शोध और विकास

खास
बात


तेलहन,
मक्का,पाम
ऑयल और दालों से संबद्ध तकनीकी
मिशन को चलते हुए दो दशक गुजर
चुके हैं।दाल
,
पाम
ऑयल और मक्का को साल १९९०
९१,१९९२
और १९९५
९६
में इस सिशन के
अंतर्गत लाया गया।मिशन के
अंतर्गत
१९८६
से तेलहन का
उत्पादन विशेष रुप से शुरु
हुआ और उसमें बढ़ोत्तरी हुई
है फिर भी देश में खाद्य तेल
की जितनी मांग है उसकी तुलना
में देश में तेलहन का उत्पादन
कम हो
रहा
है।
.*


दालों
का उत्पादन दशकों से ठहराव
का शिकार है।इससे संकेत मिलते
हैं कि दालों के उत्पादन वृद्धि
का मिशन कारगर सिद्ध नहीं हो
रहा।
..*


नेशनल
प्रोजेक्ट ऑन कैटल एंड बफलो
ब्रीडिंग नाम की परियोजना
पशुपालन
,डेयरी
और मत्स्य पालन विभाग का
फ्लैगशिप प्रोग्राम है।इसकी
शुरुआत साल २००० में दस सालों
के लिए की गई थी।इसके अंतर्गत
दुधारु पशुओं के प्रजाति सुधार
और उनकी देसी प्रजातियों के
संरक्षण को लक्ष्य बनाया गया
था।यह परियोजना २६ राज्यों
और एक केंद्रशासित प्रदेश
में शुरु की गई लेकिन परियोजना
शुरुआत से ही खामियों का शिकार
रही।
.*


डिपार्टमेंट
ऑव एग्रीकल्चरल रिसर्च एंड
एजुकेशन का नेटवर्क बहुत बड़ा
है।इसमें केंद्रीय संस्थानों
की संख्या ४८ है
,

नेशनल ब्यूरो
,
३२
राष्ट्रीय शोध केंद्र और ६२
अखिल भारतीय समेकित शोध
परियोजनाएं हैं। लेकिन इसकी
कार्यदशा के बिगड़े होने के
संकेत हो बातों से मिलते हैं।
एक
प्रयोगशाला
में जितनी उत्पादकता हासिल
कर ली जाती है खेतों में आजमाने
पर वही उत्पादकता एकदम नीचे
चली आती है। दो
,नई
प्रजाति के जो बीजों की तैयारी
में यह नेटवर्क प्रौद्योगिक
पिछड़ेपन का शिकार है।
*.

 


इंडियन काऊंसिल ऑव एग्रीकल्चरल
रिसर्च ने २६१ कृषि विज्ञानकेंद्र
की स्थापना की है। इनकी जिम्मेदारी
किसानों को खेती के आधुनिक
तौर तरीकों के बारे में किसानों
को प्रशिक्षण देना और उन्हें
नई प्रौद्योगिकी से परिचित
कराना है।
**.

 

साल
२००० में खेती में शोध और विकास
के मद में सरकार ने ५७८ मिलियन
डॉलर का निवेश किया।
**.


साल
१९९५
९६
में केंद्रीय
सरकार ने खेती और ग्रामीण
विकास पर कुल का
३०
फीसदी धन व्यय
किया जिसमें अधिकांस राशि
उर्वरक और बाकी सब्सिडी के
मद में दी गई जो अनुत्पादक
मानी जाती है।
***

*
योजना
आयोगद्वारा प्रस्तुत ग्यारहवीं
पंचवर्षीय योजना के दस्तावेज
का तीसरे
खंड
http://www.esocialsciences.com/data/articles/Document11882008110.2548944.pdf:

**.फिलिप
जी पार्डे
,
जूलियन
एम एस्टन और रोली आर पिगाँट
द्वारा संपादित एग्रीकल्चरल
आर एंड डी इन द डेवलपिंग वर्ल्ड

टू
लिटिल टू
लेट
?http://www.ifpri.org/pubs/books/oc51/oc51ch07.pdf

 

