खास बात
• किसी प्रांत से उसी प्रांत में और किसी एक प्रांत से दूसरे प्रांत में पलायन करने वालों की संख्या पिछले एक दशक में ९ करोड़ ८० लाख तक जा पहुंची है। इसमें ६ करोड़ १० लाख लोगों ने ग्रामीण से ग्रामीण इलाकों में और ३ करोड़ ६० लाख लोगों ने गावों से शहरों की ओर पलायन किया। #
• पिछले एक दशक को आधार मानकर अगर इस बात की गणना करें कि किसी वासस्थान को छोड़कर कितने लोग दूसरी जगह रहने गए और कितने लोग उस वासस्थान में रहने के लिए आये तो महाराष्ट्र इस लिहाज से सबसे आगे दिखेगा। महाराष्ट्र में आने वालों की तादाद महाराष्ट्र से जाने वालों की तादाद से २० लाख ३० हजार ज्यादा है। इसके बाद आता है दिल्ली (१० लाख ७० हजार), गुजरात(०.६८ लाख) और हरियाणा(०.६७ लाख) का नंबर।#
• उत्तरप्रदेश से जाने वालों की तादाद वहां आने वालों की तादाद से २० लाख ६० हजार ज्यादा है और बिहार से जाने वाली की तादाद बिहार आने वालों की तादाद से १० लाख ७० हजार ज्यादा है।#
• भारत में साल १९९१ से २००१ के बीच ७ करोड़ ३० लाख ग्रामीणों ने पलायन किया। इसमें ५ करोड़ ३० लाख एख गांव छोड़कर दूसरे गांव में रहने के लिए गए और लगभग २ करोड़ लोग शहरी इलाकों में गए। शहरों की तरफ जाने वालों में ज्यादातर काम की तलाश करने वाले थे।*
• अगर पिछले निवास–स्थान को आधार माने तो साल १९९१ से २००१ के बीच ३० करोड़ ९० हजार
लोगों ने अपना निवास स्थान छोड़ा जो देश की जनसंख्या का ३० फीसदी है।*
• तीन दशकों(१९७१–२००१) के बीच शहरों से शहरों की तरफ पलायन में १३.६ फीसदी से बढञकर १४.७ फीसदी हो गया है। *
• साल १९९१ से २००१ के बीच एक गांव से दूसरे गांव में पलायन करने वालों की संख्या कुल पलायन का ५४.७ फीसदी है।*
• भारत में आप्रवासी मजदूरों की कुल संख्या साल १९९९–२००० में १० करोड़ २७ हजार थी। मौसमी पलायन करने वालों की संख्या २ करोड़ से ज्यादा हो सकती है। **
# भारत सरकार की जनगणना, http://censusindia.gov.in/Census_And_You/migrations.aspx
* मैनेजिंग द एक्जोडस–ग्राऊंडिंग माइग्रेशन इन इंडिया–अमेरिकन इंडिया फाऊंडेशन द्वारा प्रस्तुत
** ११ वीं पंचवर्षीय योजनाstyle="font-size:medium">, भारत सरकार
एक नजर
जब ठट्ट के ठट्ट लोग पलायन कर रहे हों तो उसकी गिनती का हिसाब रख बड़ा मुश्किल हो जाता है। हालत ये है कि भारत सरकार के जणगणना से संबंधित आंकड़े भी पलायन की ठीक–ठीक तस्वीर बयान नहीं कर पाते। कोई सरकारी एजेंसी इधर खेतिहर संकट या फिर मौसमी पलायन को पहचानने और दर्ज करने के लिए कागज–कलम संभाल रही होती है उधर लोग रोपाई–बुआई का समय जानकर या तो दोबारा अपनी जगह पर लौट आ चुके होते हैं या फिर कहीं और जाने की तैयारी में होते हैं। गन्ने की खेती या फिर ईंट भठ्टा उद्योग में रोजगार के लिए मजदूरों का सामूहिक पलायन अब एक सुनिश्चित बात है। अगर जीविका की संकट के दशा में कोई पलायन करता है या फिर मान लें कि मौसमी पलायन ही कर रहा है तो इसका असर पलायन करने वाले परिवार के बच्चों की पढ़ाई पर पड़ता है, परिवार के बालिग सदस्य चुनाव के वक्त वोट डालने के अधिकार का प्रयोग नहीं कर पाते और जन्मस्थान पर हों या फिर उस जगह पर जहां रोजगार के लिए जाना पडा हो, गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले परिवारों को जो सुविधाएं मिली हैं वह भी हासिल करने से ऐसे परिवार वंचित रहते हैं।
पलायन मौसमी तर्ज पर हो या फिर जीविका की संकट की स्थिति में सबसे गहरी चोट दलितों और आदिवासीयों पर पड़ती है जो गरीबों के बीच सबसे गरीब की श्रेणी में आते हैं और जिनके पास भौतिक या मानवीय संसाधन नाममात्र को होते हैं। यह बात खास तौर से आंध्रप्रदेश, राजस्थान, गुजरात, मध्यप्रदेश, कर्नाटक, और महाराष्ट्र के सर्वाधिक पिछड़े और सिंचाई के लिए मुख्यतः वर्षा पर आधारित जिलों पर लागू होती है। पलायन के सूरते हाल में महिला का खेतिहर मजदूर के रुप में और पुरुषों का असंगठित क्षेत्र में रोजदारी का कोई काम खोजना एक आम बात है।
अगर पलायन जीविका के परंपरागत स्रोत पर संकट आने के कारण हो रहा है तो इससे असंगठित क्षेत्र में उद्योगों के पनपने को बढ़ावा मिलता है और शहरों में बड़ी बेतरतीबी से झुग्गीबस्तियों का विस्तार होता है। छोटी और असंगठित क्षेत्र में पनपी फैक्ट्रियों के मालिक पलायन करके आये मजदूरों से खास लगाव रखते हैं क्योंकि एक तो ऐसे मजदूर कम मेहनताने पर काम करने को तैयार रहते हैं दूसरे छोटी–मोटी बातों को आधार बनाकर इनके काम से गैर हाजिर रहने की भी संभावना कम होती है। ऐसे मजदूर ठेकेदार के कहने में होते हैं और स्थानीय मजदूरों की तुलना में मोलभाव करने की इनकी ताकत भी कम होती है। मजदूरों की यह कमजोरी और कम मेहनताना भले ही कुछ समय के लिए उद्योगों के फायदे में होलेकिनआगे चलकर देश की बढ़ोतरी की कथा में ऐसे मजदूरों की भागीदारी नहीं हो पाती क्योंकि उनके पास खरीदने की तकात कम होती है और इसलिए उपभोग की ताकत भी जबकि बाजार बढ़ते हुए उपभोग से ही बढता है। इसी कारण अकसर यह तर्क दिया जाता है कि गांवों से शहरों की तरफ पलायन तभी समृद्धि की राह खोल सकता है जब मजदूरों के लिए ज्यादा मेहनताना पाने का आकर्षण हो और दूसरी तरफ गांवों से खदेड़ने वाली गरीबी हो।
साल 1991 से 2001 के बीच 7 करोड़ 30 लाख ग्रामीण अपने मूल वास स्थान से कहीं और जाने के लिए विवश हुए। इसमें से अधिकतर(5 करोड़ 30 लाख) किसी अन्य गांव में गए जबकि एक तिहाई से भी कम यानी 2 करोड़ शहरों में पहुंचे। शहरों में पहुंचने वाले ज्यादातर रोजगार की तलाश में आये।मौसमी तौर पर पलायन करने वालों की संख्या लगभग 2 करोड़ है लेकिन कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि वास्तविक संख्या आधिकारिक आंकड़े से 10 गुना ज्यादा हो सकती है।
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वर्ल्ड बैंक समूह ने की [inside] वर्ल्ड डेवलपमेंट रिपोर्ट–2023 जारी, पढ़ें रिपोर्ट की मुख्य बातें[/inside]
क्या है यह रिपोर्ट
इस रिपोर्ट में प्रवासियों, शरणार्थियों और समाजों से जुड़े विभिन्न विषयों को संबोधित किया है।
कृपया रिपोर्ट के लिए यहाँ क्लिक कीजिए
मौजूदा समय में, विश्व की कुल आबादी में 2.3 प्रतिशत हिस्सा शरणार्थियों व प्रवासियों से मिलकर बना है। यानी करीब 184 मिलियन लोग अपना देश छोड़ कर किसी दूसरे देश में बसेरा कर रहे हैं।
रिपोर्ट का कहना है कि आर्थिक असंतुलन, जनसांख्यिकी विविधता और जलवायु परिवर्तन जैसे कारकों के कारण प्रवासन में और तेजी आएगी। अब ज़रूरी यह है कि विश्व समुदाय एक बेहतर नीति का निर्माण करे ताकि सतत् विकास लक्ष्यों को हासिल किया जा सके।
रिपोर्ट की मुख्य बातें
- दुनिया में 184 मिलियन लोग प्रवासी और शरणार्थी बनकर जी रहे हैं; आँकड़ों की भाषा में देखें तो 20 प्रतिशत लोग शरणार्थी है (37 मिलियन) और 80 प्रतिशत लोग आर्थिक कारणों से प्रवासी बने हैं।
- इनमें से 43 प्रतिशत लोग निम्न और मध्य आय वाले देशों में रहते हैं।
- 17 प्रतिशत लोग खाड़ी सहयोग परिषद से जुड़े देशों में रहते हैं।
- आर्थिक कारकों से प्रेरित सबसे ज्यादा प्रवासी उच्च आय वाले देशों में रहते हैं।
क्या प्रवासन पर रोक लगा देना चाहिए?
रिपोर्ट का जवाब है— नहीं.
अलग–अलग देशों के जनसांख्यिकी ढाँचे में समरूपता नहीं है, कहीं पर औसत उम्र बहुत कम है तो कहीं पर अधिक। यानी किसी देश में नौजवानों का अनुपात अधिक है तो किसी में वृद्ध लोगों का(उदाहरण के तौर पर देखें तो इटली में वृद्ध लोगों का अनुपात बढ़ रहा है।)।
ऐसे में अधिक औसत उम्र वाले देशों में आर्थिक प्रगति को सुचारू रूप से बनाए रखने के लिए प्रवासी कामगारों की जरूरत रहती है; जैसे भारतीयों का सिलिकॉन वैली में जाना ।
नाइजीरिया जैसे निम्न आय वालेदेशों की जनसंख्या का बड़ा हिस्सा युवा आबादी से निर्मित है। इन देशों में रोजगार के अवसर सीमित रहते हैं, रोजगार के लिए पलायन बेहतर विकल्प।
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केंद्र सरकार के "सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय" के अधीन आने वाले राष्ट्रीय सांख्यिकीय कार्यालय(NSO) ने भारत में प्रवसन 2020-2021 नाम से एक रिपोर्ट जारी की है. यह रिपोर्ट आवधिक श्रमबल सर्वेक्षण (PLFS) के आंकड़ों पर आधारित है.
राष्ट्रीय सांख्यिकीय कार्यालय वर्ष 2017 से हर साल यह सर्वे करता आ रहा है. सर्वे के आंकड़ो से रोजगार और बेरोजगारी की हकीकत का पता लगाया जा सकता है. जिनका प्रयोग नीति निर्माता, नीति निर्माण के दौरान करते हैं.
सर्वे जुलाई 2020 से जून 2021के बीच किया गया था. सर्वे के दौरान प्रवसन और घरों में अस्थायी रूप से आने वाले लोगों के बारे में जानकारी एकत्रित की गई थी.
[inside]पुरुषों की तुलना में महिलाओं में प्रवसन दर अधिक, वहीं गांवों की तुलना में शहरों में प्रवसन अधिक. रिपोर्ट.14 जून,2022[/inside]
- महिलाओं में प्रवसन की दर-ग्रामीण महिला 48% , शहरी महिला 47.8% है. जो की पुरुषों की तुलना में अधिक है. ग्रामीण पुरुष 5.9%, शहरी पुरुष 22.5% है. शहरी क्षेत्रों में प्रवसन की दर 34.9% है जो गांवों की (26.5%) की तुलना में अधिक है.
प्रवासी
प्रवासी वे हैं जिनका अंतिम सामान्य निवास स्थान वर्तमान गणना स्थल से भिन्न है. सामान्य निवास स्थान वह स्थान (गांव या नगर) है जहां व्यक्ति 6 महीने या उससे अधिक की अवधि के लिए लगातार रहा था. या 6 महीनों से अधिक समय तक रहने का इरादा रखता है.
घरों में अस्थायी रूप से आने वाले लोग
इस सर्वेक्षण के लिए घरों में आने वाले अस्थाई लोग वे व्यक्ति हैं जो मार्च 2020 के बाद आए और लगातार 15 दिन या उससे अधिक लेकिन 6 महीनों से कम की अवधि के लिए परिवार में रहे.
- इस सर्वे में ग्रामीण क्षेत्रों से कुल 59,019 मजदूरों को शामिल किया गया. साथ ही शहरी क्षेत्रों से 54,979 मजदूरों को शामिल किया गया है. {ग्रामीण क्षेत्र में पुरुष- 7,238. महिलाएं-51,781| शहरी क्षेत्र में पुरुष-17,654. महिलाएं-37,325.}
- अगर प्रवसन दर को देखें तो भारत की जनसंख्या में प्रवासी लोगों का प्रतिशत 28.9% के पास पहुँचता है.
- ग्रामीण क्षेत्र में प्रवसन करने वाली 88.8% महिलाओं का अंतिम स्थल गंवई क्षेत्र में ही था. 11% का शहरी क्षेत्र में, 0.2% का विदेश में.
- गांवों में आए 44.6% प्रवासी पुरुष मजदुरों का अंतिम स्थान ग्रामीण क्षेत्र में ही था. 51.6% शहरी क्षेत्र से. 3.9% विलायत से.
- शहरों में रहने वाले लगभग 54.8% आतंरिक प्रवासी मजदूर ग्रामीण क्षेत्र से आए थे. बाकी बचे 45.2% मजदूर शहरी क्षेत्र से ही आए थे.
प्रवसन के कारणों को भी रिपोर्ट में उल्लेखित किया गया है-
पुरुषों में-
- रोजगार की खोज में/ बेहतर रोजगार की खोज में= 22.8%
- रोजगार/ धंधा शुरू करने के लिए= 20.1%
- अभिभावकों का के कारण/ कमाने वाले सदस्य के कारण= 17.5%
- रोजगार छुट जाने के कारण= 6.7%
महिलाओं में-
- शादी=86.8%
- अभिभावकों का के कारण/ कमाने वाले सदस्य के कारण=7.3%
- घरेलु कारण- 0.8%
- रोजगार/ धंधा शुरू करने के लिए= 0.7%
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[inside]विश्वभर में वर्ष 2021 के दौरान आठ करोड़ 90 लाख लोगों को डर,हिंसा और विवाद के कारण घर छोड़ना पड़ा. संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी उच्चायुक्त कार्यालय (यूएनएचसीआर)ने एक रिपोर्ट जारीकी है.[/inside] पूरी रिपोर्ट यहाँ से पढ़िए.
युक्रेन-रूस युद्ध के कारण शरणार्थियों की संख्या बढ़कर 100 मिलियन का आंकड़ा पार कर चुकी है. यानी दुनिया में हर 78 लोगों में से एक इंसान विस्थापित है.
इस रिपोर्ट का मुख्य लक्ष्य वर्ष 2021 के दौरान बलपूर्वक प्रवसन को मजबूर हुए लोगों का ट्रेंड दिखाना है.
रिपोर्ट की मुख्य बातें-
वर्ष 2021 के अंत तक विस्थापित लोगों की संख्या 89.3 मिलियन को पहुँच गई है. हालांकि कुल चिंताजनित लोगों की संख्या 94.7 मिलियन थी.
चिंताजनित लोगों में शामिल हैं- जबरदस्ती विस्थापित, उसी वर्ष वापस घर लौट आए है , राज्यविहीन और अन्य ऐसे लोग जिन्हें आयोग सुरक्षा प्रदान करता है.
संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी उच्चायुक्त कार्यालय का कार्य ऐसे लोगों की रक्षा करना जिनका जीवन अपने निवास के कारण संकटग्रस्त है. साथ ही प्रवसित हो चुके लोगों की सार संभाल भी समय-समय पर लेते रहना है.
किसी राष्ट्र के अंदर सैन्य कारणों, मानव अधिकारों के उल्लंघन सहित बहुसंख्यकों के दबाव के कारण विस्थापन होता है तो उसे आंतरिक विस्थापन कहते है.विश्व में विस्थापित कुल लोगों में इनकी हिस्सेदारी 60% है.आतंरिक विस्थापन निगरानी केंद्र (IMDC) अनुसार आपदा के कारण होने वाले विस्थापन (जिन्हें आंतरिक विस्थापन की श्रेणी में जोड़ा जाता है.) का आंकड़ा 23.7 मिलियन को पहुँच गया है.
इसी केंद्र के अनुसार आपदा के कारण होने वाला विस्थापन वर्ष 2021 में पिछले वर्ष की तुलना में 23% विस्थापन कम हुआ है. संख्या के हिसाब से देखें तो यह आंकड़ा सात मिलियन के पास जाता है.
आपदा के कारण होने वाला विस्थापन अलग-अलग देशों में-
- चीन 6.0 मिलियन
- फिलीपींस 5.7 मिलियन
- इंडिया 4.9 मिलियन
इस वर्ष में आपदा के कारण हुआ विस्थापन अल्पकालिक ही था परन्तु कुछ लोग अपने आशियाने का दीदार फिर से नहीं कर पाए. ऐसे लोगों की संख्या 5.9 मिलियन थी.
वर्ष 2020 में शरणार्थियों की संख्या 20.7 मिलियन थी जो बढ़कर 2021 में 21.3 मिलियन हो गई. एक दशक के पैमान से देखें तो शरणार्थियों में हुए बढ़ोतरी दुगनी है, लगभग 10.5 मिलियन
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एडेलगिव फाउंडेशन और ग्लोबल डेवलपमेंट इन्क्यूबेटर के सहयोग से माइग्रेंट्स रेजिलिएंस कोलैबोरेटिव (जन साहस की एक पहल) द्वारा तैयार की गई [inside] वॉयस ऑफ द इनविजिबल सिटिजन्स II: वन ईयर ऑफ कोविड-19 – क्या हम भारत में आंतरिक पलायन पैटर्न में बदलाव देख रहे हैं? (25 जून, 2021 को जारी), [/inside] नामक रिपोर्ट के प्रमुख निष्कर्ष इस प्रकार है (एक्सेस करने के लिए कृपया यहां क्लिक करें):
क्रियाविधि
• इस अध्ययन के लिए, विभिन्न राज्यों और केंद्र सरकार द्वारा पिछले एक वर्ष में प्रवासी परिवारों के आंतरिक प्रवास/कल्याण पर नीति और कार्यक्रम संबंधी प्रतिक्रियाओं का एक रैपिड डेस्क अनुसंधान किया गया.
• प्राथमिक आंकड़ों के लिए, अध्ययन ने दो स्रोतों का सहारा लिया – (ए) कंप्यूटर-सहायता प्राप्त व्यक्तिगत साक्षात्कार (सीएपीआई) अप्रैल 2021के पहले सप्ताह के दौरान 6 राज्यों में आयोजित किए गए थे, जहां प्रवासी रेजिलिएंस कोलैबोरेटिव 2,342 श्रमिकों तक पहुंचे (लक्षित नमूना 175 – 250 उत्तरदाता प्रति जिला), उन्हें उन परिवर्तनों के बारे में सूचित करने के लिए जो प्रवासियों ने अपने समुदायों में प्रवास और श्रम के विभिन्न पहलुओं के बारे में देखा है. सर्वेक्षण 3 गंतव्य राज्यों (दिल्ली / एनसीआर, मुंबई, हैदराबाद) और 7 स्रोत जिलों (बांदा, हजारीबाग, महबूबनगर, टीकमगढ़) में आयोजित किए गए थे, जो उच्च पलायन दर और संगठन की जमीनी उपस्थिति के आधार पर चुने गए थे; (बी) बुंदेलखंड क्षेत्र से प्रवासी श्रमिकों पर आंतरिक डेटा (उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के भीतर आने वाले 10 जिले). बेहतर तुलनात्मक अध्ययन करने के लिए, माइग्रेंट्स रेजिलिएंस कोलैबोरेटिव ने दो अलग-अलग 6-महीने की अवधि के दौरान एकत्र किए गए डेटा का उपयोग किया है – (1) सितंबर 2019 से मार्च 2020, और (2) सितंबर 2020 से मार्च 2021.
• सर्वेक्षण के लिए उत्तरदाताओं की पहचान करने के लिए सुविधा नमूनाकरण पद्धति का उपयोग किया गया था, इस शर्त के साथ कि 35 प्रतिशत उत्तरदाता महिलाएं होनी चाहिए.
पलायन के पैटर्न
• पलायन में व्यापक स्तर के बदलाव के संबंध में तीन प्रमुख बिंदु हैं: आंतरिक पलायन में समग्र कमी की रिपोर्टिंग (महिला श्रमिकों के पलायन में उल्लेखनीय कमी और मजदूरों के साथ परिवार के पलायन में कमी के साथ), पलायन चक्र की छोटी अवधि में वृद्धि की रिपोर्टिंग, और अंतर-राज्य पलायन को ज्यादा प्राथमिकता देने के अलावा अंतर-जिला पलायन (महिलाओं का पलायन अंतर-जिला अधिक होना). पैटर्न में ये बदलाव प्रकृति में अल्पकालिक हो सकते हैं, हालांकि अगर स्रोत पर नौकरी के अवसरों की कमी पर डेटा बिंदु के साथ बारीकी से पढ़ा जाए, तो प्रवासी परिवारों पर संभावित लंबे समय तक चलने वाले प्रतिकूल प्रभावों के साथ एक निराशाजनक स्थिति का पता चलता है.
पलायन का क्या हुआ?
• लॉकडाउन के एक साल बाद भी प्रवासी कामगार गांवों में ही रहना पसंद करते हैं. जन साहस सर्वेक्षण से पता चलता है कि पिछले एक साल में 57 प्रतिशत प्रवासियों का मानना है कि पलायन की दर में कमी आई है.
• अधिकांश कामगारों ने वायरस (71 प्रतिशत),लॉकडाउनके डर (47 प्रतिशत) और अपने गंतव्य पर नौकरियों की कमी (54 प्रतिशत) के डर होने की सूचना दी. ये प्रतिक्रियाएं एक्शन एड सर्वे के अनुरूप हैं, जहां स्रोत पर वापस रहने की प्रबल प्राथमिकता के लिए समान कारणों का हवाला दिया गया था.
• उत्तरदाताओं में से केवल 8 प्रतिशत (11 प्रतिशत महिलाएं और 2 प्रतिशत पुरुष) ने बताया कि स्रोत पर वैकल्पिक रोजगार मिलना पलायन में कमी का कारण था, जो इस प्रकार प्रवासी परिवारों के बढ़ते संकट को दर्शाता है.
• पिछले एक साल में अलग-अलग समय पर स्रोत स्थानों पर किए गए सर्वेक्षण में बेरोजगारी की एक समान प्रवृत्ति को भी दिखाया गया है – या तो लोगों ने अपनी नौकरी खो दी है या अब वे महामारी से पहले की तुलना में कम घंटों के लिए काम करते हैं. यह स्रोत पर प्रवास और बेरोजगारी में व्यवधान के कारण बिगड़ते संकट और गरीबी के संकेतक हो सकते हैं.
• लगभग 55 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने बताया कि लोग अब पहले की तुलना में कम अवधि के लिए पलायन कर रहे हैं. लगभग 9.5 उत्तरदाताओं ने बताया कि लोग अब पहले की तुलना में लंबी अवधि के लिए पलायन कर रहे हैं. महिला श्रमिकों के यह उल्लेख करने की अधिक संभावना है कि पिछले एक वर्ष में पलायन की अवधि में कमी आयी है.
गंतव्य की वरीयता: वे काम के लिए कहाँ पलायन कर रहे हैं?
• गंतव्य और स्रोत दोनों पर सर्वेक्षण के अधिकांश उत्तरदाताओं ने अंतर-राज्य प्रवास को अपनी वरीयता के रूप में उल्लेख किया (क्रमशः 45 प्रतिशत और 54 प्रतिशत). एसटी और ओबीसी श्रेणियों के श्रमिकों को अपने जिलों, यानी इंट्रा-डिस्ट्रिक्ट पलायन के लिए अधिक प्राथमिकता की जानकारी दी. इसके अलावा, स्रोत पर 33 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने बताया कि लोग अपने जिलों में ही काम कर रहे थे.
• स्रोत जिलों में, बुंदेलखंड के बांदा (यूपी) और टीकमगढ़ (एमपी) जिलों ने आंतरिक-जिला पलायन (1 प्रतिशत और 7 प्रतिशत) के नगण्य वरीयता, और अंतर-राज्य प्रवास के लिए उच्च वरीयता (94 प्रतिशत और 77 प्रतिशत) दिखाई. अंतरराज्यीय पलायन के संभावित कारण बुंदेलखंड क्षेत्र में ऐतिहासिक सामाजिक-आर्थिक अभाव और कृषि संकट और दिल्ली से आने-जाने में आसानी और निकटता हो सकते हैं.
• झारखंड में हजारीबाग (75 प्रतिशत) और तेलंगाना में महबूबनगर (86 प्रतिशत) दोनों, जहां एसटी और ओबीसी श्रेणियों के श्रमिकों की संख्या अधिक थी, ने अंतर-जिला पलायन के लिए उच्च प्राथमिकता दिखाई. महबूबनगर में जिले के भीतर जाने की इस प्राथमिकता के संभावित कारण निकटवर्ती कपास खेतों में कृषि श्रमिक कार्य की उपलब्धता हो सकते हैं और हजारीबाग में, नमूना आकार में बड़ी संख्या मेंआदिवासी प्रवासी शामिल थे जो पीढ़ियों से काम खोजने के लिए स्थानीय रूप से पलायन करते हैं.
• भले ही अंतर-राज्य प्रवास को महिलाओं (44 प्रतिशत) और पुरुषों (53 प्रतिशत) दोनों द्वारा सबसे अधिक तरजीह दी गई, लेकिन जब अंतर-जिला पलायन की बात आई तो एक स्पष्ट लिंग प्रवृत्ति थी- 20 प्रतिशत पुरुषों की तुलना में 37 प्रतिशत महिलाओं ने बताया कि लोग जिले के अंदर ही पलायन कर रहे हैं. यह प्रवृत्ति ग्रामीण-ग्रामीण पलायन और कम दूरी के पलायन पर अधिक ध्यान देने की मांग करती है.
• यह देखते हुए कि ग्रामीण-ग्रामीण धाराओं में महिला पलायन सबसे अधिक है, ग्रामीण-शहरी प्रवास से महानगरीय शहरों में बदलाव से महिलाओं के श्रम और गतिशीलता के रुझान भी दिखाई देंगे. इस तरह की कथा-बदलाव से लैंगिक मजदूरी के अंतर को भी प्रकाश में लाया जाएगा और पुरुष प्रवासियों को मिलने वाली मजदूरी और महिला कृषि मजदूरों को दैनिक मजदूरी के रूप में मिलने वाली मजदूरी के बीच के अंतर को समझा जा सकेगा.
महिला पलायन
• पलायन की प्रवृत्ति की गहराई में जाने पर, सर्वेक्षण से पता चलता है कि विशेष रूप से महिलाओं के पलायन में पिछले एक साल में भारी गिरावट आई है. लगभग 60 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने बताया कि महामारी से पहले की तुलना में अब महिलाओं की कम संख्या पलायन कर रही है. हालांकि जनगणना, एनएसएसओ और अन्य मैक्रो-अध्ययनों में महिलाओं के प्रवास को हमेशा कम करके आंका गया है, सूक्ष्म अध्ययनों के विभिन्न अनुमान इस तथ्य की ओर इशारा करते हैं कि महिलाएं बड़ी संख्या में कृषि (ग्रामीण क्षेत्रों में), निर्माण, वस्त्र, घरेलू काम जिसमें काफी संख्या में महिलाएं काम करती हैं, जैसे क्षेत्रों में पलायन करती हैं.
आश्रित
• सर्वेक्षण में एक अन्य पहलू की जांच की गई थी कि क्या आश्रित (परिवार के सदस्य जो परिवार की आय में योगदान नहीं करते हैं) प्रवासी श्रमिकों के साथ जाते हैं जैसे वे पहले करते थे. आश्रितों के प्रवास में कमी को गंतव्य पर लागत कम करने की रणनीति के रूप में समझा जा सकता है, और इसे अचानक लॉकडाउन और अनुबंधित वायरस के डर के साथ भी समझा जाना चाहिए. इसके अलावा, माइग्रेंट्स रेजिलिएंस कोलैबोरेटिव के क्षेत्र के अनुभव के माध्यम से, यह देखा गया है कि युवा पुरुष (45 वर्ष से कम उम्र के) अब अपने परिवारों के बिना, अधिक संख्या में पलायन कर रहे थे. लगभग 43 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने बताया कि पिछले एक साल में लोग अपने परिवार के बिना पलायन कर रहे हैं.
• अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति वर्ग के श्रमिकों के यहउल्लेख करने की संभावना2.7 प्रतिशत अंक अधिक है कि वे अन्य श्रेणियों के श्रमिकों की तुलना में आश्रितों के साथ प्रवास करते हैं, और साधनों में अंतर 90 प्रतिशत विश्वास स्तर (पी-मूल्य = 0.060) पर सांख्यिकीय रूप से महत्वपूर्ण है.
