवस्थित, बड़े पैमाने पर जानकारी उपलब्ध नहीं है. असर 2020 राज्य और राष्ट्रीय दोनों स्तरों पर इन मुद्दों पर डेटा प्रदान करता है. इन निष्कर्षों से देश के लिए निम्नलिखित व्यापक नीतिगत निहितार्थों का सुझाव देता है:

दरिद्र स्थिति: जब स्कूल फिर से खुलते हैं, तो यह निगरानी करना जारी रखना महत्वपूर्ण होगा कि कौन स्कूल वापस जाता है; साथ ही यह समझने के लिए कि क्या पिछले वर्षों की तुलना में सीखने में नुकसान हुआ है या नहीं.

परिवार का समर्थन प्राप्त करना और मजबूत करना: शिक्षा में सुधार के लिए माता-पिता के बढ़ते स्तर को एकीकृत किया जा सकता है, जैसा कि एनईपी द्वारा वकालत किया गया है. "सही स्तर पर माता-पिता तक पहुँचना" यह समझना आवश्यक है कि वे अपने बच्चों की मदद कैसे कर सकते हैं. बड़े भाई-बहन भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं.

"हाइब्रिड" अधिगम (लर्निंग): बच्चे घर पर विभिन्न प्रकार की गतिविधियाँ कर रहे हैं. "हाइब्रिड" लर्निंग के प्रभावी तरीकों को विकसित करने की आवश्यकता है, जो "पहुंच-सीखने" के नए तरीकों के साथ पारंपरिक शिक्षण को आधुनिक शिक्षण से जोड़ती है.

डिजिटल मोड और सामग्री का प्रभाव: डिजिटल सामग्री प्रदान करने के कई तरीकों की कोशिश की गई है. भविष्य के लिए डिजिटल सामग्री और वितरण को बेहतर बनाने के लिए, क्या काम करता है, कितनी अच्छी तरह से काम करता है, यह किस तक पहुंचता है, और कौन इसे बाहर रहता है, इसकी गहराई से मूल्यांकन किया जाना चाहिए.

"डिजिटल डिवाइड" की मध्यस्थता: निश्चित रूप से, उन परिवारों के बच्चे जिनके पास कम शिक्षा थी और जिनकेपास स्मार्टफोन जैसे संसाधन नहीं थे, सीखने के अवसरों की कम पहुंच थी. लेकिन ऐसे घरों में भी, किए गए प्रयासों के सबूत हैं: परिवार के सदस्य जो मदद करने की कोशिश करते हैं और जो स्कूल उन तक पहुंचने की कोशिश करते हैं. स्कूलों के फिर से खुलने पर इन बच्चों को दूसरों की तुलना में और भी अधिक मदद की आवश्यकता होगी.

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2005 से हर साल, वार्षिक शिक्षा रिपोर्ट-असर (ASER) ने स्कूलिंग की स्थिति और ग्रामीण भारत में 5-16 आयु वर्ग के बच्चों की बुनियादी पढ़ने और अंकगणितीय कार्यों को करने की क्षमता पर रिपोर्ट तैयार की है. वार्षिक रिपोर्ट तैयार करने के दस साल बाद, 2016 में, असर (ASER) एक वैकल्पिक-वर्ष चक्र में बदल गया, जिसके तहत असर अपनी रिपोर्ट हर दूसरे वर्ष (2016, 2018 और 2020 में अगला) तैयार करता है; और वैकल्पिक वर्षों में असर बच्चों के स्कूली शिक्षा और सीखने के एक अलग पहलू पर केंद्रित होकर कार्य करता है. 2017 में आई, ASER की रिपोर्ट, 'बियॉन्ड बेसिक्स', 14-18 आयु वर्ग में युवाओं की क्षमताओं, अनुभवों और आकांक्षाओं पर केंद्रित थी.
 
2019 में, असर (ASER 2019) ने शुरुआती वर्षों में महत्वपूर्ण मुद्दों को उठाने का प्रयास करते हुए, स्कूली शिक्षा की स्थिति के साथ-साथ 4-8 आयु वर्ग के छोटे बच्चों के लिए महत्वपूर्ण विकास संकेतकों पर काम किया है.
 
शुरुआती सालों यानी 0-8 वर्ष की आयु को दुनियाभर में, मानव जीवन चक्र में संज्ञानात्मक, शारीरिक, सामाजिक और भावनात्मक विकास का सबसे महत्वपूर्ण चरण माना जाता है. अनेकों रिसर्च दर्शाती हैं कि इन वर्षों के दौरान बच्चों की मजबूत नींव सुनिश्चित करने के लिए स्कूल और घेरलू जीवन में वातावरण और सिखाने की उचित व्यवस्था मौलिक हैं, जिनकी बिनाह पर उनके भविष्य की नींव टिकी है. हालाँकि, कई निम्न-और मध्यम-आय वाले देशों की तरह भारत में, इस संबंध में बहुत कम सबूत मिलते हैं कि क्या छोटे बच्चों की प्राथमिक सुविधाओं तक पहुँच है? और क्या उनको ऐसे मूलभूत कौशल और योग्यताएं दी जा रही हैं जो स्कूली और बाद के जीवन में उन्हें सफलता प्राप्त करने में मददगार साबित होंगी. 
 
ASER 2019 ‘अर्ली इयर्स’ रिपोर्ट इन अनछुए पहलूओं पर ध्यान दिलाने के लिए तैयार की गई है. इसको तैयार करने के लिए, भारत के 24 राज्यों के 26 जिलों में किए गए सर्वेक्षण में कुल 1,514 गांवों, 30,425 घरों और 4-8 साल के आयु वर्ग के 36,930 बच्चों को शामिल किया गया था. सैम्पल के तौर पर प्री-स्कूल या स्कूल से बच्चों की दाखिले की जानकारियां जुटाई गईं. सर्वेक्षण के दौरान, बच्चों के साथ विभिन्न प्रकार के संज्ञानात्मक, प्रारंभिक भाषा और साधारण संख्या गणित; और बच्चों के सामाजिक और भावनात्मक विकास का आकलन करने के लिए गतिविधियों का सहारा लिया गया. सभी कार्य बच्चों के साथ उनके घरों में एक-एक करके किए जाते थे.
 
[inside]असर-2019 (ASER 2019) ‘अर्ली इयर्स’ (जनवरी 2020 में जारी)[/inside] के प्रमुख निष्कर्ष इस प्रकार हैं, कृपया यहांयहां और यहां क्लिक करें:
 
प्री-स्कूल और स्कूल में दाखिला पैटर्न
• असर-2019 (ASER 2019)‘अर्ली इयर्स’ ने पाया कि 4-8 आयु वर्ग के 90% से अधिक बच्चे किसी न किसी प्रकार के शैक्षणिकसंस्थान में दाखिल हैं. यह अनुपात उम्र के साथ बढ़ता है. सैम्पल जिलों में 4 वर्ष के 91.3% और 8 वर्ष के 99.5% बच्चे शिक्षण संस्थानों में  दाखिल हैं.
 
• हालांकि, हमउम्र बच्चों में उनके दाखिले के मामले में काफी अंतर हैं. उदाहरण के लिए, 5 वर्ष की आयु में, 70% बच्चे आंगनवाड़ियों या प्री-प्राइमरी कक्षाओं में दाखिल हैं, लेकिन पहले से ही इसी उम्र के 21.6% बच्चे पहली कक्षा में दाखिल हैं. 6 वर्ष की आयु में, 32.8% बच्चे आंगनवाड़ियों या प्री-प्राइमरी कक्षाओं में हैं, जबकि 46.4% बच्चे पहली कक्षा और 18.7% दूसरी कक्षा या उससे बड़ी कक्षा में पढ़ रहे हैं. 
 
• सरकारी संस्थानों में पढ़ रही लड़कियों की ज्यादा संख्या और प्राइवेट संस्थानों में पढ़ रहे लड़कों की ज्यादा संख्या यह दर्शाती है कि इन छोटे बच्चों के बीच भी लड़कों और लड़कियों के मामले में अलग-अलग एडमिशन पैटर्न हैं. जैसे-जैसे बच्चे बड़े होते जाते हैं ये अंतर बड़े होते जाते हैं. उदाहरण के लिए, 4- और 5- साल के बच्चों के बीच, 56.8% लड़कियां और 50.4% लड़के सरकारी प्री-प्राइमरी या सरकारी स्कूलों में पढ़ते हैं, जबकि 43.2% लड़कियां और 49.6% लड़के प्राइवेट प्री-प्राइमरी या प्राइवेट स्कूलों में पढ़ रहे हैं. 6- से 8 साल के सभी बच्चों में 61.1% लड़कियां और 52.1% लड़के एक सरकारी संस्थान में पढ़ रहे हैं.
 
प्री-स्कूल आयु समूह में बच्चे (आयु 4-5 वर्ष)
राष्ट्रीय नीति की सिफारिश है कि 4 और 5 वर्ष की आयु के बच्चे प्री-प्राइमरी कक्षाओं में होने चाहिए. इस स्तर पर, बच्चों को संज्ञानात्मक, सामाजिक और भावनात्मक कौशल के साथ-साथ औपचारिक स्कूली शिक्षा के लिए आवश्यक नींव समेत कई क्षमताओं और कौशल को विकसित करने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए.
 
• 5 वर्ष की आयु में, बच्चों से जो अपेक्षा हम करते हैं, उनमें स्कूल एडमिशन के लिए राज्य के मानदंडों के आधार पर देश भर में बहुत भिन्नता है. नतीजतन, एक 5 वर्षीय बच्ची/बच्चा क्या कर रही/रहा है यह काफी हद तक उनके आवासीय क्षेत्र पर निर्भर करता है. उदाहरण के लिए, केरल के त्रिशूर में, 5-वर्षीय बच्चों में से 89.9% प्री-प्राइमरी ग्रेड में हैं और बाकी बचे हुए पहली कक्षा में हैं. लेकिन पूर्वी खासी हिल्स, मेघालय में, सिर्फ 65.8% बच्चे प्री-प्राइमरी, 9.8% बच्चे पहली कक्षा और 16% दूसरी कक्षा में पढ़ते हैं. दूसरी ओर, मध्य प्रदेश के सतना में, 47.7% बच्चे प्री-प्राइमरी, 40.5% बच्चे पहली कक्षा, और 4.1% बच्चे दूसरी कक्षा में हैं.
 
• बाल विकास विशेषज्ञों और अन्य अध्ययनों के अनुसार, 4 वर्ष से 5 वर्ष की आयु में बच्चों में सभी कार्यों को करने की क्षमता में काफी सुधार होता है. संज्ञानात्मक, प्रारंभिक भाषा, प्रारंभिक संख्या और सामाजिक और भावनात्मक शिक्षा ग्रहण करने में 4 साल के बच्चों की तुलना में 5 साल के बच्चों में अधिक क्षमता होती हैं. उदाहरण के लिए, आंगनवाड़ियों या सरकारी प्री-प्राइमरी कक्षाओं में दाखिला लेने वाले 4-वर्षीय बच्चों में से 31%, 4-टुकड़ा पहेली करने में सक्षम थे, इन संस्थानों में भाग लेने वाले 5-वर्षीय बच्चों में से 45% ऐसा कर सकते थे.
 
• हालांकि, 5 साल की उम्र में, बच्चों को इनमें से अधिकांश कार्यों को आसानी से हल करने में सक्षमहोना चाहिए, लेकिन एक बड़ा अनुपात ऐसा करने में असमर्थ है. कम सुविधा वाले घरों के बच्चे असमान रूप से प्रभावित होते हैं. यद्यपि सभी 4-वर्ष के बच्चों में से लगभग आधे और सभी 5-वर्षीय बच्चों के एक चौथाई से अधिक को आंगनवाड़ियों में भेजा जाता है, लेकिन प्राइवेट संस्थानों में भर्ती हो एलकेजी/यूकेजी कक्षाओं में पढ़ने वाले उनके हमउम्रों की तुलना में आंगनवाड़ी जाने वाले बच्चों का संज्ञानात्मक कौशल और नींव काफी कमजोर है.
 
• क्योंकि ये छोटे बच्चे हैं जो अपना अधिकांश समय घर पर बिताते हैं, इसलिए मुख्य रूप से घरेलू परिवेश की वजह से इन बच्चों में ये अंतर देखने को मिलते हैं. उदाहरण के लिए, प्री-प्राइमरी आयु वर्ग में, जिन बच्चों की माताओं ने आठ या उससे कम वर्षों तक स्कूली शिक्षा ग्रहण की थी, उनमें आंगनवाड़ियों या सरकारी प्री-प्राइमरी कक्षाओं में दाखिला लेने की संभावना अधिक होती है; जबकि उनके हमउम्र बच्चे, जिनकी माताएं ज्यादा पढ़ी-लिखीं होती हैं, उनके प्राइवेट एलकेजी/यूकेजी कक्षाओं में दाखिल होने की अधिक संभावना  होती है.
 
पहली कक्षा में पढ़ने वाले बच्चे
पहली कक्षा महत्वपूर्ण होती है, जिसमें बच्चे पाठ्यक्रम के उद्देश्यों के अनुसार विषयों को सीखने के लिए औपचारिक स्कूली शिक्षा के घेरे में आते हैं. 
 
• शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 (RTE) कहता है कि बच्चों को 5 वर्ष की आयु में पहली कक्षा में दाखिल करना चाहिए. कई राज्य 5 वर्ष की आयु से ज्यादा होने पर कक्षा पहली में दाखिला लेने की अनुमति देते हैं. हालाँकि, कक्षा पहली में प्रत्येक 10 में से 4 बच्चे 5 वर्ष से छोटे या 6 वर्ष से अधिक हैं. कुल मिलाकर, पहली कक्षा में 41.7% बच्चे 6 वर्ष की आरटीई-अनिवार्य आयु के हैं, 36.4% 7 या 8 वर्ष के हैं, और 21.9% 4 या 5 साल के हैं.
 
• पहली कक्षा में पढ़ने वाले बच्चों का संज्ञानात्मक, प्रारंभिक भाषा, शुरुआती गणित और सामाजिक और भावनात्मक विकास मुक्कमल तौर पर उनकी उम्र से संबंधित है. बड़े बच्चे सभी कार्यों को बेहतरी से करते हैं. उदाहरण के तौर पर पहली कक्षा के समूह को लीजिए,  4 या 5 वर्ष की आयु के बच्चे कक्षा पहली के स्तर का टेक्सट नहीं पढ़ सकते हैं. यह अनुपात उम्र के साथ लगातार बढ़ता जाता है.
 
• सरकारी स्कूलों में पहली कक्षा में पढ़ने वाले बच्चे प्राइवेट स्कूलों में एक ही ग्रेड के बच्चों की तुलना में उम्र में छोटे हैं. सरकारी स्कूलों में एक चौथाई से अधिक छात्र यानी 26.1% 4 या 5 वर्ष के हैं, जबकि प्राइवेट स्कूलों में यह आंकड़ा दस प्रतिशत गिरकर 15.7%  है. दूसरी ओर, सरकारी स्कूलों में पहली कक्षा में 30.4% छात्र 7-8 वर्ष के हैं, जबकि निजी स्कूलों में यह आंकड़ा 45.4% है.
 
• जैसा कि 4- और 5-वर्ष के बच्चों के बीच देखा गया था, पहली कक्षा में पढ़ने वाले बच्चों के संज्ञानात्मक कौशल, शुरुआती भाषा और शुरुआती गणित हल करने की उनकी क्षमता के बीच एक स्पष्ट संबंध दिखाई देता है. उदाहरण के तौर पर पहली कक्षा में पढ़ने वाले जो बच्चे 3 संज्ञानात्मक सवालोंको हल कर सकते हैं, उनमें पढ़ने की क्षमता और अपने साथियों की तुलना में मौखिक सवालों को हल करनेकी अधिक संभावनाएं थी.
 
प्रारंभिक प्राथमिक कक्षाओं (कक्षा I, II, III) में बच्चे
प्राथमिक विद्यालय के पहले कुछ वर्षों में, बच्चों को पढ़ने और अंकगणितीय क्षमताओं को विकसित करने की दिशा में बढ़ाना चाहिए, जिससे उनकी नींव मजबूत हो सके. यह महत्वपूर्ण है कि पाठ्यक्रम और कक्षा की गतिविधियों को उनकी प्रगति को ध्यान में रखते हुए विकसित किया जाए.
 
• असर-2019 (ASER 2019) ‘अर्ली इयर्स’ ’के निष्कर्ष बताते हैं कि बच्चों की आयु में भिन्नता पहली कक्षा में सबसे अधिक है और उसके बाद की कक्षाओं में घटती जाती है. लेकिन असर द्वारा दिए गए कार्यों को छोटे बच्चों के मुकाबले बड़े बच्चे बेहतरी से करने में सक्षम थे. उदाहरण के तौर पर, सरकारी और प्राइवेट स्कूलों में तीसरी कक्षा में पढ़ रहे अधिकांश बच्चे या तो 7 या 8 साल के हैं, तीसरी में पढ़ने वाले 8-वर्षीय 53.4% बच्चे पहली कक्षा के स्तर के पाठ पढ़ सकते थे, जबकि 7-वर्ष के केवल 46.1% – बच्चे ही ऐसा कर सकते थे.
 
• निरंतर हरेक कक्षा में बच्चों के कौशल और क्षमताओं में सुधार होता जाता है. लेकिन प्रत्येक कक्षा के पाठ्यक्रम उद्देश्यों में बड़े बदलावों के कारण कक्षा तीसरी तक उनकी प्रारंभिक भाषा और शुरुआती संख्यात्मक परिणाम पाठ्यक्रम की अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं मिलते हैं. उदाहरण के तौर पर, प्रथम स्तर के पाठ को पहली कक्षा के 16.2% बच्चे ही पढ़ पाते हैं और जिसमें सुधार के बाद उसी पाठ को कक्षा तीसरी के 50.8% बच्चे पढ़ पाते हैं. इसका मतलब यह है कि पाठ्यक्रम के हिसाब से कक्षा तीसरी के आधे बच्चे पहले से ही कम से कम दो साल पीछे होते हैं.
 
• इसी तरह, कक्षा पहली के 41.1% छात्र 2-अंकीय संख्या को पहचान सकते हैं, जबकि कक्षा तीसरी में 72.2% छात्र ऐसा कर सकते हैं. लेकिन एनसीईआरटी के उद्देश्यों के अनुसार, बच्चों को पहली कक्षा में 99 तक की संख्या को पहचानने में सक्षम होना चाहिए.
 
•  बच्चों के संज्ञानात्मक कौशल और शुरुआती भाषा और शुरुआती गणितीय क्षमताओं के साथ उनके प्रदर्शन का एक मजबूत संबंध है. उदाहरण के तौर पर, कक्षा तीसरी के 63.2% बच्चे, जिन्होंने सभी 3 संज्ञानात्मक कार्यों को सही ढंग से किया, वे प्रथम स्तर पर पढ़ने में सक्षम थे, जबकि 19.9% बच्चे जो तीनों संज्ञानात्मक कार्यों में से एक या एक भी सही ढंग से नहीं कर पाए, वे पढ़ने में भी सक्षम नहीं थे.
 
नीति
असर-2019 (ASER 2019) ‘अर्ली इयर्स’ के निष्कर्षों से तीन प्रमुख आशय निकलते हैं.
 
• प्री-प्राइमरी कक्षाओं में दाखिला लेने से पहले आंगनवाड़ियों ने बच्चों के बड़े अनुपात को पोषित किया. इसीलिए, 3 और 4 वर्षीय बच्चों के लिए उपयुक्त पठन-लेखन गतिविधियों को लागू करने के लिए इन केंद्रों की क्षमता को मजबूत करने की आवश्यकता है.
 
• असर-2019 (ASER 2019) ‘अर्ली इयर्स’ के आंकड़े स्पष्ट रूप से दिखाते हैं कि संज्ञानात्मक, प्रारंभिक भाषा, प्रारंभिक संख्या और सामाजिक और भावनात्मक विकास परीक्षणों में बच्चों का प्रदर्शन उनकी उम्र से निकटता से संबंधित है, जिसमें बड़े बच्चे छोटे बच्चों की तुलना में बेहतर प्रदर्शन करते हैं. कम उम्र के बच्चों को प्राथमिक ग्रेड में दाखिला देना, उनके सीखने के क्रम में बाधा उत्पन्न करता है जिसे दूरकरना मुश्किल है.
 
• असर-2019 (ASER 2019) ‘अर्ली इयर्स’ के आंकड़े संज्ञानात्मक कार्यों और प्रारंभिक भाषा और शुरुआती गणीतीय परीक्षणों में बच्चों के प्रदर्शन के बीच एक स्पष्ट संबंध दर्शाते हैं, ऐसे में प्रारंभिक वर्षों में विषय सीखने के बजाय संज्ञानात्मक कौशल को मजबूत करने वाली गतिविधियों पर ध्यान केंद्रित करने से बच्चों के भविष्य की शिक्षा में कई लाभ हो सकते हैं. 4 से 8 तक के पूरे आयु समूह को एक निरंतरता और पाठ्यक्रम की प्रगति के रूप में देखा जाना चाहिए, ताकि तदनुसार स्कूलिंग की योजनाएं तैयार की जा सकें. एक प्रभावी और लागू करने योग्य पाठ्यक्रम के लिए, डिजाइनिंग, योजना, संचालन और अंतिम रूप देने जैसी जमीनी वास्तविकताओं को ध्यान में रखना होगा.
 