***
लिंकेज
विट्वीन गवर्नमेंट स्पेंडिग
,
ग्रोथ,
एंड
पावर्टी इन रुरल इंडिया
(१९९९)-फैन,
हेजेल,थोरटइंटरनेशनल
फूड पॉलिसी रिसर्च
Linkages
between http://www.ifpri.org/pubs/abstract/110/rr110.pdf


एक
नजर

खेतीबाड़ी
से जुड़े शोध और विकास पर खर्च
किया गया एक रुपया तेरह रुपये
से कुछ ज्यादा बनकर लौटता है।
शेयर बाजार में चढ़ती के दिन
हों तब भी उसमें लगाये गयी रकम
पर इतनी कमाई नहीं होती। फिर
इससे जुड़ी एक बात और भी है कि
कृशिगत शोध और विकास पर लगाया
गया एक
एक
रुपया सीधे गरीबी पर असर डालता
है। अर्थशास्त्री फैन
,हैजेल
और थोरट द्वारा प्रस्तुत एक
आलेख के अनुसार कृषिगत शोध
और विकास पर खर्च किए गए हर
10
लाख
रुपये से
85
लोग
गरीबी के मकड़जाल से बाहर निकल
जाते हैं।यह बात दिन के उजाले
की तरह जगजाहिर है कि शोध और
विकास की देश की प्रगति में
बड़ी भूमिका है और यह आज के
बोझ को कल की संपदा में तबदील
कर डालता है।कृषिगत शोध और
विकास के दायरे में उन्नत
बीजों को विकसित करने
,जमीन
की उर्वरा शक्ति बढ़ाने
,प्रयोग
में आसान और फायदेमंद तकनीक
गढ़ने से लेकर खेती के कारगर
तौर तरीके इजाद करने तक काम
शामिल है।

कृषिगत
शोध और विकास की बड़ी तस्वीर
कहती है कि भारत में सन् साठ
के दशक से इसमें बड़ी बढ़ोत्तरी
हुई है लेकिन अब भी खेतिहर शोध
और विकास को किसान की जरुरतों
से जोड़ा जाना बाकी है।वैज्ञानिक
ज्यादातर विशिष्ट प्रकृति
की परियोजनाओं पर काम करते
हैं और बहुधा इन परियोजनाओं
को कोई मेल सरकार की तरफ से
ग्रामीण आबादी की जीविका की
दशा सुधारने के लिए शुरु की
गई नीतियों या फिर देश की बड़ी
चुनौतियों मसलन भुखमरी और
गरीबी से नहीं बैठता। कृषिगत
शोध और विकास को जलवायु
परिवर्तन
,पोषणगत
सुरक्षा की गिरती दशा
,
भूक्षरणsize="3">,
नये
कीट और फसल की बीमारियां तथा
किसानों के कमते फायदे जैसी
नई चुनौतियों से भी निबटना
होगा।

 

भारत
में कृषिगत शोध का नेटवर्क
दुनिया के सर्वाधिक विस्तरित
नेटवर्कों में से एक है लेकिन
भारत में शोध और विकास पर जीडीपी
का
0.31 फीसदी
ही खर्च होता है जबकि विकसित
देश अपनी जीडीपी का
2
से
4 फीसदी
शोध और विकास के मद में खर्च
करते हैं। बहुत दिनों से भारत
के विख्यात शोध
संस्थान
धन और उच्च योग्यता के मानव
संसाधन
की तंगी का सामना कर रहे हैं।साल
2005-06 में
डिपार्टमेंट ऑव एग्रीकल्चरल
रिसर्च एंड एजुकेशन
(डेयर)
से
खबर आयी कि वहां
2000
की
तादाद में वैज्ञानिकों की
कमी है और इस संस्तान में इतनी
ही संख्या में तकनीकी और
प्रशासनिक काम करने वाले
सदस्यों और कर्मचारियों की
जरुरत है।पिछले दो दशकों में
भारत में खेतिहर शोध और विकास
के नाम पर नाम मात्र को की ठोस
काम हुआ है। इस बात के लिए
आलोचना हुई है कि खेतिहर शोध
और विकास में छोटे किसानों
की जरुरतों को ध्यान में रखकर
प्राथमिकताएं तय नहीं की जा
रही हैं और प्रयोगशाला में
उत्पादकता बढ़ाने के नाम पर
चाहे जो कारनामे किए जा रहे
हों
, खेतों
में जाकर वही कारनामे फिसड्डी
साबित हो रहे हैं।जाहिर है
खेतिहर शोध और विकास की नीति
पर पुनर्विचार के लिए हमारे
पास अब एक से बढ़कर एक कारण
मौजूद हैं।