• जो श्रमिक पलायन करना जारी रखते हैं वे अक्सर भूमिहीन और स्रोत पर बेघर होते हैं, जिनके पास स्रोत पर राशन कार्ड नहीं होता (जो एक विभाजित एचएच के खर्चों को कम करने के लिए एक परिवार के रूप में स्थानांतरित होते हैं), बुजुर्ग/छोटे बच्चों वाली महिलाएं, पतियों के लिए सहायक के रूप में महिलाएं, आदि.
• कामगार जिन्हें कार्यस्थल पर आवास का आश्वासन दिया जाता है, वे भी अपने परिवारों के साथ पलायन हैं.
• जब पलायन करने वाले परिवारों की बात आती है तो एक क्षेत्रीय पैटर्न भी होता है – ईंट भट्टों में, परिवार एक इकाई के रूप में पलायन करना जारी रखते हैं, विशेष रूप से समूह भर्ती के कारण, निर्माण और अन्य क्षेत्रों की तुलना में जहां भर्ती अक्सर व्यक्तिगत आधार पर होती है.
काम के पैटर्न
• उत्तरदाताओं में से दो-तिहाई ने उल्लेख किया कि उन्हें नौकरी खोजने में मुश्किल होती है, और अधिकांश दैनिक वेतन भोगी श्रमिक बिना काम के घर वापस चले जाते हैं. जबकि मजदूरी काफी हद तक स्थिर रही है, कार्य दिवसों की संख्या में काफी कमी आई है, जो अनिवार्य रूप से कम आय की ओर धकेलती है. पिछले एक दशक या उससे अधिक समय में, मौसमी प्रवासियों के साथ भर्ती पैटर्न में बदलाव देखा गया है, जो ठेकेदारों से स्वतंत्र हैं – हालांकि, महामारी और बड़े पैमाने पर बेरोजगारी के साथ, ठेकेदारों के साथ जाने वाले प्रवासियों में वृद्धि के साथ एक और बदलाव दिखना शुरू हो गया है.
काम खोजने में आसानी
• बेरोजगारी और नौकरी के अवसरों की कमी की रिपोर्ट के अनुरूप, उत्तरदाताओं के 73 प्रतिशत (75 प्रतिशत महिलाएं; 72 प्रतिशत पुरुष) ने उल्लेख किया कि महामारी से पहले की तुलना में गंतव्य पर काम ढूंढना अधिक कठिन हो गया है. लेबर चौकों की रिपोर्ट से पता चलता है कि काम की उपलब्धता लॉकडाउन के बाद घट गई है, जिससे प्रवासी श्रमिकों की मासिक आय और कार्यदिवस काफी कम हो गए हैं.
• लगभग 85-87 प्रतिशत श्रमिकों ने, जिन्होंने अंतर-राज्य और अंतर-जिला स्थानांतरित करना पसंद किया, style="font-size:10.5pt">ने उल्लेख किया कि स्रोत राज्यों में रोजगार की कमी को प्रदर्शित करते हुए काम खोजना कठिन हो गया है.
• महिलाओं द्वारा यह उल्लेख करने की अधिक संभावना है कि पुरुषों की तुलना में नौकरी पाना कठिन है.
भर्ती पैटर्न
• पिछले 10-15 वर्षों या उससे अधिक समय से प्रवासन के आसपास नीतिगत चर्चा स्रोत क्षेत्रों के ठेकेदारों द्वारा जटिल, बहुस्तरीय और अक्सर द्वेषपूर्ण भर्ती प्रथाओं के इर्द-गिर्द केंद्रित रही है. हालांकि, पिछले 3 वर्षों से माइग्रेंट्स रेजिलिएंस कोलैबोरेटिव द्वारा प्रदान किया गया डेटा विशेष रूप से निर्माण में मौसमी प्रवासियों के लिए एक अलग कहानी की पुष्टि करता है. उनमें से अधिकांश स्रोत ठेकेदारों से स्वतंत्र रूप से पलायन करते हैं और उनके पलायन और रोजगार को उनके सामाजिक मंडल या गंतव्य ठेकेदारों द्वारा सुगम बनाया जाता है.
• लगभग 91 प्रतिशत निर्माण श्रमिक स्वतंत्र रूप से पलायन करते हैं. भर्ती पैटर्न में यह बदलाव गंतव्य राज्यों के लिए एक महत्वपूर्ण अवसर है, क्योंकि उनका उन ठेकेदारों पर नियंत्रण है जो नाका और सामुदायिक स्थानों से श्रमिकों की भर्ती करते हैं.
• नियोजित निर्माण श्रमिकों से संबंधित माइग्रेंट्स रेजिलिएशन कोलैबोरेटिव की 3 साल लंबी ट्रैकिंग प्रणाली इंगित करती है कि लॉकडाउन के बाद रोजगार खोजने के लिए ठेकेदारों के उपयोग में 16 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि 2020 के लॉकडाउन और रोजगार संकट के बाद से, गंतव्य या स्रोत ठेकेदारों के माध्यम से रोजगार खोजने के लिए धीमी गति से बदलाव हो रहा है.
• भर्ती पैटर्न में क्षेत्रीय अंतर हैं: पश्चिम बंगाल और अन्य राज्यों के श्रमिक जहां मौसमी पलायन प्रचलन में बहुत कम है, स्रोत-आधारित ठेकेदारों या भर्तीकर्ताओं के माध्यम से भर्ती अधिक है.
• लगभग 41 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने बताया कि भर्ती के तरीके में कोई बदलाव नहीं हुआ है, 26 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने महसूस किया कि अधिक श्रमिक काम की तलाश में स्वतंत्र रूप से पलायन कर रहे थे, और 29 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने बताया कि लोग अब स्रोत से ठेकेदारों के साथ पलायन कर रहे हैं.
बंधुआ स्थिति
• उत्तरदाताओं में से एक तिहाई से अधिक (37 प्रतिशत) ने उल्लेख किया कि बंधुआ मजदूरी की घटनाएं महामारी से पहले की तरह ही बनी हुई हैं, 28 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने उल्लेख किया कि इसमें कमी आई है जबकि उनमें से 14 प्रतिशत ने बताया कि इसमें वृद्धि हुई है. बेरोजगारी और आय-गरीबी की सीमा को देखते हुए, संकट के इन संकेतों को ध्यान से पढ़ना चाहिए और बंधन की घटनाओं को रोकने के लिए लगातार चुस्त रहनाचाहिए.
style="color:#333333">मजदूरी की स्थिति
• 25 में से नौ कामगारों ने मजदूरी में कमी की सूचना दी. 25 में से लगभग 7 महिला उत्तरदाताओं ने वेतन में वृद्धि की सूचना दी.
• लगभग 40 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने बताया कि मजदूरी दर महामारी से पहले की तरह ही बनी हुई है. इस उदाहरण में, आजीविका के अवसरों में कमी के साथ-साथ इस डेटा बिंदु को पढ़ना महत्वपूर्ण है (73 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने उल्लेख किया कि काम खोजना कठिन हो गया है). भले ही मजदूरी समान रह सकती है, वे कम दिन काम कर रहे हैं, जो अनिवार्य रूप से कम आय का तर्जुमा है.
• पुरुष उत्तरदाताओं के 16 प्रतिशत की तुलना में मोटे तौर पर 28 प्रतिशत महिला उत्तरदाताओं ने उल्लेख किया कि मजदूरी में वृद्धि हुई है.
• ILO के अनुसार, 2010-2019 से, भारत की श्रम उत्पादकता में सालाना औसतन 5.5 प्रतिशत की वृद्धि हुई, जबकि वास्तविक न्यूनतम वेतन में वृद्धि 3.9 प्रतिशत थी, जिसका अर्थ है कि श्रमिकों को उनके उचित अधिकार से वंचित करना.
• लगभग 41 प्रतिशत महिला कामगारों ने बताया कि बिना किसी लाभ के ओवरटाइम काम करना एक आदर्श की तरह माना जाता है.
• संस्थागत समर्थन के अभाव में, श्रमिकों ने मजदूरी की चोरी से खुद को बचाने के लिए अपनी खुद की कुछ रणनीतियां विकसित की हैं जैसे दैनिक मजदूरी की नौकरी करना ताकि एकमुश्त धोखाधड़ी से बचने और काम शुरू करने से पहले ठेकेदारों से अग्रिम राशि लेने और पूरी राशि की ठगी से बचा जा सके.
सामाजिक सुरक्षा तक पहुंच
• पिछले वर्ष की तुलना में लगभग 88 प्रतिशत उत्तरदाताओं को उन योजनाओं के बारे में पता है जो विशेष रूप से उनके लिए घोषित की गई थीं. हालांकि, संबंधित पहलू यह है कि इसकी पहुंच आजीविका योजनाओं की तुलना में अल्पकालिक आपातकालीन सहायता योजनाओं तक सीमित है.
प्रवासी श्रमिकों का पंजीकरण
• अंतर्राज्यीय प्रवासी कामगार (रोजगार का विनियमन और सेवा की शर्तें) अधिनियम, 1979 के कमजोर कार्यान्वयन के कारण पलायन पर व्यापक डेटा की कमी को प्रवासी परिवारों तक पहुंचने और उनका कल्याण सुनिश्चित करने में सबसे महत्वपूर्ण बाधाओं में से एक के रूप में उद्धृत किया गया था. इस अंतर को दूर करने के लिए प्रवासी रजिस्ट्री के निर्माण की बार-बार सिफारिश की गई है.
• गंतव्य (n=779) पर सर्वेक्षण किए गए उत्तरदाताओं में से केवल 15 प्रतिशत ने पुष्टि की कि वे स्रोत से अपने अंतिम प्रस्थान से पहले पंजीकृत थे.
style="font-size:12pt">सूचना प्रसार और कल्याणकारी योजनाओं का कवरेज
• कई राज्य सरकारों ने इन उपायों को लागू करने के लिए विशेष रूप से सराहनीय कार्रवाई की और प्रवासी परिवारों को आजीविका-सृजन और सामाजिक सुरक्षा प्रावधानों के विस्तार के माध्यम से समर्थन दिया.
• लगभग 62 प्रतिशत उत्तरदाताओं को योजनाओं के बारे में बिल्कुल भी जानकारी नहीं थी और केवल 5 प्रतिशत ने पुष्टि की कि वे प्रावधानों से अवगत थे और जानते थे कि उन्हें कैसे एक्सेस करना है. हालांकि, एक साल के बाद, एक उल्लेखनीय बदलाव आया है. कुल उत्तरदाताओं में से केवल 12 प्रतिशत ने बताया कि उन्हें योजनाओं और प्रावधानों के बारे में सूचित नहीं किया गया था.
• लगभग 50 प्रतिशत महिलाओं और 66 प्रतिशत पुरुषों ने टीवी/रेडियो/अखबार के माध्यम से जानकारी प्राप्त की; 11 फीसदी महिलाओं और 16 फीसदी पुरुषों को व्हाट्सएप से मिली जानकारी; 27 प्रतिशत महिलाओं और 23 प्रतिशत पुरुषों ने सरकारी प्रतिनिधियों से जानकारी प्राप्त की; आशा/आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं से 12 प्रतिशत महिलाओं और 4 प्रतिशत पुरुषों ने जानकारी प्राप्त की; 34 प्रतिशत महिलाओं और 28 प्रतिशत पुरुषों को दोस्तों/रिश्तेदारों से जानकारी मिली; 27 प्रतिशत महिलाओं और 27 प्रतिशत पुरुषों ने गैर सरकारी संगठन/अन्य संगठनों से जानकारी प्राप्त की; और 10 प्रतिशत महिलाओं और 14 प्रतिशत पुरुषों को कोई जानकारी नहीं मिली.
• लगभग 47 प्रतिशत महिलाओं और 55 प्रतिशत पुरुषों के पास आपातकालीन नकद हस्तांतरण की सुविधा थी; 23 प्रतिशत महिलाओं और 12 प्रतिशत पुरुषों के पास जॉब कार्ड/मनरेगा कार्ड था; 32 प्रतिशत महिलाओं और 31 प्रतिशत पुरुषों के पास भवन और अन्य निर्माण श्रमिक (बीओसीडब्ल्यू) कार्ड तक पहुंच थी; 3 प्रतिशत महिलाओं और 1 प्रतिशत पुरुषों की गरीब कल्याण रोजगार योजना तक पहुंच थी; मनरेगा के तहत 14 प्रतिशत महिलाओं और 6 प्रतिशत पुरुषों को कार्य दिवसों तक पहुंच प्राप्त थी; 26 प्रतिशत महिलाओं और 43 प्रतिशत पुरुषों के पास स्रोत पर अतिरिक्त राशन उपलब्ध था; 28 प्रतिशत महिलाओं और 15 प्रतिशत पुरुषों को गंतव्य पर राशन उपलब्ध था; और 9 प्रतिशत महिलाओं और 4 प्रतिशत पुरुषों की स्वास्थ्य बीमा तक पहुंच थी.
• मई 2020 में, बीओसीडब्ल्यू कार्डों के ऑनलाइन पंजीकरण और नवीनीकरण के लिए एक वेबसाइट शुरू की गई और आवेदन के लिए सामग्री वेबसाइट पर उपलब्ध कराई गई. इस सुविधा के माध्यम से, कार्यकर्ता सीधे पोर्टल के माध्यम से अप्वाइंटमेंट सेट कर सकते हैं और शिविरों में भौतिक सत्यापन करवा सकते हैं.
• हाल के दिनों मेंstyle="font-size:10.5pt">, पंजीकरण दस्तावेजके लिए दिल्ली बीओसीडब्ल्यू ने एक निर्धारित प्रारूप में स्व-सत्यापित प्रमाण पत्र जमा करने के लिए उन श्रमिकों को और अनुमति दी है जिनके पास नियोक्ताओं/ठेकेदारों/ ट्रेड यूनियनों द्वारा रोजगार प्रमाण पत्र नहीं हैं. बिल्डिंग एंड कंस्ट्रक्शन वर्कर्स एक्ट (बीओसीडब्ल्यू) के तहत पंजीकरण के लिए दिल्ली सरकार के अभियान ने बोर्ड के तहत 1.05 लाख से अधिक श्रमिकों का पंजीकरण सुनिश्चित किया.
• सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) कवरेज के मामले में छत्तीसगढ़ सबसे सफल राज्यों में से एक था, सर्वेक्षण के 97.8 प्रतिशत से अधिक उत्तरदाताओं ने बताया कि उन्हें लॉकडाउन के दौरान मुफ्त या सब्सिडी वाला राशन मिला था. निर्माण और गिग इकॉनमी दोनों में शामिल कई निजी क्षेत्र की कंपनियां अब अपने कर्मचारियों का टीकाकरण कर रही हैं. ये सभी उदाहरण अनौपचारिक क्षेत्र के कार्यबल की रक्षा करने की संभावनाओं की ओर इशारा करते हैं जब निजी, राज्य और नागरिक समाज के हितधारक राष्ट्र के सामने आने वाली विशाल चुनौतियों का सामना करने के लिए एक साथ आते हैं.
• ओएनओआर के तहत पीडीएस की सुवाह्यता सुनिश्चित करने के वर्तमान प्रयास सराहनीय हैं, हालांकि बीओसीडब्ल्यू की सुवाह्यता और इसके लाभों को शामिल करने पर ध्यान दिया जाना चाहिए जो सीधे 4 करोड़ से अधिक प्रवासी निर्माण श्रमिकों को प्रभावित करेंगे.
• तमिलनाडु के अनुभवों से पता चलता है कि पीडीएस का सार्वभौमिकरण, खाद्य सुरक्षा में योगदान के साथ, रिसाव को कम करता है और बहिष्करण त्रुटियों को कम करता है.
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स्ट्रैंडेड वर्कर्स एक्शन नेटवर्क-स्वान द्वारा तैयार की गई [inside] नो कंट्री फॉर वर्कर्स: द COVID-19 सेकेंड वेव, लोकल लॉकडाउन एंड माइग्रेंट वर्कर डिस्ट्रेस इन इंडिया (16 जून, 2021 को जारी) [/inside] नामक रिपोर्ट के प्रमुख निष्कर्ष इस प्रकार हैं (कृपया एक्सेस करने के लिए यहां क्लिक करें):
• कोविड-19 महामारी की दूसरी लहर के रूप में, देश के लगभग 92 प्रतिशत श्रमिक (जिनके पास सामाजिक सुरक्षा जाल तक पहुंच नहीं है) एक ऐतिहासिक और अभूतपूर्व संकट का सामना कर रहे हैं. एक साल से भी कम समय में लगातार दूसरी बार देश में लॉकडाउन हुआ है. आर्थिक गतिविधियों में प्रतिबंधों के प्रभाव और किसी भी सामाजिक सुरक्षा, सुरक्षा उपायों की कमी ने प्रवासी और अनौपचारिक क्षेत्र के श्रमिकों को सबसे ज्यादा प्रभावित किया है.
• इस रिपोर्ट में, स्वान ने कोविड-19 महामारी की दूसरी लहर के दौरान प्रवासी और अनौपचारिक श्रमिकों द्वारा अनुभव की गई अनिश्चितताओं के कई आयामों को उजागर करने का प्रयास किया है.
• परेशान करने वाली प्रवृत्तियों को ध्यान में रखते हुए, स्ट्रैन्डेड वर्कर्स एक्शन नेटवर्क (स्वान), एक स्वैच्छिक प्रयास जो मार्च style="font-size:10.5pt">2020 में फंसे हुए प्रवासी कामगारों के लिए राहत जुटाने के लिए शुरू हुआ था, ने 21 अप्रैल, 2021 को अपनी हेल्पलाइन को फिर से शुरू किया. 31 मई 2021 तक, स्वान को राशन सहायता, चिकित्सा सहायता, परिवहन सहायता, किराया और अन्य बुनियादी जरूरतों के लिए 8,023 अनुरोध प्राप्त हुए. स्वान टीम के सदस्यों के साथ बातचीत करने में सक्षम श्रमिकों की कुल संख्या में से 88 प्रतिशत (7,050) ने धन हस्तांतरण प्राप्त किया है और समूह के 6 प्रतिशत को बार-बार स्थानान्तरण प्राप्त हुआ है. स्वान ने अब तक रु. 33 लाख रुपए लोगों तक पहुंचाए हैं. इसके अतिरिक्त, आवश्यकता के अत्यधिक स्तर को देखते हुए, स्वान ने कई वकालत पहलों में संलग्न किया है जिसका उद्देश्य संकट की प्रकृति और सीमा पर जागरूकता बढ़ाने, सामाजिक सुरक्षा लाभों के कवरेज को विस्तारित करने की आवश्यकता पर प्रकाश डालना और सरकारों को उनके प्रस्तावित नीति कार्यों के लिए जवाबदेह बनाना है.
मुक्य निष्कर्ष
• 20 अप्रैल, 2021 को, देश भर के 10 राज्यों में आंशिक लॉकडाउन और दिल्ली में पूर्ण लॉकडाउन लगाया गया. 8 मई, 2021 तक, लगभग पूरे देश में आंशिक लॉकडाउन और रात के कर्फ्यू या राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों द्वारा लगाए गए पूर्ण लॉकडाउन के परिणामस्वरूप सब कुछ बंद हो गया था.
• स्वान को अप्रैल में कुछ कॉलें मिलीं और केवल 1 मई से व्यवस्थित रूप से जानकारी लॉग करना शुरू किया. यह 1 और 2 मई, 2021 को बढ़ी हुई कॉल की व्याख्या करता है. SWAN ने अप्रैल से डेटा को बाकी के आंकड़ों के लिए समायोजित किया है. सभी कॉलों में से, 76 प्रतिशत के लिए जरूरतों का आकलन किया गया था (अन्य को सहायता की आवश्यकता नहीं थी, सीधे एक गैर सरकारी संगठन को भेज दी गई थी या बाद में पहुंच से बाहर थे)। वर्तमान रिपोर्ट मुख्य रूप से 1 से 31 मई, 2021 के बीच संकट कॉल के माध्यम से एकत्र किए गए डेटा पर आधारित है.
कवरेज और प्रवासी श्रमिकों की प्रोफाइल
• जिन 8,371 श्रमिकों और उनके परिवारों से स्वान कुछ जानकारी प्राप्त करने मेंसक्षम था, उनमेंसे अधिकांश श्रमिक कुछ प्रमुख राज्यों – दिल्ली (1,760), महाराष्ट्र (1,507), पश्चिम बंगाल (692) और उत्तर प्रदेश (581) में केंद्रित थे. ये रुझान दिल्ली के अपवाद के साथ 2020 में रिपोर्ट किए गए लोगों के समान हैं, जहां इस वर्ष की तुलना में पिछले साल कम कॉल की सूचना मिली थी.
• SWAN को प्राप्त अधिकांश कॉल फंसे हुए प्रवासियों के थे, जो अपने कार्यस्थल में फंसे हुए थे. लेकिन इस बार, SWAN को प्राप्त होने वाले लगभग 9 प्रतिशत कॉल उन प्रवासियों के थे जो हाल ही में घर लौटे थे और साथ ही उन लोगों से भी थे जो बिना किसी बचत और काम के अपने गाँव और गृहनगर में थे.
• जो श्रमिक स्वान तक पहुंचे, वे सबसे गरीब और सबसे कमजोर लोगों में से हैं, जैसा कि उनकी असुरक्षित आर्थिक स्थिति से पता चलता है. आधे से अधिक (60 प्रतिशत) दैनिक वेतन भोगी कारखाने के कर्मचारी थे और 6 प्रतिशत गैर-समूह आधारित दैनिक वेतन भोगी थे जैसे ड्राइवर, घरेलू नौकर आदि. श्रमिकों की औसत दैनिक मजदूरी 308 रुपए थी. लगभग 74 प्रतिशत श्रमिक प्रति दिन 200-400 और 14 प्रतिशत प्रति दिन 200 रुपये से कम कमाते हैं.
• विशेष रूप से, 2020 की तुलना में 2021 में श्रमिकों के समूहों में महिलाओं और बच्चों का अनुपात बहुत अधिक है. जबकि पिछले साल स्वान तक पहुंचने वालों में एक चौथाई से भी कम महिलाएं और बच्चे शामिल थे, 2021 में उनमें से 84 प्रतिशत कॉल इन महिलाओं और बच्चों से प्राप्त हुए थे.
• शहर में रुके हुए कामगारों की चिंताएँ बहुत थीं और कोई आसान विकल्प नहीं था. स्वान ने जिन श्रमिकों से बात की थी, उन्हें अपने लिए किराए और भोजन पर खर्च करने या अपने परिवारों को घर वापस भेजने के लिए कठिन विकल्प चुनना पड़ा; शहर में रहें या घर वापस यात्रा करें; शहर में वायरस की चपेट में आने की चिंता करते हुए काम फिर से शुरू होने की उम्मीद में बने रहें, या बढ़ते मामलों पर घर जाएं और काम न करें. इस साल स्वान को उन प्रवासी कामगारों के बड़े समूहों के भी फोन आए जो शहरों, खासकर दिल्ली में फंसे हुए थे.
रोजगार में बाधा और मजदूरी चली जाना
• कामगारों की एक चौंकाने वाली संख्या ने काम की समाप्ति और रुक-रुक कर उपलब्धता, लंबित मजदूरी और फरार ठेकेदारों की समस्याओं जैसी कई चुनौतियों की सूचना दी.
• बाधित या रुका हुआ काम: स्वान सेबात करने वाले लगभग 91 प्रतिशत श्रमिकों ने बताया कि स्थानीय रूप से घोषित लॉकडाउन के कारण काम (दैनिक और संविदा) बंद हो गया है. मई, 2021 के बाद के हफ्तों में काम बंद होने के दिनों की संख्या में भी लगातार वृद्धि हुई है.
• लंबित मजदूरी: लगभग 66 प्रतिशत कामगारों (जिनके लिए स्वान के पास यह जानकारी है) ने बताया कि उन्हें अपना पूरा वेतन नहीं मिला है या पिछले महीने के लिए केवल आंशिक मजदूरी का भुगतान किया गया है. हालांकि, काम बंद होने के बाद से केवल 8 प्रतिशत को ही अपने नियोक्ता से कोई पैसा मिला था.
• फरार ठेकेदार: श्रमिकों के साथ स्वान की बातचीत ने उल्लंघन के स्तर और कुछ मामलों में श्रम कानूनों और मानकों के पालन की पूर्ण अनुपस्थिति का खुलासा किया. हरियाणा के गुरुग्राम में कुछ निर्माण श्रमिकों ने स्वान को बताया कि कैसे तालाबंदी की घोषणा के कुछ दिन पहले ही उन्हें बिहार से वहां लाया गया था. उनके ठेकेदार ने तब से उन्हें छोड़ दिया था और उन दिनों के लिए भी भुगतान नहीं किया था, जिन दिनों उन्होंने काम किया था. बिना किसी आय या सहायता के वे शहर में फंसे हुए थे और उनके पास घर लौटने का कोई साधन नहीं था. एक अन्य मामले में, गुजरात में कारखाने के श्रमिकों के एक समूह के पास पैसे नहीं थे, जब उनका नियोक्ता उनका बकाया भुगतान किए बिना भाग गया.
• 20 अप्रैल 2021 को, श्रम और रोजगार मंत्रालय (एमओएलई) ने घोषणा की कि 2020 के लॉकडाउन के दौरान स्थापित और "लाखों श्रमिकों" द्वारा उपयोग किए जाने वाले 20 नियंत्रण कक्ष, अधिकारियों के समन्वय के माध्यम से श्रमिकों की शिकायतों को दूर करने के लिए विभिन्न राज्यों में श्रम विभाग फिर से शुरू किए जा रहे हैं. "कार्यकर्ता हेल्पलाइन" की सूची में 20 राज्य / क्षेत्र शामिल हैं, जिसमें 100 श्रम आयुक्तों के संपर्क विवरण, उनके ईमेल पते भी शामिल हैं. दी जा रही सहायता को समझने के लिए, स्वान स्वयंसेवकों ने इन 20 क्षेत्रों के 80 अधिकारियों को फोन किया और प्रवासी श्रमिकों को प्रदान की जा रही सहायता के बारे में पूछताछ की: देय मजदूरी का भुगतान न करना, राशन या पका हुआ भोजन का प्रावधान, बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए वित्तीय सहायता जरूरत है, जमींदारों द्वारा बेदखली से सुरक्षा, और अपने गृह राज्यों में वापस यात्रा के लिए समर्थन. वर्कर हेल्पलाइन की प्रतिक्रियाओं से पता चला कि हेल्पलाइन किसी प्रवासी या अनौपचारिक कार्यकर्ता के लिए नहीं है और केवल केंद्र सरकार की परियोजनाओं पर काम करने वालों के लिए है. हेल्पलाइन पर प्रतिक्रियाओं में भिन्नताथी. शिकायत दर्ज करने के लिए एक कार्यकर्ता-असभ्यप्रणाली थी. कोई ट्रैकिंग विधि नहीं थी. भूख मिटाने के लिए कोई सहायता नहीं दी गई. प्रवासी श्रमिकों को जमींदारों द्वारा बेदखली और उत्पीड़न से बचाने के लिए कोई सहायता नहीं दी गई.
ऋण जाल, नकदी संघर्ष और घटती भोजन की खुराक
• कर्ज का जाल: पिछले डेढ़ साल में काम कैसे बाधित हुआ है, इसे देखते हुए लगभग 76 प्रतिशत लोगों ने जब स्वान से बात की तो उनके पास रु. 200 या उससे कम रुपए बचे हुए थे. जमींदारों और दुकानदारों के कर्ज के कारण 2020 में राष्ट्रीय तालाबंदी के दौरान कई लोग नहीं जा सके. जो लोग घर छोड़ने में सक्षम थे, वे वैकल्पिक रोजगार खोजने में असमर्थ थे, हालांकि कई राज्य सरकारों ने छोटे व्यवसायों को शुरू करने के लिए काम और ऋण का वादा किया था. उनकी न्यूनतम बचत समाप्त होने के बाद, इन श्रमिकों को काम की तलाश में एक बार फिर शहरों में लौटने के लिए प्रेरित किया गया. जब दूसरी लहर और तालाबंदी हुई, तो नकदी की उपलब्धता फिर से अनिश्चित हो गई.
• इस तालाबंदी के दौरान बिना काम और मजदूरी के जीवन यापन की अनिश्चितता के कारण कर्जा बढ़ गया है. अधिक स्थिर आजीविका वाले और नियमित आय अर्जित करने वाले श्रमिकों द्वारा ऋण के बोझ की भी सूचना दी गई.
• अभी भी पीडीएस तक पहुंच की कोई सुवाह्यता नहीं है, प्रवासी श्रमिकों को राशन का कोई प्रावधान नहीं है: 2020 के लॉकडाउन के दौरान और फिर 2021 में प्रवासी श्रमिकों के बीच भोजन संकट इतना तीव्र हो गया, इसका एक प्रमुख कारण जिन स्थानों पर वे प्रवास करते हैं. वहां की पीडीएस प्रणाली से उनका बहिष्करण है. यह बहिष्कार केवल प्रवासी श्रमिकों तक ही सीमित नहीं है. यद्यपि एनएफएसए को 67 प्रतिशत आबादी को कवर करना है, वास्तव में यह कवरेज 60 प्रतिशत के करीब है. यह स्वान को भी कॉल करने वाले प्रवासी श्रमिकों से एकत्र की गई जानकारी में परिलक्षित होता था. आधे से अधिक श्रमिकों (62 प्रतिशत) के पास या तो उनके गृह राज्यों में या उनके वर्तमान स्थानों में राशन कार्ड नहीं थे. भले ही इन श्रमिकों और उनके परिवारों के पास राशन कार्ड हो, ये उनके घर के पते और एक विशिष्ट राशन की दुकान से जुड़े होते हैं. जब तक पूरा परिवार पलायन नहीं करता, राशन कार्ड परिवार के सदस्यों के साथ घर पर ही रहता है.