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[inside]एनएसएस 75th राउंड रिपोर्ट: भारत में शिक्षा पर घरेलू सामाजिक उपभोग के प्रमुख संकेतक  [/inside], जुलाई 2017 से जून 2018 (23 नवंबर 2019 को जारी)  तक पहुंचने के लिए कृपया यहां क्लिक करें.
 
1. सांख्यिकी एवं कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय के अधीन राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (एनएसओ) ने राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण (एनएसएस) के 75वें दौर के एक हिस्से के रूप में शिक्षा पर परिवार के सामाजिक उपभोग पर एक सर्वेक्षण किया है। इससे पहले 64वें दौर (जुलाई 2007 – जून 2008) और 71वें दौर (जनवरी – जून 2014) के दौरान एनएसओ द्वारा इसी विषय पर सर्वेक्षण किए गए थे।
 
2. शिक्षा पर परिवार के सामाजिक उपभोग पर एनएसएस के 75वें दौर के सर्वेक्षण का मुख्य उद्देश्य शिक्षा व्‍यवस्‍था में 3 से 35 वर्ष की आयु के व्यक्तियों की भागीदारी, परिवार के सदस्यों की शिक्षा पर खर्च और फिलहाल शिक्षा में भाग न लेने वालों के विभिन्न संकेतकों (अर्थात उन व्यक्तियों के लिए जो कभी नामांकित हुए या नहीं हुए, लेकिन वर्तमान में शिक्षा में भाग नहीं ले रहे हैं) पर संकेतक का निर्माण करना था। 5 वर्ष या इससे अधिक आयु के व्यक्तियों के लिए कंप्‍यूटर चलाने, इंटरनेट का उपयोग करने की क्षमता और पिछले 30 दिनों के दौरान इंटरनेट के उपयोग संबंधी जानकारी भी एकत्र की गई थी। इनके अलावा वर्तमान में शिक्षा व्‍यवस्‍था में भाग ले रहे परिवारों के 3 से 35 वर्ष की आयु के सदस्यों के लिए उनकी वर्तमान उपस्थिति और संबंधित व्यय की जानकारी भी जुटाई गई।
 
3. वर्तमान सर्वेक्षण का दायरा पूरे देश में विस्‍तृत था और केंद्रीय नमूने के लिए 1,13,757 परिवारों (ग्रामीण क्षेत्रों में 64,519 और शहरी क्षेत्रों में 49,238) से 5,13,366 व्यक्तियों (ग्रामीण क्षेत्रों में 3,05,904 और शहरी क्षेत्रों में 2,07,462) से आंकड़े जुटाए गए और एक वैज्ञानिक सर्वेक्षण पद्धति के बाद गणना की गई। इस सर्वेक्षण में 3 से 35 वर्ष की आयु के व्यक्तियों की कुल संख्या 2,86,456 (ग्रामीण क्षेत्रों में 1,73,397 और शहरी क्षेत्रों में 1,13,059) थी। प्रतिभागी परिवारों की प्रतिक्रिया के आधार पर75वें दौर की गणना आधारित एनएसओ की रिपोर्ट ‘भारत में शिक्षा पर परिवारों के सामाजिक उपभोग के प्रमुख संकेतकों’ के महत्वपूर्ण निष्कर्ष निम्नलिखित हैं:
 
3.1: साक्षरता दर और भारत में शिक्षा का स्तर
 
7 वर्ष और इससे अधिक आयु के व्यक्तियों में साक्षरता दर 77.7 प्रतिशत थी। यह ग्रामीणइलाकों में 73.5 प्रतिशत और शहरी क्षेत्रों में 87.7 प्रतिशत थी।
 
ग्रामीण क्षेत्रों में 15 वर्ष या इससे अधिक आयु के व्यक्तियोंमें 30.6 प्रतिशत लोगों ने माध्यमिक या उससे ऊपर की शिक्षा पूरी की जबकि शहरी क्षेत्रों में यह आंकड़ा 57.5 प्रतिशत था।
 
भारत में 15 वर्ष और इससे अधिक आयु के लगभग 10.6 प्रतिशत लोगों ने स्नातक और उससे ऊपर की शिक्षा पूरी की थी। जबकि यह आंकड़ा ग्रामीण क्षेत्रों के लिए 5.7 प्रतिशत और शहरी क्षेत्रों के लिए 21.7 प्रतिशत था।
 
3.2: 3 से 35 वर्ष की आयु वर्ग में दाखिला एवं उपस्थिति
 
3 से 35 वर्ष की आयु के लोगों में 13.6 प्रतिशत ने कभी नामांकन नहीं किया जबकि 42.5 प्रतिशत ने कभी दाखिला लिया था लेकिन अब उनकी पढ़ाई छूट चुकी है। वर्तमान में 43.9 प्रतिशत शिक्षा व्‍यवस्‍था में भाग ले रहे थे।
 
ग्रामीण क्षेत्रों में 15.7 प्रतिशत लोगों ने कभी नामांकन नहीं कराया, 40.7 प्रतिशत ने कभी नामांकन कराया था लेकिन वर्तमान में भाग नहीं ले रहे हैं जबकि 43.5 प्रतिशत लोग वर्तमान में भाग ले रहे हैं।
 
शहरी क्षेत्रों में 8.3 प्रतिशत ने कभी नामांकन नहीं कराया 46.9 प्रतिशत ने कभी नामांकन कराया था लेकिन वर्तमान में भाग नहीं ले रहे जबकि 44.8 प्रतिशत लोग वर्तमान में भाग ले रहे हैं।
 
पुरुषों में 11.0 प्रतिशत ने कभी नामांकन नहीं कराया, 42.7 प्रतिशत ने कभी नामांकन कराया था लेकिन वर्तमान में भाग नहीं ले रहे जबकि 46.2 प्रतिशत वर्तमान में भाग ले रहे हैं।
 
महिलाओं में 16.6 प्रतिशत ने कभी नामांकन नहीं कराया, 42.2 प्रतिशत ने कभी नामांकन कराया था लेकिन वर्तमान में भाग नहीं ले रही हैं जबकि 41.2 प्रतिशत वर्तमान में भाग ले रही हैं।
 
प्राथमिक स्तर पर सकल उपस्थिति अनुपात (जीएआर) 101.2 प्रतिशत था। यह आंकड़ा उच्च प्राथमिक/ माध्‍यमिक स्तर पर 94.4 प्रतिशत और प्राथमिक एवं उच्च प्राथमिक/ माध्‍यमिक स्तर पर 98.7 प्रतिशत था।
 
प्राथमिक स्तर पर शुद्ध उपस्थिति अनुपात (एनएआर) 86.1 प्रतिशत था। यह आंकड़ा उच्च प्राथमिक/ माध्‍यमिक स्तर पर 72.2 प्रतिशत और प्राथमिक एवं उच्च प्राथमिक/ माध्‍यमिक स्तर पर 89.0 प्रतिशत था।
 
लगभग 96.1 प्रतिशत छात्र सामान्य पाठ्यक्रम में पढाई कर रहे थे और 3.9 प्रतिशत तकनीकी/ व्यावसायिक पाठ्यक्रम अपना रहे थे।
 
छात्रों में लगभग 95.5 प्रतिशत सामान्य पाठ्यक्रम में पढाई कर रहे थे और 4.5 प्रतिशत ने तकनीकी/ व्यावसायिक पाठ्यक्रम में दाखिला लिया था।
 
छात्राओं में लगभग 96.9 प्रतिशत सामान्य पाठ्यक्रम में पढ़ाई कर रही थीं जबकि 3.1 प्रतिशत ने तकनीकी/ व्यावसायिक पाठ्यक्रमों का दाखिला लिया था।
 
सामान्य पाठ्यक्रमों में दाखिला लेने वाले छात्रों में लगभग 55.8 प्रतिशत पुरुष थे और 44.2 प्रतिशत महिला थीं।
 
तकनीकी/ व्यावसायिक पाठ्यक्रमों में दाखिला लेने वाले छात्रों में लगभग 65.2 प्रतिशत पुरुष थे और 34.8 प्रतिशत महिला थीं।
 
*छात्र: 3 से 35 वर्ष की आयु के व्यक्ति वर्तमान में पूर्व-प्राथमिक और उससे ऊपर के स्तर पर शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं
 
3.3:  पूर्व-प्राथमिक और इससे ऊपर के स्तर पर वर्तमान में शिक्षा हासिल कर रहे 3 से 35 वर्ष के छात्रों के बीच ‘मुफ्त शिक्षा’, ‘मुफ्त/ रियायती पाठ्यपुस्तकों’ और ‘मुफ्त/ रियायती स्टेशनरी’ से संबंधित संकेतक
 
ग्रामीण क्षेत्रों में लगभग 57.0 प्रतिशत छात्र और शहरी क्षेत्रों में 23.4 प्रतिशत छात्र मुफ्त शिक्षा प्राप्त करते हैं।
 
ग्रामीण क्षेत्रों में लगभग 15.7 प्रतिशत और शहरी क्षेत्रों में 9.1 प्रतिशत छात्रों ने छात्रवृत्ति/ वजीफा/ प्रतिपूर्ति प्राप्त की।
 
ग्रामीण क्षेत्रों में लगभग 54.2 प्रतिशत और शहरी क्षेत्रों में23.7 प्रतिशत छात्रों को मुफ्त/ रियायती पाठ्यपुस्तकें प्राप्त हुईं।
 
ग्रामीण क्षेत्रों में लगभग 10.0 प्रतिशत और शहरी क्षेत्रों में 7.2 प्रतिशत छात्रों ने मुफ्त/ रियायती स्टेशनरी प्राप्त की।
 
3.4 वर्तमान में पूर्व-प्राथमिक और उससे ऊपर के स्तर पर बुनियादी पाठ्यक्रम में भाग ले रहे 3 से 35 वर्ष आयु के छात्रों के लिए शिक्षा पर व्‍यय
 
वर्तमान शैक्षणिक वर्ष के दौरान सामान्य पाठ्यक्रम में पढ़ाई करने वाले छात्रों के लिए प्रति छात्र औसत व्यय ग्रामीण क्षेत्रों में 5,240 रुपये और शहरी क्षेत्रों में 16,308 रुपये था।
 
वर्तमान शैक्षणिक वर्ष के दौरान तकनीकी/ व्यावसायिक पाठ्यक्रम में पढ़ाई करने वाले छात्रों के लिए प्रति छात्र औसत व्यय ग्रामीणा क्षेत्रों में 32,137 रुपये और शहरी क्षेत्रों में 64,763 रुपये था।
 
3.5 सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी (आईसीटी)
 
लगभग 4.4 प्रतिशत ग्रामीण परिवारों और 23.4 प्रतिशत शहरी परिवारों के पास कंप्यूटर था।
 
लगभग 14.9 प्रतिशत ग्रामीण परिवारों और 42.0 प्रतिशत शहरी परिवारों के पास इंटरनेट की सुविधा उपलब्‍ध थी।
 
ग्रामीण क्षेत्रों में 5 वर्ष या इससे अधिक आयु के व्यक्तियों में 9.9 प्रतिशत व्‍यक्ति कंप्यूटर को संचालित करने में सक्षम थे, 13.0 प्रतिशत व्‍यक्ति इंटरनेट का उपयोग करने में समर्थ थे और पिछले 30 दिनों के दौरान 10.8 प्रतिशत लोगों ने इंटरनेट का उपयोग किया।
 
शहरी क्षेत्रों में 5 वर्ष या इससे अधिक आयु के व्यक्तियों में 32.4 प्रतिशत कंप्यूटर संचालित करने में सक्षम थे, 37.1 प्रतिशत इंटरनेट का उपयोग करने में सक्षम थे और पिछले 30 दिनों के दौरान 33.8 प्रतिशत लोगों ने इंटरनेट का उपयोग किया। 
 
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[inside]एनुअल स्टेटस् ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट(असर 2017)के मुख्य तथ्य[/inside] : 
 
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•  चौदह साल से अठारह साल के आयुवर्ग के तकरीबन 86 प्रतिशत युवजन अब भी औपचारिक शिक्षा प्रणाली के अंतर्गत हैं और उनका नामांकन इस शिक्षा प्रणाली के तहत स्कूल या कॉलेज में है.
 
• इस आयुवर्ग के ज्यादातर युवजन(54प्रतिशत) या तो दसवीं कक्षा में नामांकित हैं अथवा इससे नीचे की कक्षा में. इस आयु वर्ग के 25 प्रतिशत छात्र ग्यारवीं या बारहवीं कक्षा में नामांकित हैं जबकि इस श्रेणी के 6 प्रतिशत छात्रों का दाखिला स्नातक अथवा डिग्री पाठयक्रमों के अंतर्गत है. इस आयुवर्ग के सिर्फ 14 प्रतिशत युवजन किसी भी किस्म की औपचारिक शिक्षा प्रणाली के दायरे में नहीं हैं.
 
• औपचारिक शिक्षा प्रणाली के तहत महिला और पुरुषों के नामांकन में अंतर उम्र के बढ़ने के साथ बढ़ता जाता है. नामांकन प्रतिशत के लिहाज से 14 साल तक की उम्र के स्त्री और पुरुषों के बीच विशेष अन्तर नहीं है लेकिन 18 साल की उम्र में यह अन्तर बहुत ज्यादा दिखता है. मिसाल के लिए 18 साल की उम्र की 32 प्रतिशत महिलाओं का औपचारिक शिक्षा प्रणाली में नामांकन नहीं है जबकि इस आयुवर्ग के अनामांकित पुरुषों की तादाद 28 प्रतिशत है.
 
• स्कूल या कॉलेज में अनामांकित छात्रों का प्रतिशत उम्र बढ़ने के साथ बढ़ता जाता है. चौदह साल की उम्र तक अनामांकित छात्रों की तादाद 5 प्रतिशत है जबकि 18 साल की उम्र के अनामांकित छात्रों की तादाद 30 प्रतिशत.
 
• कुल मिलाकर देखें तोकेवल 5 प्रतिशत युवजन एक ना एक किस्म के व्यावसायिक पाठयक्रम या प्रशिक्षण में भागीदार हैं. इस आंकड़े में वे छात्र भीशामिल हैं जिनका स्कूल या कॉलेज में दाखिला है तथा वैसे युवजन भी जिनका फिलहाल स्कूल-कॉलेज में कहीं नामांकन नहीं है.
 
• चौदह से अठारह साल के आयुवर्ग के युवजन की बड़ी तादाद(42प्रतिशत) कामकाजी है. इस तादाद में वे युवजन भी शामिल हैं जिनका किसी औपचारिक शिक्षा प्रणाली के भीतर दाखिला है तथा वे भी जिनका दाखिला नहीं है. कामकाजी युवजन में 79 प्रतिशत खेती-बाड़ी के काम में लगे हैं और यह तादाद खेती-बाड़ी की अपनी पारिवारिक जमीन पर योगदान कर रही है. इस आयुवर्ग के 77 प्रतिशत पुरुष और 89 प्रतिशत महिलाएं घरेलू कामकाज में हिस्सा बंटाते हैं. 
 
क्षमता
 
बुनियादी कौशल
 
• इस आयु-वर्ग के तकरीबन 25 प्रतिशत छात्र अब भी कोई बुनियादी स्तर का पाठ अपनी भाषा में धाराप्रवाह नहीं पढ़ सकते.
 
• आधे से ज्यादा छात्र तीन अंकों की संख्या में 1 अंक की संख्या से भाग लगाने में कठिनाई महसूस करते हैं. केवल 43 प्रतिशत छात्र गणित का ऐसा प्रश्न सही-सही हल कर सकते हैं. यह छात्रों की गणित कर सकने की बुनियादी क्षमता के आकलन का ‘असर’ का एक तरीका है.
 
• सर्वेक्षण में शामिल 14 साल के छात्रों में 53 प्रतिशत छात्र अंग्रेजी के सरल वाक्य पढ़ पा रहे थे. 18 साल की आयु वाले ऐसे छात्रों की तादाद 60 प्रतिशत है. 79 प्रतिशत छात्र वाक्य का अर्थ बता सकते थे.
 
• इस आयु-वर्ग के युवजन का एक बड़ा हिस्सा, जिन्होंने आठ साल की स्कूली शिक्षा पूरी कर ली है, पढ़ने और गणित करने की बुनियादी क्षमता से वंचित है.
 
• स्थानीय भाषाओं तथा अंग्रेजी में पाठ पढ़ सकने की क्षमता में आयु बढ़ने के साथ सुधार आने के संकेत हैं. स्थानीय भाषा तथा अंग्रेजी में बुनियादी पाठ पढ़ सकने वाले 14 साल की आयु वाले छात्रों की तुलना में 18 साल की आयु वाले छात्रों की संख्या ज्यादा है. लेकिन यही बात गणितीय योग्यता के मामले में नहीं कही जा सकती. चौदह साल तक की आयु वाले जितने छात्र गणित कर सकने की बुनियादी योग्यता से वंचित हैं, 18 साल की आयु वाले छात्रों की संख्या भी तकरीबन उतनी ही है. प्राथमिक स्तर की शिक्षा के समय अगर भाषा-ज्ञान तथा गणितीय योग्यता की कोई कमी छात्रों में विद्यमान हैं तो वह आयु बढ़ने के साथ आगे भी जारी रहती है. 
 
 
रोजमर्रा के कामों में अक्षर-ज्ञान और संख्या-ज्ञान का उपयोग
 
• असर 2017 में 14-18 साल के युवजन के बीच सर्वेक्षण के दौरान रकम गिनने, चीजों का भार(वजन) बताने तथा समय बताने से संबंधित कई सवाल पूछे गये और जानने की कोशिश की गई कि वे अपने अक्षर-ज्ञान तथा संख्या ज्ञान का इस्तेमाल रोजमर्रा के कामों में किस हद तक कर पा रहे हैं : 
 
• यह कितनी रकम है ? सर्वेक्षण में सामने आया कि 76 प्रतिशत युवजन(14 से 18 साल के) इस सवाल के उत्तर में सही रकम बता पा रहे हैं. वे रकम ठीक-ठीक गिन पाये. बुनियादी गणितीय क्षमता हासिल कर चुके युवजन में सही रकम बता पाने वालों की तादाद 90 प्रतिशत थी. 
 
• लगभग 56% प्रतिशत युवजन चीजों का भार किलोग्राम में सही-सही बता पा रहे थे. बुनियादी गणितीय क्षमता हासिल कर चुके युवजन में ऐसे छात्रों की तादाद 76 प्रतिशतथी. 
 
• समय जानना-पूछना एक ऐसा काम है जो हम रोजमर्रा ही करते हैं. समय बताने के सरल प्रश्न(घंटा बताना) का 83 फीसद युवजन ने सही जवाब दिया जबकि तनिक कठिन सवाल(घंटा और मिनट) का केवल 60 प्रतिशत युवजन ने सही जवाब दिया. 
 
•  लगभग 86% प्रतिशत युवजन किसी वस्तु की लंबाई रुलर के सहारे सही-सही माप पा रहे थे बशर्ते वह वस्तु रुलर पर दर्ज संख्या शून्य के पास रखी हो. लेकिन वही वस्तु रुलर पर दर्ज किसी और संख्या पर रख दी जाती थी तो केवल 40 प्रतिशत युवजन सही माप बता पा रहे थे.
 
• कोई छात्रा कितने घंटे सोयी है ( समय गिनना)? सर्वेक्षण में शामिल 40 प्रतिशत युवजन इस सवाल का उत्तर ठीक-ठीक दे पाये. जो छात्र किसी संख्या में किसी संख्या से भाग देना सीख चुके थे, उनमें इस सवाल का सही उत्तर बता पाने वालों की तादाद 55 प्रतिशत थी.
 
• सर्वेक्षण के दौरान छात्रों को भारत का एक मानचित्र दिखाया गया.. छात्रों से मानचित्र के बारे में कई सवाल पूछे गये, जैसे: a) “ यह किस देश का नक्शा है?” 86% प्रतिशत ने सही जवाब दिया; b) “ इस देश की राजधानी का क्या नाम है?” 64% प्रतिशत ने सही जवाब दिया; c) “ आप किस राज्य में रहते हैं?” 79% प्रतिशत ने सही जवाब दिया; d) “ क्या आप नक्शे में अपने राज्य को खोज सकते हैं ?” केवल 42% प्रतिशत छात्र ही इस सवाल के उत्तर में राज्य को मानचित्र में खोज पाये.   
 