**page**

 

फिलिप जी पार्डे, जूलियन एम एस्टन और रोली आर पिगाँट द्वारा संपादित [inside]एग्रीकल्चरल आर एंड डी इन द डेवलपिंग वर्ल्ड- टू लिटिल टू लेट?[/inside] के अनुसार

http://www.ifpri.org/pubs/books/oc51/oc51ch07.pdf

 

· भारत
में खेती के विकास के लिए शोध
और शिक्षा का व्यवस्थित प्रयास
उन्नीसवीं सदी के आखिर के
पच्चीस सालों में हुआ।इस वक्त
अंग्रेजी शासन के अन्तर्गत
आने वाले प्रान्तों में
डिपार्टमेंट ऑव रेवेन्यू
एग्रीकल्चर एंड कॉमर्स की
स्थापना हुई और साथ ही साथ एक
वैक्टीरियोलॉजिकल लैबोरेट्री
और पाँच वेटेरीनरी कॉलेज खोले
गए।

 

· साल
1905 के
आसपास इम्पीरियल एग्रीकल्चरल
रिसर्च इंस्टीट्यूट कायम हुआ
जिसे आज इंडियन एग्रीकल्चरल
रिसर्च इंस्टीट्यूट कहा जाता
है।इसी वक्त छह कृषि
महाविद्यालय
(एग्रीकल्चरल
कॉलेज
) भी
खुले।

 

· खेती
से जुड़े शोध और शिक्षा की
दिशा में इम्पीरियल काउंसिल
ऑव एग्रीकल्चरल रिसर्च
(इसे
अब इंडियन काउंसिल ऑव एग्रीकल्चरल
रिसर्च कहा जाता है।
)
की
स्थापना को
(साल
1929) मील
का स्तम्भ माना जाता है। यह
एक अर्ध
स्वायत्त
संस्था है और इसकी स्थापना
राष्ट्रीय स्तर पर खेती से
जुड़े शोध को बढ़ावा देने
,दिशानिर्देश
देने तथा तमाम शोध गतिविधियों
के बीच तारतम्य बैठाने के लिए
की गई है।

 

· साल
1921 से
लेकर
1958 के
बीच नकदी फ़सलों के विकास के
लिए केंद्रीय स्तर पर कई
समितियां कायम की गईं।इन
समितियों में कपास
,
लाख,
जूट,
गन्ना,
नारियल,
तंबाकू.
तेलहन,
मसाले
और काजू आदि के विकास के लिए
बनायी गई समितियों का नाम लिया
जा सकता है। ये समितियां भी
अपने स्वभाव में अर्ध
स्वायत्त
बनायी गई हैं।समितियों को
सरकारी अनुदान मिलता है साथ
ही समितियों से जुड़े उत्पाद
के ऊपर लगे कर से हासिल होने
वाले राजस्व से भी इन्हें अपना
हिस्सा हासिल होता है। समितियां
नकदी फसलों के लिए शोधकेंद्र
की स्थापना करती हैं।