• पिछले साल प्रवासी कामगार संकट के बाद, केंद्र सरकार ने प्रवासी कामगारों के बीच खाद्य असुरक्षा को दूर करने के लिए वन नेशन वन राशन कार्ड (ओएनओआरसी) योजना को रामबाण के रूप में पेश करना शुरू कियाstyle="color:#333333">. वित्त मंत्री के अनुसार, मार्च 2021 तक "यह प्रणाली प्रवासी श्रमिकों और उनके परिवार के सदस्यों को देश के किसी भी उचित मूल्य की दुकान से पीडीएस लाभ प्राप्त करने में सक्षम बनाएगी." ओएनओआरसी योजना से पीडीएस पात्रता को पोर्टेबल बनाना था, जो प्रवासी श्रमिकों के लिए तुरंत फायदेमंद होगा. इस घोषणा के एक साल से अधिक समय से, स्वान ने पाया कि 93 प्रतिशत प्रवासी श्रमिकों के पास राशन कार्ड था, लेकिन यह उस स्थान पर काम नहीं कर रहा था जहाँ वे फंसे हुए थे. उदाहरण के लिए, दिल्ली में, एक श्रमिक ने बताया कि कैसे उसने दिल्ली सरकार के राशन कार्ड के लिए आवेदन करने की कोशिश की थी, लेकिन उसे जारी नहीं किया गया था और इसलिए उसे अपने परिवार का पेट भरने के लिए पैसे उधार लेने के लिए मजबूर होना पड़ा था.
• घर पर पीडीएस तक पहुंच भी अनिश्चित थी और सिस्टम से बहिष्करण, राशन की अपर्याप्त मात्रा के वितरण, और प्रमाणीकरण के मुद्दों से संबंधित मुद्दे थे. जैसा कि स्वतंत्र अध्ययनों ने बताया है, 10 करोड़ लोग अभी भी पीडीएस से बाहर हैं. श्रमिकों के साथ स्वान की बातचीत में भी यह परिलक्षित हुआ – घर लौटने वालों में से 62 प्रतिशत ने कहा कि उनके पास राशन कार्ड नहीं है. राशन की मात्रा भी एक मुद्दा था, चाहे वह शहरों में हो या उन गांवों में जहां श्रमिक लौटे थे. एक श्रमिक ने बताया, कोई आय नहीं होने के कारण, विशेष रूप से कर्नाटक और दिल्ली जैसे स्थानों में जहां तालाबंदी लागू की गई थी, पीडीएस के माध्यम से उपलब्ध राशन की मात्रा परिवार की भोजन की जरूरतों को पूरा करने के लिए अपर्याप्त थी. एक असफल बॉयोमीट्रिक प्रमाणीकरण के कारण बहिष्करण जैसे अन्य मुद्दे भी बने रहते हैं, जो संकट को बढ़ाते हैं.
• खाद्य सुरक्षा के दायरे से बाहर किए जाने के इस स्तर को देखते हुए, प्रवासी कामगारों के बीच खाद्य संकट की स्थिति अत्यंत गंभीर हो जाती है. SWAN ने जिन श्रमिकों से बात की (और जिनके लिए SWAN के पास यह डेटा है) आधे से अधिक (82 प्रतिशत) के पास 2 या दो दिन से कम का राशन था. यह एक चौंका देने वाला आंकड़ा है, भले ही यह पिछले साल बताए गए आंकड़ों सेकम हो, जब 72 प्रतिशतश्रमिकों ने बताया कि उनका राशन दो दिनों में खत्म हो जाएगा. दो दिनों से कम राशन वाले लोगों (कार्यकर्ता समूहों और परिवारों) का प्रतिशत मई के महीने में लगातार आधा रहा है.
• कम सामुदायिक रसोई और भोजन केंद्र: पिछले साल के विपरीत जब कुछ राज्य सरकारों ने फंसे हुए प्रवासियों को पका हुआ भोजन उपलब्ध कराने वाले भोजन केंद्र खोले, तो इस साल सरकार और नागरिक समाज द्वारा ऐसी बहुत कम पहल की गई. दिल्ली सरकार ने 2020 में स्थापित 2,500 ऐसे केंद्रों की तुलना में 265 फीडिंग सेंटर स्थापित करने का दावा किया है. हालांकि, यह सूची जनता के लिए स्वतंत्र रूप से उपलब्ध नहीं थी. केवल मई 2021 की शुरुआत में ही स्वान को भूख राहत केंद्रों (बिना किसी संपर्क विवरण के) की सूची मिली, जो दिल्ली के जिलों में चालू होने वाले थे.
एक स्वास्थ्य संकट जो सिर्फ COVID-19 से संबंधित नहीं है
• प्रवासी कामगारों को, वायरस से संक्रमित होने के डर के अलावा, मजदूरी के अभाव और कम बचत में मौजूदा चिकित्सा चिंताओं से भी जूझना पड़ा है. पिछले वर्ष के विपरीत जब संचरण की दर काफी कम थी, इस वर्ष स्वान ने श्रमिकों से उनकी चिकित्सा स्थिति के बारे में भी पूछा और विशेष रूप से यदि वे या उनके परिवार के सदस्य COVID-19 या इसी तरह के लक्षणों का अनुभव कर रहे थे. खुशी की बात यह है कि अधिकांश श्रमिकों (86 प्रतिशत) ने ऐसे किसी भी लक्षण का अनुभव करने की सूचना नहीं दी. हालांकि, 12 प्रतिशत ने अन्य गैर-चिकित्सीय स्थितियों की रिपोर्ट की जो बुखार, पुरानी स्थितियों, तपेदिक (टीबी), दुर्घटनाओं के कारण विकलांगता, और इसी तरह से थीं. और जबकि श्रमिकों पर तत्काल कोई स्वास्थ्य प्रभाव नहीं पड़ा हो, वायरस से बीमार पड़ने का डर स्पष्ट था.
• 12 प्रतिशत गैर-कोविड-19 संबंधित स्वास्थ्य मुद्दे भी व्यापक थे और यह उस अनिश्चित स्थिति को रेखांकित करता था जिसमें स्वान तक पहुंचने वाले कई लोग थे. दुर्घटनाओं ने कुछ लोगों को दूसरी लहर शुरू होने से पहले ही काम करने में असमर्थ छोड़ दिया था, खासकर जहां परिवार का मुख्य कमाने वाला वह था जिसे चोट लगी थी.
• ग्रामीण स्वास्थ्य सेवा तक पहुंच: जबकि जनता का अधिकांश ध्यान, विशेष रूप से शहरी मध्यम वर्ग, बड़े शहरों में ऑक्सीजन संकट पर रहा है, महामारी की इस घातक दूसरी लहर के दौरान ग्रामीण स्वास्थ्य सेवा की स्थिति पर कवरेज सीमित है. अंग्रेजी मीडिया में उल्लेखनीय अपवाद हैंstyle="color:#333333">, जैसे ग्रामीण उत्तर प्रदेश में COVID-19 मौतों पर रिपोर्ट, ग्रामीण भारत में लोग COVID लक्षणों का पता चलने पर भी स्वास्थ्य सुविधाओं में जाने से क्यों हिचकिचाते हैं, और झारखंड में टाइफाइड के रूप में COVID का गलत निदान (यादव, 2021, मसीह, 2021, अंगद, 2021). हिंदी मीडिया में बेहतर कवरेज है.
हाशिए पर रह रहे लोगों की कमजोर स्थिति
• जबकि प्राप्त कॉलें देश भर में कामगारों के अत्यधिक संकट को दर्शाती हैं, कार्यबल के भीतर कमजोर समूहों की स्थिति और भी खराब थी. कुछ समूह दूसरों की तुलना में अधिक प्रतिकूल रूप से प्रभावित हुए, विशेष रूप से महिलाएं, एक ऐसा समूह जिससे स्वान को कई कॉल आए. पैसे/राशन का अनुरोध करने वाली कुछ महिलाओं के घर पर पति थे लेकिन उन्होंने अपनी नौकरी खो दी थी. अन्य महिलाओं के पति उन जगहों पर फंसे हुए थे जहां वे काम के लिए पलायन कर गई थीं और जो तब तालाबंदी के दौरान पैसे घर भेजने में खुद को असमर्थ पाती थीं.
• एकल महिलाओं को विशेष रूप से रोजगार और मजदूरी के नुकसान का खामियाजा भुगतना पड़ा. यदि समय का तनाव अपने आप में एक प्रकार की हिंसा थी जिसका सामना मज़दूरों के परिवारों द्वारा अपनी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए संघर्ष कर रहे थे, तो घरेलू हिंसा की एक बढ़ती हुई चिंता भी थी जिसे कुछ कॉल करने वालों ने संबोधित किया. तनाव में एक अन्य समूह गर्भवती महिलाएं और स्तनपान कराने वाली माताएं थीं. दिव्यांग एक अन्य कमजोर समूह थे. बच्चे भी अप्रभावित नहीं रहे. परिवार के भरण-पोषण के लिए बच्चे मजदूरी करने को मजबूर हैं.
वापस यात्रा करना और शहर वापस यात्रा करना: दोनों एक संघर्ष
• 2020 की तरह देशव्यापी लॉकडाउन के दौरान जब कई लोगों ने अपने गांवों में वापस जाने का फैसला किया, इस साल भी कई प्रवासी अपने घर वापस जाने की कोशिश कर रहे थे. गर्मी की तपिश में थके हुए बच्चों और कम सामानों के साथ श्रमिकों का नजारा अभी भी एक ताजा स्मृति है. इस साल स्थानीयकृत लॉकडाउन ने कुछ झिझक और भ्रम पैदा किया और कई इस बात को लेकर अनिश्चित थे कि क्या उन्हें अपने गांवों में वापस जाना चाहिए या शहरों में तब तक इंतजार करना चाहिए जब तक कि लॉकडाउन के उपाय नहीं हो जाते. हालांकि, यह तेजी से स्पष्ट हो रहा था कि चूंकि लॉकडाउन को सप्ताह दर सप्ताह बढ़ाया गया था, इसलिए अधिक से अधिक श्रमिकअपने गांवों में वापस जाने के लिए बेताब थे. कुलमिलाकर, 11 प्रतिशत प्रवासी कामगार और उनके परिवार अपने गांव लौट गए (6,693 लोगों में से जिनके पास स्वान का डेटा है).
• यात्रा की लागत एक मुद्दा था क्योंकि रेलगाड़ियाँ, परिवहन का सबसे सस्ता साधन, सभी गंतव्यों के लिए उपलब्ध नहीं थीं. कुछ उदाहरणों में वापस यात्रा करने का निर्णय धमकी या बल का परिणाम था. एक श्रमिक ने अपने मकान मालिक द्वारा घर वापस जाने का विकल्प चुनने के लिए मजबूर होने की सूचना दी, जिसने किराए का भुगतान करने में असमर्थ होने पर उन्हें बेदखल करने की धमकी दी. जबकि राज्यों के बीच आवाजाही प्रतिबंधित थी, शहरों के भीतर स्थानीय आवाजाही अन्य प्रकार के जोखिमों के अधीन थी.
सिर पर छत नहीं : किराए का बोझ और बेदखली की धमकी
• आय न होने के कारण, किराया चिंता का विषय था क्योंकि वे परिवार के खर्च का एक बड़ा हिस्सा थे. इस लॉकडाउन के दौरान वर्क फ्रॉम होम एक बहुप्रतीक्षित मुहावरा है. लेकिन आमने-सामने अस्तित्व में रहने वाले श्रमिकों के लिए कोई काम नहीं था और वे लगातार घर न होने के डर में रहते थे. निष्कासन, जबकि कुछ के लिए चिंता का विषय था, दूसरों के लिए तत्काल चिंता का विषय था.
शहर में कोई काम नहीं, गांव में घर वापस जाने पर काम नहीं: मनरेगा की चुनौतियां
• कई शहरों में रुक-रुक कर काम उपलब्ध होने और लॉकडाउन के प्रभाव में, प्रवासी श्रमिक घर लौटने के लिए अनिच्छुक थे क्योंकि गाँव में रोजगार के अवसर नहीं थे और मनरेगा के तहत काम हासिल करना पिछले कई वर्षों से मुश्किल साबित हुआ था. यह व्यापक रूप से बताया गया है कि इस साल मई में मनरेगा रोजगार में तेज गिरावट देखी गई है. पिछले साल जब राष्ट्रीय तालाबंदी के दौरान सभी वैकल्पिक रोजगार ठप हो गए, तो मनरेगा ने ग्रामीण भारत में श्रमिकों को आय सहायता प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिनमें से कई प्रवासी थे. राज्य सरकारों ने यह सुनिश्चित करने के प्रयास किए कि हाल ही में लौटे प्रवासियों को उनके लौटने के तुरंत बाद जॉब कार्ड प्रदान किए जाएं. बहुत आवश्यक वित्तीय राहत प्रदान करते हुए, काम को सक्रिय रूप से खोला गया. मनरेगा के लिए पंजीकृत 1.1 करोड़ से अधिक नए परिवार और पिछले वर्ष की तुलना में 2020 में 2 करोड़ अधिक परिवारों ने मनरेगा के तहत काम किया. हालांकि, इस साल मनरेगा व्यावहारिक रूप से राज्यों में ठप हो गया है. घर वापस जाने वाले और स्वान तक पहुंचने वाले किसी भी श्रमिक को अप्रैल या मई में मनरेगा रोजगार नहीं मिला था. यह कई नागरिक समाजसंगठनों द्वारा पुष्टि की गई थी, स्वान के साथ भी संपर्क में है.
• जब संकटग्रस्त कॉल प्राप्त करने वाले टीम के सदस्यों ने स्वान से मनरेगा के बारे में पूछा, तो उन्होंने घर पर काम वापस पाने के साथ कई मुद्दों का उल्लेख किया – कई लोगों ने काम की तलाश में शहरों में जाना पसंद किया.
टीकाकरण संकट: कमी और झिझक
• डेटा काफी प्रारंभिक है, लेकिन स्वान ने पाया कि जहां COVID-19 के टीकाकरण के बारे में कुछ जानकारी थी, वहीं अपेक्षाकृत कम श्रमिकों को टीका लगाया गया था. फिर 22 मई से, स्वान ने टीकाकरण के बारे में कुछ जानकारी प्राप्त करना शुरू किया और 31 मई तक श्रमिकों से 452 प्रतिक्रियाएं एकत्र कीं. विशेष रूप से, स्वान ने कार्यकर्ताओं से पूछा कि क्या उन्हें COVID-19 के टीकाकरण अभियान के बारे में पता है और क्या उन्हें टीका लगाया गया था या उन्होंने वैक्सीन के लिए पंजीकरण करने का प्रयास किया था. 452 में से, हमें फोन करने वाले श्रमिकों में से केवल 10 प्रतिशत (45) को ही टीका लगाया गया था. उनमें से अधिकांश ने अपने गांव में आयोजित एक पीएचसी या शिविर में अपना टीकाकरण प्राप्त किया था, जबकि उनमें से 14 ने एक निजी सुविधा में अपना टीका प्राप्त किया था, या तो एक क्लिनिक या एक अस्पताल.
• 18 प्रतिशत (82) ने टीका लगवाने की कोशिश की लेकिन लग नहीं पाया. जानकारी न होना, पंजीकरण करने की कोशिश करना लेकिन असफल होना, टीकों की अनुपलब्धता और भीड़भाड़ वाले पीएचसी इसके कारण थे. ऐसे अन्य लोग भी थे जिन्होंने कहा कि उन्हें वैक्सीन या पंजीकरण प्रक्रिया या वैक्सीन कैसे प्राप्त करें, के बारे में कोई जानकारी नहीं है. जहां एक ओर कमी थी, वहीं दूसरी ओर कुछ हिचकिचाहट भी व्यक्त की गई थी.
सिफारिशों
• भोजन: पीडीएस कार्ड धारकों को विस्तारित खाद्य राशन का विस्तार नवंबर 2021 तक स्वागत योग्य है. भारत को इसके लिए 10 करोड़ टन खाद्यान्न (बफर स्टॉक मानदंडों के तीन गुना से अधिक) का लाभ उठाना चाहिए:
-नवंबर 2021 तक गैर-पीडीएस कार्ड धारकों को पीडीएस भोजन वितरण का विस्तार;
-बच्चों वाले परिवारों के लिए आईसीडीएस वितरण का विशिष्ट विस्तार, और स्कूलों और आंगनबाड़ियों में राशन के साथ-साथ भोजन (अंडे सहित) में वृद्धि
• आय: संकटग्रस्त रुपये का नकद हस्तांतरण करना. 3,000 प्रति माह6 महीने के लिए
• style="color:#333333">कार्यः नरेगा के काम की पात्रता को बढ़ाकर 150 दिन करना; शहरी रोजगार के लिए तत्काल लोक निर्माण कार्यक्रम शुरू करना
• आय के लिए, प्रस्तावित संकट नकद हस्तांतरण को राशन की दुकानों, डाकघरों, पंचायतों और अन्य स्थानीय संस्थानों से सीधे वितरण की नई विकेन्द्रीकृत प्रणालियों के साथ मौजूदा प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण प्रणाली (नरेगा, पीएम-किसान, पीएमजेडीवाई, एनएसएपी) का लाभ उठाना चाहिए.
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भारतीय अर्थव्यवस्था, विशेष रूप से खाद्य प्रणालियों पर अशोक गुलाटी, श्यामा जोस और बीबी सिंह द्वारा [inside] COVID-19: इमर्जेंस, स्प्रेड एंड इट्स इम्पैक्ट ऑन द इंडियन इकोनॉमी एंड माइग्रेंट वर्कर्स (अप्रैल 2021 में जारी) [/inside] नामक अध्ययन COVID-19 महामारी और संबंधित राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन के प्रभाव, खासकर खाद्य प्रणाली की जांच करता है. इस अध्ययन में भारत में लाखों प्रवासी कामगारों के एक महत्वपूर्ण मुद्दे को भी छुआ है, जो इस अवधि के दौरान सबसे अधिक पीड़ित थे. भारत के छह अलग-अलग राज्यों में 2917 प्रवासी कामगारों के एक सर्वेक्षण के माध्यम से उनकी आजीविका, आय और खाद्य असुरक्षा के नुकसान को समझने की कोशिश की गई है. अंत में, अध्ययन देश भर में प्रवासी श्रमिकों के लिए समर्थन को व्यापक बनाने के बारे में सिफारिशें देता है.
महामारी-प्रेरित लॉकडाउन के कारण, भारतीय अर्थव्यवस्था ने वित्तीय वर्ष (FY) 2020-21 (अप्रैल-जून) की पहली तिमाही में 24 प्रतिशत का अनुबंध किया. सबसे बुरी तरह प्रभावित क्षेत्र निर्माण, व्यापार और होटल और अन्य सेवाएं और विनिर्माण थे. नतीजतन, अप्रैल 2020 में बेरोजगारी दर बढ़कर 23.5 प्रतिशत हो गई. महामारी की पहली लहर के मद्देनजर लॉकडाउन में ढील और सरकार द्वारा उठाए गए उपायों को देखते हुए, वित्त वर्ष 2020–21 की दूसरी तिमाही में आर्थिक विकास दर –7.5 प्रतिशत हो गई.
खाद्य प्रसंस्करण उद्योग विशेष रूप से अनाज मिलिंग उत्पादों, डेयरी उत्पादों और पशु और वनस्पति तेल का निर्माण को, लॉकडाउन के दौरान थोड़ी छूट थी. हालांकि, महामारी ने मांस, फलों और सब्जियों के प्रसंस्करण और संरक्षण पर प्रतिकूल प्रभाव डाला. विशेष रूप से, कृषि क्षेत्र एकमात्र ऐसा क्षेत्र है जिसने वित्त वर्ष 2020-21 की पहली दो तिमाहियों के दौरान 3.4 प्रतिशत की सकारात्मक वृद्धि दर दर्ज की है. फिर भी, कृषि-खाद्य आपूर्ति श्रृंखला में व्यवधान, विशेष रूप से लॉकडाउन की प्रारंभिक अवधि के दौरान, style="color:#333333">खाद्य मुद्रास्फीति मार्च 2020 में 8.8 प्रतिशत से बढ़कर अप्रैल 2020 में 11.7 प्रतिशत हो गई, लेकिन वित्त वर्ष 2020-21 की तीसरी तिमाही (दिसंबर) के अंत तक यह घटकर 3.4 प्रतिशत हो गई.
अभूतपूर्व प्रवासी संकट महामारी के दौरान उभरी प्रमुख आपदाओं में से एक था. लॉकडाउन के अचानक लागू होने से न केवल रोजगार पर बल्कि इसके परिणामस्वरूप प्रवासियों के अपने गांवों में पहुंचने के बाद उनकी कमाई और बचत पर गंभीर प्रभाव पड़ा. सर्वेक्षण के निष्कर्षों के अनुसार, उनके मूल स्थान पर, रोजगार के उचित अवसर नहीं होने के कारण, जून-अगस्त 2020 के दौरान प्रवासियों की घरेलू आय में 85 प्रतिशत की गिरावट आई है. लॉकडाउन के बाद आर्थिक गतिविधियों के पुनरुद्धार के साथ, लेखकों ने पाया कि फरवरी 2021 तक 63.5 प्रतिशत प्रवासी अपने गंतव्य क्षेत्रों में लौट आए हैं, जबकि 36.5 प्रतिशत अभी भी अपने गांवों में अपने मूल स्थानों पर थे. हालांकि प्रवास के बाद प्रवासी की घरेलू आय में वृद्धि हुई है, लेकिन अभी भी पूर्व-लॉकडाउन स्तर के सापेक्ष 7.7 प्रतिशत का संकुचन है.
लॉकडाउन के बाद अभी भी अपने मूल स्थान पर रहने वाले प्रवासियों की घरेलू आय प्री-लॉकडाउन की तुलना में 82 प्रतिशत से अधिक कम हो गई है. अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने और कमजोर आबादी को सहायता प्रदान करने के लिए, केंद्र सरकार ने कई पैकेजों की घोषणा की. इनमें सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के तहत सब्सिडी वाले खाद्यान्न की अतिरिक्त मात्रा, जन धन योजना के माध्यम से नकद हस्तांतरण, उज्ज्वला योजना के तहत मुफ्त गैस की आपूर्ति, विधवा / वरिष्ठ नागरिक को एक अनुग्रह राशि के साथ-साथ किसानों को आय हस्तांतरण शामिल है.
पीएम-किसान के तहत कुल मिलाकर, सर्वेक्षण से पता चला है कि 84.7 प्रतिशत प्रवासियों के पास पीडीएस के तहत सब्सिडी वाले अनाज तक पहुंच थी, जबकि दाल प्राप्त करने का प्रतिशत नवंबर-दिसंबर 2020 के दौरान 12 प्रतिशत पर बहुत कम था. इसके अलावा, केवल 7.7 प्रतिशत प्रवासियों ने अपने मूल स्थान पर महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) या कोई अन्य सार्वजनिक कार्य में काम करने की सूचना दी. अध्ययन के लिए किए गए सर्वेक्षण में जीकेआरवाई के तहत मांग आधारित कौशल प्रशिक्षण केवल style="font-size:10.5pt">1.4 प्रतिशत प्रवासियों को उनके मूल स्थान पर पहुंचा.कई श्रमिकों ने पूर्व-लॉकडाउन स्तर की तुलना में लॉकडाउन और पोस्ट-लॉकडाउन के दौरान उपभोग किए गए भोजन की गुणवत्ता में गिरावट की सूचना दी. राहत उपायों और अधिकारों तक पहुंच नहीं होने के कारण, प्रवासी श्रमिकों की त्वरित वसूली गंभीर लगती है.
पहले लॉकडाउन से पहले, उसके दौरान और बाद में प्रवासियों के बीच अलग-अलग कमजोरियों को पकड़ने के लिए अध्ययन के लिए सर्वेक्षण तीन चरणों में आयोजित किया गया था: चरण -1 जून और अगस्त 2020 के बीच; चरण -2 नवंबर और दिसंबर 2020 के बीच; और चरण -3 फरवरी 2021 के अंतिम सप्ताह के दौरान.
कुल मिलाकर, सर्वेक्षण से पता चला कि चरण -2 सर्वेक्षण के दौरान मूल स्थान पर केवल 7.7 प्रतिशत प्रवासियों ने मनरेगा या किसी अन्य सार्वजनिक कार्य में लगे होने की सूचना दी. इससे पता चलता है कि गरीब कल्याण रोजगार योजना (जीकेआरवाई) सहित विभिन्न रोजगार योजनाओं ने या तो इनमें से अधिकांश प्रवासियों की उपेक्षा की है या प्रवासी मनरेगा का काम नहीं करना चाहते हैं. इसके अलावा, मनरेगा योजना के तहत प्रति परिवार रोजगार के औसत दिन वित्त वर्ष 2020-21 में 50.1, वित्त वर्ष 2019-20 में 48.4, वित्त वर्ष 2018-19 में 50.9 (21 अप्रैल, 2021 तक) (MoRD, GOI 2021) थे. मनरेगा के तहत 100 दिनों की रोजगार गारंटी या 125 दिनों के लिए मिशन मोड में जीकेआरवाई के कार्यान्वयन को हासिल नहीं किया गया है. इसके अलावा, 55 प्रतिशत प्रवासी अपने मूल स्थान पर लौटने के इच्छुक हैं, जिनमें से 65.6 प्रतिशत ने रोजगार को लौटने का प्राथमिक कारण बताया. घोषित उपायों और जमीनी स्तर पर कार्यान्वयन के बीच कोई अंतर नहीं है यह सुनिश्चित करने के लिए स्थिति निश्चित रूप से निकट निगरानी की आवश्यकता है.
इसके अलावा, प्रधान मंत्री कौशल विकास योजना के घटक के तहत आयोजित जीकेआरवाई के तहत मांग-संचालित कौशल प्रशिक्षण, इनमें से अधिकांश प्रवासियों तक नहीं पहुंचा है. उदाहरण के लिए, हमारे सर्वेक्षण में केवल 1.4 प्रतिशत प्रवासियों ने अपने मूल स्थान पर कोई कौशल या प्रशिक्षण प्राप्त करने की सूचना दी. लेखकों ने सिफारिश की है कि कुशल और अकुशल प्रवासियों की विस्तृत श्रृंखला को अवशोषित करने के लिए मनरेगा के तहत अनुमेय कार्य के पैमाने को व्यापक बनाया जाना चाहिए. जीकेआरवाई के तहत मांग आधारित आधार पर रोजगार प्रदान करने के लिए प्रवासियों का कौशल मानचित्रण ग्राम पंचायत या ब्लॉक स्तर पर किया जा सकता है.
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सत्वा परामर्श और अन्य संगठनों द्वारा तैयार की गई [inside] भारत में प्रवासी निर्माण श्रमिकों पर COVID-19 महामारी के प्रभाव (दिसंबर 2020 में जारी) [/inside] , नामक अध्ययन रिपोर्ट केमुख्य निष्कर्ष इस प्रकार हैं (देखने के लिए कृपया यहाँ और यहाँ क्लिक करें):
• जून 2020 और अगस्त 2020 के बीच, NEEV – भारत में निर्माण क्षेत्र में श्रमिक कल्याण में सुधार के लिए काम करने वाले भागीदारों के एक बहु-हितधारक संघटन – ने 10,000 से अधिक प्रवासी निर्माण श्रमिकों (बुंदेलखंड क्षेत्र से दिल्ली एनसीआर में पलायन किया था) के साथ उनके जीवन, नौकरियों और व्यक्तिगत कल्याण पर COVID-19 लॉकडाउन के प्रभाव को समझने के लिए दूरस्थ सर्वेक्षण किया. किए गए सर्वेक्षण लॉन्गिट्यूडिनल माइग्रेशन ट्रैकिंग या एलएमटी पर आधारित थे यानी भावी प्रवासियों को पहले नामांकित किया गया था, फिर उनकी बुनियादी जनसांख्यिकीय जानकारी एकत्र की गई और निर्माण उद्योग में काम करने के लिए उनकी मौसमी यात्राओं पर नज़र रखी गई.
• हालांकि 59,129 प्रतिभागियों को अध्ययन के लिए कम से कम एक बार संपर्क किया गया था, कुल प्रतिभागियों के 18 प्रतिशत (यानी n = 10,464) की प्रतिक्रियाओं ने एलएमटी कार्यप्रणाली के अनुसार सर्वेक्षण पूरा किया और सर्वेक्षण परिणामों को प्राप्त करने के लिए आखिरकार ध्यान में रखा गया. अधिकांश उत्तरदाता पुरुष (97 प्रतिशत; n = 10,106) थे, और अनुसूचित जाति (65 प्रतिशत; n = 6,999), अन्य पिछड़ी जाति (25 प्रतिशत, n = 2,549) या अनुसूचित जनजाति (5 प्रतिशत, n = 528) के थे.
• लगभग एक-तिहाई उत्तरदाताओं के पास कोई औपचारिक शिक्षा नहीं थी (n = 3,443; 33 प्रतिशत), एक और 18 प्रतिशत ने केवल प्राथमिक शिक्षा पूरी की थी (n = 1,912; 18 प्रतिशत), 24% ने माध्यमिक शिक्षा प्राप्त की थी (n = 2,929); , जबकि उत्तरदाताओं के एक चौथाई ने 12 वीं कक्षा (n = 2,274; 25 प्रतिशत) पूरी की थी.
• सर्वेक्षण में मार्च 2020 से पहले काम करने वाले 95 प्रतिशत श्रमिकों (n = 9,931) में से अगस्त 2020 तक केवल एक तिहाई (n = 3,493) ने काम करने की सूचना दी, महामारी के दौरान निर्माण क्षेत्र में कार्यरत प्रतिभागियों की संख्या में 65 प्रतिशत की कमी का संकेत दिया.