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[inside]एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन(असर) रिपोर्ट 2016[/inside] के प्रमुख निष्कर्ष 
 
 
विद्यालय में बच्चों के नामांकन की स्थिति और उनके सीखने के स्तर की जांच के लिए 'असर' यानी एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट की टीम हर साल एक सर्वेक्षण करती है. यह ग्रामीण भारत के घरों और स्कूलों में किया जाने वाला सबसे बड़ा सर्वेक्षण है. स्वयंसेवी संस्था प्रथम के सहयोग से यह सर्वेक्षण जिला स्तर के स्वयंसेवी संस्थाओं के स्वयंसेवकों के माध्यम से भारत के तकरीबन सभी जिलों में किया जाता है. 2016 का असर-सर्वेक्षण देश के 589 जिलों में सम्पन्न हुआ है. इस वर्ष यह सर्वेक्षण 17,473 गांवों के 450,232 घरों 3-16 आयु-वर्ग के 562,305 बच्चों तक पहुंचा.हर साल असर यह जानने की कोशिश करता है क्या ग्रामीण भारत में बच्चे स्कूल जाते हैं, क्या वे सरल पाठ पढ़ सकते हैं और क्या वे बुनियादी गणित करने में सक्षम हैं.
 
एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन(असर) रिपोर्ट 2016 के प्रमुख निष्कर्ष–
 
 
2014 से 2016 के बीच राष्ट्रीय स्तर पर सभी आयु-वर्ग के नामांकन में वृद्धि हुई है !
 
 
— 2014 से लेकर अभी तक 6-14 आयु वर्ग के बच्चों के नामांकन की संख्या 96 प्रतिशत या अधिक रही है. यह अनुपात 2014 के 96.7% से बढ़कर 2016 में 96.9% हो गया है 
 
 
—  15-16 आयु-वर्ग के लड़के लड़कियों के नामांकन में भी सुधार हुआ है. यह अनुपात 2014 में 83.4% था जो 2016 में बढ़कर 84.7% हो गया है |
 
 
हालांकि कुछ राज्यों में विद्यालय ना जाने वाले बच्चों(6-14 आयु-वर्ग) की संख्या में बढ़ोत्तरी हुई है. ऐसे राज्यों में मध्यप्रदेश (3.4% से4.4%), छत्तीसगढ़(2% से 2.8%) और उत्तरप्रदेश (4.9% से 5.3%) शामिल हैं.|
 
 
— कुछ राज्यों में विद्यालय-वंचित लड़कियों(11-14 आयु-वर्ग) का अनुपात इस साल भी 8 प्रतिशत से ज्यादा है. ऐसे राज्य हैं राजस्थान (9.7%)  और उत्तरप्रदेश (9.9%). 2016 में मध्यप्रदेश (8.5%) भी इन राज्यों की सूची में शामिल हो गया है |
 
 
रिपोर्ट के अन्य मुख्य निष्कर्ष मिसाल के लिए निजी स्कूलों में नामांकन की स्थिति, सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों की योग्यता की स्थिति, विद्यालय में बच्चों की उपस्थिति की हालत, स्कूलों में मौजूद सुविधाओं के बारे में विशेष तथ्य सिलसिलेवार इस लिंक पर क्लिक करके पढ़े जा सकते हैं.
 
 
http://img.asercentre.org/docs/Publications/ASER%20Reports/ASER%202016/aser2016_nationalpressrelease_hindi.pdf
 
 
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[inside]स्टेटस् ऑफ एजुकेशन एंड वोकेशनल ट्रेनिंग इन इंडिया, एनएसएसओ, 68वें दौर की गणना पर आधारित रिपोर्ट, 2015 को जारी[/inside] के अनुसार–
http://www.im4change.org/siteadmin/tinymce//uploaded/nss_report_no_566_21sep15.pdf

 

• रोजगारपरक औपचारिक पेशेवर शिक्षा हासिल करने वाले या हासिल कर रहे 15 साल या इससे ज्यादा उम्र के 58.3 प्रतिशत लोग रोजगारशुदा हैं, 5.9 प्रतिशत लोग बेरोजगार हैं और ऐसे 35.8 प्रतिशत व्यक्ति श्रमबाजार में शामिल नहीं है.

 

• रोजगारपरक औपचारिक पेशेवर शिक्षा हासिल करने वाले या हासिल कर रहे 15 साल या इससे ज्यादा उम्र के लोगों में 25.1 प्रतिशत कंप्यूटर-ट्रेड के क्षेत्र में प्रशिक्षण हासिल कर रहे हैं, ड्राइविंग और मोटर मैकेनिक का प्रशिक्षण प्राप्त करने वाले लोगों की संख्या ऐसे लोगों में 12.2 प्रतिशत है जबकि इलेक्ट्रिकल तथा इलेक्ट्रॉनिक इंजीनियरिंग के क्षेत्र में प्रशिक्षण प्राप्त करने वाले ऐसे लोगों की संख्या 11.2 प्रतिशत है.

 

• ग्रामीण क्षेत्र में 18-2 प्रतिशत और शहरी क्षेत्र में 5.9 प्रतिशत परिवारों में 15 साल या इससे अधिक उम्र का एक भी व्यक्ति ना पढ़ा लिखा नहीं है यानी वह ना तो कोई एक संदेश ठीक-ठीक लिख सकता है ना ही समझ सकता है.

 

• देश में 7 साल या इससे ज्यादा उम्र के लोगों के बीच साक्षरता दर साल 2011-12 में 74.7 प्रतिशत थी..

 

• शहरों में इस आयु वर्ग में साक्षरता दर 86 प्रतिशत और गांवों में 86 प्रतिशत थी.

 

• तकरीबन 79.1 प्रतिशत ग्रामीण पुरुष 60.6 प्रतिशत ग्रामीण महिलाएं साक्षर हैं. शहरी इलाकों में पुरुषों के बीच साक्षरता दर 91.1 प्रतिशत तथा महिलाओं में 80.3 प्रतिशत है.

 

• 15 साल या इससे ज्यादा उम्र के कुल 2.4 प्रतिशत लोगों ने तकनीकी शिक्षा डिग्री, डिप्लोमा या सर्टिफिकेट स्तर की हासिल की है. गांवों में ऐसे लोगों की संख्या 1.1 प्रतिशत तथा शहरों में 5.5 प्रतिशत है.

 

• तकनीकी शिक्षा प्राप्त लोगों में सर्वाधिक संख्या डिप्लोमाधारी लोगों की है. शहरों में तकनीकी शिक्षा प्राप्त करने वाले लोगों में डिप्लोमाधारियों की संख्या 80.2 प्रतिशत है तो गांवों में 91.9 प्रतिशत.

 

• 5 साल से 29 साल के आयुवर्ग में आनेवाले कुल 57.7 प्रतिशत लोग फिलहाल किसी ना किसी शैक्षिक संस्थान में जा रहे हैं. ग्रामीण इलाके में इस आयु वर्ग के 57.4 प्रतिशत तो शहरी इलाके में 58.5 प्रतिशत लोग किसी ना किसी शैक्षिक संस्थान में जा रहे हैं.

 

• 5-29 साल के आयुवर्ग के लगभग 64.5 प्रतिशत लोग सरकारी या फिर स्थानीय निकायों से संबद्ध शैक्षिक संस्थानों में जा रहे हैं जबकि 12.3 प्रतिशत लोग निजी संस्थानों में शिक्षा हासिल करने के लिए जा रहे हैं.

 

• किसी भी किस्म केशिक्षा संस्थान में ना जाने वाले लोगों में से 70 प्रतिशत पुरुषों का कहना है कि वे परिवार की आमदनी की जरुरतों को पूरा करने की वजह से शिक्षा संस्थान नहीं जा रहे जबकि शिक्षा संस्थान ना जाने वाली महिलाओं के लिए सबसे बड़ा कारण घर के कामकाज में हिस्सा बंटाना है.

 

• ग्रामीण इलाके में 27 प्रतिशत और शहरी इलाके में 26.4 प्रतिशत लोगों ने कहा कि वे कभी किसी शिक्षा संस्थान में नहीं गये क्योंकि शिक्षा को अनिवार्य नहीं माना गया.

 

• ग्रामीण इलाके में 3.6 प्रतिशत और शहरी इलाके में 3.4 प्रतिशत लोगों ने कहा कि शिक्षा संस्थान दूर होने की वजह से वहां जाना नहीं हो सका.

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 नवीनतम(साल 2015 के जनवरी में जारी) [inside]एनुअल स्टेटस् ऑव एजुकेशन रिपोर्ट(असर)[/inside] के अनुसार-
 
ASER 2014 report (Please click link1, link2 & link3 to access)
 
एनुअल स्टेटस् ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट(असर 2014) भारत के 577 ग्रामीण जिलों के 16,497  गांवों के 341,070 परिवारों तथा 569,229 बच्चों के सर्वेक्षण पर आधारित है।

असर 2014 के मुख्य निष्कर्ष निम्नलिखित हैं-

नामांकन का स्तर और स्कूल वंचित बच्चों का अनुपात

•  बीते पाँच सालों की तरह छठे यानि साल 2014 में भी 6-14 साल के बच्चों का नामांकन प्रतिशत 96 या उससे ज्यादा है। फिलहाल स्कूल वंचित बच्चों की संख्या 3.3% पर कायम है।.

• राष्ट्रीय पर पिछले साल स्कूल वंचित बच्चों की संख्या 3.3 प्रतिशत थी जो कि साल 2014 में भी कायम रही।

•  कुछ राज्यों में स्कूल वंचित लड़कियों(11-14 साल) की संख्या 8% से भी ज्यादा है। ऐसे राज्यों में शामिल हैं राजस्थान (12.1%) और उत्तरप्रदेश (9.2%).

•  हालांकि शिक्षा का अधिकार अधिनियम में वर्णित आयु-वर्ग (6-14 वर्ष) में नामांकन का प्रतिशत बहुत ऊँचा है लेकिन 15-16 वर्ष के बच्चों के बीच स्कूल वंचितों की तादाद अच्छी खासी है। राष्ट्रीय स्तर पर देखें तो इस आयु-वर्ग के 15.9%  लड़के और 17.3% लड़कियां फिलहाल स्कूल वंचित हैं।

निजी स्कूलों में नामांकन

•  साल 2014 में ग्रामीण इलाकों में 6-14 आयु-वर्ग के 30.8%  बच्चों का दाखिला निजी स्कूलों में था। पिछले साल निजी स्कूलों में नामांकन इससे कहीं कम 29% था।.

• साल 2014 में 7-10 के आयु-वर्ग में शामिल 35.6%  बच्चे निजी स्कूलों में नामांकित थे जबकि इसी आयु-वर्ग की निजी स्कूलों में नामांकित लड़कियों की संख्या 27.7%  थी।  11-14 आयुवर्ग के 33.5% लड़कों को नामांकन निजी स्कूलों में था जबकि इस आयु-वर्ग की 25.9% लड़कियां निजी स्कूलों में नामांकित थीं।

•  देश के पाँच राज्यों में प्राथमिक स्तर पर सरकारी स्कूलों की तुलना में निजी स्कूलों में नामांकन का प्रतिशत 50 प्रतिशत से ज्यादा है। ये राज्य हैं मणिपुर (73.3%), केरल (62.2%), हरियाणा (54.2%), उत्तरप्रदेश (51.7%), तथा मेघालय (51.7%).

पढ़ सकने की क्षमता

•  पढ़ने की क्षमता साल 2014 में भी निराशाजनक पायी गई। 2014 में तीसरे दर्जे में पढ़ने वाले केवल एक चौथाई विद्यार्थी ही इस काबिल थे कि वे दूसरी कक्षा के लिए तैयार की गई पाठ्यपुस्तक को पढ़ सकें। पांचवें क्लास में पढ़ने वाले ऐसे बच्चोंकी संख्या तकरीबन 50 प्रतिशत पायी गई। यहां तक कि आठतवीं क्लास में पढ़ने वाले मात्र 75 प्रतिशत बच्चे ही दूसरी क्लास के लिएतैयार की गई पाठ्यपुस्तक को पढ़ पाने के काबिल थे। इसका अर्थ यह हुआ कि आठवीं क्लास के 25 प्रतिशत बच्चे इस काबिल भी नहीं कि वे दूसरी क्लास के लिए तैयार की गई पाठ्यपुस्तक को पढ़ सकें।

• बीते कुछ सालों में बच्चों की पढ़ पाने की क्षमता में नाम-मात्र का सुधार आया है। मिसाल के लिए साल 2012 में पांचवीं क्लास के 46.8 प्रतिशत बच्चे दूसरी क्लास की पाठ्यपुस्तक को पढ़ पाने में सक्षम थे। साल 2013 में ऐसे बच्चों की संख्या बढ़कर 47 प्रतिशत और साल 2014 में 48.1 प्रतिशत हो गई है। साल 2012 में तीसरी क्लास के 38.7% बच्चे पहली क्लास के लिए तैयार किए गए पाठ को पढ़ पाने में सक्षम थे। साल 2014 में ऐसे बच्चों की संख्या बढ़कर 40.2 प्रतिशत हो पायी है।

गणित कर पाने की क्षमता

• बीते कुछ सालों से ग्रामीण भारत के स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों की गणित कर पाने की क्षमता से संबंधित आंकड़ों में विशेष बदलाव नहीं आया है। साल 2012 में तीसरी क्लास के  26.3% बच्चे दो अंकों के घटाव का प्रश्न हल कर पाने में सक्षम पाये गये थे। साल 2014 में ऐसे बच्चों की संख्या 25.3 प्रतिशत है।साल 2012 में पांचवीं क्लास में पढ़ने वाले 24.8% विद्यार्थी भाग करने के सामान्य सवाल हल कर पाने में सक्षम थे। ऐसे बच्चों की संख्या साल 2014 में बढ़कर 26.1 प्रतिशत हो गई है।

• साल 2009 में दूसरी क्लास के 11.3 प्रतिशत बच्चे 1-9 तक की संख्या को पहचान पाने में सक्षम नहीं थे। ऐसे विद्यार्थियों की संख्या बढ़कर साल 2014 में 19.5 प्रतिशत हो गई है।

 
• आठवीं क्लास के बच्चों के बीच ऐसे बच्चों की संख्या जो घटाव का सवाल हल कर पाने में सक्षम हों, साल 2010 से घट रही है। साल 2010 में आठवीं क्लास में पढ़ने वाले 68.3 प्रतिशत विद्यार्थी तीन अंकों की संख्या में एक अंक की संख्या से ठीक-ठीक भाग लगा पाने में सक्षम थे, साल 2014 में ऐसे विद्यार्थियों की संख्या घटकर 44.1 प्रतिशत हो गई है।

• आठ से पाँच साल की अवधि का सिंहावलोकन करें तो स्पष्ट हो जाता है कि हर राज्य में बच्चों में गणित कर सकने की क्षमता में गिरावट आ रही है। सिर्फ कर्नाटक और आंध्रप्रदेश ही अपवाद हैं जहां स्थिति कई सालों से स्थिर बनी हुई है।

अंग्रेजी पढ़ने की क्षमता

• प्राथमिक स्तर की नीचे की कक्षाओं में पढ़ने वाले विद्यार्थियों की अंग्रजी पढ़ने की क्षमता में खास बदलाव नहीं आया है। वर्ष 2014 की असर रिपोर्ट में कहा गया है कि पांचवीं क्लास में पढ़ने वाले तकरीबन 25 प्रतिशत विद्यार्थी अंग्रेजी के सरल वाक्य पढ़ने में सक्षम हैं। यहां संख्या 2009 से अपरिवर्तित चली आ रही है।

• अंग्रेजी पढ़ने की क्षमता अपर प्राइमरी के छात्रों में कम हुई है। साल 2009 में आठवीं क्लास के 60.2% विद्यार्थी अंग्रेजी के सरल वाक्य पढ़ने में सक्षम थे। 2014 में ऐसे विद्यार्थियों की संख्या कम होकर 46.8% रह गई है।

• जो बच्चे(चाहे वे किसी भी क्लास में पढ़ते हों) अंग्रेजी के शब्दों को पढ़ने में सक्षम थे उसमें मात्र 60 प्रतिशत बच्चे उसका ठीक ठीक मायने बतापाने के काबिल थे। पांचवीं क्लास में पढ़ने वाले जो बच्चो अंग्रेजी के सरल वाक्य पढ़ने में सक्षम थे उनमें 62.2 प्रतिशत बच्चे उस वाक्य का मतलब बता सकते थे।

शिक्षक-छात्र अनुपात

• साल 2014 के असर के आंकड़े इस तथ्य की पुष्टि करते हैं कि प्राथमिक स्कूलों के 71.4% बच्चे तथा अपर प्राइमरी स्कूलों के 71.1%  बच्चे सर्वेक्षण टीम के दौरे के दिन स्कूल में मौजूद थे। साल 2013 में यह संख्या क्रमश 70.7% तथा 71.8% थी।

• हिमाचल प्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश, केरल, तमिलनाडु में छात्रों की उपस्थिति 80 से 90 प्रतिशत तक थी जबकि यूपी, बिहार, पश्चिम बंगाल, झारखंड, मध्यप्रदेश में छात्रों की उपस्थिति 50 से 60 प्रतिशत के बीच थी।

•  2009 में प्राइमरी(74.3% ) और अपर प्राइमरी स्कूलों(77%) में छात्रों की उपस्थिति 2014 की तुलना में ज्यादा थी।

• साल 2014 में सर्वेक्षण टीम के भ्रमण के दिन स्कूलों में 85 प्रतिशत शिक्षक मौजूद थे, साल 2009 में 89.1 प्रतिशत शिक्षक असर की सर्वेक्षण टीम के भ्रमण के दिन स्कूलों में उपस्थित पाये गये थे।

स्कूलों में मौजूद सुविधाएं

• शिक्षा का अधिकार अधिनियम में वर्णित शिक्षक छात्र अनुपात का पालन करने वाले स्कूलों की संख्या 2013 में 45.3% थी जो साल 2014 में बढ़कर 49.3% हो गई है। 2010 में यह आंकड़ा 38.9% था।

• 75.6% स्कूलों में पेयजल की सुविधा थी। 2010 में पेयजल की सुविधा वाले स्कूलों की संख्या 72.7% थी। बिहार, यूपी, गुजरात तथा हिमाचल प्रदेश में 85 प्रतिशत से ज्यादा स्कूलों में पेयजल की सुविधा मौजूद पायी गई।

•  साल 2010 के बाद से स्कूलों में उपयोग की हालत वाले शौचालयों की संख्या में पर्याप्त वृद्धि हुई है। राष्ट्रीय स्तर पर देखें तो साल 2014 में 62.6% स्कूलों में शौचालय उपयोग की दशा में पाये गये जबकि 2010 में ऐसे विद्यालयों की तादाद महज 47.2% थी।

• साल 2014 में 19.6% स्कूलों में कंप्यूटर मौजूद पाये गये जबकि साल 2010 में ऐसे स्कूलों की संख्या 15.8% थी। गुजरात के 81.3% स्कूलों में कंप्यूटर मौजूद पाया गया, केरल में ऐसे स्कूलों की तादाद 89.8% थी तो महाराष्ट्र में 46.3% तथा तमिलनाडु में 62.4%।

• साल 2010 में 62.6% स्कूलों में पुस्तकालय मौजूद थे जबकि साल 2014 में ऐसे विद्यालयों की संख्या 78.1% हो गई है।साल 2010 में असर टीम के भ्रमण के दिन 37.9% विद्यार्थी पुस्तकालय की पुस्तकों का उपयोग करते पाये गये जबकि साल 2014 में ऐसे विद्यार्थियों की संख्या 40.7% हो गई है।

 
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नवीनतम(साल 2014 के जनवरी में जारी) [inside]एनुअल स्टेटस् ऑव एजुकेशन रिपोर्ट(असर)[/inside] के अनुसार-

http://img.asercentre.org/docs/Publications/ASER%20Reports/ASER_2013/ASER2013_report%20sections/thenationalpicture.pdf

http://img.asercentre.org/docs/Publications/ASER%20Reports/ASER_2013/4-pagers/enrollmentandlearning_hindi.pdf

 

नामांकन का प्रतिशत बहुत ऊँचा है। 6-14 साल के आयु-वर्ग के तकरीबन 96 फीसदी बच्चे स्कूलों में नामांकित हैं। लगातार पांचवें साल नामांकन का प्रतिशत 96 प्रतिशत या उससे ज्यादाहै।

6-14 साल के आयु-वर्ग के जो बच्चे स्कूलों में नामांकित नहीं हैं उनकी संख्या साल 2012 में 3.5 प्रतिशत थीजो साल 2013 में घटकर 3.3 प्रतिशत हो गई है।