· आजादी
हासिल होने के बाद के सालों
में एक नई सांस्थानिक पहल ऑल
इंडिया कोऑर्डिनेटेड रिसर्च
प्रोजेक्टस्
(AICRPs) के
रुप में हुई।इसे इंडियन काऊंसिल
ऑव एग्रीकल्चरल रिसर्च
(ICAR)
के
अन्तर्गत साल
1957 में
चलाया गया।इसे चलाने के पीछे
उद्देश्य कई संस्थानों में
एक साथ चलने वाले शोध और कई
विषयों को एक साथ मिलाकर होने
वाले शोध यानी बहुसांस्थानिक
और बहुआनुशासनिक शोधों को
बढ़ावा देना था।


· साल
1965 में
ICAR की
जिमेदारियां बदलीं।सरकारी
स्तर पर फैसला आया कि नकदी
फसलों के विकास से जुड़ी
समितियों और शेष सरकारी विभागों
ने जो शोधकेंद्र बनाये हैं
उनकी निगरानी
,दिशानिर्देश
और इनके बीच में तालमेल बैठाने
के साथ साथ शोधों को बढ़ावा
देने का काम अब से
ICAR
के हाथ
में होगा।

 

· इसके
तुरंत बाद डिपार्टमेंट ऑव
एग्रीकल्चरल रिसर्च एंड
एजुकेशन
(DARE) की
स्थापना केंद्रीय कृषि मंत्रालय
में हुई ताकि आईसीएआर और केंद्र
तथा राज्य सरकारों और विदेश
की शोध संस्थाओं के बीच संबंध
सूत्र बहाल किये जा सकें।

 

· size="3">भारत/> और अमेरिका के दो संयुक्त दलों
ने अपने निरीक्षण के आधार पर
साल
1955 और
1960 में
कुछ सुझाव दिए। इन सुझावों
के आझार पर राज्य स्तर स्टेट
एग्रीकल्चरल युनिवर्सिटीज
(SAUs)
यानी
प्रांतीय कृषि विश्वविद्यालयों
की स्थापना की गई। इसमें अमेरिका
में अमल में लाये गए भूमि
अनुदान
की पद्धति अपनायी गई। राज्य
स्तर पर पहला कृषि विश्वविद्यालय
उत्तरप्रदेश के पंतनगर में
साल
1960 में
खुला।प्रांतीय स्तर के कृषि
विश्वविद्यालय स्वायत्त होते
हैं और इनको खर्चे की रकम संबद्ध
प्रांत की सरकार देती है।

 

· कई
अंतर्राष्ट्रीय स्तर की
संस्थाओं ने भारत में खेती
से जुड़े शोध और शिक्षा को
बढ़ावा देने में महत्त्वपूर्ण
भूमिका निभायी है। इनमें
रॉकफेलर फाऊंडेशन और यूनाइटेड
स्टेटस् एजेंसी फॉर इंटरनेशनल
डेवलपमेंट का नाम विशेष रुप
से लिया जा सकता है। इन संस्थाओं
ने प्रांतीय स्तर पर स्थापित
किये जाने वाले विश्वविद्यालयों
की स्थापना तथा अमेरिका में
भूमि
अनुदान
के आधार पर बने विश्वविद्यालयों
के सहयोग से कर्मचारियों को
प्रशिक्षित करने में महत्त्वपूर्ण
भूमिका निभायी। विश्वबैंक
ने भी साल
1980 के
बाद से कृषि के क्षेत्र में
शोध को प्रर्याप्त संसाधन
मुहैया कराये हैं।

 