• यह पाया गया कि लगभग 52 प्रतिशत – या हर दो में से एक – प्रतिभागियों (n = 5,177) की मासिक घरेलू आय नहीं थी.
• जो प्रतिभागी COVID-19 लॉकडाउन से पहले काम कर रहे थे, उनमें 72 प्रतिशत (n = 7,421) को उनके काम के लिए भुगतान मिला था जबकि 28 प्रतिशत (n = 2,839) को नहीं मिला था.
• उन उत्तरदाताओं में से जिन्होंने रिपोर्ट किया था कि उन्हें कोई वित्तीय या किसी प्रकार की सहायता नहीं मिली है, लगभग 58 प्रतिशत कल्याणकारी योजनाओं और लाभों से अनजान थे जिन्हें वे प्राप्त करने के हकदार थे, और आवश्यक दस्तावेज़ होने के बावजूद 27 style="font-size:10.0pt">प्रतिशत लाभ प्राप्त करने में असमर्थ थे.
• सर्वेक्षण किएगए प्रवासी निर्माण श्रमिकों में से, 40 प्रतिशत (4,241) ने बताया कि उन्हें मदद के तौर पर कुछ न कुछ मिला है (मुख्य रूप से भोजन राशन के रूप में.
• इस अध्ययन के प्रतिभागियों ने लॉकडाउन से पहले की दर से दोगुने से अधिक की महामारी के कारण खाद्य आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए पैसे उधार लिए थे, इस बात को पुख्ता करते हुए कि इस समय निर्माण क्षेत्र में प्रवासी श्रमिकों के लिए खाद्य सुरक्षा एक महत्वपूर्ण चिंता है. निर्माण उद्योग में प्रवासी श्रमिकों के बीच ऋणग्रस्तता बढ़ने से आधुनिक दासता का खतरा बढ़ जाता है.
• उत्तरदाताओं के एक महत्वपूर्ण अनुपात ने बताया कि उनके पास कोई बचत नहीं थी (34 प्रतिशत; n = 3,536), जो न केवल COVID-19 लॉकडाउन की गंभीरता को बढ़ाता है, बल्कि इन व्यक्तियों के लिए जोखिम भरे रोजगार के दबाव की ओर बढ़ने की क्षमता भी है.
• अध्ययन में पाया गया है कि सर्वेक्षण किए गए प्रवासी निर्माण श्रमिकों के बीच प्राथमिक चिंता खाद्य असुरक्षा थी.
• जबकि राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत कवर किए गए प्रत्येक राशन-कार्ड धारक को राशन की राशि का संकट पीएम गरीब कल्याण योजना योजना के माध्यम से संकट के दौरान किया गया था, अध्ययन के निष्कर्षों से संकेत मिलता है कि मजदूरों के एक बड़े हिस्से (निर्माण श्रमिकों का 33 प्रतिशत जो प्रतिक्रिया देते हैं) के पास राशन कार्ड नहीं थे जो उन्हें इन लाभों का लाभ उठाने की अनुमति देगा. इसके अतिरिक्त, उन प्रवासी श्रमिकों के लिए जिनके पास राशन कार्ड हैं, इन लाभों को गंतव्य स्थानों पर पोर्टेबिलिटी की कमी अभी भी एक चुनौती पेश करती है.
• सर्वेक्षण में शामिल अधिकांश प्रवासी श्रमिकों ने बताया कि उन्हें सरकारी कल्याण कार्यक्रमों से कोई मदद नहीं मिली है.
[वेल्थथुर्हेल्फ़ और कंसर्न वर्ल्डवाइड द्वारा जारी की गई इस रिपोर्ट का सारांश तैयार करने में इनक्लुसिव मीडिया फॉर चेंज टीम की सहायता शिवांगिनी पिपलानी ने की है. शिवांगिनी, बर्लिन स्कूल ऑफ बिजनेस एंड इनोवेशन से एमए इन फाइनेंस एंड इन्वेस्टमेंट (प्रथम वर्ष) कर रही हैं. उन्होंने दिसंबर 2020 में इनक्लुसिव मीडिया फॉर चेंज प्रोजेक्ट में अपने विंटर इंटर्नशिप के हिस्से के रूप में यह काम किया है.]
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इस लॉकडाउन में कपड़ा उद्योग से जुड़े श्रमिकों की स्थिति पर दिल्ली स्थित एक एनजीओ ‘सोसाइटी फॉर लेबर एंड डेवलपमेंट’ ने [inside]‘गारमेंट वर्कर्स इन इंडियाज लॉकडाउन सेमी स्टारवेसन एंड डी-ह्युमनाइजेशन लीड टू एक्सोडस’ (जून 2020 में जारी)[/inside] नामक एक रिपोर्ट तैयार की है. इस रिपोर्ट में उन्होंने जांच की है कि कपड़ा उद्योग से जुड़े श्रमिकों को उनके नियोक्ता या सरकार द्वारा कोई आय सहायता न मिलने के कारण पैदा हुई प्रतिकूल परिस्थितियों का उनके और उनके परिवारों ने कैसे मुकाबला किया है. सोसाइटी फॉर लेबर एंड डेवलपमेंट द्वारा ने यह सर्वे राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (यानी दिल्ली और उसके आसपास) और तमिलनाडु के तिरुप्पूरइलाके में किया गया था. मई, 2020 के दूसरे पखवाड़े में लगभग 100 कपड़ा श्रमिकों (ज्यादातर प्रवासी थे) से टेलीफोनिक साक्षात्कार किए गए थे. सर्वेक्षण में राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के लगभग 72 श्रमिकों और तिरुप्पुर के 28 श्रमिकों ने भाग लिया था. उत्तर प्रदेश और बिहार में अपने गांवों में वापस लौट आए श्रमिकों के हालातों का भी ग्राउंड जीरो पर जाकर जायजा लिया.
रिपोर्ट के प्रमुख निष्कर्ष इस प्रकार हैं (एक्सेस करने के लिए कृपया यहां क्लिक करें):
• साक्षात्कार में 100 कपड़ा श्रमिकों में से 57 महिलाएं थीं और 43 पुरुष थे. 54 श्रमिक (23 पुरुष और 31 महिला) स्थायी रुप से कार्यरत थे और 44 श्रमिक कॉन्ट्रैक्ट (20 पुरुष और 24 महिला) पर काम कर रहे थे. दो महिला उत्तरदाता अपने घर से काम कर रही थीं. अधिकांश श्रमिक अंतर-राज्य प्रवासी थे और कुछ राज्य के आंतरिक प्रवासी (28 श्रमिक) थे. लगभग 69 प्रतिशत अंतर-राज्य प्रवासी श्रमिक भारत के उत्तरी बेल्ट से थे, जिसमें 49 प्रतिशत अकेले बिहार से संबंध रखते थे. रिपोर्ट में पाया गया कि सैंपल में भोजन की खपत पुरुषों के मुकाबले महिलाओं में अधिक थी. ऐसा नमूने में अधिक संख्या में विवाहित महिलाओं की उपस्थिति के कारण ऐसा हो सकता है, जिनको अविवाहित पुरुष उत्तरदाताओं के उल्ट अपने परिवार का पालन-पोषण करना पड़ता होगा.
• रिपोर्ट के अनुसार, लॉकडाउन मार्च के अंतिम सप्ताह में लगाया गया था, केवल 19 प्रतिशत श्रमिकों (100 श्रमिकों में से 19) को नकद या किसी न किसी रूप में अग्रिम भुगतान किया गया. नकद या अग्रिम भुगतान भी भविष्य में ओवरटाइम काम करने पर मिलने वाली आय में कटौती की शर्त पर दिया गया था. उन्हें सिर्फ 1,800 रुपए से लेकर 10,969 रुपए प्रति श्रमिक भुगतान दिया गया था. स्थायी कर्मचारी कपड़ा निर्यातकों से अपना बकाया प्राप्त करने में विफल रहे. ठेकेदारों ने अपने मोबाइल फोन स्विच ऑफ करके श्रमिकों को उनके हाल पर छोड़ दिया. रिपोर्ट बताती है कि सरकार ने लॉकडाउन के दौरान श्रमिकों को आय सहायता प्रदान करके उनकी मदद नहीं की. लॉकडाउन संकट के दौरान, सरकार ने केवल उन महिलाओं को केवल 500 रुपए दिए जिनके पास बैंक खाते थे.
• कृपया ध्यान दें कि सरकार ने 26 मार्च, 2020 को घोषित किया था कि राहत के तौर पर अप्रैल से शुरू होने वाले अगले तीन महीनों के लिए महिला जन धन खाता धारकों को 500 रुपये दिए जाएंगे. यह प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना का हिस्सा था.
• कपड़ा श्रमिकों को नियोक्ता या सरकार द्वारा किसी भी तरह की आय सहायता प्रदान नहीं की गई. चूंकि अधिकांश उत्तरदाता प्रवासी थे, इस वजह से उनके पास राशन कार्ड नहीं थे जिससे कि उन्हें सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) की की दुकानों से उचित दामों पर सब्सिडी वाले खाद्यान्न मिल पाते. प्रवासियों के पास अपने वर्तमान आवासीय पते का कोई सबूत नहीं था क्योंकि जहां पर वे काम कर रहे थे, उन कारखानों ने उन्हें पहचान पत्र नहीं दिया गया था. इसके अलावा, उनके मकानमालिकों ने उन्हें किराए की कोई रसीद भी नहीं दी थी. इसलिए, वे अपनेवर्तमान स्थानीय पते के किसी भी तरह के प्रमाण दिखाने में असमर्थ थे. सर्वेक्षण के परिणाम बताते हैं कि केवल 20 श्रमिक ही सरकार द्वारा दिए जाने वाले सब्सिडाइज्ड खाद्यान्न प्राप्त कर पाए थे. कुछ ट्रेड यूनियनों और एनजीओ उनकी मदद के लिए आगे आए और तालाबंदी के दौरान कपड़ा श्रमिकों को पका हुआ भोजन प्रदान किया. जवाब देने वाले 97 श्रमिकों में से, छह श्रमिक बड़ी मुश्किल से एक दिन में एक ही बार भोजन कर पा रहे थे जबकि 69 श्रमिक लॉकडाउन के दौरान एक दिन में दो बार भोजन खा पा रहे थे. दो श्रमिकों ने बताया कि वे दिन में एक बार ही भोजन कर पा रहे हैं और कभी-कभी दिन में दो बार भी भोजन खा पाते हैं. इस प्रकार, 82 प्रतिशत श्रमिक लॉकडाउन के दौरान दिन में केवल दो या उससे कम बार भोजन खा सकते थे. अगर संक्षेप में कहें तो, अधिकांश कपड़ा श्रमिकों और उनके परिवारों ने उस अवधि के दौरान भुखमरी का अनुभव किया.
• सोसाइटी फॉर लेबर एंड डेवलपमेंट की रिपोर्ट से पता चलता है कि अधिकांश आंतरिक राज्य प्रवासी अपने आस-पास के गांवों में वापस चले गए, जबकि अंतर-राज्य प्रवासी शहरों या उन जगहों पर पैसे के बिना फंसे हुए थे, जहां वे काम कर रहे थे. उन्हें भूख और भुखमरी का सामना करना पड़ रहा था. कई लोगों ने अपनी बचत के पैसे का इस्तेमाल किया या अपनी मूल जगह पर वापस लौटाने के लिए पैसे उधार लिए. अनुमान बताते हैं कि तिरुप्पुर में लगभग 40 प्रतिशत अंतर-राज्य के प्रवासी अपने गाँव / मूल निवास वापस चले गए. बिहार और उत्तर प्रदेश में की गई जमीनी पड़ताल में पाया गया है कि जो कर्मचारी वापस गए थे, उन्होंने प्रति माह लगभग 20 प्रतिशत की ब्याज दर पर महाजनों से पैसा उधार लिया था. प्रवासी श्रमिक इस बात से डर रहे थे कि अगर वे यह रकम वापस न कर पाए तो, इतनी ज्यादा ब्याज दरें कहीं उनसे उनकी संपत्ति न छीनवा दें. अपने मूल स्थान पर वापस जाने वाले प्रवासियों ने कहा कि वे अपने आप को असहाय महसूस कर रहे थे और अपने गांवों में जीवित न रह पाने का डर उन्हें घेरे हुए था. रिपोर्ट बताती है कि लॉकडाउन ने सरकार के वर्गवादी स्वभाव को उजागर कर दिया क्योंकि सरकार ने मध्यम और उच्च वर्ग के छात्रों के लिए त्वरित यात्रा सुविधाओं की व्यवस्था कर दी थी, जबकि प्रवासियों के लिए उन सुविधाओं की व्यवस्था बहुत बाद की गई.
• रिपोर्ट में ऐसे उदाहरणों का जिक्र है जिनमें तिरुप्पुर में प्रवासियों को उनकी इच्छा के विरुद्ध शयनगृह में रखा गया था और उन्हें खाने के लिए खराब गुणवत्ता वाला भोजन दिया जा रहा था. उन्हें वहां रहने के लिए जबरदस्ती मजबूर किया गया. तिरुप्पुर में विरोध प्रदर्शन हुए और कुछ श्रमिकों को पुलिस ने विरोध करने पर गिरफ्तार कर लिया. कुछ प्रवासियों ने कहा कि वे काम पर वापस नहीं जाएंगे जबकि अन्य का मानना था कि वे वापस जा सकते हैं क्योंकि उनके गाँव / मूल स्थान पर बहुत सीमित अवसर उपलब्धहैं. रिपोर्ट के अनुसार, दिहाड़ी-मजूरी बढ़ने के कारण परिधान उद्योग में मजदूरों की जगह स्वचाचित मशीनें ले सकती हैं. शहरी क्षेत्रों में कुशल श्रमिकों की उपलब्धता की कमी और मांग-आपूर्ति के बढ़ने के कारण, मजदूरी बढ़ने की उम्मीद है. रिपोर्ट में कहा गया है कि नियोक्ताओं के साथ-साथ सरकार द्वारा आय सहायता उपलब्ध न करवाए जाने के कारण सरकार ने कपड़ा श्रमिकों को भूख की तऱफ धकेल दिया है, इतना ही नहीं, उन्हें सम्मानित मानवीय जिंदगी से भी वंचित कर दिया है. जिसके नतीजतन, लॉकडाउन लागू होने पर शहरों से गांवों में प्रवासियों का सामूहिक पलायन हुआ.
• रिपोर्ट परिधान निर्यातकों के दो सर्वेक्षणों का हवाला देती है, जो कि मई 2020 में परिधान निर्यात संवर्धन निगम द्वारा आयोजित किया गया था. उन दोनों सर्वेक्षणों के दौरान लगभग 105 और 88 निर्यातकों का सर्वेक्षण किया गया था. लगभग 83 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने कहा कि उनके ऑर्डर पूरी तरह से या आंशिक रूप से रद्द कर दिए गए थे. लगभग 72 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने कहा कि खरीदार पहले से खरीदी गई सामग्रियों की जिम्मेदारी नहीं ले रहे थे. लगभग 52 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने कहा कि खरीदार पहले से ही भेजे गए माल भेजने पर छूट के लिए पूछ रहे थे. उत्तरदाताओं में, लगभग 72 प्रतिशत ने इस बात पर प्रकाश डाला कि खरीदार लगभग 20 प्रतिशत की छूट के लिए कह रहे थे, जबकि 27 प्रतिशत ने बताया कि खरीदार 40 प्रतिशत या उससे अधिक के लिए छूट मांग रहे थे. लगभग 88 प्रतिशत निर्यातकों ने अपने कर्मचारियों को मजदूरी देने में असमर्थता व्यक्त की.
[बालू एन वरदराज और नबारुन सेनगुप्ता, जो टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज, हैदराबाद से डेवलपमेंट स्टडीज (प्रथम वर्ष) में एमए कर रहे हैं. इन दोनों ने सोसाइटी फॉर लेबर एंड डेवलपमेंट द्वारा जारी की गई इस रिपोर्ट का सारांश तैयार करने में इनक्लूसिव मीडिया फॉर चेंज की मदद की. बालू और नबारुन ने जून-जुलाई 2020 में इनक्लूसिव मीडिया फॉर चेंज प्रोजेक्ट में अपनी इंटर्नशिप के दौरान यह काम किया है.]
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स्ट्रैंड वर्कर्स एक्शन नेटवर्क (स्वान) द्वारा तैयार की गई [inside]‘टू लीव या नॉट टू लीव? लॉकडाउन, माइग्रेंट वर्कर्स एंड देयर जर्नीज् होम’[/inside] नामक रिपोर्ट के मुख्य अंश जानने के लिए कृपया यहां और यहां क्लिक करें.
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[inside]‘अनलॉकिंग द अर्बन: रीमैजिनिंग माइग्रेंट लाइव्स इन सिटीज पोस्ट-कोविड-19’(1 मई, 2020 को जारी)[/inside] नामक रिपोर्ट के प्रमुख निष्कर्षों तक पहुंचने के लिए कृपया यहां क्लिक करें. आजीविका ब्यूरो की पूरी रिपोर्ट देखने के लिए कृपया यहाँ क्लिक करें.
कोविड संक्रमण से पहले के डेटा का उपयोग करके तैयार की गई आजीविका ब्यूरो की रिपोर्ट, अहमदाबाद और सूरत में रह रहे किस्म-किस्म के कार्य क्षेत्रों और विविध जातियों, लिंगों, भाषा समूहों और क्षेत्रों के प्रवासी श्रमिकों की जिंदगी की तस्वीर खिंचती है. इस रिपोर्ट के माध्यम से, रिपोर्ट के लेखकों ने "शहरी क्षेत्रों में प्रवासी श्रमिक सार्वजनिक प्रावधान जैसे कि आवास, पानी, स्वच्छता, भोजन, और स्वास्थ्य सेवा का कैसे फायदा ले पाते हैं?"
आजीविका ब्यूरो की रिपोर्ट ‘अनलॉकिंग द अर्बन: रीमैजिनिंग माइग्रेंट लाइव्स इन सिटीज पोस्ट-कोविड-19’(1 मई,2020 को जारी) में अहमदाबाद और सूरत (गुजरात) में रह रहे प्रवासी श्रमिकों की सामाजिक-आर्थिकऔर आवासीय स्थिति पर प्रकाष डालती है और यह जानने की कोशिश करती है कि प्रवासी श्रमिक बुनियादी सुविधाओं और सेवाओं का उपयोग कैसे करते हैं. इसके अलावा प्रवासी श्रमिक इन सुविधाओं के लिए कैसे संघर्ष करते हैं और अर्बन प्लानिंग डिपार्टमेंट और प्रशासन इन मौसमी प्रवासियों की आवश्यकताओं का क्या जवाब देते हैं.
अहमदाबाद और सूरत सर्वेक्षण मुख्य रूप से 2018 के दौरान अगस्त, सितंबर और अक्टूबर के महीनों में और 2019 के दौरान फरवरी, अगस्त, सितंबर और अक्टूबर के महीनों में किए गए थे. अहमदाबाद और सूरत सर्वेक्षण से उपलब्ध हुए डेटा से तैयार हुई इस रिपोर्ट के प्रमुख निष्कर्ष नीचे संक्षेप में प्रस्तुत किए गए हैं.
अहमदाबाद सर्वेक्षण से संबंधित मुख्य निष्कर्ष:
• अहमदाबाद में काम कर रहे लगभग 13 लाख मौसमी प्रवासी काम करते हैं. इस रिपोर्ट में अहमदाबाद की 32 जगहों से 285 श्रमिकों का सर्वेक्षण किया गया और उनमें से अधिकांश प्रवासी पांच प्रमुख क्षेत्रों में कार्यरत थे. निर्माण क्षेत्र में लगभग 80 उत्तरदाता (28.07 प्रतिशत) काम कर रहे थे, विनिर्माण (मैनुफैक्चरिंग) में 72 उत्तरदाता (25.26 प्रतिशत), होटल और ढाबे में 47 उत्तरदाता (16.49 प्रतिशत), 44 उत्तरदाता (15.44 प्रतिशत) सर पर बोझा ढोने और 42 उत्तरदाता (14.73 प्रतिशत) घरेलू सहायता क्षेत्र में काम कर रहे थे.
• मोटे तौर पर 174 उत्तरदाता (61.05 प्रतिशत) पुरुष थे जबकि 111 (38.94 प्रतिशत) उत्तरदाता महिलाएं थीं. कुल उत्तरदाताओं में से लगभग 44.6 प्रतिशत (127 उत्तरदाता) अनुसूचित जनजाति (एसटी), 23.5 प्रतिशत (67 उत्तरदाता) अनुसूचित जाति (एससी) थे, 12.3 प्रतिशत (35 उत्तरदाता) अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) और 19.6 प्रतिशत (56 उत्तरदाता) सामान्य जातियों से थे. लगभग 176 उत्तरदाता (61.75 प्रतिशत) परिवार समेत प्रवास किए हुए थे और बाकी 109 उत्तरदाता (38.25 प्रतिशत) श्रमिक अकेले रह रहे थे. प्रवासी श्रमिक ज्यादातर राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार, ओडिशा और छत्तीसगढ़ राज्यों से थे.
• अहमदाबाद शहर में रह रहे प्रवासी श्रमिकों की आवास स्थिति को समझने के लिए किराए के कमरे, काम की जगहों पर आवास और खुले स्थानों में बसने के तौर पर वर्गीकृत किया गया था. प्रवासियों के सर्वेक्षण में, 151 उत्तरदाता (लगभग 53 प्रतिशत) किराए के कमरों में रहते थे, 79 उत्तरदाता (27.7 प्रतिशत) कार्यस्थल पर रहते थे, 37 उत्तरदाता (लगभग 13 प्रतिशत) खुले स्थानों में रहते थे और 18 (6.3 प्रतिशत) उत्तरदाता कुछ अन्य तरीकों से रह रहे थे जैसे अर्ध स्थायी निवास. कारखाने में काम करने वाले श्रमिक और घरेलू श्रमिक ज्यादातर किराए के कमरों में रहे थे. कारखाने के श्रमिकों में 63.9 प्रतिशत (72 उत्तरदाताओं में से 46) और 83.3 प्रतिशत घरेलू श्रमिक (42 उत्तरदाताओं में से 35) किराए के मकान में रह रहे थे. निर्माण श्रमिकों के लगभग 41.3 प्रतिशत (80 उत्तरदाताओं में से 33) खुले स्थानों में रह रहे थे. मोटे तौर पर होटल श्रमिकों में किराए के घरों में 51.1 प्रतिशत (47 में से 24) और 48.9 प्रतिशत श्रमिक काम करने की जगह (47 में से 23) पर रह रहे थे.
• किराए के कमरों के लिए, 10 × 10 वर्ग फुट के पक्के कमरे के लिए मासिक औसत 3,022 / रुपये किराया था, जोकि अकुशल एसटी (आदिवासी) श्रमिकों के लिए बहुत महंगा था. इतने महंगे किराएके चलते अकेले श्रमिक 4-5 साथी श्रमिकों के साथ मिलकर एक कमरे में रहे थे. किराये का बाजार बिना किसी लिखित अनुबंध के अनियमित रुप से काम करता है. किराए पर दी जाने वाली सुविधाएं किरायेदार की मकान मालिक के साथ सद्भावना पर निर्भर करती हैं. कंस्ट्रक्शन वर्कर्स, सर पर बोझ ढोने वाले और होटल / ढाबे पर काम करने वाले ज्यादातर श्रमिक कार्यस्थल पर ही रह रहे थे.
• कोई भी प्रवासी श्रमिक सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के माध्यम से सब्सिडी वाले खाद्यान्न नहीं प्राप्त कर रहा था. खुले स्थानों में रहने वाले श्रमिकों का सबसे ज्यादा खर्च भोजन पर हो रहा था(उनकी आय का लगभग 53 प्रतिशत). उनकी आय के प्रतिशत के रूप में भोजन पर खर्च, होटल / ढाबा श्रमिकों (17 प्रतिशत) के लिए सबसे कम था, इसके बाद घरेलू कामगार (42 प्रतिशत), कारखाना श्रमिक (43 प्रतिशत), बोझ ढोने वाले (44 प्रतिशत), और निर्माण श्रमिक (48) प्रतिशत) भोजन पर खर्च कर रहे थे. अक्सर किराए के मकानों में रह रहे कारखाने के श्रमिकों को अपने मकान मालिकों द्वारा बनाई गई दुकानों से राशन खरीदने के लिए मजबूर किया जाता था. कारखानों में रहने वाले और खतरनाक परिस्थितियों में काम करने वाले आदिवासी परिवार अपनी आय का सिर्फ 29 प्रतिशत भोजन पर खर्च कर रहे थे. इसका कारण यह था कि तंबाकू का लगातार खाकर वह अपनी भूख मार लेते थे. ईंधन के लिए, खुले क्षेत्रों में रहने वाले आदिवासी परिवारों को प्लास्टिक के टुकड़ों से लेकर लकड़ी की छीलन तक विभिन्न सामग्रियों को एकत्र करना पड़ रहा था. जलाऊ लकड़ी खरीदने में 100 रुपए औसतन प्रति दिन खर्च करना पड़ता था, जोकि बहुतों के लिए संभव नहीं था.
• स्वास्थ्य देखभाल के क्षेत्र में, केवल 14.7 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने उपचार के लिए सार्वजनिक अस्पतालों को प्राथमिकता दी, 74.4 प्रतिशत ने निजी क्लीनिकों को प्राथमिकता दी, 14.4 प्रतिशत ने निजी अस्पतालों को प्राथमिकता दी, 5 प्रतिशत उपचार के लिए अपने गांवों में वापस लौट गए थे और 0.7 प्रतिशत ने शहरी स्वास्थ्य केंद्रों को प्राथमिकता दी. शहरी स्वास्थ्य केंद्र सुबह 9 बजे-शाम 6 बजे तक खुले रहते हैं, जोकि प्रवासियों के लिए दिहाड़ी का समय होता है और इसलिए स्वास्थ्य केंद्र जाने का मतलब उनकी दैनिक मजदूरी छूटना है. सार्वजनिक अस्पताल अक्सर विभिन्न प्रकार के अधिवास दस्तावेज दिखाने के लिए जोर देते हैं जो अक्सर प्रवासी श्रमिकों के पास उपलब्ध नहीं होते हैं. इसलिए वे इन अस्पतालों में नहीं जाते हैं. यहां तक कि उन 40 उत्तरदाताओं में से जिन्होंने कहा कि वे सार्वजनिक अस्पतालों को पसंद करते हैं, उनमें से 39 श्रमिक 3 साल से अधिक समय से अहमदाबाद में रह रहे थे. उनमें से लगभग 48 प्रतिशत सामान्य वर्ग के थे और केवल 20 प्रतिशत ही आदिवासी श्रमिक थे.
• अहमदाबाद शहरी विकास प्राधिकरण (AUDA) 10 वर्षों के लिए स्थैतिक योजना तैयार करता है जोकि शहरों की बदलती प्रकृति पर ध्यान न दिए जाने के कारण विफल साबित हुई है. AUDA अधिकारियों के अनुसार, श्रमिकों के लिए आवास वास्तव में शहरीकरण योजनाओं का हिस्सा हीनहीं है. एएमसी ने विस्तार या भूमि सुधार अभियान शुरू कर, खुले स्थान में रहने वालेश्रमिकों को सरकार द्वारा निर्मित रैन बसेरों में प्रवासी श्रमिकों को भेजने की कई बार कोशिश की है, लेकिन अक्सर ऐसे प्रयास असफल रहे हैं, क्योंकि रैनबसेरों की अपर्याप्तता और उनकी अपर्याप्त क्षमताओं के कारण श्रमिक वहां नहीं रहते.
सूरत सर्वेक्षण से संबंधित मुख्य निष्कर्ष:
• सूरत, वह शहर है जिसकी अक्सर 2019-35 की अवधि के दौरान दुनिया के सबसे तेजी से बढ़ते शहरों के तौर पर गिनती होती है. इस शहर में 1980 के दशक के बाद से ही हीरा, कपड़ा, जहाज निर्माण और पेट्रोकेमिकल उद्योग में उछाल देखा गया. जिसके चलते प्रवासी श्रमिक भारी तादाद में यहां आने शुरू हुए. वर्तमान में, यहां काम करने वाले लगभग 70 प्रतिशत कर्मचारी प्रवासी हैं, जोकि स्थानीय लोगों के अनुपात के तौर पर देश में सबसे अधिक हैं. सूरत में सर्वेक्षण, शहर के 12 विभिन्न स्थानों में पावर लूम उद्योग में काम करने वाले 150 प्रवासी श्रमिकों के बीच किया गया था. कुल मिलाकर, 106 (70.7 प्रतिशत) अकेले रहने वाले पुरुष प्रवासी श्रमिक थे और 44 प्रवासी (29.3 प्रतिशत) शहर में अपने परिवारों के साथ रहते थे. लगभग 72 प्रतिशत श्रमिक ओडिशा (ज्यादातर गंजम जिले से) थे, 16 प्रतिशत बिहार से थे, 10 प्रतिशत उत्तर प्रदेश से थे, और 1 प्रतिशत प्रत्येक महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश से थे.
• लगभग 56 प्रतिशत उत्तरदाता ओबीसी थे, 26 प्रतिशत सामान्य वर्ग के थे, 10 प्रतिशत अनुसूचित जनजाति वर्ग के थे और 6 प्रतिशत अनुसूचित जाति वर्ग के थे.