11-14 आयु-वर्ग की जो लड़कियां स्कूलों में नामांकित नहीं थी उनकी संख्या साल 2012 में 6 प्रतिशत थी जो साल 2013 में घटकर 5.5 प्रतिशत रह गई है। इस मामले में सर्वाधिक प्रगति उत्तरप्रदेश में हुई है। साल 2012 में 11-14 आयु-वर्ग की अनामांकित लड़कियों की संख्या यहां 11.5 प्रतिशत थी जो साल 2013 में घटकर 9.4 प्रतिशत रह गई। बहरहाल, राजस्थान में स्कूल वंचित लड़कियों का अनुपात लगातार दूसरे साल भी बढ़ा है। साल 2011 में ऐसी लड़कियों की संख्या राजस्थान में 8.9 प्रतिशत थी जो साल 2011 में बढ़कर 11.2 प्रतिशत थी जो साल 2012 में बढ़कर 11.2 प्रतिशत और 2013 में बढ़कर 12.1 प्रतिशत हो गई है।

राष्ट्रीय स्तर पर प्राइवेट स्कूलों में नामांकित बच्चों की संख्या में इजाफा हुआ है। प्राइवेट ट्यूशन क्लासेज करने वाले बच्चों क संख्या में भी पिछले साल के मुकाबले बढ़ोत्तरी हुई है।

साल 2006 में प्राइवेट स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों(6-14 साल) की संख्या 18.7 प्रतिशत थी जो साल 2013 में बढ़कर 29 प्रतिशत हो गई। पिछले साल के मुकाबले प्राइवेट स्कूलों में नामांकित बच्चों की संख्या में बड़ी थोड़ी से बढ़ोत्तरी हुई है। पिछले साल प्राइवेट स्कूलों में नामांकित बच्चों की संख्या 28.3 प्रतिशत थी जो साल 2013 में बढ़कर 29 प्रतिशत हो गई है।

ग्रामीण क्षेत्रों में निजी स्कूलों में नामांकन के मामले में राज्यवार बहुत ज्यादा भिन्नता है। मणिपुर और केरल में 6-14 आयुवर्ग के दो तिहाई से ज्यादा बच्चे प्राइवेट स्कूलों में नामांकित हैं जबकि त्रिपुरा(6.7 प्रतिशत), पश्चिम बंगाल(7 प्रतिशत) और बिहार(8.4प्रतिशत) में प्राइवेट स्कूलों में नामांकित बच्चों की तादाद 10 फीसदी से भी कम है।

प्राइवेट ट्यूशन लेने वाले बच्चों (कक्षा 1-5 तक के) की संख्या राष्ट्रीय स्तर पर बढ़ी है। साल 2012 में ऐसे बच्चों की संख्या 21.8 प्रतिशत थी तो साल 2013 में यह संख्या बढ़कर 22.6 प्रतिशत हो गई। कक्षा 6-8 के ऐसे विद्यार्थियों की संख्या साल 2012 में 25.3 प्रतिशत थी जो साल 2013 में बढ़कर 26.1 प्रतिशत हो गई है।

प्राइवेट स्कूलों में नामांकित बच्चों के समान प्राइवेट ट्यूशन लेने वाले बच्चों की संख्या में भी राज्यवार बहुत ज्यादा अन्तर है। त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल में कक्षा 1-5 तक के 60 फीसदी से ज्यादा विद्यार्थी प्राइवेट ट्यूशन लेते हैं जबकि छत्तीसगढ़ और मिजोरम में ऐसे बच्चों की संख्या 5 फीसदी से भी कम है।

 

कक्षा 1-5 तक के ऐसे बच्चे जिन्हें अपनी शिक्षा में किसी ना किसी रुप में निजी सेवा( प्राइवेट स्कूल, प्राइवेट ट्यूशन या फिर दोनों) लेनी पड़ती है उनकी संख्या साल 2010 में 38.5 प्रतिशत थी जो साल 2011 में 42 प्रतिशत, 2012 में 44.2 प्रतिशत तथा साल 2013 में बढ़कर 45.1 प्रतिशत हो गई है।

राष्ट्रीय स्तर परदेखें तो सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले कक्षा 1-5 तक के जो विद्यार्थी प्राइवेट ट्यूशन लेते हैं उनमें 68.4 प्रतिशत को प्रतिमाह 100 या उससे कम रुपये देने पड़ते हैं।

प्राइवेट स्कूलों में पढ़ने वाले क्लास 1-5 तक जो विद्यार्थी प्राइवेट ट्यूशन लेते हैं उनमें 100 या उससे कम रुपये प्रतिमाह देने वाले विद्यार्थी 36.7 फीसदी हैं और तकरीबन इतनी ही संख्या में प्राइवेट स्कूलों में पढ़ने वाले विद्यार्थी 101 से 200 रुपये प्रतिमाह ट्यूशन पर खर्च करते हैं।

बच्चों की पठन-क्षमता में बीते साल के मुकाबले कुछ खास इजाफा नहीं हुआ है।

अखिल भारतीय स्तर पर देखें तो साल 2012 में कक्षा-3 के ऐसे विद्यार्थियों का अनुपात जो कक्षा-1 की बोधक्षमता के लायक तैयार किए गए अनुच्छेद को पढ़ पाने में सक्षम थे, 38.8 प्रतिशत था जो साल 2013 में बढ़कर 40.2 प्रतिशत हो गया है। इस सुधार सबसे ज्यादा निजी स्कूल के विद्यार्थियों में देखने को मिला है

सरकारी स्कूलों में कक्षा-3 में पढ़ने वाले ऐसे विद्यार्थियों की संख्या जो क्लास-1 की बोधक्षमता के लायक तैयार किए गए अनुच्छेद को पढ़ सकते हों, साल 2012 में 32 प्रतिशत थी जो साल 2013 में भी इसी संख्या पर स्थिर रही।

कक्षा-3 के विद्यार्थियों की पठन-क्षमता में साल 2009 के बाद से सर्वाधिक सुधार जम्मू-कश्मीर और पंजाब राज्य में देखने में आया है।

राष्ट्रीय स्तर पर देखें तो कक्षा-5 के ऐसे विद्यार्थियों की संख्या, जो कक्षा-2 की बोधक्षमता के लायक तैयार पाठ्यसामग्री को पढ़ पाने में सक्षम थे, साल 2012 में लगभग 47 फीसदी थी जो साल 2013 में भी इतनी ही रही। इस संख्या में साल-दर-साल कमी आ रही है। साल 2009 में ऐसे विद्यार्थियों की संख्या 52.8 प्रतिशत थी तो साल 2012 में 46.9 प्रतिशत।

सरकारी स्कूलों की कक्षा-5 में नामांकित कक्षा-2 की बोधक्षमता के लायक तैयार पाठ्यसामग्री को पढ़ सकने वाले विद्यार्थियों की संख्या साल 2009 में 50.3 फीसदी थी जो साल 2011 में घटकर 43.8 प्रतिशत हुई और 2013 में ऐसे विद्यार्थियों की संख्या 41.1 फीसदी पर पहुंची है।

साल 2013 में हिमाचल प्रदेश, पंजाब, मिजोरम और केरल के सरकारी स्कूलों की कक्षा-5 में पढ़ने वाले तकरीबन 60 फीसदी विद्यार्थी कक्षा-2 की बोधक्षमता के लायक तैयार पाठ्यसामग्री को पढ़ पाने में सक्षम थे।

बुनियादी गणित कर पाने की क्षमता के मामले में बच्चे अब भी पिछड़ रहे हैं।

कक्षा-3 के ऐसे विद्यार्थियों की संख्या जो दो अंकों की संख्या वाला (हासिल लेने वाला) घटाव कर पाने में सक्षम थे इस सालभी पिछले साल के बराबर रही। इस तरह का गणित ज्यादातर राज्यों में कक्षा-2 की पाठ्यपुस्तक में शामिल है।

साल 2010 मेंसरकारी स्कूलों की कक्षा-3 में पढ़ने वाले तकरीबन 33.2% विद्यार्थी घटाव कर पाने में सक्षम थे जबकि प्राइवेट स्कूलों में उक्त कक्षा में पढ़ने वाले ऐसे विद्यार्थियों की संख्या 47.8 फीसदी थी। इस मामले में सरकारी और प्राइवेट स्कूलों के विद्यार्थियों के बीच अंतर समय के साथ बढ़ता गया है।

  साल 2013 में सरकारी स्कूलों की कक्षा-3 में पढ़ने वाले 18.9 फीसदी विद्यार्थी सामान्य घटाव कर पाने में सक्षम थे जबकि प्राइवेट स्कूलों की इसी कक्षा में पढ़ने वाले विद्यार्थियों के बीच यह तादाद 44.6 फीसदी पायी गई।

राष्ट्रीय स्तर पर देखें तो कक्षा-5 के ऐसे विद्यार्थियों की संख्या जो तीन अंकों की संख्या में दो अंकों की संख्या से भाग दे पाने में सक्षम थे साल 2012 में 24.9 प्रतिशत थी जो साल 2013 में बढ़कर 25.6 प्रतिशत हो गई। भाग लगाने के ऐसे गणितीय सवाल ज्यादातर राज्यों में क्लास-3 से लेकर क्लास-5 की पाठ्यपुस्तकों में दिए गए हैं।

सरकारी स्कूलों में इस श्रेणी का भाग दे पाने में सक्षम विद्यार्थियों की संख्या (कक्षा-5 के) साल 2013 में 20.8 फीसदी पायी गई जबकि प्राइवेट स्कूलों में उक्त कक्षा में पढ़ने वाले विद्यार्थियों के बीच यह संख्या 38.9 फीसदी थी।

तीन अंकों की संख्या में एक अंक की संख्या से भाग दे पाने में सक्षम कक्षा पाँच में पढ़ने वाले विद्यार्थियों की संख्या हिमाचल प्रदेश, पंजाब और मिजोरम में तकरीबन 40 प्रतिशत है(साल 2013 में)।

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चाइल्ड राइट एंड यू(क्राई) नामक स्वयंसेवी संगठन ने 13 राज्यों के 71 जिलों में शिक्षा का अधिकार कानून का जायजा लेने के लिए एक अध्ययन किया है। अध्ययन में अग्रलिखित राज्यों के जिलों को शामिल किया गया- आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु, बिहार, झारखंड, ओडिसा, पश्चिम बंगाल, गुजरात, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, राजस्थान, उत्तरप्रदेश। अध्ययन में दिल्ली, कोलकाता, मुबंई और हैदराबाद जैसे शहर को भी शामिल किया गया।अध्ययन के लिए आंकड़ों का संकलन सितंबर-अक्तूबर 2012 की अवधि में किया गया। अध्ययन में शामिल आंकड़ें 747 प्राथमिक और अपर प्राथमिक विद्यालयों के हैं।

[inside]चाइल्ड राइट एंड यू (क्राई) द्वारा प्रस्तुत लर्निंग ब्लॉक नामक अध्ययन(जून 2013)[/inside] के अनुसार अनुसार
http://www.cry.org/mediacenter/afarcryfromequitablequality
educationforall.html

शौचालय:

•   अध्ययन के अनुसार 11 फीसदी स्कूलों में शौचालय नहीं है और केवल 18 फीसदी स्कूलों में लड़कियों के लिए अलग से शौचालय की व्यवस्था है। 34 फीसदी स्कूलों में शौचालय इस्तेमाल के लायक नहीं है। ज्यादातर स्कूलों में लड़के और लड़कियों के लिए अलग-अलग शौचालय की व्यवस्था नहीं है। तकरीबन 49 फीसदी स्कूलों में स्कूल के कर्मचारी और छात्रों के लिए कॉमन टॉयलेट है।

पेयजल

•   20 फीसदी स्कूलों में स्वच्छ पेयजल की सुविधा नहीं थी।12 फीसदी स्कूल ऐसे मिले जो पेयजल के लिए टैप या हैंडपंप पर आश्रित थे और ये टैप अथवा हैंडपंप स्कूल के आहाते से बाहर थे।

प्रधानाध्यापक के लिए अलग कमरा :

•    तकरीबन 59 फीसदी स्कूलों में प्रधानाध्यापक के लिए अलग से कमरा नहीं था।

रसोईघर और मिड डे मील :

•    मिड डे मील प्रोग्राम के तहत भोजन पकाने के लिए स्कूल के आहाते के अंदर रसोईघर का रहना अनिवार्य है। लेकिन 18 फीसदी स्कूलों में मिड डे मील स्कूल के अहाते में जिस तरहके रसोईघर में पकाया जाता था उसे या तो समुचित नहीं कहा जा सकता या फिर ऐसे स्कूलों में रसोईघर की ही व्यवस्था नहीं थी।

खेल के मैदान और खेलकूद की सामग्री :

•    सर्वेक्षण में शामिल तकरीबन 63 फीसदी स्कूलों में खेल का मैदान नहीं था और 6द फीसदी स्कूलों में खेल की सामग्री नहीं थी।

स्कूल-परिसर की दीवार :

•    तकरीबन 60 फीसदी स्कूल ऐसे थे जिनके आहाते की दीवार या तो टूटी हुई थी, या अभी उसका निर्माण हो रहा था या फिर दीवार बनी ही नहीं थी।

पुस्तकालय :

•    अध्ययन में पाया गया कि 74 फीसदी स्कूलों में पुस्तकालय नहीं थे। जिन स्कूलों में पुस्तकालय था उनमें 84 फीसदी स्कूलों में एक्टिविटी बुक्स नहीं थे और 80 फीसदी में कहानी या सामान्य ज्ञान की किताबें नहीं थीं।

आयु के औचित्य से नामांकन :

•    अध्ययन के निष्कर्षों के अनुसार केवल 13 फीसदी स्कूलों में आयु-औचित्य से नामांकन दिया जा रहा था। इनमें से ज्यादातर स्कूलों में आयु-औचित्य के आधार पर नामांकन पाने वाले छात्रों के लिए विशेष कोचिंग या प्रशिक्षण की व्यवस्था थी।

•   हालांकि शिक्षा के अधिकार कानून में कहा गया है कि नामांकन के समय किसी विद्यार्थी के द्वारा उम्र का प्रमाणपत्र देना जरुरी नहीं है, बावजूद इसके 61 फीसदी स्कूलों में उम्र का प्रमाणपत्र मांगा गया और 47 फीसदी स्कूलों में उम्र का प्रमाणपत्र देना नामांकन के लिए अनिवार्य था।

•    शिक्षा के अधिकार कानून के विधानों के विपरीत, 66 फीसदी स्कूलों में नामांकन के समय पीछे प्राप्त शिक्षा का प्रमाणपत्र मांगा गया। उनमें से तकरीबन 46 फीसदी स्कूलों ने नियम के विपरीत छात्र से नामांकन के समय स्थानांतरण प्रमाणपत्र की मांग की।

स्कूल प्रबंधन समिति :

•    9 फीसदी स्कूलों में स्कूल प्रबंधन समिति नहीं थी और जिन स्कूलों में स्कूल प्रबंधन समिति गठित की गई थी उनमें से 9 फीसदी के पास किसी बैठक की विवरणी नहीं थी। तकरीबन 45 फीसदी प्राथमिक विद्यालय और 38 फीसदी अपर प्राथमिक विद्यालयों में छात्रों के अभिभावक को स्कूल प्रबंधन समिति का सदस्य नहीं बनाया गया था। तकरीबन 59 फीसदी प्राथमिक विद्यालयों और 54 फीसदी अपर प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षकों को स्कूल प्रबंधन समिति का सदस्य नहीं बनाया गया था।
•    44 फीसदी प्राथमिक और 32 फीसदी अपर प्राथमिक विद्यालयों में महिलायें स्कूल प्रबंधन समिति की सदस्य नहीं बनायी गई थीं। तकरीबन 52 फीसदी प्राथमिक विद्यालय और 41 फीसदी अपर प्राथमिक विद्यालय ऐसे थे जहां स्कूल प्रबंधन समिति में वंचित तबके के लोगों को सदस्य नहीं बनाया गया था। 51 फीसदी प्राथमिक विद्यालयों और 47 फीसदी अपर प्राथमिक विद्यालयों में निर्वाचित जन-प्रतिनिधियों को स्कूल प्रबंधन समिति का सदस्य नहीं बनाया गया था। सर्वेक्षण में शामिल55 फीसदी विद्यालयों की प्रबंधन समिति स्कूल के विकास की योजना बनाने में शामिल नहीं थी।

छात्र-शिक्षक अनुपात :

•    शिक्षा के अधिकारकानून में लोअर प्राइमरी स्कूल के लिए 30 छात्र पर एक शिक्षक का और अपर प्राइमरी स्कूल में 35 छात्र पर एक शिक्षक का विधान है। अध्ययन में पाया गया कि लोअर प्राइमरी स्कूल में 39 छात्र पर एक शिक्षक है और अपर प्राइमरी स्कूल में 40 छात्र पर एक शिक्षक।

•    अध्ययन में पाया गया कि 21 फीसदी प्राइमरी स्कूलों और 17 फीसदी अपर प्राइमरी स्कूलों में शिक्षक मिड डे मील की तैयारी से जुड़ी किसी ना किसी गतिविधि में संलग्न थे जो कि कानून के खिलाफ है।

शिक्षक :

•    28 फीसदी प्राथमिक विद्यालयों और 31 फीसदी अपर प्राथमिक विद्यालयों में प्रधानाध्यापक नहीं थे।

•    कुल 35 फीसदी प्राथमिक स्कूल ऐसे थे जहां शिक्षक या तो बारहवीं पास थे अथवा जिनके पास शिक्षण का डिप्लोमा था। तकरीबन 56 फीसदी प्राथमिक स्कूल ऐसे थे जहां शिक्षक स्नातक या स्नातकोत्तर स्तर की शिक्षा प्राप्त थे।

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आठवीं [inside]ऐनुअल स्टेटस् ऑव एजुकेशन रिपोर्ट(जारी 17 जनवरी 2013) की मुख्य बातें[/inside]-

http://img.asercentre.org/docs/Publications/ASER%20Reports/ASER_2012/nationalfinding.pdf

http://img.asercentre.org/docs/Publications/ASER%20Reports/ASER_2012/fullaser2012report.pdf

— कुल मिलाकर 6-14 आयु-वर्ग के बच्चों के नामांकन की दर 96 फीसदी से अधिक बनी हुई है। सभी राज्यों में निजी स्कूलों में नामांकन बढ़ा है।

— ग्रामीण भारत में 6-14 आयु-वर्ग के बच्चों की नामांकन दर ऊच्च बनी हुई है। 2012 में ग्रामीण भारत में इस आयु वर्ग के 96.5 फीसदी से भी अधिक बच्चे स्कूलों में नामांकित थे। यह लगातार चौथा वर्ष है जब नामांकन दर 96 फीसदी या उससे अधिक है।

— राष्ट्रीय स्तर पर 6-14 आयु वर्ग में उन बच्चों का अनुपात जो किसी स्कूल में नामांकित नहीं कुछ बढ़ा है। जहां 2011 में 3.3 फीसदी था वहीं 2012 में बढ़कर यह 3.5 फीसदी हो गया । यह बढ़ोत्तरी 11-14 आयु-वर्ग की लड़कियों के लिए सर्वाधिक है, इस वर्ग के लिए अनामांकित बच्चों का प्रतिशत 2011 में 5.2 फीसदी था जो साल 2012 में बढ़कर 6 फीसदी पर पहुंच गया।

— राजस्थान और उत्तरप्रदेश में 11-14 आयु वर्ग की लड़कियों में उन लड़कियों का प्रतिशत जो स्कूल में नामांकित नहीं थीं, 2011 में क्रमश 8.9 फीसदी और 9.7 फीसदी था जो साल 2012 में भड़कर 11 फीसदी से अधिक हो गया।

— राष्ट्रीय स्तर पर, 6-14 आयु-वर्ग के लिए निजी स्कूलों में नामांकन साल दर साल बढ़ा है। साल 2006 में सौ में अगर 18.7 बच्चे निजी स्कूलों में जा रहे थे तो साल 2012 में 28.3 फीसदी बच्चे निजी स्कूलों में जाने लगे। यानि बीते तीन सालों में निजी स्कूलों में दाखिले की दर 10 फीसदी प्रतिवर्ष रही है।

— निजी स्कूलों में नामांकन में बढोत्तरी करीब-करीब सभी राज्यों में देखने को मिल रही है। 2012 में जम्मू-कश्मीर, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, उत्तरप्रदेश, गोवा और मेघालय में 6-14 आयुवर्ग के 40 फीसदी से अधिक बच्चे निजी स्कूलों में नामांकित थे। केरल और मणिपुर के लिए यह प्रतिशत 60 से ज्यादा था।

— देश के ग्रामीण हिस्से में, प्रारंभिक स्तर पर यानि कक्षा 1-8 के करीब एक चौथाई बच्चे चाहे वे निजी स्कूलों में पढ़ रहे हों या सरकारी स्कूलों में, पैसे देकर निजी ट्यूशन के लिए जाते हैं। सामान्यतया जो बच्चे ट्यूशन हासिल करते हैं उनका शिक्षण-स्तर उन बच्चों से बेहतर था जो ट्यूशन हासिल नहीं कर रहे थे