· फिलहाल
देश में सरकारी क्षेत्र के
अन्तर्गत कृषि से जुड़े शोध
और शिक्षा के दायरे में आईसीएआर
और उसके साथी संस्थान तथा
प्रांतीय स्तर के कृषि
विश्वविद्यालय और क्षेत्रीय
शोध संस्थाएं आती हैं।केंद्रीय
स्तर पर आईसीएआर अपनी साथी
संस्थाओं को धन प्रदान करता
है और उनके विशाल नेटवर्क के
देखभाल की जिम्मेदारी उठाता
है।इसमें बुनियादी और रणनीतिक
महत्त्व के शोध से जुड़े
राष्ट्रीय स्तर की शोध
संस्थाएं
,फसल
विशेष पर केंद्रित राष्ट्रीय
स्तर की शोध संस्थाएं
,भूमि
के सर्वेक्षण और जर्मप्लाज्म
की अदला
बदली
तथा संरक्षण से जुड़े राष्ट्रीय
ब्यूरो को धन देना और उनसे
सम्पर्क में रहना शामिल है।


· साल
2000 में
आईसीएआर के अन्तर्गत
5
राष्ट्रीय
स्तर के संस्थान
, 42
केंद्रीय
शोध संस्थान
, 4 राष्ट्रीय
ब्यूरो
, 10 परियोजना
निदेशालय
,28 नेशनल
रिसर्च सेंटर और
82 ऑल
इंडिया कोऑर्डिनेटेड रिसर्च
प्रोजेक्टस्
(AICRPs) काम
कर रहे थे।


· इसके
अतिरिक्त आईसीएआर ने जिला
स्तर पर
261 कृषि
विज्ञान केंद्र स्थापित किये
हैं।इन केंद्रों की जिम्मेदारी
जिला स्तर पर किसानों को नई
प्रौद्योगिकी प्रदान करना
और उन्हें प्रशिक्षित करना
है। कृषि विज्ञान केंद्रों
में से कुछ की देखरेख प्रांतीय
स्तर के कृषि विश्वविद्यालयो
और स्वयंसेवीसंस्थाओं के
हवाले है। इसके अलावे आईसीएआर
ने पशुधन
,बागवानी,मछली
पालन और गृहविज्ञान से जुड़े
शिक्षकों को प्रशिक्षण देने
के लिए आठ संस्थान खोल रखे
हैं।


· पिछले
एक दशक या इससे थोड़े ज्यादा
वक्त से जैवप्रौद्योगिकी
(बॉयोटेक्नॉलॉजी)
में
क्रांतिकारी प्रगति हुई है
और इससे खेती से जुड़े शोध की
दिशा में बदलाव आया है।इस
बदलाव को देखते हुए साल
1986
में
विज्ञान और प्रौद्योगिकी
मंत्रालय के अधीन डिपार्टमेंट
ऑव बॉयोटेक्नॉलॉजी कायम किया
गया ताकि खेती
,
स्वास्थ्यरक्षा,पर्यावरण
और उद्योग से संबंधित बॉयोटेक्नॉलॉजी
के क्षेत्र में बुनियादी ढांचे
और मानव संसाधन के विकास में
योग दिया जा सके।


· सरकारी
क्षेत्र के अलावे निजी क्षेत्र
बी बॉयोटेक्नॉलॉजी के इलाके
में आ रहे बदलाव को लेकर सक्रिय
है।फिलहाल खेती से जुड़े
बॉयोटेक्नॉलॉजी के शोध में
45 कंपनियों
सक्रिय हैं। साल
1997
में
इनका बाजार
7 करोड़
50 लाख
अमेरिकी डॉलर का था।

 

शोध
के लिए धन की व्यवस्था


· खेती
से जुड़े शोध और शिक्षा के
सरकारी अनुदान आईसीएआर और
प्रांतीय स्तर के कृषि
विश्वविद्यालयों को हासिल
होता है।धन का आबंटन पंचवर्षीय
योजनाओं के आधार पर किया जाता
है।


· खेती
को राज्य सूचि में ऱखा गया है
यानी खेती का जिम्मा राज्यों
का है। बहरहाल
, केंद्र
सरकार ने साल
2000 में
आईएसीआर के जरिए इसके लिए
30
करोड़
अमेरिकी डॉलर का एकमुश्त
अनुदान मुहैया कराया।आईएसीआर
अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों
अथवा किसी अन्य देश से द्विपक्षीय
संबंध के आधार पर अनुसंधान
के लिए मिलने वाली रकम
(अनुदान
अथवा कर्ज के रुप में
)
का भी
प्रबंधन संभालता है।