• श्रमिकों के आवास को तीन तरह से विभाजित किया गया, – होस्टल के कमरे जहां 25 उत्तरदाता (16.7 प्रतिशत) रह रहे थे, साझे कमरे यानी कमरे में साझे तौर पर 81 उत्तरदाता (54 प्रतिशत) रहते थे और परिवार के साथ किराए पर 44 उत्तरदाता (29.3 प्रतिशत) रह रहे थे. इस प्रकार, सभी अकेले प्रवास कर काम करने वाले पुरुष प्रवासी श्रमिक किसी न किसी तरह की साझा सुविधाओं में रह रहे थे. किराए के कमरों के मामले में कमरे का किराया 2500-4000 रुपए तक मिलता है जिनमें कई सारे कमरों के लिए एक सामान्य शौचालय की सुविधा होती है. इस तरह के कमरे को 2 से 10 तक प्रवासी साझा करते हैं. होस्टल कमरे में 500-1000 वर्ग फीट के बड़े बड़े हॉल होते हैं, जहां लगभग 100 श्रमिक दो शिफ्टों में रहते हैं. एक हॉल पर 2 शौचालय होते हैं. होस्टल कमरे के साथ प्रति दिन 2 बार भोजन दिया जाता है. प्रवासियों को कमरे के किराए के तौर पर Rs.400-Rs.600 और भोजन के लिए Rs.1,800-Rs.2200 रुपए तक भुगतान करना होता है. अधिकांश कमरे घुटन वाले थे. आमतौर पर पुराने पावर लूम स्पेस एक होस्टल के रूप में परिवर्तित हो जाते हैं और होस्टल मैनेजर द्वारा चलाए जाते हैं. किराए के मकानों में रहने वाले प्रवासी परिवारों को 80 वर्ग फुट से 200 वर्ग फुट तक के कमरे के लिए 1,800-3800 रुपए तक किराया चुकाना पड़ रहा था.
• सभी प्रवासियों के पास शौचालय की सुविधा थी. लगभग 83 प्रतिशत उत्तरदाता अपने निवास स्थान पर साझा शौचालय इस्तेमाल कर रहे थे. लगभग एक-तिहाई प्रवासी साझा बाथरूम, 46 प्रतिशत कच्चे बाथरूम और लगभग 20 प्रतिशत निजी बाथरूम इस्तेमाल कर रहेथे. मोटे तौर पर, 93 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने कहा कि उनके यहां पानी की निकासी के लिए सीवर व्यवस्था थी, लेकिन आमतौर पर रखरखाव ठीक तरह से न होने के चलते सीवर रुके पड़े थे. सूरत महानगर पालिका (एसएमसी) द्वारा स्थापित कचरा संग्रह स्थानों पर और सड़कों के आसपास अक्सर कचरा बिखरा हुआ पड़ा रहता है.
• प्रवासी श्रमिकों के लिए पानी के स्रोतों में बोरवेल, पाइप लाइन यानी टूटी से पानी और सरकारी टैंकर शामिल हैं. लगभग 79 प्रतिशत उत्तरदाताओं को एसएमसी द्वारा पीने के लिए पानी की उपलब्धता थी. इसके अलावा 76 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने पानी को फील्टर यानी शुद्ध नहीं किया. बिजली सभी श्रमिकों के पास उपलब्ध थी और शायद ही कभी बिजली का कट लगता हो. बिजली की लागत या तो किराए में शामिल थी (उत्तरदाताओं के दो-तिहाई के लिए) या मकान मालिकों को अलग से भुगतान किया जाना था. पानी और बिजली जैसी सुविधाओं की गुणवत्ता आमतौर पर मकान मालिक के साथ किरायेदार के संबंधों पर निर्भर रहती है. ईंधन के मामले में, सभी उत्तरदाताओं के पास एलपीजी सिलेंडर थे और खाना पकाने के लिए होस्टल मालिक आमतौर पर काला बाजारी से सिलेंडर खरीद रहे थे. 4-5 सदस्यों वाले परिवारों में एक महीने में एक सिलेंडर की खपत देखी गई.
• लगभग 92 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने बिमारी के उपचार के लिए निजी स्वास्थ्य देखभाल सुविधाओं जैसे निजी अस्पतालों, निजी क्लीनिकों, क्वैक्स आदि का उपयोग किया. लगभग 18 श्रमिकों (कुल उत्तरदाताओं का 12 प्रतिशत) ने पिछले वर्ष में किसी भी प्रकार की दुर्घटना की सूचना दी. अक्सर, श्रमिक किसी भी गंभीर बिमारी के इलाज के लिए अपने पैतृक गांवों में वापस जाना पसंद करते हैं. सूरत म्युनिसिपल इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल एजुकेशन एंड रिसर्च (एसएमआईएमईआर) जैसी सरकारी सुविधाओं में रियायती स्वास्थ्य सेवाओं का लाभ उठाने के लिए अधिवास दस्तावेजों की आवश्यकता के कारण प्रवासी श्रमिक वहाँ नहीं गए. आशा श्रमिक अक्सर प्रवासियों के मोहल्लों में दौरा नहीं करतीं, खासकर अगर मोहल्ले में रहने वाले ज्यादातर एकल पुरुष प्रवासी हो तों. इसके अलावा, केवल 31 प्रतिशत उत्तरदाताओं को आयुष्मान भारत जैसी सरकारी योजनाओं के बारे में पता था.
• प्रवासी श्रमिकों के लगभग 71 बच्चों को सर्वेक्षण के एक भाग के रूप में दर्ज किया गया. उनमें से 40 बच्चे स्कूल जाने की उम्र के थे, लेकिन उनमें से 30 प्रतिशत किसी भी तरह के स्कूल में नहीं जाते थे. इसके बजाय वे धागा काटने के काम को पूरा करने में अपनी माताओं की मदद कर रहे थे. जिन इलाकों में सर्वे हुआ, उनमें सरकारी स्कूलों की कमी थी. दस्तावेजों और सरकारी स्कूलों की कमी के अलावा भी गुजराती-माध्यम के स्कूलों के कारण भी प्रवासी अपने बच्चों को वहाँ दाखिला नहीं दिलवा पाए. हालांकि कुछ ओडिया माध्यम के स्कूल भी थे, लेकिन उनमें केवल 8 वीं कक्षा तक की कक्षाएं थीं. इस वजह से प्रवासियों के बच्चे दिहाड़ी-मजदूरी करने के लिए मजबूर थे. मोटे तौर पर 15 प्रतिशत बच्चे किसी समय आंगनबाड़ियों में गए. लगभग 14 प्रतिशत बच्चों का टीकाकरण बिल्कुल नहीं किया गया.
• लगभग36 प्रतिशत उत्तरदाता (55 उत्तरदाता) प्रति माह Rs.15,000-Rs.17000 रुपये कमा रहे थे. अकेले रहकर काम कर रहेप्रवासी कामगार अपनी आय का 40-60 प्रतिशत अपने घर वापस भेज देते थे. वह स्थानीय दुकानदारों की मदद से अनौपचारिक तरीके से नेट बैंकिंग के माध्यम से घर पैसे घर भेज रहे थे, जिसके लिए दुकानदार प्रत्येक 1,000 रुपये के लेनदेन के लिए 10 से 20 रुपये तक का शुल्क लेते हैं. केवल 21 प्रतिशत श्रमिकों के पास सूरत के वोटर कार्ड थे और 31 प्रतिशत के पास सूरत के आधार कार्ड थे. केवल 21 प्रतिशत श्रमिकों के पास बैंक खाता था. परिवार-आधारित प्रवासियों में महिलाएं आमतौर पर अपने पति के नियोक्ता के लिए धागा काटने का काम कर रही थीं, जिसकी एवज में औसतन प्रति दिन 6 घंटे काम करने के बावजूद, प्रति माह 1,500 से रु 3,000 रुपये की मामूली तनख्वाह ही उन्हें मिल रही थी.
• लगभग 98 प्रतिशत श्रमिकों का क्षेत्र के किसी भी सरकारी अधिकारी से कभी कोई संपर्क नहीं था और केवल 8 उत्तरदाता (5.3 प्रतिशत) कभी पुलिस स्टेशन में गए थे. पुलिस इन श्रमिकों को कीड़े मकौड़े समझती है जो नशा करके हर छोटे मुद्दे पर एक-दूसरे के साथ लड़ते रहते हैं.
प्रवासियों की स्थिति और राज्य की प्रतिक्रिया
ऊपर दिए गए दो अनुभागों में हमने अहमदाबाद और सूरत में प्रवासियों श्रमिकों के जीवन-यापन चक्र को देखा. आजीविका ब्यूरो द्वारा किए गए इस अध्ययन के तीन शोध उद्देश्य हैं: 1) अहमदाबाद और सूरत में सर्कुलर प्रवासियों की बुनियादी सुविधाओं और सेवाओं तक पहुंच की स्थिति क्या है?; 2) यदि इन मूलभूत सुविधाओं का अभाव है, तो बुनियादी सुविधाओं और सेवाओं का फायदा लेने के लिए प्रवासी प्रशासन से कैसे बातचीत करते हैं;; और 3) अर्बन प्लानिंग डिपार्टमेंट और प्रशासन इन प्रवासियों के सवालों का क्या जवाब देते हैं और इन नीतियों का उनके जीवन पर क्या प्रभाव पड़ता है?
• इस रिपोर्ट से हमें पता चलता है कि ये शहर किस तरह के विकास मॉडल की बिनाह पर टिके हैं. नव-उदारवादी विकास मॉडल जो पैदावार बढ़ाकर संचय करने के एकमात्र सिद्धांत पर काम करता है, जिसके कारण ही प्रवासियों की मूलभूत सुविधाओं तक पहुंच नहीं है. नव-उदारवादी विकास मॉडल ने राज्य के कल्याणकारी चरित्र को नकार दिया है और नियोक्ताओं को श्रमिकों के प्रति उनकी जिम्मेदारियों की अनदेखी कर मनमानी करने की हिम्मत दी है.
• ऐसे बहुतेरे अन्य कारण हैं जिनकी वजह प्रवासी राज्य द्वारा प्रदान की जाने वाली बुनियादी सुविधाओं का फायदा नहीं उठा पाते हैं, उनमें राज्य द्वारा प्रदान किए जाने वाले कल्याणकारी उपायों और योजनाओं की जानकारी का अभाव, कई नीतियों में प्रवासियों की उपेक्षा और राज्य के साथ हस्तक्षेप करते समय उत्पीड़न का डर शामिल है. आमतौर पर नियोक्ता नव-उदारवादी विकास मॉडल के अनुसार कार्य करते हैं और अधिक मुनाफा कमाने के लिए श्रमिकों का शोषण करते हैं, और कर्मचारियों के लिए कोई बुनियादी सुविधा प्रदान नहीं करते हैं. यह वर्षों के निरंतर संघर्ष के बाद प्राप्त हुए श्रम अधिकारों की अनदेखी कर किया जाने वाला एक ऐतिहासिक अन्याय है. नव-उदारवादी विकास मॉडल पूंजी को विशिष्ट प्रोत्साहन देने और श्रम नियमों को कमजोर करने के तौर-तरीकों के हिसाब से काम करता है. जबकि अर्ध-स्थायी प्रवासी और बसे हुए शहरी गरीब विभिन्न तंत्रों केमाध्यम से बुनियादी सुविधाओं की मांग करने में सक्षम होते हैं, लेकिन प्रवासी मजदीर तो नागरिकता के अधिकारों या श्रम अधिकारों के लिए अपना दावा करने तक में सक्षम नहीं हो पाते.
• अध्ययन से पता चलता है कि बुनियादी सुविधाओं के अभाव में, प्रवासियों का एक अनौपचारिक कनेक्शन का एक नेटवर्क तैयार हो गया है, जिसमें आमतौर पर शहरी गरीब मुख्य सेवा प्रदाताओं के रूप में इन सुविधाओं के लिए बातचीत करते हैं. यह अनौपचारिक अर्थव्यवस्था अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग तरह से काम करती है और श्रमिकों और स्थानीय लौगों के बीच एक साथ संरक्षण और शोषण के अनियमित संबंधों में गूथी हुई है. अनौपचारिक अर्थव्यवस्था के साथ-साथ राजनीतिक अर्थव्यवस्था में गूथें होने के कारण इसके दो परिणाम निकलते हैं. सबसे पहले, अनौपचारिक अर्थव्यवस्था में प्रवासी कोई ठोस मांग नहीं कर पाते हैं और इस तरह उनकों सुविधाएं देने के नाम पर मनमानी चलती है. दूसरा, यह एक महंगा और मानसिक व शारीरिक रुप से थकाऊ काम है.
• अनौपचारिक अर्थव्यवस्था की इस प्रकृति में अक्सर प्रवासी श्रमिकों की आवाज या मांग का कोई महत्व नहीं होता और इसकी वजह से उनके हकों के लिए बातचीत की बहुत कम जगह बचती है. इसके लिए एक उदाहरण यह तथ्य है कि प्रवासी वर्षों तक एक ही मकान मालिक से कमरा किराए पर लेकर रहने के बावजूद किराए या बिजली के लिए कोई लिखित एग्रीमेंट तक नहीं कर पाते हैं. अनौपचारिक अर्थव्यवस्था की प्रकृति अलग है और अक्सर स्थानीय राजनीति और शक्ति में गूथीं होती है.
• अनौपचारिक अर्थव्यवस्था में प्रवासियों के अनुभव अलग-अलग हैं. सामाजिक नेटवर्क वाली मौजूदा जातीय पहचान प्रवासी के अनुभव तय करती है. अहमदाबाद शहर में ओबीसी समुदायों के साथ एससी और एसटी समुदायों के अनुभव इस बिंदु को उजागर करने के लिए एक आदर्श उदाहरण के रूप में देखे जा सकते हैं. अपेक्षाकृत मजबूत सामाजिक नेटवर्क और ऊपर उठते सामाजिक स्तर के कारण ओबीसी समुदायों को मूलभूत सुविधाओं और सेवाओं का फायदा लेने में आसानी होती है. महिला प्रवासियों के अनुभव भी अलग-अलग हैं. महिलाओं को घर में अवैतनिक घरेलू श्रम के अलावा, बिजली के शुल्क, किराए और कच्चे माल की सुरक्षा से जुड़ी लागतों को बिड़ा उठाना पड़ता है.
• प्रवासियों को नागरिकों तौर पर नहीं बल्कि उपभोक्ताओं के तौर पर देखा जाता है. यह पूंजीवादी विकास और नव-उदारवादी शहरीवाद के दोहरे प्रतिमान के कारण है. प्रवासी शहरी विकास के नव-उदारवादी मॉडल के कारण और सरकार की नीतियों और योजनाओं में उनकी मांगों की अनदेखी के कारण किसी भी तरह की सुविधाओं की मांग करने में सक्षम नहीं हैं. प्रवासी राज्य और नियोक्ता से कानूनी तरीके से या संगठन बनाकर अपने हकों की मांग करने में सक्षम नहीं हैं. बुनियादी सुविधाओं के लिए हर दिन बड़े पैमाने पर लेन-देन होता है और उनको इन सुविधाओं की लागत न जाने कैसे-कैसे चुकानी पड़ती है.
•प्रवासियों के गले में अटकी गरीबी पीढ़ी दर पीढ़ी चलती रहती है. चूंकि प्रवासियों को नागरिकों के बजाय उपभोक्ताओं के तौर पर देखा जाता है, इसलिए उनके पास अक्सर अपनेबच्चों पर लगाने के लिए बहुत पूंजी नहीं होती. बच्चे अक्सर अपने माता-पिता के साथ दिहाड़ी-मजूरी करने लगजाते हैं या घर पर रहकर काम में अपनी माँ की मदद करने में लग जाते हैं. आमतौर पर ये बच्चे 14-15 साल की उम्र से ही काम करना शुरू कर देते हैं, क्योंकि उनके माता-पिता 30-40 साल की उम्र से ज्यादा काम नहीं कर पाते हैं. प्रवासियों के लिए न तो राज्य और न ही नियोक्ता, चाइल्डकेअर या प्राथमिक शिक्षा सुविधाएं प्रदान करते हैं.
• यह रिपोर्ट प्रवासियों के प्रति राज्य की नीतियों के प्रभाव को समझने की कोशिश करती है और इन नीतियों से जुड़ी समस्याओं पर प्रकाश डालती है. प्रवासियों के जीवन-यापन में राज्य की खामियों की प्रमुख भूमिका है. ये खामियां हैं: आसन्न बाधाओं की राजनीति, प्रावधान और पात्रता, शहरी नीति डिजाइन और उन नीतियों के कार्यान्वयन में बिना वजह के पूर्वाग्रह, उनकी कमाई के मानदंड से अधिक मूल्य निर्धारण, गतिशील शहरी विकास और श्रम प्रवाह, शहरी निकायों की सीमित स्वायत्तता और बजटीय शक्तियां, शहरी शासन और श्रम प्रशासन के बीच द्वंद्वाद, शहरों में उनकी उपस्थिति की अनदेखी और उनकी राजनीतिक लामबंदी की कमी.
• कई नीतियों के कार्यान्वयन के लिए जनगणना के आंकड़ों का उपयोग होता है. निवास स्थान से संबंधित जनगणना की परिभाषा के कारण, प्रवासी अक्सर जनगणना डेटा संग्रह में दर्ज ही नहीं किए जाते हैं. जनगणना एक लंबे अंतराल के बाद होती है, जिसकी वजह से अनौपचारिक अर्थव्यवस्था के लपेटे में आए प्रवासियों के गतिशील प्रवाह के कारण उन्हें दर्ज नहीं कर पाती. जिसकी वजह से जनगणना के आंकड़ों में दर्ज न हो पाने के चलते आमतौर पर प्रवासी सरकारी योजनाओं से वंचित रहते हैं.
• एक अन्य कारक जो राज्य की नीतियों का अपुष्ट बनाता है, वह है इन नीतियों का बेवजह का पूर्वाग्रह. कई नीतियों का लाभ किसी व्यक्ति को तभी मिल पाता है, जब वह अपनी अधिवास स्थिति को साबित करने में सक्षम होता है. कई बार, प्रवासियों को इन नीतियों से अलग रखा जाता है क्योंकि वे अपने निवास संबंधित कागज नहीं जुटा पाते हैं. जब निवास का स्थायित्व प्राथमिक जरूरी शर्त बन जाता है, तो प्रवासी इन नीतियों से बाहर हो जाते हैं. स्वास्थ्य देखभाल जैसे कुछ डोमेन में, नागरिकता के आधार पर प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं का लाभ निर्धारण किया जाता है, जबकि कल्याणकारी योजनाओं तक पहुंच अधिवास स्थिति पर आधारित होती है.
• कई योजनाओं से जुड़ी आय संबंधी शर्तों की वजह से प्रवासी बुनियादी सुविधाओं से वंचित रह जाते हैं. इसका एक उदाहरण पीएमएवाई (प्रधानमंत्री आवास योजना योजना दिशानिर्देश, 2016) की किफायती आवास योजना है. लाभार्थी को योजना के तहत मिलने वाले आवास के मालिकाना हक प्राप्त करने के लिए लागत का 50 प्रतिशत वहन करना पड़ता है, जो कि सबसे सस्ती आवास इकाइयों के लिए लगभग रु 3,00,000 / – है, जिसकी लागत लगभग Rs.6,00,000 है. प्रवासियों के लिए यह लागत बहुत अधिक है और इस प्रकार इस तरह की शर्तें लगाकर उन्हें आवास जैसी बुनियादी सुविधा तक पहुंच से वंचित कर दिया जाता है.
• प्रवासियों के जीवन पर प्रभाव डालने वाला एक अन्य महत्वपूर्ण कारक शहरी नियोजन की स्थिर प्रकृति है. उदाहरण के लिए, 2002 में अहमदाबाद विकास योजना तैयार की गई थी और अगली योजना वर्ष2021 में तैयार की जाएगी. लगभग 20 वर्षों के अंतराल में तो इन वर्षों में बहुत सारे जनसांख्यिकीय और अन्य परिवर्तन हुए हैं. इसका अर्थ यह भी है कि प्रवासियों की आमद को ध्यान में रखने की योजना प्रक्रिया के भीतर कोई प्रतिक्रिया तंत्र नहीं है.
• बजट की कमी के कारण भी नियोजन प्रक्रिया में समस्याएं आती हैं. स्थानीय निकायों की कंगाली विकेंद्रीकरण प्रक्रिया को प्रभावित करती है. अहमदाबाद और सूरत में होने वाले विकास के लिए अधिक पूंजी की आवश्यकता के बावजूद भी राज्य सरकार की तुलना में स्थानीय शहरी निकायों की इसमें बहुत कम हिस्सेदारी है. कुछ मामलों में स्थानीय सरकारें इसे हाशिए वाले वर्गों की समस्याओं को निपटाने की बजाय एक बहाने के रूप में उपयोग करती हैं. असल में, संस्थागत तंत्र की कमी के कारण शहरी सरकारों से सार्थक कदम उठाने की शक्तियां छीन ली गई हैं.
• प्रवासियों के लिए कल्याणकारी योजनाओं की कमी का एक बड़ा कारण शहरी शासन और श्रम प्रशासन के बीच द्वंद्वाद होना भी है. हालांकि द्वंद्वाद की सटीक प्रकृति स्पष्ट नहीं है, विभिन्न अधिकारियों द्वारा निभाई जाने वाली भूमिकाओं पर स्पष्टता की कमी का प्रवासियों के जीवन पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ता है. उदाहरण के लिए, फैक्टरी अधिनियम और दुकानें और प्रतिष्ठान अधिनियम में कोई विशेष प्रावधान नहीं हैं जिनमें प्रवासी श्रमिकों की आवास आवश्यकताओं का प्रावधान हो. यह गौरतलब है कि कई मध्य स्तर के होटल और रेस्तरां बाद के अधिनियम के तहत पंजीकृत हैं और कई प्रवासी उस क्षेत्र में कार्यरत हैं.
• प्रवासी अपने अधिकारों के लिए राजनीतिक तौर पर लामबंद हो कर अपनी आवाज बुलंद करने में सक्षम नहीं हैं. प्रवासियों से उनके मतदान के अधिकार छीन लिए जाते हैं और इस प्रकार उनके पास अपनी राजनीतिक लामबंदी का दावा करने का कोई अवसर नहीं मिल पाता है. उदाहरण के लिए, पानी के लिए सार्वजनिक नलकूप के लिए आवेदन करने के लिए कोई दस्तावेज आवश्यक नहीं है. हालांकि, पानी की टूटी तक के आवेदनों को अक्सर वार्ड पार्षदों / अधिकारियों द्वारा उपेक्षित किया जाता है, क्योंकि उनमें से कोई भी किसी भी तरह से प्रवासी समुदाय के प्रति जवाबदेह नहीं है. राजनैतिक लामबंदी अहम भूमिका निभाती है, लेकिन उनकी राजनीतिक लामबंदी न होने के कारण वे उनकी आवाज कुचल दी जाती है.
• एक महत्वपूर्ण सवाल यह है कि प्रवासियों को नागरिक क्यों नहीं माना जाता है. इसका कारण ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के बीच उनकी निरंतर आवाजाही है. उनके पास शहर में दस्तावेज़ नहीं हैं और न ही वे गाँव में उनके पास मौजूद दस्तावेजों को शहर में स्थानांतरित करते हैं, क्योंकि उनमें से अधिकांश गाँव को अपना घर मानते हैं. औपचारिक राज्य और अनौपचारिक राज्य प्रवासियों को वैध नागरिक के तौर पर नहीं मानते हैं जो अपने मूल अधिकारों के लिए दावा कर सकें. प्रवासियों के प्रति कई तरह के घटिया पूर्वाग्रह काम करते हैं क्योंकि उन्हें बाहरी लोग माना जाता है और यह उनकी विभिन्न पहचानों के माध्यम से प्रबलित होता है. इस संदर्भ में मोबाइल नागरिकता काविचार एक आकर्षक विचार है.
• स्थाई निवास के कागजात किसी भी नीति के लिए आवश्यक नहीं होने चाहिए, जिसकाउद्देश्य प्रवासियों की मूलभूत सुविधाओं तक पहुँच में सुधार करना है. शहर में उनकी अस्थायी और गतिशील उपस्थिति के अनुरूप नागरिकता एक घूमंतु नागरिकता जैसी है. यह विचार ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के बीच बहु-स्थानीयता और सही गतिशीलता (आसान आवाजाही) को समायोजित करने में मदद करेगा. मूलभूत सुविधाओं तक प्रवासियों की पहुंच के लिए स्थाई निवास आधारित वर्तमान नागरिकता के पैमानों की बजाय शहर के निर्माण में उनकी भूमिका पर आधारित होने चाहिए. यह उल्लेखनीय है कि मोबाइल नागरिकता का विचार शहर में बसने की एक प्रवासी की इच्छा को नुकसान नहीं पहुंचाता हो. बल्कि यह उन प्रवासियों के लिए अनुकूल होना चाहिए जो अपनी जड़ों को गाँव में बनाए रखना चाहते हैं यानी गांव से नाता रखना चाहते हैं और जो शहर में स्थायी या अर्ध-स्थायी तौर पर काम करना चाहते हैं.
[बालू एन वरदराज और नबारुन सेनगुप्ता, जो टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज, हैदराबाद से डेवलपमेंट स्टडीज (प्रथम वर्ष) में एमए कर रहे हैं. इन दोनों ने सोसाइटी फॉर लेबर एंड डेवलपमेंट द्वारा जारी की गई इस रिपोर्ट का सारांश तैयार करने में इनक्लूसिव मीडिया फॉर चेंज की मदद की. बालू और नबारुन ने जून-जुलाई 2020 में इनक्लूसिव मीडिया फॉर चेंज प्रोजेक्ट में अपनी इंटर्नशिप के दौरान यह काम किया है.]
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द इंडिया माइग्रेशन नाउज् [inside]इंटरस्टेट माइग्रेंट्स पॉलिसी इंडेक्स (IMPEX) 2019[/inside], अंतरराज्यीय प्रवासियों के एकीकरण पर राज्य की नीतियों के संबंध में भारत के सभी राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों को रैंक और तुलना करने के लिए एक सूचकांक है. यह सूचकांक विभिन्न संकेतकों की सहायता से अंतरराज्यीय प्रवासियों के एकीकरण की सुविधा के लिए आवश्यक राज्य स्तरीय नीतियों का मूल्यांकन करता है. सूचकांक प्रवासी कल्याण के मद्देनजर राज्यों की नीतियों की जांच करता है.
CIDOB-बार्सिलोना सेंटर फॉर इंटरनेशनल अफेयर्स और MPG- माइग्रेशन पॉलिसी ग्रुप द्वारा बनाए गए माइग्रेंट इंटीग्रेशन पॉलिसी इंडेक्स (MIPEX) की तर्ज पर IMPEX की नींव टिकी है. माने कि यह उसी का एक प्रकार है.
IMPEX 'श्रम बाजार', 'शिक्षा', 'बच्चों के अधिकार', 'सामाजिक लाभ', 'राजनीतिक भागीदारी', 'आवास', 'पहचान और पंजीकरण', और 'स्वास्थ्य और स्वच्छता' जैसे 8 नीति क्षेत्रों पर आधारित है. प्रत्येक नीति क्षेत्र को नीतिगत आयामों और उससे आगे नीति संकेतकों (कुल 63 नीति संकेतक) में बांटा गया है.
प्रति आयाम सभी संकेतकों के औसत स्कोर से एक आयाम स्कोर प्राप्त होता है. सभी आयामों के औसत स्कोर से एक पॉलिसी क्षेत्र स्कोर प्राप्त होता है और अंत में, सभी पॉलिसी क्षेत्रों के औसत स्कोर से निर्णायक राज्य स्तरीय स्कोर प्राप्त होता है.
राज्य विधान और नियम, सरकारी आदेश, योजनाएं/अभियान, सरकारी नीति दस्तावेज, प्रतिष्ठित माध्यमिक स्रोत और प्रत्यक्ष रूप से संबंधित सरकारी विभागों के दस्तावेजों का उपयोग अंतरराज्यीय प्रवासियों के प्रति राज्यों की नीतियों का मूल्यांकन करने के लिए किया गया था.
इंडिया माइग्रेशन नाउज् इंटरस्टेट माइग्रेंट्स पॉलिसी इंडेक्स (आईएमईएक्स) 2019 (2019 में जारी) के प्रमुख निष्कर्ष इस प्रकार हैं (देखने के लिए कृपया यहां, यहां, यहां, यहां और यहां क्लिक करें):
• 0-100 के पैमाने पर भारत के लिए, इंडिया माइग्रेशन नाउज् इंटरस्टेट माइग्रेंट्स पॉलिसी इंडेक्स (IMPEX) 2019 का स्कोर 37 है.
• राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों में, सबसे उच्चतम IMPEX स्कोर केरल (63) राज्य का है, जो राष्ट्रीय औसत सेबहुत अधिक है. केरल आठ नीतिगत क्षेत्रों में से ‘शिक्षा’ (‘85), ’ बच्चों के अधिकार’ (75),) स्वास्थ्य और स्वच्छता’ (83), और ‘सामाजिक लाभ’ (54) जैसे चार क्षेत्रों में सर्वोच्च स्थान पर है.
• सूचकांक में केरल के बाद गोवा और राजस्थान दोनों 51 अंकों (केरल की तुलना में कम, यानी 12 अंक से कम) के साथ संयुक्त रूप से दूसरे स्थान पर हैं.
• सूचकांक में मणिपुर को 19 अंक मिले हैं जोकि सबसे खराब स्थिति में है. मणिपुर ने नीतिगत क्षेत्रों में ‘सामाजिक लाभ’ (0), ‘स्वास्थ्य और स्वच्छता’ (4) और ‘पहचान और पंजीकरण’ (9) में सबसे कम स्कोर हासिल किया है.