— 2010 में राष्ट्रीय स्तर पर कक्षा 5 के आधे से अधिक (53.7 फीसदी) विद्यार्थी कक्षा 2 के स्तर का पाढ़ पढ़ पाने में सक्षम थे और ऐसे बच्चों का अनुपात गिरकर साल 2011 में 48.2 फीसदी पहुंचा तो साल 2012 में 46 फीसदी। पढ़ाई लिखाई के बुनियादी कौशल के मामले में गिरावट निजीस्कूलों में जा रहे बच्चों की तुलना में सरकारी स्कूलों में दिखाई दे रही है। सरकारी स्कूलों में कक्षा 5 के उन बच्चों का प्रतिशत जो कक्षा 2 के स्तर का पाठ पढ़ सकते हैं 2010 में 50.7 फीसदी था जो साल 2012 में गिरकर 41.7 फीसदी हो गया।

— 2011 और 2012 के बीच कक्षा 5 में पढ़ने वाले सभी बच्चों के लिए, हरियाणा, बिहार मध्यप्रदेश महाराष्ट्र और केरल में पढ़ने के स्तर में बड़ी गिरावट(5 फीसदी प्वाईंट) देखी गई। महाराष्ट्र और केरल में तो निजी स्कूलों में जिनमें बड़े अनुपात में सहायता प्राप्त करने वाले स्कूल भी शामिल हैं, कक्षा 5 में पढ़ने की क्षमता में गिरावट दिखा रहे हैं।

— 2012 को भारत में गणित के वर्ष के रुप में मनाया गया परन्तु भारतीय बच्चों के लिए बुनियादी गणित के मान से यह वर्ष खराब रहा। 2010 में 10 में 7(70.9 फीसदी) कक्षा 5 में नामांकित बच्चे दो अंकों का घटाव(जिसमें हासिल लेना पड़ता हो) कर सकते थे। 2011 में यह अनुपात घटकर 10 में 6(61 फीसदी) और 2012 में गिरकर 10 में से 5(53.5फीसदी) हो गया है। आंध्रप्रदेश, कर्नाटक और केरल को छोड़कर हर बड़ा राज्य गणित कर पाने के स्तरों में भारी गिरावट के संकेत दिखा रहा है।

— 2011 में सरकारी स्कूलों में कक्षा 5 में पढ़ने वाले बच्चों और 2012 में सरकारी स्कूलों में कक्षा 5 में पढ़ने वाले बच्चों की तुलना करें तो लगभग सभी राज्यों में बुनियादी घटाव करने की क्षमता में 10 प्रतिशत बिन्दु से अधिक की गिरावट देखा जा सकती है। इसमें अपवाद हैं बिहार, असम और तमिलनाडु जहां गिरावट कम है, आंध्रप्रदेश कर्नाटक और केरल में या तो 2011 की तुलना में सुधार हुआ है या खोई खास बढलाव नहीं हुआ है।

— भारत में छोटे स्कूलों का अनुपात बढ़ रहा है। असर 2012 के दौरान कुल 14591 स्कूलों का अवलोकन किया गया। समय के साथ सरकारी प्राथमिक विद्याल्यों में 60 या उससे कम नामांकन वाले सरकारी प्राथमिक स्कूलो का अनुपात बढ़ा है। 2009 में यह 26.1 फीसदी था जो साल 2012 में बढ़कर 32.1 फीसदी हो गया।

— प्राथमिक कक्षाओं में उन बच्चों का अनुपात भी बढ़ रहा है जो मल्टीग्रेड कक्षाओं में बैठते हैं। कक्षा 2 के लिए यह प्रतिशत 2009 में 55.8 था जो साल 2012 में बढ़कर 62.6 फीसदी हो गया। क्क्षा 4 के लिए यह प्रतिशत 2010 में 51 फीसदी से बढ़कर 2012 में 56.6 फीसदी हो गया है।

— शिक्षा के अधिकार के मानकों के आधार पर छात्र शिक्षक अनुपात में समय के साथ सुधार दिख रहा है। 2010 में उन स्कूलों का अनुपात जो छात्र-शिक्षक अनुपात के मानको को पूरा कर रहे थे 38.9 फीसदी था जो साल 2012 में बढ़कर 42.8 फीसदी हो गया।

— राष्ट्रीय स्तर पर स्कूलों में सुविधाओं में भी समय के साथ सुधार दिख रहा है। स्कूलों में बुनियादी सुविधाओं की उपलब्धता में सुधार स्पष्ट दिख रहा है- 2012 में अवलोकित सभी स्कूलों में73 फीसदी स्कूलों में पेयजल उपलब्ध था। उन विद्यालयों का अनुपात जिनमें उपयोग करने योग्य शौचालय है 2010 में 47.2 फीसदी से बढ़कर साल 2012 में 56.5 फीसदी हो गयाहै। अवलोगन किए गए स्कूलों में लगभग 80 फीसदी स्कूलों में लड़कियों के लिए अलग से शौचालय की व्यवस्था थी। अवलोगन किए गए स्कूलों में 87.1 फीसदी स्कूलों में सर्वे के दिन देखा गया कि मध्याह्न भोजन दिया जा रहा है।

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[inside]एनुअल स्टेटस् ऑव एजुकेशन रिपोर्ट(ASER) 2011[/inside] के मुख्य तथ्य  http://pratham.org/images/Aser-2011-report.pdf,

 

भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में नामांकनों की संख्यामें तेज बढ़त

 

·         ग्रामीण भारत में 6-14 साल की उम्र के 96.7% बच्चे स्कूलों में नामांकित हैं। साल 2010 से इस संख्या में खूब तेज बढ़त हुई है।

 

·         साल 2006 मेंजिन राज्यों में 11-14 साल की उम्र की स्कूल-वंचित लड़कियों की संख्या ज्यादा(10 फीसदी से अधिक) थी, उन राज्यों ने लड़कियों के स्कूली दाखिले के मामले में अच्छी प्रगति की है। मिसाल के लिए बिहार में साल 2006 में स्कूल वंचितों की तादाद 17.6% थी जो साल 2011 में घटकर 4.3% रह गयी। राजस्थान में साल 2006 में यह संख्या 18.9% थी जो साल 2011 में घटकर 8.9% पर आ गई है। ठीक ऐसे ही यूपी के मामले में यह संख्या साल 2006 में 11.1% थी जो 2011 में घटकर 9.7% रह गई है।

 

·         पाँच साल की उम्र वाले बच्चों की बड़ी संख्या फिलहाल स्कूलों में नामांकित है। पाँच साल की उम्र के स्कूल-दाखिल बच्चों की संख्या अखिल भारतीय स्तर पर साल 2011 में 57.8% है। राज्यवार इस आंकड़े में बड़ी भिन्नता है। नगालैंड में यह तादाद 87.1% है तो कर्नाटक में 18.8%।

 

अधिकतर राज्यों में निजी स्कूलों में दाखिले का चलन बढ़ा है-

 

·         6-14 साल की उम्र वाले बच्चों के मामले में राष्ट्रीय स्तर पर निजी स्कूलों में दाखिले का चलन साल दर साल बढ़ रहा है।साल 2006 में अगर निजी स्कूलों में इस आयुवर्ग के 18.7% बच्चे निजी स्कूलों में नामांकित थे तो साल 2011 में 25.6%। बिहार को छोड़कर बाकी राज्यों में यह रुझान जारी है।

 

·         उत्तराखंड, राजस्थान, उत्तरप्रदेश, महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, केरल, मणिपुर और मेधालय में गुजरे पाँच सालों में निजी स्कूलों में दाखिले के मामले में प्रतिशत पैमाने पर 10 अंकों की बढ़ोतरी हुई है।

 

·         ASER 2011 के आंकड़ों के अनुसार हरियाणा, उत्तरप्रदेश, नगालैंड, मेघालय, पंजाब, जम्मू-कश्मीर, राजस्थान, उत्तराखंड,महाराष्ट्र और आंध्रप्रदेश के ग्रामीण इलाकों में 30-50 फीसद बच्चे निजी श्रेणी के स्कूलों में नामांकित हैं।

 

पठन की बुनियादी क्षमता के मामले में कई राज्यों में कमी के रुझान हैं-

 

·         राष्ट्रीय स्तर पर देखें तो उत्तर भारत के कई राज्यों में पठन की योग्यता के मामले में गिरावट आई है। अखिल भारतीय स्तर पर देखें तो साल 2010 में ऐसे बच्चों की तादाद 53.7% थी जो Std V में थे लेकिन Std 2 की किताबों को बढ़ सकते थे। साल 2011 में ऐसे बच्चों की तादाद घटकर 48.2% हो गई है। दक्षिण भारत के राज्यों में ऐसी गिरावट के रुझान नहीं हैं।

 

·         इस मामले में कुछ राज्यों से अच्छी खबर भी है। गुजरात,पंजाब और तमिलनाडु कक्षा 2 की किताबों को पढ़-समझ सकने की योग्यता रखने वाले कक्षा पाँच में दाखिल विधार्थियों का प्रतिशत 2010 की तुलना में 2011 में बढ़ा है। पूर्वोत्तर के कई राज्यों में इस मामले में सकारात्मक रुझान हैं।कर्नाटक और आंध्रप्रदेश में इस मामले में आंकड़े में कोई तबदीली नहीं आई है।

अधिकतर राज्यों में गणित करने की क्षमता के मामले में गिरावट के रुझान हैं-

 

·          गणित करने की बुनियादी क्षमता की जांच के मामले में ASER 2011 के आकलन कहते हैं कि इसमें गिरावट आई है।  मिसाल के लिए, साल 2010 में कक्षा 3 के 36.3% विद्यार्थी दो अंकों के घटाव का गणित (जिसमें हासिल लेना पड़ता हो) सफलता पूर्वक करते पाये गए जबकि साल 2011 में ऐसे विद्यार्थियों की संख्या घटकर 29.9% पर आ गई है। साल 2010 में इसी स्तर के घटाव का गणितकरने वाले कक्षा पाँच के विद्यार्थियों की संख्या राष्ट्रीय स्तर पर 70.9% थी जो साल 2010 में 61.0% पर आ गई है।.

 

·         गणित कर सकने की क्षमता में कमी का यह रुझान सभी राज्यों में देखा जा सकता है। सिर्फ आंध्रप्रदेश, कर्नाटक और तमिलनाडु में साल 2010 के मुकाबले 2011 में आंकड़े में इजाफा हुआ है। पूर्वोत्तर के कई राज्यों में इस मामले में सकारात्मक रुझान देखने को मिले जबकि गुजरात में 2010 के मुकाबले 2011 में साधारण गणित कर सकने की क्षमता में कोई बदलाव नहीं आया है।

स्कूलों के सर्वेक्षण के आधार पर उनके बारे में तैयार किए गए कुछ निष्कर्ष-

 

बच्चों की उपस्थिति घटी है-

 

·         अखिल भारतीय स्तर पर साल 2007 में कक्षाओं में बच्चों की उपस्थिति 73.4% थी जो साल 2011 में घटकर 70.9% पर आ गई है( ग्रामीण भारत के प्राथमिक विद्यालयों में)

 

·         कुछ राज्यों में कक्षाओं में बच्चों की उपस्थिति में भारी गिरावट आई है, मिसाल के लिए बिहार में प्राथमिक विद्यालयों में बच्चों की उपस्थिति साल 2007 में 59.0% थी जो साल 2011 में घटकर 50.0% पर आ गई। मध्यप्रदेश में साल 2007 में यह आंकड़ा 67.0% का था जो साल 2011 में घटकर 54.5% पर आ गया जबकि उत्तरप्रदेश में 64.4% (2007) से घटकर 57.3% (2011) पर।

 

कक्षा 2 और कक्षा 4 के आधे से अधिक विद्यार्थी एक साथ किसी अन्य कक्षा में बैठते हैं-

·         स्कूलों के सर्वेक्षण के दौरान ASER ने अपना ध्यान कक्षा 2 और 4 के विद्यार्थियों पर केंद्रित किया और जानना चाहा कि इन कक्षाओं के विद्यार्थी कहां बैठते हैं।

 

·         राष्ट्रीय स्तर पर देखें तो, ग्रामीण भारत के प्राथमिक विद्यालयों में जितनी भी कक्षाएं लगती हैं उसमें 50 फीसदी से ज्यादा मामलों में एक से ज्यादा कक्षा के विद्यार्थी बैठाए जाते हैं। मिसाल के लिए अखिल भारतीय स्तर पर कक्षा 2 के 58.3% विद्यार्थी प्राथमिक विद्यालयों में किसी अन्य कक्षा के साथ बैठाए जाते हैं। कक्षा-4 के लिए विद्यार्थियों का यह आंकड़ा 53% का है।

 

·         स्कूलों को अनुदान की राशि मिलती है, लेकिन समय पर नहीं।

शिक्षा का अधिकार अधिनियम के अनुपालन से संबंधित निष्कर्ष

 

शिक्षक-छात्र अनुपात और कक्षा-शिक्षक अनुपात के मामले में आंकड़ों में ज्यादा बदलाब नहीं

 

·         छात्र-शिक्षक अनुपात के मामले में अखिल भारतीय स्तर पर शिक्षा के अधिकार अधिनियम के मानकों के अनुपालन करने वाले स्कूलों की संख्या आनुपातिक तौर पर सुधरी है मगर यह सुधार बड़ा कम है। इस मामले में शिक्षा का अधिकार अधिनियम के मानक का पालन करने वाले स्कूलों की तादाद साल 2010 में 38.9% थी तो साल 2011 में 40.7% फीसदी। साल 2011 में कर्नाटक में इस मामले में 94.1% फीसदी स्कूल मानक का पालन करते मिले जबकि जम्मू-कश्मीर, नगालैंड और मणिपुर में ऐसे स्कूलों की तादाद 80% से ज्यादा थी।

 

·         साल 2010 में प्रति शिक्षक एक क्लासरुम की मौजूदगी अखिल भारतीय स्तर पर 76.2% स्कूलों में थी जो साल 2011 में घटकर 74.3% स्कूलों में रह गई है। मिजोरम में 94.8%स्कूल प्रति शिक्षक एक क्लासरुम के मानक का पालन कर रहे हैं जबकि पंजाब, उत्तराखंड, राजस्थान, उत्तरप्रदेश, गुजरात और महाराष्ट्र में ऐसे स्कूलों की तादाद 80 फीसदी से ज्यादा है।

भवन, खेल केमैदान,चहारदीवारी और पेयजल के मामले में ज्यादा बदलाव नहीं-

·         साल 2011 में अखिल भारतीय स्तर पर ऐसे स्कूलों का अनुपात ज्यादा नहीं बदला जहां कार्यालय-सह-स्टोररुम की व्यवस्था हो। यह आंकड़ा 74% पर स्थिर है। ठीक इसी तरह सर्वेक्षण के दौरान जिन स्कूलों का मौका-मुआयना किया गया उनमें कुल 62 फीसदी में साल 2010 में भी खेल के मैदान थे और 2011 में भी इतने ही स्कूलों में यह सुविधा पायी गई। चहारदीवारी युक्त स्कूलों की संख्या में बढ़ोतरी(साल 2010 में 50.9% तो साल 2011 में 54.1%) है।

 

·         राष्ट्रीयस्तर पर साल 2010 के सर्वेक्षण में पेयजल की सुविधा से हीन विद्यालयों की संख्या 17.0% थी और साल 2011 में 16.6%। ऐसे विद्यालय जहां पेयजल की सुविधा(इस्तेमाल करने लायक) हो, साल 2010 में तकरीबन 73 फीसदी थे तो साल 2011 में भी कमोबेश इतने ही। इस मामले में केरल का रिकार्ड( 93.8% स्कूलों में इस्तेमाल कर सकने लायक पेयजल सुविधा) सबसे अच्छा पाया गया।

 

बालिकाओं के लिए शौचालय की व्यवस्था बेहतर हुई है-

 

·         साल 2010 में ऐसे विद्यालयों की तादाद 31.2% थी जहां बालिकाओं के लिए अलग से शौचालय की सुविधा नहीं थी। साल 2011 में यह तादाद घटकर 22.6% पर आ गई है। बालिकाओं के लिए अलग से बने ऐसे शौचालय जो उपयोग करने लायक हों, पिछले साल की तुलना में बढ़े हैं( साल 2010 में ऐसे शौचालय वाले स्कूलों की तादाद  32.9% थी तो साल 2011 में 43.8%।

 

स्कूलों में पुस्तकालय की संख्या बढ़ी है और उनका इस्तेमाल करने वाले विद्यार्थियों की भी-

·         साल 2010 में पुस्तकालय वंचित विद्यालयों की संख्या 37.5% थी जो साल 2011 में घटकर 28.6% पर आ गई है वहीं साल 2010 में कुल 37.9% विद्यालयों में पिछले साल विद्यार्थी पुस्तकालय की सुविधा का लाभ उठा रहे थे जबकि अब 2011 में ऐसे स्कूलों की संख्या  42.3% पर जा पहुंची है।

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 स्वयंसेवी संस्था प्रथम द्वारा प्रस्तुत [inside]एनुअल स्टेटस् ऑव एजुकेशन रिपोर्ट 2010(असर)[/inside] के अनुसार-
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1"/> SemiHidden="false" UnhideWhenUsed="false" Name="Medium Grid 2 Accent 5"/> ·       नामांकन- सर्वेक्षण के अनुसार देश के:ग्रामीण इलाके में 6-14 साल की उम्र के 96.5 फीसदी बच्चों का नामांकन स्कूल में है।इनमें से कुल 71.1% बच्चे सरकारी स्कूलों में नामांकित हैं जबकि, 24.3 % फीसदी बच्चों ने प्राइवेट स्कूलों में दाखिला लिया है।

·       स्कूल वंचित लडकियां—  11-14 आयुवर्ग की कुल 5.9% लड़कियां भी स्कूल-वंचित हैं। बहरहाल साल 2009 में स्कूल वंचित लड़कियों की तादाद 6.8 फीसदी थी यानि सर्वेक्षण के अनुसार स्कूल वंचित बच्चियों की तादाद में कमी आई है।

·       राजस्थान(12.1%) और यूपी (9.7%) जैसे राज्यों में स्कूल वंचित बच्चियों की संख्या अब भी ज्यादा है और साल 2009 की तुलना में इसमें कुछ खास कमी नहीं आई है। इस सिलसिले में बिहार का जिक्र जरुरी है। बिहार में साल 2005 के बाद से स्कूल वंचित लड़के और लड़कियों की तादाद में उल्लेखनीय कमी आई है। साल 2006 में बिहार में 11-14 आयुवर्ग के स्कूल वंचित लड़कों की तादाद 12.3 फीसदी और लड़कियों की तादाद 17.7 फीसदी थी जो साल 2010 में घटकर क्रमश 4.4% और 4.6% फीसदी हो गई है।

·       प्राईवेट स्कूलों में दाखिले में बढोतरी– ग्रामीण भारत में प्राईवेट स्कूलों में दाखिले का चलन बढ़ा है। साल 2009 में देश के ग्रामीण इलाके में कुल 21.8% फीसदी बच्चे प्राईवेट स्कूलों में दाखिल थे तो साल 2010 में उनकी तादाद बढ़कर 24.3% फीसदी हो गई है। इस आंकड़े में साल 2005(असर की प्रथम रिपोर्ट) से ही इजाफा हो रहा है। 2005 में देश के गंवई इलाके में प्राईवेट स्कूलों में दाखिल बच्चों की तादाद 16.3% फीसदी थी।

·       साल 2009 से 2010 के बीच दक्षिण के राज्यों में गंवई इलाके में प्राईवेट स्कूलों में दाखिले का चलन उल्लेखनीय गति से बढ़ा है। आंध्रप्रदेश में प्राईवेट स्कूल में दाखिल बच्चों की तादाद एक साल के अंदर 29.7% फीसदी से बढ़कर to 36.1% फीसदी हो गई है। तमिलनाडु में प्राईवेट स्कूलों में दाखिल बच्चों की तादाद 19.7% फीसदी से बढ़कर 25.1% फीसदी, कर्नाटक में 16.8% फीसदी से बढ़कर 20% फीसदी और केरल में  51.5% फीसदी से बढ़कर 54.2% फीसदी हो गई है।

·       प्राईवेट स्कूल में बच्चों के दाखिले के मामले में अन्यराज्यों में पंजाब कहीं आगे है। वहां यह तादाद साल भर के अंदर 30.5% फीसदी से बढ़कर 38% फीसदी तक पहुंच गई है। बहरहाल बिहार में यह अनुपात (5.2%) फीसदी, पश्चिम बंगाल में (5.9%), झारखंड में (8.8%) ओड़ीसा में (5.4%) और त्रिपुरा में (2.8%) है।

·       पाँच साल की उम्र के बच्चों के स्कूल-नामांकन की तादाद बढ़ी– राष्ट्रीय स्तर पर देखें तो साल 2009 में स्कूलों में दाखिला ले चुके पाँच साल की उम्र के बच्चों की तादाद 54.6% फीसदी थी जो साल 2010 में बढ़कर 62.8% फीसदी हो गई। कर्नाटक में यह बढ़ोतरी खास तौर पर देखने में आई।यहां साल 2009 में पाँच साल की उम्र के 17.1% फीसदी बच्चे स्कूलों में दाखिल थे। साल 2010 में इनकी तादाद बढ़कर 67.6 फीसदी हो गई।