• राज्य/केंद्रशासित क्षेत्र जैसे महाराष्ट्र (44), दिल्ली (34), उत्तर प्रदेश (35), गुजरात (35) और हरियाणा (35), जिनमें जनगणना 2011 के प्रवासन डेटा के अनुसार सबसे अधिक अंतर्राज्यीय प्रवासी हैं (उसी क्रम में), ने आईएमईएक्स 2019 के संदर्भ में अच्छा प्रदर्शन नहीं किया. इनमें से चार राज्यों का स्कोर राष्ट्रीय औसत (37) से कम है. इन राज्यों की नीतियां भारत में अधिकांश अंतरराज्यीय प्रवासियों के कल्याण को प्रभावित करती हैं क्योंकि इन राज्यों में हर साल बड़ी संख्या में प्रवासी प्रवास करते हैं.
• आठ नीति क्षेत्रों में, भारत ने 'बच्चों के अधिकार' (औसत स्कोर 25), 'सामाजिक लाभ' (औसत स्कोर 25) और 'आवास' (27 का औसत स्कोर) के मामले में अन्य नीति क्षेत्रों के सापेक्ष खराब प्रदर्शन किया है, इनके उलट, 'पहचान और पंजीकरण' (65 का औसत स्कोर) और 'श्रम बाजार-लेबर मार्केट' (55 का औसत स्कोर) के मामले में अपेक्षाकृत बेहतर प्रदर्शन किया है.
पहचान और पंजीकरण
• अन्य नीति क्षेत्रों की तुलना में, भारत ने 65 के स्कोर के साथ नीति क्षेत्र 'पहचान और पंजीकरण' में सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया है.
• 'पहचान और पंजीकरण' नीति क्षेत्र में स्थिति अधिकार, स्थिति अधिकारों की सुरक्षा और राज्य निवास स्थिति अधिकारों की सुरक्षा शामिल हैं.
• 'पहचान और पंजीकरण' नीति क्षेत्र के 3 सबसे खराब प्रदर्शनकर्ता मणिपुर (9), ओडिशा (35) और बिहार (43) हैं, जबकि 3 सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शनकर्ता पंजाब (89), उत्तर प्रदेश (83) और गुजरात (81) हैं.
श्रम बाजार (लेबर मार्केट)
• नीति क्षेत्र ‘श्रम बाजार’ में, देश का औसत स्कोर 55 है.
• नीति क्षेत्र ‘श्रम बाजार’ लेबर मार्केट तक पहुंच, कार्यस्थल सुविधा और श्रमिकों के अधिकारों पर राज्यों की नीतियों को दर्शाता है.
• उत्तराखंड (28) और कर्नाटक, नागालैंड (33), छत्तीसगढ़ (33) और मणिपुर (33) नीति क्षेत्र 'श्रम बाजार' में 5 सबसे खराब प्रदर्शन करने वाले राज्य हैं. नीति क्षेत्र 'श्रम बाजार' में बाकी राज्यों की तुलना में अपेक्षाकृत बेहतर प्रदर्शन करने वाले राज्य / केंद्र शासित प्रदेश सिक्किम (78) और बिहार, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, मिजोरम और राजस्थान (72 प्रत्येक) हैं.
सामाजिक लाभ
• इंडिया माइग्रेशन नाउ एंड माइग्रेशन पॉलिसी ग्रुप द्वारा लिखे गए एक पेपर के अनुसार, सामाजिक लाभ उन व्यक्तियों के लिए सुलभ नहीं हैं जो प्रवास करते हैं और अपने मूल/वास्तविक निवास स्थान पर नहीं रह रहे हैं. नीति क्षेत्र ‘सामाजिक लाभ ’में पात्रता, सुविधा और जरूरी बदलावों के लिए किए गए उपाय शामिल हैं.
• जिन राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों ने 'सामाजिक लाभ' नीतिगत क्षेत्र में शेष से बेहतर प्रदर्शनकिया है, वे हैं केरल (54), मध्य प्रदेश (53) और महाराष्ट्र (50). जिन राज्यों / केंद्रशासित प्रदेशों ने 'सामाजिक लाभ'नीति क्षेत्र में शेष की तुलना में खराब प्रदर्शन किया है, वे हैं उत्तर प्रदेश, मेघालय और मणिपुर (0 अंक प्रत्येक).
बच्चों के अधिकार
• अंतरराज्यीय प्रवास के दौरान सबसे अधिक असर बच्चों पर पड़ता है क्योंकि एक स्थान / राज्य से दूसरे स्थान / राज्य में पलायन के कारण सामाजिक सुरक्षा और शिक्षा तक उनकी पहुंच प्रभावित होती है. नीति क्षेत्र ‘बच्चों के अधिकार’ में उनके अधिकारों और नीतियों की सुविधा, योजनाओं/नीतियों और जरूरी बदलावों के लिए किए गए उपाय शामिल हैं.
• जिन राज्यों / केंद्रशासित प्रदेशों ने 'बच्चे के अधिकार' नीति क्षेत्र में शेष से भी बदतर प्रदर्शन किया है, वे हैं त्रिपुरा (6), झारखंड (6), कर्नाटक (8) और छत्तीसगढ़ (8). जिन राज्यों / केंद्र शासित प्रदेशों ने 'बच्चे के अधिकार' नीतिगत क्षेत्र में बाकी की तुलना में बेहतर प्रदर्शन किया है, वे हैं केरल (75), गोवा (50) और राजस्थान (44).
राजनीतिक भागीदारी
• नीति क्षेत्र 'राजनीतिक भागीदारी' में चुनावी अधिकार, परामर्शदात्री निकाय और कार्यान्वयन नीतियां शामिल हैं.
• राजस्थान (50) ने 'राजनीतिक भागीदारी' नीति क्षेत्र में शेष से बेहतर प्रदर्शन किया है और मिजोरम (0) ने 'राजनीतिक भागीदारी' नीति क्षेत्र में बाकी की तुलना में खराब प्रदर्शन किया है.
शिक्षा
• 'शिक्षा' का नीति क्षेत्र शिक्षा तक पहुंच, उपलब्ध सुविधा और आवश्यक परिवर्तन को करने के उपायों पर राज्यों की नीतियों का आकलन करता है.
• नीति क्षेत्र 'शिक्षा' में भारत का औसत स्कोर 33 है.
• जिन राज्यों / केंद्र शासित प्रदेशों ने नीति क्षेत्र 'शिक्षा' में बाकी की तुलना में बेहतर प्रदर्शन किया है, वे हैं- केरल (85), आंध्र प्रदेश (69) और ओडिशा (48). जिन राज्यों / केंद्र शासित प्रदेशों ने नीतिगत क्षेत्र 'शिक्षा' में बाकी की तुलना में खराब प्रदर्शन किया है, वे हैं त्रिपुरा (7), दिल्ली (8) और पश्चिम बंगाल (15).
स्वास्थ्य और स्वच्छता
• ‘स्वास्थ्य और स्वच्छता’ नीति क्षेत्र स्वास्थ्य और स्वच्छता सेवाओं के अधिकार, उनतक पहुंच के लिए उपलब्ध सुविधा और आवश्यक परिवर्तन करने के उपायों पर राज्यों की नीतियों का आकलन करता है.
• जिन राज्यों / केंद्रशासित प्रदेशों ने ‘स्वास्थ्य और स्वच्छता’ नीति क्षेत्र में शेष से बेहतर प्रदर्शन किया है, वे हैं- केरल (83), आंध्र प्रदेश (79) और तमिलनाडु (71). जिन राज्यों / केंद्र शासित प्रदेशों ने ‘स्वास्थ्य और स्वच्छता’ नीतिगत क्षेत्र में बाकी की तुलना में खराब प्रदर्शन किया है, वे मणिपुर (4), झारखंड (8) और उत्तराखंड और गुजरात (17 प्रत्येक) हैं.
आवास
• नीति क्षेत्र 'हाउसिंग' यानी ‘आवास’ घर तक पहुंच, सुविधा और आवश्यक बदलावों के लिए किए गए उपायों को शामिल करता है.
• भारत में पॉलिसी क्षेत्र 'हाउसिंग' में औसतन 27 अंक हैं.
• जिन राज्यों / केंद्र शासित प्रदेशों ने नीतिगत क्षेत्र ‘आवास’ में बाकी की तुलना में बेहतर प्रदर्शन किया है, वे हैं बिहार (64) और असम और राजस्थान (58 प्रत्येक). वह राज्य जिसने नीति क्षेत्र ‘आवास’ में सबसे खराब प्रदर्शन किया है, वह 'छत्तीसगढ़' (0) है.
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कोविड-19 की परिस्थितियों में प्रवासी मजदूर अपने घर-गांव पहुँचने लगे. वहां विकास संवाद ने स्थानीय सामाजिक संस्थओं के माध्यम से वापस लौटे प्रवासी मजदूरों की मनः स्थिति, सामाजिक स्थिति और निकट भविष्य के बारे में उनकी सोच का अनुमान लगाने के लिए एक तत्वरिकअध्ययन किया है. इस अध्ययन में 13 जिलों से औसतन 30-30 वापस लौटे प्रवासी मजदूरों से सघन संवाद करते हुए तत्वरिक अध्ययन प्रश्नावली का उपयोग करते हुए जानकारी इकट्ठा की गयी. इसमें कुल 435 प्रवासी मजदूरों से जानकारी एकत्र की गयी है. इसके साथ ही हर जिले से गुणात्मक जानकारी जुटाने के लिए 2-2 केस अध्ययन भी इकट्ठा किये गए. [inside]कोविड19 से उपजी अनिश्चितता के साए में – प्रवासी मजदूरों की बात[/inside] नामक इस त्वरित अध्ययन रिपोर्ट के निष्कर्ष इस प्रकार हैं. (पूरी रिपोर्ट देखने के लिए यहां क्लिक करें.)
• 45.5% मजदूर परिवार के साथ और 54.5% अकेले पलायन पर गए थे.
• 31.9% प्रवासी कामगार 18-25 वर्ष, 26-40 वर्ष 43.9% और 24.2% प्रवासी मजदर 40 वर्ष से ज्यादा उम वर्ग में थे,
• 50.6% प्रवासी मजदूर निर्माण क्षेत्र में, 21% व्यापारिक इकाईयो/उद्यमों में और 16.7% कारखाना/उद्योग में कार्यरत थे. 26.8% मजदूर पलायन पर मध्यप्रदेश के भीतर के ही जिलों में जाते हैं, जबकि 16.1% गुजरात, 13.2% दिल्ली, नोएडा, गुडगाँव, फरीदाबाद आदि गए. 11.9% उत्तरप्रदेश और 6.5% महाराष्ट्र गए थे. 29.4% प्रवासी मजदूरों को औसतन रु. 201 से रु. 300 प्रतिदिन, 41.6% को रु. 301 से रु. 400 प्रतिदिन और 17.1% प्रवासी कामगारों को रु. 401 से रु. 500 प्रतिदिन पारिश्रमिक मिलता था.
• 56.5% लोग 3 से 6 महीने, 21.6% 3 महीने से कम और 16.8% मजदूर 6 से 11 महीने के लिए पलायन करते हैं.
• 93.2% मजदूर/कामगारों को किसी भी किस्म का नियुक्ति पत्र या अनुबंध पत्र नहीं दिया गया. इससे उनके कोई कानूनी अधिकार तय नहीं होते हैं.
• चूंकि मजदूरी भुगतान की अवधि अलग-अलग होती है, जैसे किसी को दैनिक भुगतान होता है, किसी को साप्ताहिक या मासिक और किसी स्थिति में घर वापसी पर मजदूरी का भुगतान होता है, इसलिए कोविड19 के कारण अचानक हुए लाकडाउन के कारण 47 प्रतिशत मजदूरों को उनकी मजदूरी का पूरा भुगतान नहीं हुआ.
• पूरा देश डिजिटल भुगतान की बयार से भीगा हुआ है, किन्तु अध्ययन से पता चला कि 85.8% प्रवासी मजदूरों को नकद भुगतान किया जाता है. इस कारण से भी कहीं कोई प्यपस्थित वैधानिक प्रमाण मौजूद
नहीं होता है. .81% प्रवासी मजदूरों ने बताया कि उन्हें किसी भी किस्म का अवकाश या छुट्टी नहीं मिलती है. जिस दिन वे काम पर नहीं जा पाते हैं. उस दिन उन्हें मजदूरी की राशि का घाटा होता है.
• 57.4% मजदूरों पर कोई कर्ज नहीं है.
कोविड19 के दौरान उपजी स्थितियां
• जिस तरह का व्यवहार, आर्थिक असुरक्षा, संकट और दर्द का सामना हुआ है, उसके बाद अध्ययन क्षेत्र में वापस पहुंचे 54.6% प्रवासी मजदूर अब पलायन पर बिलकुल नहीं जाना चाहते हैं.
• 24.5% अभी तय नहीं कर पाए है किअब वे पुनः जायेंगे या नहीं और यदि जायेंगे तो कब?
• 21% कामगार स्थितियां सामान्य होते ही पलायनपर जाना चाहेंगे. वापस पहुंचे 23% मजदूरों के पास 100 रुपये से भी कम भी राशि शेष बची थी.
• 7% मजदूरों के पास वापस पहुँचने के वक्त 1 रुपये भी शेष नहीं थे. 25.2% मजदूरों के पास रु. 101 से 500 रुपये शेष बचे ये और 18.1% के पास रु. 501 से 1000 रूपये शेष थे. केवल 11% मजदूर ऐसे थे, जिनके पास रु. 2001 से ज्यादा की राशि शेष थी.
• 91.2% प्रवासी मजदूर मानते हैं कि वे बेरोजगार के संकट में फंसेगे. 81% बीमारियों के फैलाव और उपचार व्यवस्था की कमी को संकट मानते हैं.
• 82.3% मानते हैं कि उन पर कर्ज का संकट आएगा, 76.5% भुखमरी फैलने की आशंका में भी हैं.
• वापस आये 53.5% प्रवासी मजदूर मानते हैं कि उन्हें अपनी बुनियादी जरूरतें पूरी करने के लिए जमीन, सामान, महिलाओं के गहने बेचने पड़ेंगे.
कोविड19 के संकट का सामना कैसे होगा?
• 90.3% प्रवासी मजदूर मानते हैं कि परिवार में उन सभी सदस्यों को रोजगार दिया जाए, जो कामकाज की उम में हैं.
• 93.9% मानते हैं कि सस्ता राशन सभी को मिलना चाहिए. अभी कई परिवार पीडीएस की सूची में शामिल नहीं है. कई परिवार ऐसे हैं, जिनके सदस्यों के नाम सूची से नदारद है.
• 100% प्रवासी मजदूर मानते हैं कि न्यूनतम मजदूरी डेढ़ गुना बढना चाहिए.
• 100% प्रवासी चाहते हैं कि बों और किशोरवय समूह को गुणवतापूर्ण शिक्षा और प्रशिक्षण मिलने से पलायन करने वाले मजदूरों की स्थिति में सकारात्मक बदलाव आएगा.
• 63.2% पेंशन या किसी न किसी रूप में प्रत्यक्ष आर्थिक सहयोग चाहते हैं.
• 87.7% प्रवासी मजदूर विकासखंड स्तर पर अच्छी स्वास्थ्य सेवाएँ चाहते है.
• 76.8% प्रवासी मजदूर आजीविका और आवास के लिए भूमि का कानूनी अधिकार चाहते है.
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COVID-19 के कारण पनपे आर्थिक संकट को पलायन के नजरिए से देखने पर समझ आता है कि इसका प्रभाव कितना लंबा, गहरा और व्यापक हो सकता है. लॉकडाउन, आवाजाही पर रोक, और सोशल डिस्टेंसिंग ने वैश्विक आर्थिक गतिविधियों को एकदम जड़ बना दिया है.
प्रवासी मजदूरों के बलबूते उड़ान भरने वाले मेजबान देश, स्वास्थ्य और कृषि जैसे कई क्षेत्रों में अतिरिक्त चुनौतियों का सामना कर रहे हैं और प्रवासियों के लिए इस रोग के खतरे के अलावा रोजगार, मजदूरी, और स्वास्थ्य बीमा कवरेज के संभावित नुकसान मुंह बाए खड़े हैं.
'COVID-19 क्राइसिस थ्रू ए माइग्रेशन लेंस' नामक माइग्रेशन एंड डेवलपमेंट डाक्यूमेंट इस बात का पूर्वाभास प्रदान करता है कि 2020 और 2021 में अंतरराष्ट्रीय आर्थिक पलायन और प्रेषण से अर्थव्यवस्था के वैश्विक रुझान कैसे प्रभावित होने वाले हैं. इस तथ्य पर गौर करते हुए कि प्रवासी शहरी आर्थिक केंद्रों यानी शहरों में ठूसें जाते हैं, और बहुत बुरी स्थिति में अपनी गुजर-बसर करते हैं, आज वे भी कोरोनोवायरस द्वारा संक्रमण की चपेट में हैं, इसलिए उन्हें भी कोरोनावायरस को हराने के लिए होरहे प्रयासों में शामिल करने की आवश्यकता है. प्रवासियों की कमाई कई देशों में गरीब परिवारों को आर्थिक जीवन-यापन के लिए संजीवनी का काम करती है. अगर प्रवासियों की कमाई में कमी आती है तो निश्चित ही गरीबी बढ़ सकती है और उनके परिवारों की जरूरी स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुँच कम हो सकती है. इस संकट में प्रवासियों के साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार बढ़ सकता है, जिसकी वजह से इस तरह की प्रथाओं के खिलाफ अधिक सतर्कता की जरूरत है.
यह पोलिसी ब्रीफ मुख्यत रूप से अंतरराष्ट्रीय प्रवासियों पर केंद्रित है, लेकिन सरकारों को आंतरिक प्रवासियों की दुर्दशा को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए. आंतरिक पलायन की संख्या अंतर्राष्ट्रीय पलायन से लगभग ढाई गुना ज्यादा है. लॉकडाउन, रोजगार छीनने और सोशल डिस्टेंसिंग की वजह से भारत और लैटिन अमेरिका के कई देशों में बड़े पैमाने पर आंतरिक प्रवासियों की घर वापसी की एक अराजक और दर्दनाक प्रक्रिया को पोषित किया है. इस प्रकार, COVID-19 रोकथाम उपायों की वजह से भी यह महामारी फैल सकती है. विभिन्न चुनौतियों का सामना कर रहे इन प्रवासियों को सरकारों द्वारा स्वास्थ्य सेवाओं और कैश ट्रांसफर और अन्य सामाजिक कार्यक्रमों में शामिल किए जाने की जरूरत है और उन्हें भेदभाव से बचाने के लिए उनकी समस्याओं का समाधान करने की आवश्यकता है.
ग्लोबल नॉलेज पार्टनरशिप ऑन माइग्रेशन एंड डेवलपमेंट (KNOMAD) द्वारा जारी माइग्रेशन एंड डेवलपमेंट डाक्यूमेंट नंबर 32, [inside]'COVID-19 क्राइसिस थ्रू ए माइग्रेशन लेंस' (22 अप्रैल, 2020 को जारी)[/inside], नामक रिपोर्ट, जो विश्व बैंक, यूरोपीय आयोग, जर्मनी के संघीय आर्थिक सहयोग और विकास मंत्रालय (BMZ), और स्विस एजेंसी फॉर डेवलपमेंट एंड कोऑपरेशन (SDC) द्वारा समर्थित है, के प्रमुख निष्कर्ष इस प्रकार हैं(एक्सेस करने के लिए कृपया यहां क्लिक करें):
• भारत में, 2020 में प्रवासियों द्वारा भेजी जाने वाली कमाई में लगभग 23 प्रतिशत, $ 64 बिलियन तक कम होने का अनुमान है – जोकि, 2019 में 5.5 प्रतिशत की वृद्धि और 83 बिलियन डॉलर के साथ एकदम विपरित थी.
• यात्रा प्रतिबंध पर रोक लगने से पहले ही, संकट के शुरुआती चरणों में गल्फ कॉर्पोरेशन काउंसिल (जीसीसी) यानी खाड़ी के देशों में काम करने वाले बहुतेरे अंतर्राष्ट्रीय प्रवासी, विशेष रूप से देशों से, भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश जैसे देशों के रहने वाले प्रवासी वापस लौट आए.
• मुख्यत भारत से, पिछले सालों की तुलना में साल 2019 में निम्न-कुशल प्रवासियों की संख्या में वृद्धि हुई थी, लेकिन महामारी और तेल की कीमतों में गिरावट के कारण जीसीसी देशों में आए संकट की वजह से, साल 2020 में गिरावट की संभावना है. दूसरे मुल्कों में जाकर काम करने के लिए अनिवार्य मंजूरी की मांग करने वाले कम-कुशल प्रवासियों की संख्या 2019 में 8 प्रतिशत बढ़कर 3,68,048 (विदेश मंत्रालय, भारत) हो गई.
• भारत में लॉकडाउन ने देश के लगभग 4 करोड़ आंतरिक प्रवासियों के एक बड़े हिस्से की आजीविका को प्रभावित किया है. कुछ दिनों केही अंतराल में लगभग 50,000-60,000 प्रवासी शहरी केंद्रों से ग्रामीण क्षेत्रों में चले गए. सरकार ने इन प्रवासियों को आश्रय प्रदान करनेके लिए बुनियादी प्रावधानों के साथ मेजबान शहरों, जिलों और गृह जिलों में शिविर लगाए.
• लॉकडाउन, रोजगार छीनने और सोशल डिस्टेंसिंग की वजह से भारत और लैटिन अमेरिका के कई देशों में बड़े पैमाने पर आंतरिक प्रवासियों की घर वापसी की एक अराजक और दर्दनाक प्रक्रिया को पोषित किया है. इस प्रकार, COVID-19 रोकथाम उपायों की वजह से भी यह महामारी फैल सकती है. विभिन्न चुनौतियों का सामना कर रहे इन प्रवासियों को सरकारों द्वारा स्वास्थ्य सेवाओं और कैश ट्रांसफर और अन्य सामाजिक कार्यक्रमों में शामिल किए जाने की जरूरत है और उन्हें भेदभाव से बचाने के लिए उनकी समस्याओं का समाधान करने की आवश्यकता है.
• मेजबान देश में आर्थिक संकट के दौरान मूल निवासी श्रमिकों की तुलना में प्रवासी श्रमिकों को रोजगार और मजदूरी का अधिक नुकसान भुगतना पड़ता है. लेबर कैंप और डॉरमैट्री बंद होने के कारण प्रवासी श्रमिकों के बीच छूत का खतरा भी बढ़ सकता है. परिवहन सेवाओं के निलंबन के कारण कई प्रवासी फंसे हुए हैं.
• हालांकि कमाई भेजने के लिए डिजिटल भुगतान उपकरणों का उपयोग बढ़ रहा है, अक्सर गरीब और अनियमित प्रवासियों की ऑनलाइन सेवाओं तक पहुंच कम होती है. उन्हें बैंकों, भुगतान कार्ड या मोबाइल मनी के माध्यम से मेहनताना मिलने और उसे भेजने की आवश्यकता होती है. ऑनलाइन लेनदेन (जैसे कैशबेड सर्विसेस) में धोखाधड़ी और वित्तीय अपराध के खिलाफ सतर्कता बरतने के लिए प्रेषण सेवा प्रदाताओं की आवश्यकता होती है, जो एंटीमनी लॉन्ड्रिंग और आतंकवाद के वित्तपोषण (एएमएल / सीएफटी) के नियमों का पालन करते हैं. हालांकि, इस लॉकडाउन में इस तरह की सेवाओं में भी स्टाफ की कमी के बीच अब ये मुश्किल हो गया है.
• अंतर्राष्ट्रीय प्रवासियों की तुलना में आंतरिक प्रवासियों की संख्या लगभग ढाई गुना है. चीन और भारत, प्रत्येक में 10 करोड़ से अधिक आंतरिक प्रवासी हैं. आबादी के गरीब वर्गों के लिए, विशेष रूप से अविकसित ग्रामीण क्षेत्रों से, शहरी आर्थिक केंद्रों में पलायन करना गरीबी और बेरोजगारी से मुक्ति प्रदान करता है. आमतौर पर अंतरराष्ट्रीय प्रवासियों की तुलना में कम कमाने वाले इन प्रवासियों की कमाई, इनके परिवारों के लिए एक जीवन रेखा और जीवन की डोर को बचाने का काम करती है.
• COVID-19 के प्रकोप ने कई आंतरिक प्रवासी कामगारों को गंभीर परिस्थितियों में धकेल दिया है. बहुतेरे अपनी (ज्यादातर अनौपचारिक) नौकरियां गंवा चुके हैं और सार्वजनिक परिवहन सेवाओं और आवाजाही पर प्रतिबंध के कारण घर लौटने में असमर्थ हैं. अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वाले और दमघोटू झुग्गियों में रहने वाले अधिकांश प्रवासी मजदूरों की यही सच्चाई है.
• भारत में, सरकार ने इन प्रवासियों को आश्रय प्रदान करने के लिए बुनियादी प्रावधानों के साथ मेजबान शहरों, जिलों और गृह जिलों में शिविर लगाए हैं. कुछ देश आंतरिक प्रवासियों और वापस लौट चुके प्रवासी श्रमिकों के लिए विशिष्ट आवंटन के साथ प्रभावित और कमजोर समूहों को नकद सहायता प्रदान कर रहे हैं.
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फंसे हुए श्रमिकों के लिए एक्शन नेटवर्क (Stranded Workers Action Network-SWAN)) – जिसमें 70 सेअधिक स्वयंसेवक शामिल हैं, जिनमें से ज्यादातर भोजन के अधिकार और काम के अधिकार के लिए कार्य करने वाले सिविल नागरिक समूह हैं, इन सामाजिक कार्यकर्ताओं ने 27 मार्च, 2020 से प्रवासी श्रमिकों के बीच काम करना शुरू कर दिया था. अब तक, स्वैच्छिक (SWAN) स्वयंसेवकों ने फंसे हुए प्रवासियों के 640 समूहों के कुल 11,159 श्रमिकों से बातचीत की है. तेजी से मूल्यांकन कार्रवाई सर्वेक्षण में एकत्र किए गए सभी आंकड़ें, [inside]21 डेज एंड काउंटिंग: COVID-19 लॉकडाउन, प्रवासी मजदूर और भारत में कल्याणकारी उपायों की अपर्याप्तता[/inside] (15 अप्रैल, 2020 को जारी) नामक रिपोर्ट में दिए गए हैं, जोकि 27 मार्च से लेकर – 13 अप्रैल, 2020 तक की समयावधि के दौरान इकट्ठा किए हैं.
शुरुआत में, स्वैच्छिक (SWAN) स्वयंसेवकों का उद्देश्य इस संकट में फंसे प्रवासी मजदूरों से फोन पर बात करना और उनकी मदद करना था. हालाँकि, प्रवासियों से डेटा एकत्र करने के लिए एक सामूहिक निर्णय जल्द ही लिया गया, साथ ही साथ उनकी बुनियादी जरूरतों पर भी ध्यान दिया गया.
अध्ययन के नमूने में, अधिकांश प्रवासी मजदूर महाराष्ट्र (39,923) में फंसे पाए गए, उसके बाद कर्नाटक (3,000) और फिर उत्तर प्रदेश (1,618) में. उत्तर प्रदेश में, , स्वैच्छिक (SWAN) स्वयंसेवकों को लगभग सभी कॉल कानपुर क्षेत्र से नोएडा और गाजियाबाद क्षेत्रों से कुछ कॉल आए थे.
प्रवासियों की जरूरतों के आकलन के आधार पर, स्वैच्छिक (SWAN) स्वयंसेवकों की इस छोटी पहल के माध्यम से, प्रवासी मजदूरों को लगभग 3.87 लाख रुपये की सहायता, छोटी-छोटी मदद (लगभग 205 रुपये प्रति व्यक्ति) के रूप में पहुंचाई गई. इस प्रयास में अब तक 203 लोगों ने वित्तीय योगदान दिया है. कई व्यथित लोगों ने स्वैच्छिक (SWAN) स्वयंसेवकों से अधिक धन के लिए फिर दोबारा से संपर्क किया है क्योंकि सरकारी आपूर्ति तक उनकी पहुंच संभव नहीं हो सकी है और उनके पास उपलब्ध सभी संसाधन समाप्त हो गए हैं. राज्यों में स्थानीय प्रशासन की प्रतिक्रियाएँ अलग-अलग हैं.
फंसे हुए प्रवासी कामगारों की रूपरेखा:
• जिन 11,159 फंसे हुए प्रवासी कामगारों से स्वैच्छिक (SWAN) स्वयंसेवकों ने बात की, उनमें से 1,643 महिलाओं और बच्चे थे.
• मोटे तौर पर 79 प्रतिशत दैनिक वेतन कारखाने/निर्माण श्रमिक थे, 8 प्रतिशत गैर-समूह आधारित दैनिक वेतनभोगी जैसे ड्राइवर, घरेलू कामगार आदि थे और 8 प्रतिशत स्व-नियोजित थे जैसे फल-सब्जी विक्रेता, ज़री कार्यकर्ता आदि (यह आंकड़ा 3,900 फंसे हुए प्रवासियों से है जिन्हें स्वैच्छिक (SWAN) स्वयंसेवकों ने दर्ज किया है.)
• नमूने में औसत दैनिक वेतन 402 रुपये था और मंझला दैनिक वेतन 400 रुपये था.
• स्वैच्छिक (SWAN) स्वयंसेवकों के संपर्क में आने वाले प्रवासी वाले लगभग 28 प्रतिशत मूल रूप से झारखंड के थे, लगभग एक चौथाई बिहार से थे और लगभग 13 प्रतिशत उत्तर प्रदेश से थे.
• फंसे हुए लोगों में एक बहुत छोटी संख्या में कामगारों ने हाल ही में काम केलिए एक दूसरे राज्य में पलायन किया था, और लॉकडाउन की घोषणा होने से बमुश्किल कुछ समय पहले ही काम शुरू किया था.
style="font-family:Tahoma; font-size:medium"> राज्य द्वारा दिए गए कुछ सार्थक आदेशों के बावजूद, वर्तमान रिपोर्ट के अनुसार स्वैच्छिक (SWAN) स्वयंसेवकों के संपर्क में आने वाले श्रमिकों की गवाहियां एक अलग तस्वीर बुनती हैं.
[inside]21 डेज एंड काउंटिंग: COVID-19 लॉकडाउन, प्रवासी मजदूर और भारत में कल्याणकारी उपायों की अपर्याप्तता[/inside] नामक इस रिपोर्ट के प्रमुख निष्कर्ष इस प्रकार हैं (एक्सेस करने के लिए कृपया यहां क्लिक करें):
• लगभग 50 प्रतिशत श्रमिकों के पास 1 दिन से कम समय का राशन बचा था.
• लगभग 96 प्रतिशत को सरकार से राशन नहीं मिला था और 70 प्रतिशत को कोई पका हुआ भोजन नहीं मिला था.
• मोटे तौर पर 78 प्रतिशत लोगों के पास 300 रुपये से भी कम रुपये बचे थे.
• लॉकडाउन के दौरान लगभग 89 प्रतिशत श्रमिकों को उनके नियोक्ताओं द्वारा भुगतान नहीं किया गया था.
• फंसे हुए प्रवासियों के लगभग 44 प्रतिशत कॉल "इमरजेंसी-एसओएस" थे, जिसमें उनके पास कोई पैसा नहीं बचा था या राशन ना होने के कारण भूखे रहना पड़ रहा था.
• भूख की दर राहत की दर से अधिक है. जिन लोगों के पास 1 दिन से कम राशन राशन बचा था, लॉकडाउन का तीसरा हफ्ता आते-आते उनकी संख्या 36 प्रतिशत से बढ़कर 50 प्रतिशत हो गई है, जबकि सरकारी राशन प्राप्त करने वाले लोगों की संख्या में 1 प्रतिशत से बढ़कर केवल 4 प्रतिशत इजाफा हुआ.
• जिन लोगों को सरकार या किसी स्थानीय संगठन से पकाया हुआ भोजन नहीं मिला उनकी संख्या पोस्ट लॉकडाउन के दूसरे सप्ताह के अंत से तीसरे सप्ताह के अंत तक 80 प्रतिशत से घटकर लगभग 70 प्रतिशत हो गई.
• सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में दायर की गई अपनी एक में बताया है कि 6 लाख प्रवासी जोकि राहत आश्रयों में हैं और 22 लाख प्रवासियों को भोजन उपलब्ध कराया गया है. यह आंकड़े अपने आपमें प्रवासियों के लिए किए गए कमजोर प्रंबधन का एक और संकेत है.
• कई विधानों में प्रवासी श्रम को रिकॉर्ड करना एक वैधानिक दायित्व है जो केंद्र और राज्य सरकारों पर राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन अधिनियम (2005), अंतरराज्यीय प्रवासी श्रमिक अधिनियम (1979), और स्ट्रीट वर्कर्स एक्ट (2014) के तहत बाध्यकारी है. इसके अलावा अन्य श्रम कानून भी हैं जो यह आदेश देते हैं कि श्रमिक पूरी और समय पर मजदूरी के भुगतान के हकदार हैं. इसके अलावा विस्थापन भत्ता, यात्रा के दौरान मजदूरी का भुगतान सहित गृह यात्रा भत्ता जैसे भत्तों के भी हकदार हैं. प्रवासी श्रमिकों के लिए सुरक्षित वातावरण प्रदान करने हेतु इन कानूनों का अनुपालन सुनिश्चित करना सरकार की जिम्मेदारी है.
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[inside]अदृश्य नागरिकों की पुकार: देश के आतंरिक प्रवासी मजदूरों पर कोविड -19 लॉकडाउन के प्रभाव का मूल्यांकन, (अप्रैल 2020 में जारी)[/inside] नामक रिपोर्ट को ऐक्सेस करने के लिए कृपया यहां क्लिक करें.
यह रिपोर्ट 1.20 लाख से अधिक प्रवासी कामगारों के साथ काम करने वाली संस्था ‘जनसाहस’ द्वारा तैयार की गई है. इस रिपोर्ट को तैयारकरने के लिए संस्था ने उत्तर और मध्य भारत के 3,196 प्रवासी निर्माण श्रमिकों (अर्थात् मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, दिल्ली और अन्य राज्यों) के साथ टेलीफोनिक साक्षात्कार किए हैं. इस टेलिफोनिक सर्वेक्षण से प्राप्त आंकड़ें प्रवासी कामगारों के प्रति लापरवाही और उदासीनता की एक निर्मम तस्वीर उकेरते हैं.
रिपोर्ट के मुख्य निष्कर्ष इस प्रकार हैं:
• सर्वेक्षण में शामिल किए गए लगभग 55 प्रतिशत श्रमिक चार व्यक्तियों के औसत परिवार को पालने के लिए 200 रुपये से लेकर 400 रुपये तक कमाते थे.
• लगभग 42 प्रतिशत मजदूरों ने बताया कि इस लॉकडाउन में खाने के लिए उनके पास एक दिन का राशन भी नहीं है.
• इस टेलिफोनिक सर्वेक्षण से पता कि 14 प्रतिशत मजदूरों के पास राशन कार्ड नहीं थे. इसलिए, रिपोर्ट लेखकों ने केंद्र और राज्यों द्वारा भूख से होने वाली मौतों को रोकने के लिए उन्हें राशन प्रदान करने के लिए तत्काल उपाय करने की सिफारिश की है.
• साक्षात्कार में शामिल 33 प्रतिशत मजदूरों ने बताया कि इस लॉकडाउन में वे अभी भी पलायित शहरों में बिना भोजन, पानी और पैसे के फंसे हुए हैं.
• 94 प्रतिशत मजदूरों (लगभग 5.1 करोड़ से अधिक मजदूरों) के पास भवन और अन्य निर्माण श्रमिक (BOCW) पहचान पत्र नहीं थे, जिसकी वजह से राज्यों द्वारा उसके 32,000 करोड़ BOCW कॉर्पस फंड से दी जाने वाली किसी भी सहायता का लाभ नहीं उठा पाएंगे.
• वर्तमान रिपोर्ट में लाभार्थी पहचान प्रणाली में संरचनात्मक खामियों पर प्रकाश डाला गया है जो संभवत: प्रवासी श्रमिकों तक सब्सिडी और राहत पहुंचाने में दिक्कतें पैदा करने वाली हैं.
• टेलिफोनिक साक्षात्कार से पता चलता है कि 17 प्रतिशत मजदूरों के पास बैंक खाते नहीं थे. इसलिए, रिपोर्ट लेखकों ने सिफारिश की है कि सरकार को समय पर प्रवासियों तक आर्थिक लाभ सुनिश्चित करने के कई दूसरे विकल्प भी तुरंत तलाशने चाहिए – संभवतः जन धन खातों, आधार पहचान की मदद से नकद भुगतान के अन्य सरल तरीकों से ग्राम पंचायत और डाकघरों की मदद से जल्द ही नकद भुगतान करने चाहिए.
• टेलीफोनिक सर्वेक्षण में लगभग 31 प्रतिशत श्रमिकों ने बताया कि उन्होंने कर्ज लिया हुआ है और रोजगार के बिना उस कर्ज को चुकाना मुश्किल होगा.
• सर्वेक्षण से पता चलता है कि लगभग 90 प्रतिशत मजदूरों ने पिछले 1-3 हफ्तों में अपनी आय का स्त्रोत खो चुके हैं.(ठीक उस समय से पहले जब वर्तमान अध्ययन यानी 27-29 मार्च, 2020 को आयोजित किया गया था).
• मोटे तौर पर 62 प्रतिशत श्रमिकों को सरकार द्वारा उनके लिए घोषित आपातकालीन कल्याण उपायों के बारे में कोई जानकारी नहीं थी और लगभग 37 प्रतिशत श्रमिकों को पता नहीं था कि मौजूदा योजनाओं का उपयोग कैसे किया जाए.
• निर्माण क्षेत्र देश की जीडीपी में लगभग 9 प्रतिशत का योगदान देता है और पूरे भारत में 5.5 करोड़ दैनिक मजदूरी वाले प्रवासी श्रमिकों की संख्या सबसे अधिक है. हर साललगभग 90 लाख श्रमिक निर्माण स्थलों और कारखानों में काम की तलाश में ग्रामीण क्षेत्रों से शहरों में जाते हैं.
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style="font-family:Calibri,sans-serif">[inside] आर्थिक सर्वेक्षण 2016-17 ( जनवरी, 2017 में जारी) [/inside] के अनुसार (एक्सेस करने के लिए कृपया यहां क्लिक करें ):
• भारत में श्रम प्रवास (लेबर माइग्रेशन) के नए अनुमानों से पता चला है कि अंतर-राज्य श्रम गतिशीलता पिछले अनुमानों की तुलना में काफी अधिक है.
• नए डेटा स्रोतों और नई कार्यप्रणाली के विश्लेषण के आधार पर अध्ययन से यह भी पता चलता है कि पलायन तेज हो रहा है और विशेष रूप से महिलाओं के मामले में बढ़ोतरी देखने को मिली है. अध्ययन के लिए उपयोग किए गए डेटा स्रोत 2011 की जनगणना और रेल मंत्रालय के रेल यात्री यातायात प्रवाह (रेल यात्रा टिकट डेटा) और कोहॉर्ट-बेस्ड माइग्रेशन मेट्रिक (सीएमएम) सहित नई कार्यप्रणाली हैं.
• नए कोहॉर्ट-बेस्ड माइग्रेशन मेट्रिक (सीएमएम) से पता चलता है कि 2001 और 2011 के बीच अंतर-राज्य श्रम गतिशीलता औसतन 50–65 लाख लोगों की थी, जिसमें लगभग 6 करोड़ की अंतर-राज्य प्रवासी आबादी और 8 करोड़ अंतर-जिला प्रवासी आबादी शामिल है.
• 2011-2016 की अवधि के लिए रेलवे डेटा का उपयोग करके आंतरिक कार्य-संबंधित पलायन का पहला अनुमान राज्यों के बीच 90 लाख प्रवासी लोगों के वार्षिक औसत प्रवाह का संकेत देता है. ये दोनों अनुमान, क्रमिक जनगणना (सेन्सस) द्वारा सुझाए गए लगभग 40 लाख की वार्षिक औसत गतिशीलता (एवरेज फ्लो) से काफी अधिक हैं और पहले किए गए किसी भी अध्ययन के अनुमानों से अधिक हैं.
• इस नए अध्ययन से यह भी पता चलता है कि काम और शिक्षा के लिए पलायन में तेजी आ रही है. 2001-2011 की अवधि में श्रम प्रवासियों की वृद्धि दर 4.5 प्रतिशत प्रति वर्ष, जोकि पिछले एक दशक के सापेक्ष दोगुनी हो गई है. दिलचस्प बात यह है कि पलायन की गति विशेष रूप से महिलाओं में अधिक बढ़ी है और 2000 के दशक में पुरुषों की पलयान दर से लगभग दोगुना बढ़ी है. अंतर-राज्य पलायन में अकेले 20-29 साल की उम्र के श्रमिकों की संख्या लगभग 1.2 करोड़ क आंकड़े के साथ दोगुनी हो गई है. पलायन में इस तेजी के लिए एक प्रशंसनीय परिकल्पना यह है कि पुरस्कार (आय और रोजगार के अवसरों की संभावनाएं) उन लागतों और जोखिमों पर भारी पड़े, जिन्हें प्रवासी झेलते हैं. यह भी हो सकता है कि उच्च विकास और आर्थिक अवसरों की असीम संभावनाओं ने पलायन में आई इस तेजी के लिए चिंगारी का काम किया हो.
• तीसरी, और एक संभावित रोचक खोज, जिसके लिए अस्थायी लेकिन कोई निर्णायक सबूत नहीं हैं. वह है कि बेशक राजनीतिक सीमाएं लोगों के प्रवाह को बाधित करती हों, लेकिन भाषा लोगों के प्रवाह के लिए एक बाधा अवरोधक नहीं साबित हुई है. उदाहरण के लिए, एक ग्रेविटी मॉडल दर्शाता है कि राजनीतिक सीमाएं लोगों के प्रवाह को बाधित करती हैं, यह तथ्य इस बात से पुष्ट होता है कि अंतर राज्य पलायन से राज्यों के भीतर (राज्य के अंदर पलायन) प्रवासी लोग 4 गुणाअधिक पलायन करते हैं. हालांकि, एक सामान्य भाषा के रूप में हिंदी का न होना भी राज्यों में व्यापार और लोगों के बीच कोई अवरोध पैदा नहीं करता है.
• चौथा, इस अध्ययन में पाए गए प्रवासियों की आवाजाही के पैटर्न मोटे तौर पर उसी के अनुरूप हैं जो अपेक्षित है – कम संपन्न राज्यों से अधिक लोग दूसरे सम्पन्न राज्यों में पलायन करते हैं जबकि अधिकांश संपन्न राज्यों में प्रवासी मजदूर अपना डेरा जमाते हैं. राज्य स्तर पर सीएमएम स्कोर और प्रति व्यक्ति आय के बीच एक मजबूत सकारात्मक संबंध पाया जा सकता है. बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे अपेक्षाकृत गरीब राज्यों में नेट-माइग्रेशन अधिक है. नेट-इन-माइग्रेशन को दर्शाते हुए सात राज्य सकारात्मक CMM मूल्य लेते हैं: गोवा, दिल्ली, महाराष्ट्र, गुजरात, तमिलनाडु, केरल और कर्नाटक.
• प्रवासियों तक कल्याणकारी लाभों को बनाए रखने और अधिकतम करने के लिए नीतिगत कार्रवाइयों में खाद्य सुरक्षा लाभों की सुवाह्यता सुनिश्चित करना, स्वास्थ्य देखभाल प्रदान करना और एक अंतर-राज्य स्व-पंजीकरण प्रक्रिया के माध्यम से प्रवासियों के लिए एक बुनियादी सामाजिक सुरक्षा ढांचा शामिल हैं: हालांकि वर्तमान में ऐसी कई योजनाएँ मौजूद हैं जिनका सीधा संबंध प्रवासी कल्याण से है. ऐसी योजनाएं राज्य स्तर पर कार्यान्वित की जाती हैं, इसलिए इनके लिए अंतर-राज्य समन्वय की अधिक आवश्यकता होती है.
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सेंटर फॉर पब्लिक पॉलिसी, मानव विकास, स्कूल ऑफ डेवलपमेंट स्टडीज, टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज (मुंबई) में आयोजित की गई राष्ट्रीय संगोष्ठी में तैयार किए गए संकल्पना नोट: [inside]'कॉन्टेस्टिंग स्पेसेस एंड नेगोशिएटिंग डेवेल्पमैंट: ए डॉयलॉग ऑन डोमेस्टिक माइग्रेंटस्, स्टेट एंड इनक्लूसिव सिटीजनशिप इन इंडिया' (25-26 मार्च 2016)[/inside] , के अनुसार (कॉन्सेप्ट नोट का उपयोग करने के लिए कृपया यहां क्लिक करें):
• कुछ अनुमानों से पता चलता है कि भारत में लगभग 10 करोड़ अस्थायी घरेलू प्रवासी हैं.
• भारत की जनगणना 2001 और राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (NSSO) 2007-08 के अनुमान के अनुसार, दस में से तीन भारतीयों को घरेलू प्रवासियों के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है, जिन्होंने जिले या किसी दूसरे राज्य में पलायन किया है. 2001 में, 30.9 करोड़ व्यक्ति पिछले निवास स्थान के आधार पर प्रवासी थे, जो देश की कुल आबादी का लगभग 30 प्रतिशत था. (नवीनतम जनगणना से डेटा अनुपलब्ध है).
• प्रवास के प्रमुख कारण काम/रोजगार, व्यवसाय और शिक्षा, विवाह, जन्म या परिवार/परिवार के साथ पलायन करना है. विद्वानों का तर्क है कि सरकारी डेटा में उन मौसमी प्रवासी (सीजनल माइग्रेंट्स्) की आवाजाही को कम करके यानी सही से दर्ज नहीं किया जाता है, जो सामाजिक-आर्थिक रूप से वंचित हैं और बहुत ही कम आय और कम शिक्षित होते हैं. ये प्रवासी मजदूर आबादी का वह अस्थायी हिस्सा हैं, जो ज्यादातर ईंट भट्टों, निर्माण, वृक्षारोपण, खान, खदान और कारखानों में काम करते हैं और श्रम ठेकेदारों द्वारा उनका खूब शोषण होता है. ये प्रवासी मजदूर चुनाव और राजनीति में भाग लेने में अपेक्षाकृत अधिक मुश्किलों का सामना करतेहैं.
• घरेलू प्रवासियों, विशेष रूप से तथाकथित गैर-अधिवासित घरेलू प्रवासियों को किसी भी तरह के औपचारिक निवास अधिकार प्राप्त नहीं हैं. उनके पास पहचान प्रमाणन होने, पर्याप्त आवास की कमी, कम दिहाड़ी, असुरक्षित या खतरनाक कार्य स्थिति जैसी समस्याएं उन्हें घेरे रहती हैं. बेशक भारतीय चुनावों ने “धरती के सबसे बड़े लोकतंत्र” की उपाधि ग्रहण कर ली हो, मगर प्रवासियों को इन चुनावों में भाग लेने के लिए अधिकारों से वंचित किए जाने सहित राज्य द्वारा प्रदान की गई कल्याणकारी सेवाओं तक इनकी कोई पहुँच नहीं है. इस प्रकार, इस तरह की बहिष्करण प्रथाओं ने इन्हें द्वितीय श्रेणी के नागरिक बनाकर उनके हाल पर छोड़ दिया है.
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"भारत में आंतरिक प्रवासियों का सामाजिक समावेश" (2013) दस्तावेज़ हमारे समाज में मौजूद आंतरिक प्रवासियों के समावेश को बढ़ावा देने वाली प्रथाओं को दर्ज करने का कार्य करता है. यह दस्तावेज भारत में प्रवासियों के सामाजिक समावेश को सुविधाजनक बनाने के लिए पेशेवर और सरकारी अधिकारियों को सहायता करने के लिए प्रेरित करेगा. इस रिपोर्ट को प्रकाशित करने का यूनेस्को का मकसद भारत में आंतरिक पलायन पर लोगों की समझ और दृष्टि को बढ़ाना है, जिसके लिए प्रवासियों के बारे में फैलाए गए मिथकों और गलत धारणाओं को संबोधित कर साक्ष्य आधारित अनुभवों और प्रथाओं का प्रसार करके उनकी धारणा और चित्रण में प्रतिमान का बदलाव करना है ताकि प्रवासियों के सामाजिक समावेश को बढ़ावा मिल सके.
यूनिसेफ, यूनेस्को और सर दोराबजी टाटा ट्रस्ट द्वारा तैयार की गई [inside] भारत में आंतरिक प्रवासियों का सामाजिक समावेश (2013) [/inside] नामक रिपोर्ट के अनुसार: (रिपोर्ट डाउनलोड करने के लिए कृपया यहां क्लिक करें):
• प्रवासियों के बेहतर सामाजिक समावेश के लिए रिपोर्ट दस प्रमुख क्षेत्रों पर केंद्रित है: पंजीकरण और पहचान; राजनीतिक और नागरिक समावेश; श्रम बाजार समावेश; कानूनी सहायता और विवाद समाधान; महिला प्रवासियों का समावेश; भोजन तक पहुंच के माध्यम से समावेश; आवास के माध्यम से समावेश; शैक्षिक समावेश; सार्वजनिक स्वास्थ्य समावेश और वित्तीय समावेशन.
आंतरिक पलायन के आंकड़े
• भारत की जनगणना 2001 के अनुसार, भारत में 30.9 करोड़ की बड़ी आबादी आंतरिक प्रवासी है और हाल के अनुमानों से पता चलता है कि देश में 32.6 करोड़ (एनएसएसओ 2007-2008) आंतरिक प्रवासी हैं जोकि कुल आबादी का लगभग 30 प्रतिशत है. आंतरिक प्रवासियों, जिनमें से 70.7 प्रतिशत महिलाएं हैं, को समाज के आर्थिक, सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनीतिक जीवन से बाहर रखा गया है और अक्सर उन्हें द्वितीय श्रेणी के नागरिक समझा जाता है.
• ग्रामीण क्षेत्रों में 91.3 प्रतिशत महिलाओं और शहरी क्षेत्रों में 60.8 प्रतिशत (एनएसएसओ 2007–08) महिला प्रवासियों द्वारा विवाह को पलायन का सबसे प्रमुख कारण बताया जाता है: रोजगार के लिए महिलाओं का पलायन भी सांस्कृतिक कारकों के कारण कम ही दर्ज किया जाता है. अक्सर महिलाओं की आर्थिक भूमिकाओं (शांति, 2006) के बजाय उनकी सामाजिक भूमिका पर जोर देता है, जिसकी वजह से महिलाएं समाज की अदृश्य आर्थिक योगदानकर्ता बन जाती हैं.
• भारत में लगभग 30 प्रतिशत आंतरिक प्रवासी 15-29 वर्ष आयु वर्ग (राजन, 2013;जनगणना, 2001) युवा वर्ग के हैं. प्रवासी बच्चों की अनुमानित संख्या लगभग 1.5 करोड़ (डैनियल, 2011; स्मिता, 2011) है. इसके अलावा, कई अध्ययनों से पता चला है कि पलायन हमेशा स्थायी नहीं होता है, यह मौसमी भी होता है. खासकर सामाजिक-आर्थिक रूप से वंचित समूहों, जैसे अनुसूचित जाति (एससी), अनुसूचित जनजाति (एसटी) और अन्य पिछड़ी जातियों (ओबीसी), में मौसमी पलायन (सीजनल माइग्रेशन) व्यापक चलन है. इन मौसमी प्रवासियों की कमजोर आर्थिक हालात और मुश्किल जीवन यापन (देशिंगकर और एकटर, 2009) के चलते ये मौसमी पलायन करते हैं.
• लगभग आंतरिक प्रवासी उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश छत्तीसगढ़, झारखंड, ओडिशा, उत्तराखंड और तमिलनाडु जैसे राज्यों से पलायन करते हैं, जबकि प्रमुख गंतव्य क्षेत्र दिल्ली, महाराष्ट्र, गुजरात, हरियाणा, पंजाब और कर्नाटक हैं. देश के भीतर विशिष्ट माइग्रेशन कॉरिडोर हैं, जैसे कि: बिहार से राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र, बिहार से हरियाणा और पंजाब, उत्तर प्रदेश से महाराष्ट्र, ओडिशा से गुजरात, ओडिशा से आंध्र प्रदेश और राजस्थान से गुजरात.
• भारत में पलायन मुख्य रूप से दो प्रकार के होते हैं: (ए) दीर्घकालिक पलायन, जिसके परिणामस्वरूप कोई व्यक्ति या गृहस्थी अपना मूल स्थान छोड़कर किसी दूसरी जगह लंबे समय के लिए पलायन करता है और (बी) अल्पकालिक या मौसमी पलायन, जिसमें कोई व्यक्ति अपने मूल स्थान और कार्य स्थल के बीच लगातार आवाजाही रखता है. अल्पकालिक प्रवासियों का अनुमान 1.5 करोड़ (NSSO 2007–2008) से 10 करोड़ (Deshingkar और Akter, 2009) के बीच बदलता रहता है. फिर भी, बड़े सर्वेक्षण जैसे कि जनगणना, अल्पकालिक प्रवासियों के प्रवाह को पर्याप्त रूप से दर्ज करने में विफल रहते हैं और पलायन के माध्यमिक यानी दूसरे कारणों को रिकॉर्ड नहीं करते हैं.
• भारत की शहरी आबादी में लगभग एक तिहाई आंतरिक प्रवासी हैं, और यह अनुपात बढ़ रहा है: 1983 में 31.6 प्रतिशत से 1999-2000 में 33 प्रतिशत और 2007-08 (एनएसएसओ 2007-08) में 35 प्रतिशत. शहरी क्षेत्रों में पलायन दर में वृद्धि मुख्य रूप से महिलाओं की पलायन दर में वृद्धि के कारण हुई है, जो 1993 में 38.2 प्रतिशत से बढ़कर 1999-2000 में 41.8 प्रतिशत, और 2007-08 में बढ़कर 45.6 प्रतिशत हो गई है.
• इस अवधि में शहरी क्षेत्रों में पुरुष पलायन दर (26 और 27 प्रतिशत के बीच) स्थिर रही है, लेकिन पुरुषों के प्रवास के लिए रोजगार से संबंधित पलायन दर 1993 में 42 प्रतिशत से साल 2000 में बढ़कर 52 प्रतिशत और 2007-08 में बढ़कर 56 प्रतिशत हो गई.
• भारत के सकल घरेलू उत्पाद में शहरों का बढ़ता योगदान पलायन और प्रवासी श्रमिकों के बिना संभव नहीं होगा. कुछ महत्वपूर्ण क्षेत्र जिनमें प्रवासी काम करते हैं, उनमें निर्माण, ईंट भट्टा, नमक पान, कालीन औरकढ़ाई, वाणिज्यिक और वृक्षारोपण, कृषि और शहरी अनौपचारिक क्षेत्रों में विभिन्न प्रकार की नौकरियां जैसे विक्रेता, फेरीवाले, रिक्शा चालक, दैनिक कामगार औरघरेलू काम (भगत, 2012) शामिल हैं.
अर्थव्यवस्था में प्रवासियों का योगदान
• भारत में प्रमुख प्रवासी रोजगार क्षेत्रों पर आधारित मौसमी प्रवासियों के आर्थिक योगदान की जांच करने वाले एक स्वतंत्र अध्ययन से पता चला है कि वे राष्ट्रीय सकल घरेलू उत्पाद (देशकॉकर और एक्टर, 2009) में 10 प्रतिशत का योगदान करते हैं.
• तुम्बे (2011) के अनुसार, घरेलू प्रेषण बाजार का अनुमान 2007-08 में लगभग 10 बिलियन अमरीकी डॉलर था. बढ़ती आय के साथ, प्रवासी प्रेषण मानव पूंजी निर्माण, विशेष रूप से स्वास्थ्य पर खर्च में वृद्धि, और कुछ हद तक शिक्षा (देशनांग और सैंडी, 2012) में भी निवेश को प्रोत्साहित कर सकते हैं.
महिला प्रवासियों की स्थिति
• महिला प्रवासियों को दोहरे भेदभाव का सामना करना पड़ता है, इन महिलाओं को लिंग-आधारित हिंसा, और शारीरिक, यौन या मनोवैज्ञानिक शोषण, शोषण और तस्करी जैसी कठिनाइयों के अजीबोगरीब गठजोड़ का सामना करना पड़ता है.
• महिला प्रवासी श्रमिकों में शिक्षा, अनुभव और कौशल की कमी के कारण अवैध प्लेसमेंट एजेंसियां और दलाल मिलकर उनका शोषण करते हैं.
• अनुमान बताते हैं कि भारत में घरेलू कामगारों की संख्या 47 लाख (NSS 2004-05) से 64 लाख (जनगणना 2001) (MoLE, 2011) तक है.
• असंगठित क्षेत्र के राष्ट्रीय उद्यम आयोग ने अनुमान लगाया है कि 40 लाख घरेलू कामगारों में से 92 प्रतिशत महिलाएं, लड़कियां और बच्चे हैं और 20 प्रतिशत 14 वर्ष से कम उम्र के हैं. हालांकि, अन्य स्रोतों से पता चलता है कि इन आंकड़ों को कम करके आंका गया है और देश में घरेलू श्रमिकों की संख्या बहुत अधिक हो सकती है. कहा जाता है कि यह क्षेत्र 1999-2000 से 222 प्रतिशत बढ़ा है और शहरी भारत में महिला रोजगार का सबसे बड़ा क्षेत्र है, जिसमें लगभग 3 लाख महिलाएं (MoLE, 2011) शामिल हैं.
• एनएसएसओ डेटा (2007-08) दर्शाता है कि ग्रामीण क्षेत्रों में लगभग 60 प्रतिशत महिलाएँ स्वयं-पोषित कामगार थीं और 37 प्रतिशत दिहाड़ी श्रमिक थीं, जबकि शहरी क्षेत्रों में, 43.7 प्रतिशत महिलाएँ स्वयं-पोषिक कामगार थीं और 37 प्रतिशत नियमित नौकरियों (श्रीवास्तव, 2012) में कार्यरत थीं.
प्रवासियों के अधिकार
• प्रवासी मजदूर कई तरह की अड़चनों का सामना करते हैं, जिनमें औपचारिक निवास अधिकारों की कमी; पहचान प्रमाण की कमी; राजनीतिक प्रतिनिधित्व की कमी; अपर्याप्त आवास; कम-भुगतान, असुरक्षित या खतरनाक काम; तस्करी और यौन शोषण के लिए महिलाओं और बच्चों की अत्यधिक भेद्यता; जातीयता, धर्म, वर्ग या लिंग के आधार पर स्वास्थ्य और शिक्षा और भेदभाव जैसी राज्य-प्रदत्त सेवाओं से बहिष्करण शामिल हैं.