·       पाँच साल की उम्र के बच्चों के स्कूली नामांकन में अन्य राज्यों में भी तादाद बढ़ी है। पंजाब में यह तादाद साल भर के अंदर बढ़कर 68.3% से  79.6% फीसदी, हरियाणा में (62.8% से 76.8%), राजस्थान में (69.9% से75.8%), यूपी में (55.7% से 73.1%) और असम में 49.1% से बढ़कर 59% फीसदी हो गई है।

·       कुछ राज्यों को छोड़कर पढ़ पाने की क्षमता के मामले में खास बढ़त दर्ज नहीं हुई--: स्कूली शिक्षा के पाँच साल के बाद भी स्कूलों में दाखिल तकरीबन आधे बच्चे पढ़ पाने की क्षमता के मामले में दूसरी कक्षा के विद्यार्थी से अपेक्षित योग्यता तक भी नहीं पहुंच पाये हैं।कक्षा पाँच में दाखिल केवल 53.4% फीसदी बच्चे ही कक्षा दो के बच्चे से अपेक्षित पाठ को पढ़ पाने में सक्षम हैं।

·       गणित कर पाने की क्षमता में फिसड्डीपन–: औसतन कहा जा सकता है कि सरल गणित करने की क्षमता के मामले में बच्चों में फिसड्डीपन बढ़ा है। कक्षा-1 के कुल 69.3% फीसदी बच्चे साल 2009 में 1-9 तक की संख्या पहचान पाने में सक्षम थे लेकिन साल 2010 में ऐसे बच्चों की तादाद घटकर 65.8% फीसदी हो गई। ठीक इसी तरह कक्षा तीन के कुल 39% फीसदी छात्र साल 2009 में दो अंकों के घटाव का गणित कर पाने में सक्षम पाये गये जबकि साल 2010 में ऐसे बच्चों की तादाद घटकर 36.5 फीसदी हो गई। भाग करने की गणितीय क्षमता से लैस क्लास पाँच के बच्चों की तादाद साल 2009 में 38% फीसदी थी जो साल 2010 में घटकर 35.9% फीसदी हो गई।

·       रोजमर्रा के हिसाब के मामले में मिडिल स्कूल के छात्र कमजोर हैं— साल 2010 में असर सर्वेक्षण के दौरान मिडिल स्कूल के बच्चों से रोजमर्रा के हिसाब वाले सवाल मसलन मेन्यूकार्ड से जुड़े प्रश्न, कैलेंडर पढ़ने के बारे में और खेत या जमीन का क्षेत्रफल या फिर किसी चीज का आयतन बचाने के सवाल पूछे गए। आठवीं क्लास के तकरीबन तीन चौथाई बच्चों ने मेन्यूकार्ड से संबंधित सवाल हल कर दिये, दो तिहाई छात्र कलैंडर पर आधारित सवाल के सही जवाब दे पाये जबकि सिर्फ 50 फीसदी छात्र ही क्षेत्रफल-आयतन से जुड़े सवालोंको हल कर पाये।क्षेत्रफल के सवालों को हल कर पाना छात्रों के लिए कहीं ज्यादा कठिन साबित हुआ जबकि ऐसे सवाल चौथी क्लास की पाठ्यपुस्तक से ही शुरु हो जाते हैं। केरल(79% ) और बिहार(69%)के आठवीं क्लास के छात्र क्षेत्रफल पर आधारित सवालों को हल करने में बाकी राज्यों से कहीं आगे थे।

·       प्राईवेट स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों में ट्यूशन का चलन पिछले साल के मुकाबले कम हुआ है–  प्राईवेट स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों में आठवीं क्लास तक के बच्चों के बीच ट्यूशन का चलन एक साल के अंदर साफ-साफ कम होता नजर आ रहा है। सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों में ट्यूशन लेने का चलन कम नहीं हुआ है हालांकि बिहार, पश्चिम बंगाल और ओडीसा जैसे राज्यों में जहां प्राईवेट स्कूलों में दाखिल बच्चों की संख्या कम है, पांचवीं क्लास में पढ़ रहे बच्चों में ट्यूशन लेने वाले बच्चों की संख्या ज्यादा( पश्चिम बंगाल-75.6%, बिहार -55.5% और ओडीसा -49.9%) है।

·       शिक्षा के अधिकार का अनुपालन – असर 2010 के सर्वेक्षण में कुल 13000 स्कूलों को शामिल किया गया। इसमें 60 फीसदी स्कूल इमारत के मामले में शिक्षा के अधिकार के मानकों के अनुरुप पाये गये। बहरहाल इन स्कूलों में से आधे से अधिक में शिक्षकों की तादाद बढ़ानी होगी।एक तिहाई स्कूलों में क्लासरुम की संख्या बढ़ानी होगी। सर्वेक्षण में शामिल कुल 13 हजार स्कूलों में से 62% में खेलकूद के लिए मैदान था, 50 फीसदी में चहारदीवारी थी और कुल 90 फीसदी स्कूलों में शौचालय मौजूद थे। बहरहाल शौचालय की सुविधायुक्त स्कूलों में केवल आधे ऐसे हैं जहां शौचालय इस्तेमाल करने लायक दशा में है। सर्वेक्षण में शामिल शौचालययुक्त स्कूलों में से 70% में लड़कियों के लिए अलग से इसकी सुविधा है लेकिन इस्तेमाल करने लायक दशा में शौचालय केवल 37 फीसदी स्कूलों में पाये गए।  81% स्कूलों में रसोईघर बने थे और 72 फीसदी स्कूलों में पेयजल की सुविधा थी।

·       प्राइमरी स्कूलों में सभी शिक्षकों की मौजूदगी के मामले में राष्ट्रीय स्तर पर गिरावट के रुझान हैं। सर्वेक्षण के दिन सभी शिक्षकों की मौजूदगी वाले प्राइमरी स्कूलों की तादाद साल 2007 में 73.7%, साल 2009 में 69.2% और साल 2010 में 63.4% पायी गई।

·        समग्र ग्रामीण भारत में साल 2007 से 2010 के बीच स्कूलों में छात्रों की उपस्थिति के मामले में कोई खास बदलाव देखने में नहीं आया। इस अवधि में स्कूलों में छात्रों की मौजूदगी तकरीबन 73% फीसदी पर स्थिर रही। हां, राज्यवार इसमें खास अन्तर जरुर है।

 
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 स्वयंसेवी संस्था प्रथम द्वारा प्रस्तुत द एनुअल स्टेटस् ऑव एजुकेशन रिपोर्ट २००९ के अनुसार-
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http://www.asercentre.org/asersurvey/aser09/pdfdata/national%20highlights.pdf

११-१४ आयु वर्ग की लड़कियों में स्कूल वंचितों की कमी

• साल २००८ में ६-१४ आयु वर्ग के स्कूल वंचित बच्चों की तादाद ४.३ फीसदी थी जो साल २००९ में घटकर ४ फीसदी हो गई।
• साल २००८ में ११-१४ आयु वर्ग की बच्चियों में स्कूल वंचितों की संख्या ७.२ फीसदी थी जो साल २००९ में घटकर ६.८ फीसदी हो गई। प्रतिशत पैमाने पर यह कमी सबसे ज्यादा छत्तीसगढ़  (3.8) , बिहार  (2.8), राजस्थान (2.6), ओडिसा (2.1), जम्मू-कश्मीर  (1.9) में नजर आई। मेघालय को छोड़कर पूर्वोत्तर के बाकी राज्यों में भी यही रुझान रहा। .
• आंध्रप्रदेश में साल २००८ में ११-१४ आयु वर्ग की बच्चियों में स्कूल वंचितों की संख्या ६.६ फीसदी थी जो साल २००९ में बढ़कर १०.८ फीसदी हो गई। पंजाब में यह आंकड़ा ४.९ फीसदी से बढ़कर ६.३ फीसदी पर पहुंचा।

प्राइवेट स्कूलों में नामांकन के मामले में रुझानमें ज्यादा बदलाव नहीं
• कुल मिलाकर देखें तो ६-१४ आयु वर्ग के बच्चो के प्राइवेट स्कूलों में नामांकन के मामले में साल २००९ के मुकाबले साल २००९ में महज नामालूम (0.8 प्रतिशत अंक) सी कमी आई। बहरहाल, छह राज्यों में इस मामले में प्रतिशत पैमाने पर पांच अंकों की कमी आई है। पंजाब में इस आयु वर्ग के बच्चों का प्राइवेट स्कूल में नामांकन प्रतिशत पैमाने पर सर्वाधिक है और वहां इस मामले में कुल 11.3 अंकों की कमी दर्ज की गई।

देश में पांच साल के आयु वर्ग के कुल बच्चों में ५० फीसदी स्कूलों में नामांकित हैं
• साल २००९ में ५ साल की उम्र वाले ५० फीसदी बच्चे स्कूलों में नामांकित थे। साल २००८ में भी यही स्थिति थी।
• आंगनवाड़ी या बालवाड़ी जैसे प्रीस्कूल स्तर पर देखें तो ३-४ साल के आयु वर्ग के बच्चों के मामले में स्थिति पिछले साल की ही तरह है।  खासकर बिहार, ओडिसा, छत्तीसगढ़ और गुजरात में इस आयु वर्ग के बच्चों का दाखिला प्रीस्कूल स्तर की संस्थाओं में प्रतिशत पैमाने पर पांच अंक बढ़ा है।

कक्षा-१ के स्तर पर सीखने की क्षमता में सुधार आया
• बच्चे की बोध क्षमता की बुनियादी शुरुआती कक्षाओं में पड़ती है। कुल मिलाकर देखें तो जहां साल २००८ में कक्षा-१ के स्तर पर कुल ६५.१ फीसदी बच्चे वर्णमाला के अक्षरों को पहचान पाते थे वहीं साल २००९ में ऐसे बच्चों की तादाद ६८.८ फीसदी हो गई। ठीक इसी तरह संख्याओं को पहचानने के मामले में एक साल के अंदर यह आंकड़ा ६५.३ फीसदी से बढ़कर ६९.३ फीसदी तक जा पहुंचा है।
•  संख्या १-९ तक की पहचान या वर्णमाला के अक्षरों की पहचान के मामले में पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, उत्तरप्रदेश, झारखंड और ओड़िसा में कक्षा-१ के स्तर पर बच्चों की बोध क्षमता के लिहाज से पिछले साल के मुकाबले प्रतिशत पैमाने पर १० अंकों की बढ़त दर्ज की गई है। तमिलनाडु और गोवा में पाठवाचन क्षमता और गणितीय योग्यता के मामले में उक्त स्तर पर पांच अंकों की बढत दर्ज की गई है। यही रुझान उत्तराखंड,महाराष्ट्र और करनाटक में भी नजर आई ।

कक्षा-५ के स्तर पर बोध क्षमता में तमिलनाडु (पाठ वाचन क्षमता) को छोड़कर कोई खास बदलाव नहीं

• ग्रामीण बच्चों के संदर्भ में एक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि साल २००८ में जहां कक्षा- ५ के ५६.२ फीसदी छात्र कक्षा-२ के लिए मानक रुप में तैयार की गई पुस्तक को पढ़-समझ लेते थे वहीं साल २००९ में ऐसे बच्चों की तादाद घटकर ५२.८ फीसदी हो गई। इसके मायने हुए कि कम से पांचवीं कक्षा में पढ़ने वाले कम से कम ४० फीसदी बच्चे बोध के लिहाज से ३ कक्षा पीछे चल रहे हैं।
• तमिलनाडु में, सरकारी स्कूलों की पांचवीं कक्षा में पढ़ने बच्चों के मामले में यह तथ्यप्रकाश में आया कि उनके पाठन वाचन की क्षमता में पिछले साल के मुकाबले प्रतिशत पैमाने पर ८ अंकों का इजाफा हुआ है। कर्नाटक और पंजाब में भी साल २००८ के मुकाबले इस मामले में प्रगति नजरआई मगर बाकी राज्यों में मामला कमोबेश पिछले साल वाला ही रहा।
• जहां तक गणितीय योग्यता का सवाल है, देशव्यापी स्तर पर देखें तो कक्षा पांच में पढ़ने वाले विद्यार्थियों में घटाव करने की क्षमता में खास बढोत्तरी नहीं हुई है।इस मामले में कुल सात राज्यों में प्रतिशत पैमाने पर ५-८ फीसदी बढत (विद्यार्थियों की संख्या के मामले में) नजर आई। इन राज्यों के नाम हैं- हिमाचल प्रदेश, पंजाब, असम, पश्चिम बंगाल, ओडिसा, आंध्रप्रदेश और कर्नाटक।

देशस्तर पर अंग्रेजी पढ़ सकने और उसे समझ पाने के की क्षमता के मामले में पर्याप्त विभिन्नता है।

• अखिल भारतीय आंकड़े संकेत करते हैं कि कक्षा -५ में पढ़ रहे ग्रामीण विद्यार्थियों में २५ फीसदी की तादाद अंग्रेजी में लिखे सरल वाक्य पढ़ लेते हैं। अंग्रेजी के सरल वाक्यों को बच्चों की जो तादाद पढ़ लेती है उसमें ८० फीसदी बच्चे उक्त वाक्य का अर्थ भी समझते हैं।
• कक्षा -८ के स्तर पर पढ़ने वाले कुल बच्चों में ६०.२ फीसदी बच्चे अंग्रेजी के सरल वाक्य पढ़ पाते हैं। त्रिपुरा के छोड़कर सभी उत्तर पूर्वी राज्यों, गोवा, हिमाचल प्रदेश और केरल में कक्षा- ८ में पढ़ रहे कुल विद्यार्थियों में ८० फीसदी की तादाद ना सिर्फ अंग्रेजी में लिखे वाक्य धड़ल्ले से पढ़ लेती है बल्कि उसके मायने भी समझती है।

हर कक्षा के ट्यूशन पढ़ने वाले बच्चों की तादाद में इजाफा
• राष्ट्रीय स्तर पर देखें तो साल २००७ से २००८ के बीच ट्यूशन फड़ने वाले बच्चों की तादाद बढ़ी है और ऐसा हर कक्षा के विद्यार्थी के साथ देखने में आया। यह तथ्य सरकारी और निजी दोनों तरह के स्कूल के बच्चों पर लागू होती है। सिर्फ कर्नाटक और केरल में सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों के मामले में ट्यूशन पढ़ने के इस चलन में किंचित गिरावट देखने में आई।
• जहां तक सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों का सवाल है, ट्यूशन पढ़ने का रुझान कक्षाओं की बढ़ती के साथ बढ़ोतरी करता नजर आया। पहली की कक्षा के १७.१ फीसदी छात्र ट्यूशन पढ़ते पाये गए तो आठवीं कक्षा के ३०.८ फीसदी छात्र।
•जो बच्चे प्राइवेट स्कूलों में जाते हैं उनमें पहली कक्षा में पढ़ने वाले कम से कम २३.३ फीसदी छात्र ट्यूशन पढ़ते पाये गए जबकि कक्षा- ४ के मामले में यही आंकड़ा बढ़कर २९.८ फीसदी तक पहुंचता है। .
• ट्यूशन पढ़ने की सर्वाधिक प्रवृति पश्चिम बंगाल के छात्रों में नजर आई। यहां सरकारी स्कूल की पहली कक्षा में पढ़ रहे ५० फीसदी बच्चे ट्यूशन पढ़ते हैं और यही तादाद कक्षा ८ तक जाते-जाते ९० फीसदी तक पहुंच जाती है। बिहार और ओड़िसा में भी ट्यूशन पढने वाले बच्चों की तादाद बहुत ज्यादा ( कक्षा-१ में एक तिहाई तो कक्षा -८ में ५० फीसदी) है।

कुछ राज्यों में बच्चों की स्कूल-उपस्थिति में सुधार की जरुरत
• तीन सालों (2005, 2007 और 2009) के आंक़ड़ों की तुलना से संकेत मिलते हैं कि विभिन्न राज्यों में स्कूल उपस्थिति के मामले में पर्याप्त अंतर है।बिहार जैसे राज्यों में हमारी टीम ने अपने दौरे केदौरान पाया कि जिन बच्चों ने स्कूल में दाखिला लिया है उनमें सिर्फ ६० फीसदी ही स्कूल आये हैं जबकि दक्षिण के राज्यों में में बच्चों की स्कूल उपस्थिति का आंकड़ा ९० फीसदी का था। इसके अतिरिक्त राजस्थान, उत्तरप्रदेश, झारखंड, ओडिसा और मध्यप्रदेश जैसे राज्यों में बच्चों की स्कूल उपस्थिति को बढ़ाने की दिशा में प्रयास किये जाने की जरुरत है। अधिकांश राज्यों में हमारी पर्यवेक्षक टीम ने पाया कि दौरे के दिन कुल नियुक्त शिक्षकों में से ९० फीसदी स्कूल में उपस्थित थे।

दो या अधिक कक्षा के विद्यार्थियों का पढ़ाई के लिए एक साथ बैठने का रुझान व्यापक  
• साल २००७ और २००९ के सर्वेक्षण के दौरान पर्येवक्षकों से कहा गया कि अगर कक्षा-२ और ४ के विद्यार्थियों को एक साथ करके किसी अन्य कक्षा के साथ बैठाकर पढाया जाता हो तो वे इस बात की अपने सर्वेक्षण में निशानदेही करें।दोनों ही सालों में यह घटना व्यापक स्तर पर पायी गई। अखिल भारतीय स्तर पर देखें तो कक्षा-२ और ४ के ५० फीसद विद्यार्थियों को एक साथ करके किसी अन्य कक्षा के साथ बैठाकर पढाने की घटना सामने आई।

शौचालयों की संख्या में बढ़ोतरी और पेयजल की सुविधाओं में सुधार
• अखिल भारतीय स्तर के आंकड़ों का संकेत है कि शौचालय और पेयजल की व्यवस्था से हीन विद्यालयों के चलन में कमी आई है। ७५ फीसदी सरकारी प्राथमिक विद्यालयों और अपर प्राइमरी कहे जाने वाले ८१ फीसदी विद्यालयों में पेयजल की सुविधा उपलब्ध है। सरकारी विद्यालयों में हर १० विद्यालय में ४ विद्यालय ऐसे थे जहां लड़कियों के लिए अलग से शौचालय की व्यवस्था नहीं थी। अपर प्राइमरी स्कूल के मामले में यह संख्या २६ फीसदी तक है। लगभग १२-१५ फीसदी शौचालय(लड़कियों के लिए) बंद पाये गए जबकि ३०-४० फीसदी ऐसी अवस्था में थे कि उनका इस्तेमाल नहीं किया जा सकता था।

पिछले वित्तीय वर्ष (स्कूलों के लिए लागू) में बहुत से विद्यालयों को अनुदान नहीं मिला-
• अनुदान के मामले में स्कूलों में राज्यवार पर्याप्त अंतर देखने में आया। नगालैंड में हमारी टीम जितने स्कूलों पर पर्येवक्षण के लिए गई उनमें ९० फीसदी को अनुदान हासिल हुआ था जबकि झारखंड ओड़िसा और मध्यप्रदेश में ऐसे विद्यालयों की तादाद (साल 2008-2009) ६० फीसदी या उससे भी कम थी ।

 
भारत में शिक्षा-एक नजर

    * युवा (१५–२४ साल) साक्षरता दर २०००-२००७*,  पुरुष ८७
    * युवा (१५–२४ साल) साक्षरता दर, २०००-२००७*, महिला ७७
    * प्रति सौ व्यक्तियों पर फोन, (साल २००६) -१५
    * प्रति सौ व्यक्तियों पर इंटरनेट-यूजर की संख्या, साल(२००६)-११
    * प्राइमरी स्कूल में नामांकन का अनुपात (साल २०००-२००७)-सकल, पुरुष ९०
    * प्राइमरी स्कूल में नामांकन का अनुपात (साल २०००-२००७)-सकल, स्त्री ८७
    * प्राथमिक विद्यालय में उपस्थिति का अनुपात (२०००-२००७)-निवल, पुरुष, ८५
    * प्राथमिक विद्यालय में उपस्थिति का अनुपात (२०००-२००७)-निवल, स्त्री ८१
    *माध्यमिक विद्यालय में नामांकन- अनुपात, २०००-२००७, पुरूष ५९
    * माध्यमिक विद्यालय में नामांकन- अनुपात, २०००-२००७, स्त्री ४९
    * माध्यमिक विद्यालय में उपस्थिति का अनुपात (२०००-२००७)-निवल, पुरुष ५९
    * माध्यमिक विद्यालय में उपस्थिति का अनुपात (२०००-२००७)-निवल,स्त्री ४९
    * नोट: नामांकन अनुपात का अर्थ होता है कि किसी विशिष्ट शिक्षा स्तर पर दाखिला लेने वाले विद्यार्थियों की संख्या कितनी है। इसमें दाखिला लेने वाले विद्यार्थी की उम्र का आकलन नहीं किया जाता।