• अधिकांश आंतरिक प्रवासियों को बुनियादी अधिकारों से वंचित किया जाता है. इस तथ्य के बावजूद कि प्रत्येक दस भारतीयों में से लगभग तीन आंतरिक प्रवासी हैं, सरकार द्वारा आंतरिक प्रवास को बहुत कम प्राथमिकता दी गई है, और भारतीय राज्य की मौजूदा नीतियां इस कमजोर समूह को कानूनीया सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने में विफल रही हैं. इसे आंतरिक प्रवास की सीमा, प्रकृति और परिमाण पर एक गंभीर डेटा गैप के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है.
• पहचान और निवास के सबूतों के अभाव में, आंतरिक प्रवासी सामाजिक सुरक्षा अधिकारों का दावा करने में असमर्थ हैं और सरकार प्रायोजित योजनाओं और कार्यक्रमों का लाभ नहीं ले पाते हैं. बच्चों को नियमित स्कूली शिक्षा में व्यवधान का सामना करना पड़ता है, जो उनके मानव पूंजी निर्माण को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करता है और गरीबी की पीढ़ी दर पीढ़ी संरचना में योगदान देता है.
• आंतरिक प्रवासी अधिक मात्रा में एचआईवी (3.6 प्रतिशत) संक्रमित हैं, जो सामान्य आबादी (एनएसीओ, 2010) के बीच एचआईवी संक्रमण का दस गुना है. उनकी इस खराब स्थिति के लिए व्यक्तिगत अलगाव, उनका अकेलापन और यौन जोखिम लेने, एचआईवी जागरूकता की कमी और स्रोत और गंतव्य दोनों पर सामाजिक समर्थन नेटवर्क जैसी कमियों को जिम्मेदार ठहराया गया है (बोरहेड, 2012). अपनी जातीयता, भाषाई मतभेदों, धार्मिक मान्यताओं और सामाजिक-आर्थिक स्थितियों के कारण वे स्थानीय समुदाय से द्वारा बाहर फेंक दिए जाने के अलावा, एचआईवी और एड्स से संक्रमित प्रवासी दोहरे भेदभाव और अपमान का सामना करते हैं. एचआईवी से संक्रमित प्रवासी महिलाएं कई और अंतःक्रियात्मक कमजोरियों (IOM, 2009) से सबसे अधिक पीड़ित हैं.
• एक अध्ययन के अनुसार, भारत में मौसमी प्रवासी श्रमिकों के राजनीतिक समावेश: धारणाएं, वास्तविकताएं और चुनौतियां (शर्मा एट अल, 2010), लगभग 60 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने चुनाव में कम से कम एक बार मतदान में भाग न लेने की सूचना दी क्योंकि वे काम की तलाश में घर से दूर थे. इसके अलावा, 54 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने दावा किया कि वे मतदान के इरादे से चुनाव के दौरान अपने घर गांवों में लौट आए थे, जिनमें से 74 प्रतिशत विशेष रूप से पंचायत (स्थानीय स्वशासन की ग्राम स्तरीय संस्था) के चुनावों के लिए लौटे थे.
• प्रवासियों से गंदे, खतरनाक और अपमानजनक काम करवाए जाते हैं जो स्थानीय लोग नहीं करना चाहते हैं. यह "नौकरी छिनने से अलग है. प्रवासियों को स्वीकार नहीं करने या उन्हें सुविधाएं प्रदान करने से, सरकारें केवल प्रवास के जोखिम और लागत को बढ़ा रही हैं और इसकी विकास क्षमता को कम कर रही हैं."
Note: * The process of “circular migration” implies circularity, that is, a relatively open form of (cross-border) mobility. Such migration might involve seasonal stays or temporary work patterns.
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[inside]माइग्रेशन इन इंडिया २००७-२००८, नेशनल सैंपल सर्वे,भारत सरकार[/inside] के आंकड़ों के अनुसार-
http://mospi.nic.in/Mospi_New/upload/nss_press_note_533_15june10.pdf:
क. गुजरे ३६५ दिनों में पूरे परिवार का पलायन
• ग्रामीण इलाकों में पारिवारिक पलायन(हाऊसहोल्ड माइग्रेशन) का प्रतिशत १ रहा जबकि शहरी क्षेत्र में ३ फीसदी।
• ज्यादातर पलायन सूबे के अंदर ही हुआ। ग्रामीण इलाको में सपरिवार पलायनकरने वालों में ७८ फीसदी और शहरी इलाको में सपरिवार पलायन करने वालों में ७२ फीसदी का पिछला आवास सूबे के अंदर ही था।
•ग्रामीण इलाको से सपरिवारपलायन करने वालों की तादाद अपेक्षाकृत ज्यादा(५७ फीसदी) रही।
• शहरी और ग्रामीण दोनों ही क्षेत्रों से पलायन करने का प्रमुख कारण आजीविका की खोज थी। गांवों से ५५ फीसदी पलायन जीविका की खोज के कारण हुआ।
ख. पलायन करने वाले.
• भारत में २९ किसी ना किसी कारण से पलायन करने वालों की संख्या २९ फीसदी है।
• शहरों में पलायन की दर(कुल आबादी में पलायन करके आने वाले लोगों की तादाद) ३५ फीसदी है जबकि ग्रामीण इलाकों में यह दर २६ फीसदी है।
• शहर और गांव दोनों ही इलाकों में पलायन करने वालों में स्त्रियों की संख्या पुरुषों की तुलना में ज्यादा है। ग्रामीण इलाके में पलायित लोगों में महिलाओं की तादाद ४८ फीसदी है जबकि पुरुषों की महज पांच फीसदी। शहरों में पलायित पुरुषों की तादाद २६ फीसदी है जबकि महिलाओं की ४६ फीसदी।
• ग्रामीण इलाके में अनुसूचित जनजाति में पलायन सबसे कम(२४ फीसदी) है।
• शहरी इलाके में ओबीसी तबके में पलायन सर्वाधिक कम(३३ फीसदी) जबकि अन्य वर्ग नामक कोटि में सर्वाधिक यानी ३८ फीसदी है।
• साक्षरता के हिसाब से देखें तो ग्रामीण इलाके में निरक्षर लोगों में पलायन का प्रतिशत ४ है जबकि स्नातक तक की शिक्षा प्राप्त लोगों में यही प्रतिशत १४ का है।
• ग्रामीण इलाकों में जो लोग पलायन कर रहे हैं उनमें ९१ फीसदी का पलायन किसी ना किसी ग्रामीण इलाके से दूसरे ग्रामीण इलाके में हो रहा है जबकि ८ फीसदी शहर से ग्रामीण इलाके में पलायन करने वाले लोग हैं।
• शहरी पुरुष आप्रवासियों में ६० फीसदी और शहरी महिला आप्रवासियों में ५९ फीसदी ग्रामीण इलाके से पलायन करके शहर पहुंचे हैं।
• शहरी और ग्रामीण दोनों ही इलाकों में महिलाओं के पलायन का सबसे बड़ा कारण शादी है। (ग्रामीण इलाके के लिए ९१ फीसदी और शहरी इलाके के लिए ६१ फीसदी) ।
• पुरुष के पलायन का मुख्य कारण आजीविका की तलाश है (शहरी क्षेत्र के लिए ५६ फीसदी मामलों में और ग्रामीण क्षेत्र के लिए २९ फीसदी मामलों में )
• ग्रामीण इलाके से पलायन करने वाले ज्यादातर पुरुष स्वरोजगार में हैं। कुल पलायन करने वाले लोगों में १६ फीसदी स्वरोजगार में लगे थे. नए सिरे से हुए पलायन के बाद यह तादाद बढ़कर २७ फीसदी हो गई है।
• जहां तक शहरी इलाके के पलायन करने वाले पुरुषों का सवाल है, इसमें वेतनभोगी या नियमित मजदूरी हासिल करने वालों की तादाद में तेज बढ़ोतरी हुई है( पुराने पलायन करने वालों में वेतनभोगियों की तादाद १८ फीसदी थी तो नए सिरे से पलायन करने वालों के कारण यह तादाद बढ़कर ३९ फीसदी हो गई।
ग. सीमित अवधि के आप्रवासी
• सीमित अवधि के आप्रवासन की दर(आबादी में सीमित अवधि के लिए पलायन करने वालों का अनुपात) ग्रामीण इलाकों के लिए १.७ फीसदी जबकि शहरी इलाके के लिए १ फीसदी से भी कम रही।
• ग्रामीण इलाके से सीमित अवधि के लिए पलायन करने वालों में आधे से अधिक दिहाड़ी मजदूरी के काम में लगते हैं।
• सीमित अवधि के लिए पलायन करने वाले कुल लोगों में स्वरोजगार में लगे ग्रामीण पुरुषों की संख्या ३२ फीसदी है।
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अमेरिकन इंडिया फाऊंडेशन द्वारा प्रस्तुत [inside]मैनेजिंग द एग्जोडस्–ग्राऊंडिंगमाइग्रेशन इन इंडिया [/inside] नामक दस्तावेज के अनुसार–(http://www.aifoundation.org/documents/Report-ManagingtheExodus.pdf):
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साल २०२१ तक भारत में मेगा–सिटीज की संख्या विश्व में सर्वाधिक होगी और शहरीकरण तथा पलायन के कारण शहरी इलाकों में रहने वाले लोगों की संख्या में अभूतपूर्व बढोत्तरी होगी।हर मेगा–सिटीज(बड़े शहर) में एक करोड़ से ज्यादा लोग निवास कर रहे होंगे।
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पलायन (माइग्रेशन) को किसी व्यक्ति के विस्थापन के अर्थ में परिभाषित किया गया है। पलायन करने वाला व्यक्ति अपनी जन्मभूमि अथवा स्थायी आवास को छोड़कर देश में ही कहीं अन्यत्र रहने चला जाता है। साल २००१ में भारत में अपने पिछले निवास स्थान को छोड़कर कहीं और जा बसने वाले लोगों की संख्या ३० करोड़ ९० लाख थी।कुल जनसंख्या में यह आंकड़ा ३० फीसदी का बैठता है। साल १९९१ की जनगणना से तुलना करें तो २००१ में पलायन करने वाले लोगों की तादाद में ३७ फीसदी का इजाफा हुआ है। आकलन के मुताबिक साल १९९१ से २००१ के बीच ९ करोड़ ८० लाख लोग अपने पिछले निवास स्थान को देश में कहीं और रहने के लिए विवश हुए।.
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परंपरागत तौर पर पलायन गांवों से शहरों की तरफ होता रहा है। इस प्रवृति में धीरे धीरे बढ़ोत्तरी हुई है।गांवों से शहरों की तरफ पलायन का आंकड़ा कहता है कि १९७१ में पलायन करने वाले कुल लोगों की तादाद में गांव से पलायन करने वाले लोगों की संख्या १६.५ फीसदी थी जबकि साल २००१ में गांवों से शहरों की तरफ पलायन करने वाले लोगों की यह संख्या २१.१ फीसदी पर जा पहुंची।
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पिछले तीन दशकों (१९७१–२००१) में एक शहर से दूसरे शहर को पलायन करने वाले लोगों की संख्या में भी १३.६ फीसदी के मुकाबले १४.७ फीसदी का इजाफा हुआ है।
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साल २००१ में एक गांव से दूसरे गांव में जा बसने वाले लोगों की संख्या पलायन करने वाले कुल लोगों की संख्या का ५४.७ फीसदी थी।
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पिछले एक दशक यानी १९९१ से २००१ के बीच शहरों को छोड़कर गांव में जा बसने वाले लोगों की संख्या ६० लाख २० हजार थी।
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मौसमी पलायन('Seasonal migration') की प्रवृति ग्रामीण इलाकों में लंबे समय से जारी है–खासकर यह प्रवृति भूमिहीन और भरण पोषण के लिए मजदूरी का सहारा लेने वाले सीमांत किसानों के तबके में लक्ष्य की जा सकती है। कह सकते हैं कि ग्रामीण इलाकों में जीविका के साधनों की कमी और इसकी तुलना में शहरी इलाके में जीविकाके साधनों की भरमार पलायन का मुख्य. कारण है।अन्य कारणों में हम बढ़ते सूचना प्रवाह और बड़े शहरों की बढ़ती तादाद का नाम लेसकते हैं।ऐसे बदलाव के बीच गांव के लोग बेहतर अवसर की तलाश में शहरों की रूख करते हैं।जनजातीय इलाकों में बाहरी लोगों की बसाहट, निर्माण कार्यों से होने वाला विस्थापन और जंगलों की कटाई पलायन का मुख्य कारण है। ध्यान देने की बात यह भी है कि विवाह की वजह से एक निवास स्थान छोड़कर दूसरे निवास स्थान पर जा बसने वाले लोगों की संख्या कुल पलायन करने वालों लोगों की ५० फीसदी है।
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भारत में ग्रामीण इलाकों के कुल ७ करोड़ ३० लाख लोगों नें साल १९९१–२००१ के बीच पलायन किया।इसमें एक गांव को छोड़कर दूसरे गांव जा बसने वालों की तादाद ५ करोड़ ३० लाख है जबकि गांव छोड़ शहर जा बसने वालों की संख्या लगभग २ करोड़।ज्यादातर लोगों के पलायन का कारण जीविका की तलाश रहा।इस आंकड़े में मौसमी पलायन करने वाले लोगों की गणना नहीं की गई है।
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उड़ीसा , बिहार , राजस्थान और मध्यप्रदेश जैसे गरीब राज्यों के शहरों में लोगों की तादाद में बड़ी तेजी से इजाफा हुआ है।ऐसे राज्यों में कृषि–क्षेत्र में उत्पादकता कम और बेरोजगारी ज्यादा है,साथ ही शहर के आधारभूत ढांचे पर दबाव ज्यादा है।इससे संकेत मिलता है कि गरीब राज्यों में गांवों से शहरों की तरफ पलायन के लिए कई सहयोगी कारण मौजूद हैं।
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गांव से शहरों की तरफ पलायन करने वाले लोगों को जाति,नातेदारी तथा गंवई संबंध सूत्रों के सहारे शहरों में जीविका के साधन तलाशने में मदद मिलती है।
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पलायन का एक संबंध शहरी इलाके के कामों के स्वरूप में आ रहे बदलाव (अनुबंध आधारित काम) तथा झोपड़पट्टियों की बढ़ती संख्या से है।
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राष्ट्रीय औसत से संकेत मिलता है कि प्रत्येक अधिसूचित झुग्गी–बस्ती में लगभग २५० परिवारों का आवास है जबकि अनधिकृत झुग्गियों में ११२ परिवारों का।
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देश के शहरी इलाके में झुग्गीबस्तियों की संख्या लगभग ५२ हजार है और इसमें ५१ फीसदी अधिसूचित कोटि में आती हैं।
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आकलन के अनुसार शहरी इलाके में रहने वाला हर सांतवां व्यक्ति झुग्गीबस्ती का निवासी है।
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लगभग ६५ फीसदी झुग्गीबस्ती सरकारी जमीन पर आबाद हैं।इन जमीनों की मिल्कियत यै तो स्थानीय निकायों के हाथ में है अथवा राज्य सरकार के हाथ में।
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देश में सबसे ज्यादा झुग्गीबस्तियों की संख्या महाराष्ट्र में है।महाराष्ट्र में लगभग १७३ से लेकर ११३ झुग्गीबस्तियां अधिकृत की कोटि में आती है जबकि ६० झुग्गीबस्तियां अनधिकृत हैं।
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[inside]योजना आयोग द्वारा प्रस्तुत ११ वीं पंचवर्षीय योजना के दस्तावेज के अनुसार[/inside]–http://www.planningcommission.nic.in/plans/planrel/fiveyr/11th/11_v3/11v3_ch4.pdf:
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पिछले तीन दशकों में गांवों में रहने वाले लोगों की संख्या में कमी हुई है और शहरों में रहने वाले लोगों की संख्या में बढ़ोत्तरी हुई है। इस तथ्य से संकेत मिलते हैं कि ग्रामीण जनअपनी गरीबी से निकलने के लिए शहरों का रूख कर रहे हैं। साल १९९९–२००० में देश में आप्रवासी मजदूरों की संख्या १० करोड़ २७ लाख थी।यह एक बड़ी और चौंकाऊ तादाद है।मौसमी तौर पर पलायन करने वाले मजदूरों की संख्या कम सेकम २ करोड़ होने का अनुमान है।
असंगठित क्षेत्र के उद्यम और रोजगार से संबंधित आयोग यानी नेशनल कमीशन ऑन इंटरप्राइजेज इन अनऑर्गनाइज्ड सेक्टर(NCEUS) के दस्तावेज– [inside]रिपोर्ट ऑन द कंडीशन ऑव वर्क एंड प्रमोशन ऑव लाइवलीहुड इन द अनऑर्गनाइज्ड सेक्टर[/inside] के अनुसार–
http://nceus.gov.in/Condition_of_workers_sep_2007.pdf
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ग्रामीण श्रमिकों से संबंधित राष्ट्रीय आयोग यानी द नेशनल कमीशन ऑन रुरल लेबर (NCRL (1991) की रिपोर्ट में कहा गया है कि गांवों में ज्यादातर वही लोग मौसमी तौर पर पलायन करते हैं जिनके पास खेती की जमीन कम या नहीं है अथवा जो मजदूरी करते हैं।ऐसे आप्रवासी लोग वंचितों की कोटि में आते हैं क्योंकि ये लोग भयंकर गरीबी से त्रस्त होते हैं और इनके पास अपने काम की एवज में मोलभाव करने की भी कोई खास क्षमता नहीं होती। इन्हें असंगठित क्षेत्र में काम करना पड़ता है जहां उनके हितों की सुरक्षा करने वाला कामकाज का कोई खास नियम नहीं होता।ऐसी स्थिति आप्रवासी मजदूरों को सामाजिक रुप से और भी ज्यादा कमजोर बनाती है।उन्हें सरकारी अथवा स्वयंसेवी संगठनों द्वारा चलाए जा रहे कार्यक्रमों में उपेक्षा का शिकार होना पड़ता है,साथ ही ऐसे लोगों से संबंधित श्रम–कानून भी ज्यादा कारगर नहीं हैं।
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खेतिहर मजदूरों में शामिल महिलाओं के बीच रोजगार के लिए पलायन करने की प्रवृति सबसे ज्यादा है जबकि पुरुषों में सबसे ज्यादा करने वाले गैर–खेतिहर मजदूर हैं।खेती–बाड़ी का काम मौसमी होता है और इस कारण जब खेती का काम नहीं हो रहा होता तो खेतिहर मजदूर दूसरी जगहों पर रोजगार हासिल करने के लिए चले जाते हैं।
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एनसीआरएल के अनुसार विभिन्न राज्यों में खेती का विकास असमान रुप से हुआ है।इस वजह से जिन इलाकों में मजदूरी की दर कम है उन इलाकों से मजदूर ज्यादा मजदूरी वाले इलाके अथवा राज्यों में पलायन कर जाते हैं।
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यह बात खासतौर पर हरित क्रांति के बाद हुई। बिहार के मजदूरों ने रोजगार के लिए पंजाब,हरियाणा और पश्चिमी उत्तरप्रदेश का रुख किया।
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कम विकसित इलाकों में खेती के बुनियादी ढांचे पर सरकारी खर्चे की दर कम है।इससे देश के विभिन्न इलाकों के बीच खेती का विकास असमान रुप से हुआ है।
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एनसीआरएल यानी नेशनल कमीशन ऑन रुरल लेबर के अनुसार देश में मौसमी तौर पर पलायन करने वाले मजदूरों की संख्या १ करोड़ से ज्यादा है।साल १९६० के बाद खेती केव्यावसायीकरण की प्रवृति तेज हुई और खेती में उन्नत तकनीक का चलन बढा।इससे खेती के काम में साल की एक खास अवधि में मजदूरों की मांग ज्यादा होती है।इसीअवधि में देश के विभिन्न इलाकों से एक तरफ मजदूरों का पलायन होता है तो दूसरी तरफ स्थानीय स्तर पर मजदूरों को उपलब्ध रोजगार में गिरावट आती है।
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अगर किसी मजदूर को उसकी परंपरागत वास–भूमि में जीविका के साधन अथवा रोजगार के उचित अवसर उपलब्ध नहीं हो तो इस स्थिति में मजदूर पलायन कर सकता है।यह बात खास तौर पर १९९० के दशक पर लागू होती है जब खेती–बाड़ी के काम में रोजगार के सृजन में ठहराव आ गया जबकि इसी अवधि में ग्रामीण इलाकों में गैर–खेतिहर कामों में विस्तार की गति धीमी रही।
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गुजरात, मध्यप्रदेश, राजस्थान, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में सामाजिक और आर्थिक रुप से दयनीय दशा में रहने वाले अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों ने पिछले दशक में सामूहिक रुप से पलायन किया है।
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साऊथ एशिया नेटवर्क ऑन डैमस्,रीवरस् एंड पीपल(SANDRP), द्वारा प्रस्तुत [inside]लार्ज डैम प्रोजेक्टस् एंड डिस्पलेस्मेंट इन इंडिया[/inside] नामक दस्तावेज के अनुसार–
http://www.sandrp.in/dams/Displac_largedams.pdf:
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भारत में सरकार बड़े बांधों की अनेक परियोजनाओं की योजनाकार,धनदाता,निर्माता और मालिक है लेकिन सरकार के पास १९४७ के बाद से बने बड़े बांधों द्वारा विस्थापित हुए लोगों की संख्या के बारे में कोई आंकड़ा नहीं है।
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संख्या के लिहाज से देखें तो बड़े बांधों को बनाने वाले देशों में भारत का स्थान तीसरा है।भारत में ३६०० से ज्यादा बड़े बांध हैं और ७०० की तादाद में बड़े बांधों पर काम चल रहा है।
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विश्वबैंक के आंकड़ों के अनुसार इस बैंक द्वारा वित्तपोषित परियोजना से विस्थापित होने वाले कुल लोगों के बीच बड़े बांधों से विस्थापित होने वाले लोगों की तादाद २६.६ फीसदी है।अगर इसी आंकड़े को कुल विस्थापित लोगों की संख्या से तुलना करके देखें तो पता चलेगा कि कुल विस्थापित लोगों में ६२.८ फीसदी लोग विश्वबैंक द्वारा वित्तपोषित बड़ी बांध–परियोजनाओं के कारण विस्थापन के शिकार हुए हैं।
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यह बात भी स्पष्ट है कि बड़ी बांधों से जुड़े परियोजना अधिकारी विस्थापन और पुनर्वास को परियोजना का महत्त्वपूर्ण हिस्सा नहीं मानते।ऐसी परियोजनाओं का प्रमुख सरोकार इंजीनियरिंग से जुड़ी सहूलियत और सिंचाई अथवा बिजली–उत्पादन से होने वाला लाभ होता है।
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हीराकुड बांध से विस्थापित होने वाले लोगों की तादाद लगभग १.६ लाख थी जबकि सरकारी आंकड़े में इसे १.१ लाख बताया गया।
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सरकार के नवीनतम आंकड़ों के अनुसार सरदार सरोवर परियोजना के अंतर्गत बनने वाले जलागार से ४१ हजार परिवार विस्थापित होंगे।इस परियोजना के अन्तर्गत बनने वाली नहरों से २४ हजार खातेदारों(भूस्वामियो) को अपनीजमीन से हाथ धोना पड़ेगा।इसके अतिरिक्त जलप्रवाहक की विपरीत दिशा में निवास करने वाले १० हजार मछुआरे परिवारों से उनकी आजीविका छिन जाएगी क्योंकि बांध के कारण गैर–मॉनसूनी महीनों में इस इलाके में जलप्रवाह एकदम रुक जाएगा।
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५४ बड़ी बांध परियोजनाओं के सर्वेक्षण के आधार पर निष्कर्ष निकाला गया है कि पिछले पचास सालों में बड़े बांधों के निर्माण से विस्थापित होने वाले लोगों की तादाद ३ कोरड़ ३० लाख है।
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विश्वबैंक के अनुसार फिलहाल हर बड़े बांध के निर्माण से औसतन १३ हजार लोग विस्थापित होते हैं।
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भारत सरकार के आकलन के अनुसार पिछले पचपन सालों में बड़े बांधों के निर्माण से विस्थापित हुए कुल ४ करोड़ लोगों में एक चौथाई से भी कम लोगों का पुनर्वास हो पाया है।
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पीप,ल्स यूनियन ऑव डेमोक्रेटिक राइटस् (PUDR) द्वारा प्रस्तुत दस्तावेज [inside]इन द नेम ऑव नेशनल प्राइड(रिपोर्ट)[/inside] के अनुसार
http://www.pudr.org/index.php?option=com_docman&task=doc_details&Itemid=63&gid=179:
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कॉमनवेल्थ गेम्स के लिए तैयार किए जा रहे खेल परिसर के निर्माण कार्यों में श्रमिक कानून की भारी अवहेलना हो रही है।
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यूनियन के सूत्रों के मुताबिक कॉमनवेल्थ गेम्स के लिए तैयार किए जा रहे खेल परिसर की निर्माणभूमि पर ६००० मजदूरों को रोजगार हासिल है।क्षेत्रीय श्रमआयुक्त (रिजनल लेबर कमीशनर) के अनुसार कॉमनवेल्थ खेलगांव के निर्माण स्थल पर महज ४१०६ मजदूर काम कर रहे हैं जिसमें २२९ का दर्जा कुशल मजदूर का है और ८३३ अर्ध–कुशल मजदूर हैं जबकि अकुशल मजदूरों के दर्जे में ३००४ मजदूर हैं।
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इस खेलगांव के निर्माण में लगे मजदूरों के अनुसार कभी–कभी मजदूरों की तादाद लगभग १५००० हो जाती है। मजदूरों की संख्या को आधिकारिक तौर पर ठीक–ठीक ना बता पाना इस बात का संकेत करता है कि ठेकेदार इस बहाने अपने को जवाबदेही से बचा ले जाते हैं।
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कॉमनवेल्थ खेलगांव के निर्माण कार्य में लगे मजदूरों का दावा है कि काम की स्थिति ठीक ना होने के कारण अब तक कम से कम ७० मजदूर काम के दौरान जान गंवा चुके हैं।यूनियन के प्रतिनिधियों का कहना है कि जानलेवा दुर्घटनाएं २० की तादाद में हुई हैं।यह संख्या भी अपने आप में खतरे की घंटी है।
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कॉमनवेल्थ खेलगांव के निर्माण स्थल पर काम करने वाले मजदूर बिहार,झारखंड,उत्तरप्रदेश और पश्चिम बंगाल के हैं।कुछ मजदूर पंजाब के भी हैं।साथ ही कुछ मजदूर ऐसे हैं जिनका मूल निवास स्थान तो बिहार का है मगर जो खेलगांव के लिए काम करने से पहले महाराष्ट्र के पुणे में काम करते थे और वहां उत्तर भारतीयों के खिलाफ राज ठाकरे के नेतृत्व में आंदोलन शुरू हो जाने केबाद यहां आए।
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खेलगांव के निर्माण कार्य से जुड़े अधिकांश ठेकेदारों ने साल १९७९ के इन्टर स्टेट माइग्रेन्ट वर्कमेन(रेग्युलेशन ऑव एंप्लॉयमेंट एंडकंडीशन ऑव सर्विस) अधिनियम के अन्तर्गत जरुरी लाइसेंस नहीं बनवाये हैं।
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केंद्रीय लोक–निर्माण विभाग(सेंट्रल पब्लिक वर्कस् डिपार्टमेंट),दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए),नई दिल्ली नगरनिगम(एनडीएमसी) और दिल्ली नगरनिगम(एमसीडी) के अंतर्गत होने वाले बुनियादी ढांचे के विकास के अधिकांश कामों को अनुबंध के आधार पर बहुराष्ट्रीय कंस्ट्रक्शन कंपनियों को सौंप दिया गया है। इसका गहरा दुष्प्रभाव ठेके पर बहाल मजदूरों के हक पर पड़ रहा है।
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अधिकांश मजदूरों के पास अपना पहचान पत्र नहीं है।उन्हें सिर्फ गेटपास दिया जाता है।इस गेटपास पर उस कंपनी या ठेकेदार का नाम नहीं होता जिसके लिए वे काम कर रहे हैं ना ही इस पर यह दर्ज होता है कि वे कितने दिनों से काम पर लगे हैं। खेलगांव के निर्माण कार्य में लगे अकुशल दर्जे वाले मजदूरों को ८ घंटे के काम के ८५ से १०० रुपये की दिहाड़ी मिलती है जबकि फरवरी २००९ तक दिल्ली में ऐसे कामों के लिए न्यूनतम मजदूरी १४२ रुपये निर्धारित थी।
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खेलगांव परिसर के लिए निर्माण कार्य में लगे मजदूरों में ५ फीसदी तादाद महिलाओं की है।उन्हें समान काम के लिए पुरुषों की तुलना में कम मजदूरी मिलती है।
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खेलगांव परिसर के निर्माण कार्य में लगे मजदूरों को बहाल करने वाली कंपनी के बारे में शायद ही कोई जानकारी है।
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मजदूरी के भुगतान का तरीका और अवधि में मनमानापन है और इससे शोषण की झलक मिलती है।किसी भी मजदूरी को कभी भी पूरी मजदूरी एक साथ नहीं दी जाती।उन्हें भुगतान की गई रकम की पर्ची तक नहीं दी जाती। मजदूरों से ठेकेदार एक पंजी पर दस्तखत करवा लेता है। इस पंजी पर भुगतान की गई रकम और कार्यदिवसों अथवा घंटों के लिए यह भुगतान किया गया उसका कोई जिक्र नहीं होता। मजदूरों को हमेशा भय सताता है कि बकाया रकम मिलेगी या नहीं।
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अंतिम भुगतान(इसे फाइनल कहा जाता है) के समय ठेकेदार शायद ही मजदूर को उसकी पूरी बकाया राशि का भुगतान करता है।