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Source: UNICEF, http://www.unicef.org/infobycountry/india_statistics.html

 

 
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   [inside]एनएसएस द्वारा प्रस्तुत एजुकेशन इन इंडिया २००७-०८, पार्टिसिपेशन एंड एक्सपेंडिचर, रिपोर्ट संख्या- 532(64/25.2/1): (जुलाई 2007–जून 2008)[/inside] के अनुसार-

•    केरल (94%), असम (84%), और महाराष्ट्र (81%) अपेक्षाकृत उच्च साक्षरता दर वाले राज्य हैं।
•    अपेक्षाकृत निम्न साक्षरता दर वाले राज्यों के नाम हैं– बिहार (58%), राजस्थान (62%) और आंध्रप्रदेश(64%)
•    निम्न साक्षरता दर वाले अन्य राज्यों के नाम हैं– झारखंड (64.6%), उत्तरप्रदेश (66.2%), जम्मू-कश्मीर(67.7%) और ओड़िसा (68.3%)
•    देश की व्यस्क आबादी( १५ साल और उससे ज्यादा की उम्र)  का 66% हिस्सा साक्षर है।
•    ग्रामीण इलाकों में प्रति व्यक्ति मासिक खर्चे के आधार पर सबसे निचली श्रेणी में ५१.२ फीसदी आबादी निरक्षर है। प्रति व्यक्ति मासिक खर्चे के हिसाब से सबसे ऊंचसी श्रेणी में आने वाली ग्रामीण आबादी में भी महज २२.८ फीसदी लोग साक्षर हैं।
•    ग्रामीण इलाके की महिलाओं और पुरुषों तथा शहरी इलाके की महिलाओं और पुरुषों के बीच साक्षरता दर क्रमशः  51.1%, 68.4%, 71.6%  और  82.2% पायी गई। ४२ दौर की गणना( साल ) में यही आंकड़ा क्रमशः  24.8%, 47.6%, 59.1% और 74.0% का था। 
•    98% फीसदी ग्रामीण घरों और  99% फीसदी शहरी घरों के दो किलोमीटर की परिधि में प्राथमिक विद्यालय मौजूद हैं।
•     79% फीसदी ग्रामीण घरों और 97%  फीसदी शहरी घरों के दो किलोमीटर की परिधि में माध्यमिक विद्यालय मौजूद हैं।
•    47% फीसदी ग्रामीण घरों और 91%   फीसदी शहरी घरों के दो किलोमीटर की परिधि में माध्यमिक और प्राथमिक विद्यालय दोनों मौजूद हैं।
•    ५-२९ साल के आयु वर्ग के लोगों में ४६ फीसदी आबादी अभी किसी भी शैक्षिक संस्था में नामांकित नहीं है, इस आयु वर्ग के दो फीसदी लोगों का नामांकन तो है लेकिन इनकी शैक्षिक संस्था में उपस्थिति नहीं है। इस आयु वर्ग के ५२ फीसदी व्यक्तियों की शैक्षिक संस्था में उपस्थिति दर्ज की गई है।
•    5-29 साल के आयु वर्ग में प्राथमिक और उससे ऊंचे दर्जे की कक्षा में नामांकित व्यक्तियों के हिसाब से देखें तो – 49% प्राथमिक स्तर पर,  24% माध्यमिक स्तर पर ; 20% उच्च माध्यमिक स्तर पर और  7% हायर सेकेंडरी स्तर पर नामांकित हैं।
•    सामान्य पाठ्यक्रम में 97.8% व्यक्तियों ने दाखिला लिया है। तकनीकी प्रकृति के पाठ्यक्रम में 1.9% और रोजगारपरक पाठ्यक्रम में  लोगों ने दाखिला लिया है।
•    अखिल भारतीय स्तर पर नेट अटेन्डेंट रेशियो कक्षाI-VIII के लिए  86% है।
•    अपेक्षाकृत उच्च नेट अटेन्डेंट रेशियो (कक्षाI-VIII के लिए) वाले बड़े राज्यों के नाम हैं- : हिमाचल प्रदेश  (96%),केरल(94%) और तमिलनाडु (92%)।
•    अपेक्षाकृत निम्न नेट अटेन्डेंट रेशियो (कक्षाI-VIII के लिए) वाले बड़े राज्यों के नाम हैं-: बिहार (74%), झारखंड (81%), उत्तरप्रदेश (83%)
•    प्राथमिक स्तर की शिक्षा के लिहाज से निजी संस्थाओं में दाखिला लेने वाले विद्यार्थियों में 73% ही किसी मान्यता प्राप्त संस्था से संबद्ध हैं।
•    माध्यमिक स्तर की शिक्षा के लिहाज से निजी संस्थाओं में दाखिला लेने वाले विद्यार्थियों में 78% विद्यार्थी ही किसी मान्यता प्राप्त संस्था से संबद्ध हैं।
•    प्राथमिक स्तर पर 71% फीसदी छात्रों को मुफ्त शिक्षा हासिल है( ग्रामीण – 80%, शहरी – 40%)
•    माध्यमिक स्तर पर68%  फीसदी छात्रों को मुफ्त शिक्षा हासिल है( ग्रामीण – 75%, शहरी – 45%)
•    उच्च माध्यमिक स्तर या हायर सेकेंडरी स्तर पर 48%  फीसदी छात्रों को मुफ्त शिक्षा हासिल है( ग्रामीण – 54%, शहरी – 35%)

•    निजी शैक्षिक संस्था में प्राथमिक स्तर की शिक्षा के लिए दाखिल हर छात्र पर सालाना औसत खर्चा  1413 रुपये का है।  (ग्रामीण- . 826 रुपये , शहरी – .3626 रुपये )
•    निजी शैक्षिक संस्था में माध्यमिक स्तर की शिक्षा के लिए दाखिल हर छात्र पर सालाना औसत खर्चा  2088 रुपये का है।  (ग्रामीण- .  1370 रुपये , शहरी – .4264 रुपये )
•    निजी शैक्षिक संस्था में माध्यमिक स्तर की शिक्षा के लिए दाखिल हर छात्र पर सालाना औसत खर्चा  2088 रुपये का है।  (ग्रामीण- .  1370 रुपये , शहरी – .4264 रुपये )
•निजी शैक्षिक संस्था में सेंकेंडरी या हायर सेकेंडरी स्तर की शिक्षा के लिए दाखिल हर छात्र पर सालाना औसत खर्चा 4351रुपये का है( ग्रामीण-3019, शहरी-7212)
•    सेंकेंडरी या हायर सेकेंडरी स्तर से आगे की शिक्षा के लिए दाखिल हर छात्र पर सालाना औसत खर्चा 7360 रुपये का है( ग्रामीण-6327, शहरी-8466)
•    तकनीकी शिक्षा के लिए यही खर्चा प्रति छात्र सालाना 32112 रुपये का है( ग्रामीण-27177 रुपये, शहरी-34822 रुपये)।
•    रोजगारपरक शिक्षा के लिए यही खर्चा प्रति छात्र सालाना 14881 रुपये का है( ग्रामीण- 13699 रुपये, शहरी-17016 रुपये)।
•    बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड और ओड़ीसा में प्राथमिक स्तर की शिक्षा के लिए अगर छात्र निजी स्कूलों में दाखिल है तो उसका सालाना औसत खर्चा ६००-८०० रुपये का है जबकि पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों में ३५०० रुपये तक।
•    ग्रामीण इलाकों में मासिक खर्चे के लिहाज से सबसे निचली श्रेणी में आने वाला तबके के एक छात्र पर उसका परिवार प्राथमिक शिक्षा के लिए ३५२ रुपये सालाना खर्च करता है तो मासिक खर्चे के लिहाज से सबसे उंचले पादान पर आने वाली श्रेणी के छात्र के लिए यही खर्चा ३५१६ रुपये का है। शहरी क्षेत्र में उपरोक्त वर्गों के लिए यह खर्चा क्रमशः 1035 रुपये और 13474 रुपये का है।
•    अगर अखिल भारतीय स्तर पर देखें तो शिक्षा पर कुल सालाना खर्चा प्रति छात्र ३०५८ रुपये का है जिसमें ट्यूशन फीस का हिस्सा 1034 रुपये का, परीक्षा शुल्क सहति अन्य शुल्कों(४५९ रुपये) का हिस्सा कुल खर्चे का आधा है। किताब और स्टेशनरी की खरीद पर ८५६ रुपये का खर्चा बैठता है तथा प्राइवेट कोचिंग पर ३५४ रुपये का।
•    जहां तक ग्रामीण भारत का सवाल है शिक्षा पर कुल खर्चे का ४० फीसदी हिस्सा ट्यूशन फीस, परीक्षा और अन्य शुल्कों के मद में आता है जबकि कुल खर्चे का २५ फीसदी हिस्सा किताबों और स्टेशनरी की खरीदारी पर। शहरी क्षेत्र में ट्यूशन फीस का हिस्सा कुल खर्चे में ४० फीसदी का है।
•    ग्रामीण क्षेत्र में अधिकतर छात्र सरकारी स्कूलों में पढ़ते हैं। प्राथमिक स्तर की शिक्षा के लिए सरकारीस्कूलों में पढ़ने वाले छात्रों की तादाद ७६ फीसदी है, माध्यमिक स्तर की शिक्षा के लिए सरकारी विद्यालयों में पढ़ने वाले छात्रों की तादाद ७३ फीसदी और हायर सेकेंडरी स्तर पर यह आंकड़ा ६२ फीसदी का है।  
•    शहरी क्षेत्रमें प्राथमिक स्तर की शिक्षा के लिहाज से कुल छात्रों का ५९ फीसदी निजी स्कूलों में पढ़ता है। मिडिल और सेकेंडरी स्तर पर यह आंकड़ा शहरी क्षेत्रों में ५४-५५ फीसदी का है। शहरी क्षेत्र में प्राथमिक स्तर पर कुळ छात्रों का महज ३५ फीसदी सरकारी स्कूलों में पढ़ता है, माध्यमिक स्तर की शिक्षा के लिए कुल छात्रों का ४० फीसदी हिस्सा सरकारी स्कूलों में जाता है और हायर सेकेंडरी स्तर पर यह आंकड़ा ४३ फीसदी का है। .
•    असम बिहार छ्तीसगढ़ और ओड़िसा में प्राथमिक स्तर की शिक्षा के लिए कुल छात्रों का ९० फीसदी हिस्सा सरकारी स्कूलों या फिर स्थानीय निकायों द्वारा संचालित स्कूलों में जाता है जबकि केरल में ३५ फीसदी और पंजाब में ४५ फीसदी। इन दो राज्यों में अधिकतर छात्र निजी संस्थानों में शिक्षा प्राप्त करते हैं।
•    सरकारी स्कूलों में पढने वाले बच्चों में ६० फीसदी को मिड डे मील हासिल होता है। इसकी तुलना में सराकारी सहायता प्राप्त निजी संस्थानों में पढ़ने वाले १६ फीसदी बच्चों को और  सरकारी सहायता विहीन निजी संस्थाओं में पढ़ने वाले छात्रों में से महज २ फीसदी छात्रों को मिड डे मील मिलता है।
•    सरकारी स्कूलों में पढ़ रहे कुल 69% फीसदी छात्रों को मुफ्त पाठ्यपुस्तकें मिलती है, सहायता प्राप्त निजी स्कूलों में पढने वाले कुल २२ फीसदी छात्रों को जबकि गैर सहायता प्राप्त निजी स्कूलों में पढ़ने वाले कुल ४ फीसदी छात्रों को मुफ्त पाठ्यपुस्तकें हासिल होती हैं।
•    स्कूली पढ़ाई पूरी ना कर पाने की मुख्य वजहें- धन की कमी (21%), विद्यार्थी का पढ़ाई में मन ना लगना (20%), पढाई में असफल होने का तनाव ना झेल पाना (10%), अपेक्षा का पूरा हो जाना यानि जहां तक पढना था पढ़ लिया का भाव-(10%), माता पिता का बच्चे की पढ़ाई में दिलचस्पी ना लेना- (9%)
•    स्कूल में नाम ना लिखाने की तीन वजहें बार बार अध्ययन के दौरान लोगों ने स्वीकार की-क) माता पिता का बच्चे की पढ़ाई के प्रति रुचि ना रखना (33.2%), ख) धन की कमी  (21%) और  ग) शिक्षा को जरुरी ना मानना  (21.8%).

Note: Net Attendance Ratio (I-VIII)=(Number of persons in age-group 6-13 currently attending Classes I-VIII divided by Estimated population in the age-group I-VIII years) multiplied by hundred 

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[inside]एजुकेशन फॉर ऑल रिपोर्ट २०१०[/inside] के अनुसार

http://www.unesco.org/fileadmin/MULTIMEDIA/HQ/ED/GMR/pdf/gmr2010/gmr2010-highlights.pdf

 

•      मानव विकास सूचकांकों में गिरावट के रुझान हैं। तकरीबन १२ करोड़ पचास लाख अतिरिक्त लोग साल २००९ में कुपोषण के जाल में फंसे और आशंका है कि ९ करोड़ की और आबादी साल २०१० तक गरीबी के जाल में फंसेगी।

•        बढती गरीबी, बेरोजगारी और घटती मजदूरी के कारण कई गरीब परिवार शिक्षा पर हो रहे अपने खर्चे में कटौती कर रहे हैं और अपने बच्चों का नाम स्कूल से कटवा रहे हैं।

•        साल १९९९ से लेकर अबतक स्कूल वंचित बच्चों की तादाद में में विश्वस्तर पर कमी(३ करोड़ ३० लाख) आई है। दक्षिण और पश्चिम एशियामें स्कूल वंचित बच्चों की तादाद में ५० फीसदी से ज्यादा की कमी आई है। यह संख्या तकरीबन २ करोड़ १० लाख के बराबर पहुंचती है।

•        विश्वस्तर पर देखें तो स्कूल वंचित बच्चियों की संख्या भी कम हुई है। पहले यह ५८ फीसदी थी और अब घटकर ५४ फीसदी हो गई है। प्राथमिक शिक्षा के स्तर पर लैंगिक-असमानता में कई देशों में कमी आ रही है।

•        साल १९८५-१९९४ और साल २०००-२००७ के बीच विश्वस्तर पर व्यस्क साक्षरता की दर में १० फीसदी का इजाफा हुआ। फिलहाल व्यस्क साक्षरता दर ८४ फीसदी है। व्यस्क पुरुषों की तुलना में व्यस्क महिलाओं की साक्षरता दर इस अवधि में कहीं ज्यादा तेजी से बढ़ी है।

•        प्रति वर्ष १७ करोड़ ५० लाख बच्चे विश्व में कुपोषण से प्रभावित होते हैं। यह तथ्य सेहत और शिक्षा के लिहाज से एक आपात् स्थिति की सूचना देता है।

•        साल २००७ में ७ करोड़ २० लाख बच्चे स्कूल वंचित थे। अगर मौजूदा हालात जारी रहे तो २०१५ तक कुल ५ करोड़ ६० लाख बच्चे स्कूल वंचित रहेंगे।

•        शिक्षा से संबंधित लक्ष्यों में साक्षरता को सबसे कम महत्व मिला है। विश्व में कुल ७५ करोड़ ९० लाख लोग निरक्षर हैं और इनमें महिलाओं की संख्या दो तिहाई है।

•        साल २०१५ तक सार्विक प्राथमिक शिक्षा के लक्ष्य को पूरा करने के लिए १० लाख ९० हजार अतिरिक्त शिक्षकों की जरुरत पड़ेगी।

•        कुल २२ देशों में ३० फीसदी से ज्यादा नौजवानों को महज चार साल तक की शिक्षा हासिल हुई है। ऐसे नौजवानों की तादाद उप सहारीय अफ्रीकी के ११ देशों में ५० फीसदी से भी ज्यादा है।

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स्वयंसेवी संस्था असर(एएसईआर) द्वारा प्रस्तुत एनुअल स्टेटस् ऑव एजुकेशन रिपोर्ट २००८ के अनुसार-
http://asercentre.org/asersurvey/aser08/pdfdata/aser08national.pdf

  • स्कूल वंचित बच्चों की तादाद में कमी आ रही है और इस दिशा में बिहार ने अच्छी प्रगति की है.राष्ट्रीय स्तर पर देखें तो ७-१० साल के आयु वर्ग के बच्चों में स्कूल-वंचितों की संख्या २.७ फीसदी है जबकि ११-१४ आयु वर्ग में ६.३ फीसदी बच्चे स्कूल वंचित हैं।
  • साल २००७ और २००८ के बीच ११-१४ साल के आयु वर्ग की लड़कियों में स्कूल वंचितों की तादाद में कोई खास बदलाव नहीं आया और इस आयु वर्ग की लड़कियों की ७.३ फीसदी संख्या २००८ में स्कूल वंचित है।
  • साल २००७ के बाद से अधिकतर राज्यों में स्कूल वंचित बच्चों की संख्या में कमी आयी है। यूपी और राजस्थान इसके अपवाद हैं। .
  • बिहार में स्कूल वंचितबच्चों(६-१४ साल) की संख्या में चार सालों(२००५-२००८) में कमी आयी है। चार साल पहले ऐसे बच्चों की तादाद १३.१ फीसदी थी जो घटकर ५.७ फीसदी हो गई है। इस अवधि में स्कूल वंचित लड़कियों(११-१४ साल) की संख्या २०.१ फीसदी से घटकर८.८ फीसदी हो गई है।

प्राइवेट स्कूलों में दाखिला बढ़ रहा है

  • साल २००५ में प्राइवेट स्कूलों में जाने वाले बच्चों की तादाद राष्ट्रीय स्तर पर १६.४ फीसदी थी जो साल २००८ में बढ़कर २२.५ फीसदी हो गई। अगर साल २००५ को आधार मानें तो प्राइवेट स्कूलों में नाम लिखवाने की घटना में ३७.२ फीसदी का इजाफा हुआ। कर्नाटक, उत्तरप्रदेश और राजस्थान में यह बात खास रुप से नोट की जा सकती है।
  • साल २००८ में प्राइवेट स्कूलों में पढ़ने वाले लड़कों की तुलना में लड़कियों की तादाद २० फीसदी कम थी। यह बात ७-१० और ११-१४ यानी दोनों ही आयु वर्ग पर लागू होती है।
  • केरल और गोवा में स्कूल जाने वाले बच्चों की कुल संख्या का ५० फीसदी प्राइवेट स्कूलों में शिक्षा हासिल कर रहा है। डिस्ट्रिक्ट इन्फॉरमेशन सिस्टम फॉर एजुकेशन की सूचना के मुताबिक इन राज्यों में ७० फीसदी प्राइवेट स्कूलों को सरकारी अनुदान मिलता है।
  • नगालैंड, पंजाब, हरियाणा, उत्तरप्रदेश और राजस्थान में ३२ से ४२ फीसदी बच्चे प्राइवेट स्कूलों में जाते हैं। डिस्ट्रिक्ट इन्फॉरमेशन सिस्टम फॉर एजुकेशन की सूचना से पता चलता है कि इन राज्यो में अधिकतर प्राइवेट स्कूलों को सरकारी अनुदान नहीं मिलता।
  • मध्यप्रदेश और छ्तीसगढ़ में स्कूली बच्चों में पाठ-वाचन की क्षमता में खास प्रगति हुई है।
  • छ्त्तीसगढ़ में स्कूली बच्चों में पाठ वाचन की क्षमता में तेजी से बढ़ोत्तरी हुई है। साल २००७ में यहां तीसरी कक्षा में पढ़ने वाले महज ३१ फीसदी छात्र पहली कक्षा की पुस्तक पढ़ पाते थे लेकिन २००८ में ऐसे विद्यार्थियों की संख्या ७० फीसदी हो गई।साल २००७ में पांचवीं क्लास के ५८ फीसदी विद्यार्थी दूसरी क्लास की किताबों की भाषा को पढ-समझ पाते थे जबकि साल २००८ में ऐसे विद्यार्थियों की संख्या ७५ फीसदी हो गई।
  • मध्यप्रदेश में साल २००६ और २००७ की तुलना में २००८ में बच्चों के पाठ-बोध की क्षमता में अच्छी बढ़त हुई है। यहां सरकारी स्कूलों की पांचवीं क्लास में पढ़ने वाले ८६ फीसदी बच्चे कक्षा-२  की किताबों की भाषा पढ़-समझ लेते हैं । इस मामले में मध्यप्रदेश असर के मूल्यांकन के लिहाज से बाकी राज्यों से बेहतर है। मिसाल के लिए केरल और हिमाचल प्रदेश में सरकारी स्कूलों की पांचवीं जमात में पढ़ रहे महज ७३-७४ फीसदी बच्चों की भाषाई क्षमता ऐसी थी कि वे कक्षा-२ की पुस्तकों को पढ़-समझ सकें।
  • मध्यप्रदेश, केरल, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ और हिमाचल प्रदेश के स्कूली बच्चों की भाषायी क्षमता बाकी राज्यों के स्कूलों बच्चों की तुलना में बेहतर है। इन राज्यों में पहली कक्षा में पढ़ रहे लगभग ८५ फीसदी बच्चे वर्णों को पहचान लेते हैं और कक्षा-२ की किताबें पढ़-समझ लेने वाले बच्चों (पांचवीं क्लास में पढ़ने वाले) की संख्या भी ७५ फीसदी से ज्यादा है।
  • मध्यप्रदेश ने इस दिशा में तेज गति से प्रगति दो चरणों में की । मध्यप्रदेश को पहली बढ़त साल २००६ में हासिल हुई और दूसरी साल २००८ में।
  • कर्नाटक और उड़ीसा में दूसरी से चौथी जमात तक के छात्रों की पाठ-वाचन की क्षमता में लगातार बेहतरी हुई है। जांच-परीक्षा के परिणामों से पता चलता है कि इन राज्यों में छात्रों कीपाठ-वाचन क्षमता में पांच से छह फीसदी का इजाफा हुआ है।

छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश में छात्रों की गणितीय क्षमता में भी बढ़ोतरी हुई है-

  • असर की जांच परीक्षा से पता चलता है कि मध्यप्रदेश और छ्त्तीसगढ़ में पिछले एक साल में छात्रों की गणित की योग्यता में बेहतरी प्रगति हुई है। दोनों ही राज्यों में पहली कक्षा के ९१ फीसदी से ज्यादा विद्यार्थी एक से नौ तक के अंकों को पहचान पाने में सफल रहे। हालांकि केरल में ऐसे बच्चों की तादाद ९६ फीसदी है लेकिन साक्षरता के मामले में देश में सबसे आगे रहने वाले यह राज्य तीसरी जमात के बच्चों की गणितीय योग्यता के मामले में मध्यप्रदेश और छ्तीसगढ़ से पीछे है।
  • साल २००७ में मध्यप्रदेश में तीसरी जमात के ६१.३ फीसदी बच्चे घटाव के सरल प्रश्न हल कर लेते थे जबकि २००८ में ऐसे बच्चों की तादाद बढ़कर ७२.२ फीसदी हो गई। केरल में ऐसे बच्चों की तादाद ६१.४ थी।
  • साल २००८ में मध्यप्रदेश में पांचवी कक्षा के ७८.२ फीसदी बच्चे किसी संख्या में किसी संख्या से ठीक-ठीक भाग देने में सक्षम थे। यह आंकड़ा पूरे देश के हिसाब से सबसे ज्यादा है। कई अन्य राज्यों में यह आंकड़ा ६० फीसदी का है। मिसाल के लिए हिमाचलप्रदेश, छत्तीसगढ़ , मणिपुर और गोवा का नाम लिया जा सकता है। .
  • छत्तीसगढ़ में भी बच्चों की गणित करने की क्षमता में बेहतर प्रगति हुई है। साल २००८ में यहां कक्षा-२ के ७७ फीसदी बच्चे एक से सौ तक के अंकों को पहचानने में सफल रहे। साल २००७ में कक्षा-२ के छात्रों के लिए यही आंकड़ा ३७ फीसदी का था। ठीक इसी तरह साल २००७ में यहां कक्षा-३ के २१ फीसदी बच्चे घटाव के प्रश्नों को ठीक ठीक हल कर पाते थे जबकि साल २००८ में ६३ फीसदी बच्चे यह गणित करने में सफल रहे।
  • समय का हिसाब
  • देश में कक्षा पांच में पढ़ने वाले ६१ फीसदी बच्चे घड़ी में देखकर ठीक-ठीक समय बता सकते हैं।
  • यूपी, तमिलनाडु, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश और गुजरात में कक्षा-५ के महज ५० फीसदी छात्र घड़ी में देखकर ठीक-ठीक समय बता पाये। बिहार, झारखंड, उड़ीसा, हरियाणा, जम्मू-कश्मीर, पंजाब और उत्तराखंड जैसे राज्यों में यह आंकड़ा  राष्ट्रीय औसत से ज्यादा है।
  • मध्यप्रदेश, केरल, छ्त्तीसगढ़ और महाराष्ट्र में छात्रों में गणित और भाषायी योग्यता बाकी राज्यों के छात्रों की तुलना में ज्यादा थी और इन राज्यों में कक्षा-५ के ७५ फीसदी से ज्यादा बच्चों ने घड़ी में देखकर सही समय बताया।

असर के सर्वेक्षण की कुछ और महत्वपूर्ण बातें-

 

 

  • ९२ फीसदी ग्रामीण बस्तयों के एक किलोमीटर के दायरे में प्राइमरी स्कूल मौजूद है। ६७ फीसदी गांवों में सरकारी मिडिल स्कूल है और ३३.८ फीसदी गांवों में सरकारी हाईस्कूल मौजूद हैं। देश के ४५ फीसदी गांवों में प्राइवेट स्कूल भी हैं। .
  • देश के ५८ फीसदी गांवों में एसटीडी बूथ हैंजबकि ४८ फीसदी ग्रामीण परिवारों के पास कोई सेलफोन या लैंडलाइन कनेक्शन है। 
  • सर्वेक्षण में जिन घरों का मुआयना किया गया उसमें ६५ फीसदी घरों में बिजली का कनेक्शन लगा था।
  • देश के ७१ फीसदी गांवों का पक्की सड़क केसहारे बाहरी इलाके से संपर्क है। इस मामले में पीछे रहने वाले राज्यों के नाम हैं-असम (यहां महज ३२ फीसदी गांव पक्की सड़क से जुड़े हैं), पश्चिम बंगाल (५३ फीसदी) और मध्यप्रदेश (५८ फीसदी) ।

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एनएसएस यानी राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के ५५ दौर के आकलन पर आधारित [inside]लिटरेसी एंड लेवल ऑफ एजुकेशन इन इंडिया जुलाई १९९९-जून २०००[/inside] के अनुसार-

 

 

 

 

  • भारत के शहरी इलाके में १००० में ७९८ व्यक्ति साक्षर है यानी शहरी इलाके में हर पांचवां व्यक्ति निरक्षर है। शहरी इलाके के साक्षरों में ३२५ व्यक्तियों(७९८ में) ने माध्यमिक या उससे आगे की शिक्षा पायी है। ग्रामीण भारत की तुलना में यह आंकड़ा बहुत ज्यादा है। शहरी इलाके में १००० में ८६५ पुरुष साक्षर थे जबकि महिलाओं के मामले में यह आंकड़ा ७२ फीसदी का है।
  • देश के ग्रामीण इलाके में अनुसूचित जनजाति के परिवारों में साक्षरता दर सबसे कम (४२ फीसदी) है। इसके बाद अनुसूचित जाति के परिवारों(४२ फीसदी) का नंबर है। देश के शहरी इलाके में सबसे कम साक्षरता दर अनुसूचित जाति के परिवारों (६६ फीसदी) की है। शहरी इलाके में अनुसूचित जनजाति के परिवारों की साक्षरता दर ७० फीसदी है। शहरी और ग्रामीण दोनों ही इलाकों में अन्य सामाजिक वर्गों के बीच साक्षरता दर अपेक्षाकृत ज्यादा है।   
  • हर शिक्षा-स्तर में महिलाओं का अनुपात पुरुषों की अपेक्षा कम है। अगर ग्रामीण और शहरी परिवारों को प्रति व्यक्ति मासिक खर्चे के आधार पर सोपानिक क्रम में सजाये तो हर ऊपरले पादान पर साक्षर व्यक्तियों की संख्या बढती जाती है। स्त्री-पुरुषों के अनुपात के मामले में भी यही बात है। 
  • भारत के ग्रामीण इलाके में गैर खेतिहर स्वरोजगार में लगे परिवारों में प्रति हजार व्यक्ति में ६३० व्यक्ति साक्षर थे जबकि खेतिहर मजदूर वर्ग में यह आंकड़ा प्रतिहजार ४२६ व्यक्तियों का है।   
  • जमीन की मिल्कियत के लिहाज से देखें तो ग्रामीण भारत में साक्षरता की दर जमीन की बढ़ती हुई मिल्कियत के साथ बड़ी धीमी गति से बढ़ती हुई पायी गई। जिन परिवारों के पास सबसे कम जमीन की मिल्कियत थी उनमें साक्षरता दर ५२ फीसदी की है जबकि सर्वाधिक जमीन की मिल्कियत वाले वर्ग में ६४ फीसदी की।
  • जमीन की मिल्कियत को आधार मानकर देखें तो हर भूस्वामी वर्ग में महिलाओं में साक्षरता की दर पुरुषों की तुलना में कम है।
  • भारत के ग्रामीण इलाके में इस्लाम धर्म के अनुयायियों में साक्षरता दर (स्त्री और पुरुष दोनों के लिए) अन्य धर्मावलंबियों की तुलना में कम है। ग्रामीण इलाके में हिन्दू धर्म या फिर किसी अन्य धर्म को मानने वाले परिवारों में महिलाओं की साक्षरता की स्थिति इससे कुछ ही बेहतर है ज्यादा नहीं। भारत के शहरी इलाके में हिन्दू, सिख या फिर बौद्ध धर्म मानने वाले पुरुषों के बीच साक्षरता दर ८८-८९ फीसदी है। ईसाई या जैन धर्म मानने वाले पुरुषों के बीच साक्षरता दर  ऊंची(९४ फीसदी और इससे अधिक) है। शहरी इलाके में भी इस्लाम धर्म के अनुयायी पुरुष या स्त्रियों में साक्षरता दर तुलनात्मक रुप से कम है। 
  • भारत के ग्रामीण इलाके में बाकी धर्मों की तुलना में हिन्दू या इस्लाम धर्म मानने वालों में स्त्री औरपुरुष के बीच साक्षरता दर में ज्यादा का अंतर है। शहरी भारत के लिए भी यही बात लागू होती है लेकिन शहरों में हिन्दू या इस्लाम धर्म मानने वालों में स्त्री-पुरुष के बीच साक्षरता के दर में अन्तर ग्रामीण भारत की तुलना में कम है। 
  • साल १९९३-९४ से १९९९-२००० के बीच देश के कुल १५ बड़े राज्यों में से मध्यप्रदेश और राजस्थान में पुरुषों और स्त्रियों की साक्षरता दर में सबसे ज्यादा बढ़ोतरी हुई है। इन राज्यों में पुरुषों के मामले में साक्षरता दर में ९ फीसदी की और महिलाओं के मामले में १० फीसदी के बढोतरी हुई। बड़े राज्यों के दायरे में महाराष्ट्र भी शामिल है और इस राज्य में पुरुषों की साक्षरता में तो नहीं लेकिन महिलाओं की साक्षरता दर में १० फीसदी का इजाफा हुआ। जहां तक भारत के शहरी इलाके का सवाल है साल १९९३-९४ से साल १९९९-२००० के बीच कर्नाटक, राजस्थान, आंध्रप्रदेश और तमिलनाडु के शहरी इलाके साक्षरता-वृद्धि के राष्ट्रीय औसत की तुलना में कहीं आगे रहे।
  • ग्रामीण इलाकों के हिसाब से देखें तो बड़े राज्यों में केरल में साक्षरता दर सबसे ज्यादा रही। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के ५० और ५५ वें दोनों ही दौर की गणना में केरल में साक्षरता दर ९० फीसदी की पायी गई। इस गणना में दूसरे स्थान पर असम(६९ फीसदी) रहा। बिहार में सबसे कम साक्षरता-दर(४२ फीसदी) थी। इसके बाद नंबर आंध्रप्रदेश(४६ फीसदी) और राजस्थान का है।
  • भारत के शहरी इलाके में जीविका के लिए दिहाड़ी मजदूरी पर निर्भर परिवारों में साक्षरता दर बहुत कम है। इस वर्ग के प्रति हजार व्यक्तियों में ५९३ यानी लगभग ५९ फीसदी साक्षर पाये गए जबकि इस वर्ग के लिए राष्ट्रीय औसत ८० फीसदी का है। वेतनभोगी या नियमित आमदनी वाले शहरी परिवारों में इसकी तुलना में साक्षरता दर ज्यादा है।
  • कुल ३२ राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में महज ८ में ग्रामीण इलाकों में साक्षरता दर ८० फीसदी या उससे ज्यादा है। इन राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों के नाम हैं- गोवा,  केरल,  मिजोरम,  नगालैंड,  अंडमान निकोबार द्वीपसमूह,  दमन और दिऊ, दिल्ली और लक्षद्वीप। .
  • साल १९९३-९४ से साल १९९९-२००० के बीच राष्ट्रीय स्तर पर साक्षरता दर (प्रतिशत पैमाने पर) बढ़ी है। ग्रामीण इलाके के पुरुषों के मामले में साक्षरता दर ६३ फीसदी से बढ़कर ६८ फीसदी और शहरी इलाके के पुरुषों के मामले में साक्षरता दर ८५ फीसदी से बढ़कर ८७ फीसदी हो गई। महिलाओं के मामले में यह आंकड़ा ग्रामीण इलाके के लिए ३६ फीसदी बनाम ४३ फीसदी और शहरी इलाके के लिए ६८ फीसदी बनाम ७२ फीसदी का है।व्यक्ति के आधार पर देखें तो ग्रामीण इलाके में १९९३-९४ में ५० फीसदी साक्षरता दर थी जो साल १९९९-२००० में बढ़कर ५६ फीसदी हो गई। शहरी इलाके के लिए यह आंकड़ा ७७ फीसदी बनाम ८० फीसदी का है।
  • राष्ट्रीय स्तर पर भारत की जनगणना के आंकड़ोऔर राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के आंकड़ों के बीच अन्तर( साक्षरता दर के आंकड़ों के मामले में)३ फीसदी का है। ग्रामीण इलाके के पुरुषों की साक्षरता दर राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण में ७३ फीसदी बतायी गई है जबकि जनगणना के आंकडों में ७६ फीसदी। ठीकइसी तरह महिलाओं के मामले में यह आंकड़ा क्रमशः ५१ फीसदी और ५४ फीसदी का है।

 

 

प्राथमिक शिक्षा में प्रगति का ग्राफ (साल १९९९ से)


Source: RGI; SES, MHRD

 

 

शैक्षिक संस्थानों की बढ़ोतरी का ग्राफ (साल १९९९ से)

 

 

नीचे दिए गए आरेख से पता चलता है कि साल १९९९-२००० से २००४-०५ के बीच स्कूलों में नामांकन की तादाद(लड़कों और लड़कियों दोनों के लिए) बढ़ी है लेकिन लड़कों के नामांकन की तादाद लड़कियों के नामांकन से ज्यादा है। 
 Source: SES, MHRD *Provisional
कन्फेडरेशन ऑव इंडियन इंडस्ट्री नई दिल्ली द्वारा प्रस्तुत- राइट टू एजुकेशन-एक्शन नाऊ नामक दस्तावेज के अनुसार-
  • सातवें एजुकेशन सर्वे (२००२) में कहा गया है कि १०.७१ लाख यानी ८७ फीसदी बस्तियों के एक किलोमीटर के दायरे में प्राथमिक विद्यालय मौजूद है जबकि १.६ लाख बस्तियों के एक किलोमीटर के दायरे में कोई प्राथमिक विद्यालय नहीं है। .
  • देश के सिर्फ ७८ फीसदी बस्तियों के ३ किलोमीटर के दायरे में अपर प्राइमरी स्कूल की मौजूदगी है और ग्रामीण आबादी के ८६ फीसदी हिस्से की जरुरतें इनसे पूरी हो पाती हैं। साल २००२-०३ के बाद से अबतक ८८९३० नये अपर प्राइमरी स्कूल खोले गए हैं लेकिन इनकी संख्या अब भी जरुरत के लिहाज से कम है।
  • मध्यप्रदेश में सिर्फ एक तिहाई शिक्षक स्कूल में उपस्थित होते हैं जबकि बिहार में यह आंकड़ा २५ फीसदी का और यूपी में २० फीसदी का है।
  • राष्ट्रीय स्तर पर देखें तो साल २००४-०५ में २.८ प्राथमिक विद्यालयों पर अपर प्राइमरी स्कूलों की संख्या एक थी। साल २००५-०६ में देश में २.५ प्राइमरी स्कूलों पर अपर प्राइमरी स्कूलों की संख्या १ थी। हर दो प्राथमिक विद्यालय पर कम से कम एक अपर प्राइमरी स्कूल हो(जैसी कि सर्व शिक्षा अभियान की मान्यता है) इसके लिए १ लाख ४० हजार अपर प्राइमरी स्कूल खोलने होंगे।
  • सर्व शिक्षा अभियान के अन्तर्गत ७.९५ लाख शिक्षकों की बहाली हुई है ताकि प्राथमिक शिक्षा के स्तर पर ४४ छात्रों पर १ शिक्षक होने के बजाय ४० छात्रों पर १ शिक्षक का छात्र-शिक्षक अनुपात कायम किया जा सके। शिक्षकों को कार्यकालीन प्रशिक्षण भी दिया गया है। इसके अतिरिक्त बच्चों को ६.९ लाख रुपये मूल्य की पाठ्यपुस्तकें मुफ्त बांटी गई हैं। 
  • साल २००२-०३ में ड्राप-आऊट दर १५ फीसदी थी जो साल २००३-०४ में घटकर १३ फीसदी और २००४-०५ में घटकर १२ फीसदी हो गई। ड्राप-आऊट रेट में आ रही कमी उत्साहवर्धक है लेकिन इस दिशा में पूरी गंभीरता से और गहन कोशिश करनी होगी।
  • साल १९९९-२००० से शिक्षकों की संख्या में बढ़ोतरी हुई है। साल १९९९-२००० में प्राइमरी स्तर पर १९.२ लाख शिक्षक थे। साल २००३-०४ में इनकी संख्या बढ़कर २०.९ लाख हो गई। इसी अवधि में अपर प्राइमरी स्कूलों में शिक्षकों की संख्या १२.९८ लाख से बढ़कर १६.०२ लाख हो गई।
  • सरकार ने प्राथमिक शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए सर्व शिक्षा अभियान, जिला प्राथमिक शिक्षा कार्यक्रम, प्राथमिक विद्यालयों में पोषाहार सहायता देने का राष्ट्रीय कार्यक्रम ( नेशलन प्रोग्राम ऑव न्यूट्रीशनल सपोर्ट टू प्राइमरी एजुकेशन), मिड डे मील और कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालय योजना जैसीसंस्थाओं शुरु की हैं।

यूनेस्कों इंस्टीट्यूट ऑव स्टैटिक्स के अनुसार-

 

४० फीसदी बच्चे प्री-प्राइमरी स्कूलों में नामांकित है
८७ फीसदी लड़कियां और ९० फीसदी लड़के प्राइमरी स्कूलों में हैं।
तृतीयक आयु वर्ग की १२ फीसदी आबादी शिक्षा के तृतीयक स्तर पर है।
८६ फीसदी बच्चों ने प्राइमरी की सम्पूर्ण पढ़ाई पूरी की है  
सरकार के खर्चे का १०.७ फीसदी शिक्षा के मद में जाता है
६५.२ फीसदी व्यस्क और ८१.३ फीसदी युवा साक्षर हैं।
 भारत में शिक्षा-एक नजर

 

  • युवा (१५–२४ साल) साक्षरता दर २०००-२००७*,  पुरुष ८७
  • युवा (१५–२४ साल) साक्षरता दर, २०००-२००७*, महिला ७७
  • प्रति सौ व्यक्तियों पर फोन, (साल २००६) -१५
  • प्रति सौ व्यक्तियों पर इंटरनेट-यूजर की संख्या, साल(२००६)-११
  • प्राइमरी स्कूल में नामांकन का अनुपात (साल २०००-२००७)-सकल, पुरुष ९०
  • प्राइमरी स्कूल में नामांकन का अनुपात (साल २०००-२००७)-सकल, स्त्री ८७
  • प्राथमिक विद्यालय में उपस्थिति का अनुपात (२०००-२००७)-निवल, पुरुष, ८५
  • प्राथमिक विद्यालय में उपस्थिति का अनुपात (२०००-२००७)-निवल, स्त्री ८१
  • माध्यमिक विद्यालय में नामांकन- अनुपात, २०००-२००७, पुरूष ५९
  • माध्यमिक विद्यालय में नामांकन- अनुपात, २०००-२००७, स्त्री ४९
  • माध्यमिक विद्यालय में उपस्थिति का अनुपात (२०००-२००७)-निवल, पुरुष ५९
  • माध्यमिक विद्यालय में उपस्थिति का अनुपात (२०००-२००७)-निवल, स्त्री ४९
  • नोट: नामांकन अनुपात का अर्थ होता है कि किसी विशिष्ट शिक्षा स्तर पर दाखिला लेने वाले विद्यार्थियों की संख्या कितनी है। इसमें दाखिला लेने वाले विद्यार्थी की उम्र का आकलन नहीं किया जाता।

Source: UNICEF, http://www.unicef.org/infobycountry/india_statistics.html
 

 

 

 

 

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