· खेती
से जुड़े अनुसंधान के लिए
प्राप्त होने वाली रकम का एक
बड़ा स्रोत विश्वबैंक है।
साल
1998-2003 के
दौरान विश्वबैंक से एनएटीपी
के तहत आईसीएआर को
18
करोड़
अमेरिकी डॉलर का कर्जा अनुसंधान
के मद में मिला। साल
1995-2001
के बीच
विश्वबैंक ने चार राज्यों के
कृषि विश्वविद्यालयों को
मानव संसाधन के विकास के लिए
एक करोड़ अमेरिकी डॉलर कर्जा
दिया।


· कुल
मिलाकर देखें तो केंद्र की
सरकार खेती से जुड़े अनुसंधान
और शिक्षा के लिए
52
फीसदी
धन मुहैया कराती है और यह सारा
धन आईएसीआर के जरिए दिया जाता
है। आईसीएआर को हासिल धन का
लगभग
30 फीसदी
हिस्सा विश्वविद्यालय से इतर
संस्थाओं को वित्त प्रदान
करने के लिए दिया जाता है जबकि
इस धन का लगभग
87 फीसदी
प्रांतों के कृषि
विश्वविद्यालयों
के हाथ में जाता है।


· प्रान्तों
की सरकार ने साल
2000 में
कृषि विश्वविद्यालयों को
27
करोड़
70 लाख
अमेरिकी डॉलर दिए और लगभग सारी
राशि का इस्तेमाल प्रान्तों
के कृषि विश्वविद्यालयो ने
विश्वविद्यालयी कामों के लिए
किया। आईसीएआर से जुड़े संस्थान
राज्य
प्रदत्त
राशि का इस्तेमाल नहीं करते।उसका
एक अपवाद उत्तरप्रदेश द्वारा
मुहैया कराया गया फंड है जिसका
इस्तेमाल खेती से जुड़े अनुसंधान
कार्य में लगी प्रदेश की कोई
संस्था कर सकती है और इसमें
आईसीएआर से जुड़े संस्थान
शामिल हैं।


शोधकार्य
और सरकारी धन
एक
नजर रुझानों पर


· कृषि
से जुड़े शोधकार्य के लिए १९६१
में २८ करोड़ ४० लाख अमेरिकी
डॉलर मुहैया कराये गए थे और
बीस सालों के अंदर शोधकार्य
के लिए मुहैया कराये गए धन में
बढ़ोत्तरी का रुझान रहा।१९८१
में ८७ करोड़ ५० लाख अमेरिकी
डॉलर सरकार ने शोधकार्य के
लिए दिए।
(यहां
राशि की गणना १९९९ की पर्चेजिंग
पावर पैरिटी के आधार पर की गई
है।
)


· साल
२००० में खेती से जुड़े अनसंधान
कार्य के लिए सरकार ने २ अरब
८९ लाख ३० हजार अमेरिकी डॉलर
दिए यानी पिछले चालीस सालों
में इस मद में दी गई राशि में
चार गुनी बढ़ोतरी हुई।


· चालू
विनिमय दर के हिसाब से देखें
तो खेती से जुड़े अनुंसंधान
कार्य के लिए सरकार ने साल
२००० में ५७ करोड़ ८० लाख का
निवेश किया।केंद्र और राज्य
सरकार दोनों द्वारा इस मद में
दी जाने वाली राशि में बढोत्तरी
हुई है।राज्यों द्वारा दी
जाने वाली राशि में साल १९६०
के दशक में बढ़ोत्तरी हुई।इस
दशक में राज्यों में कृषि
विश्वविद्यालय खुले।


· १९६०
के दशक के बाद केंद्र सरकार
की तरफ से राज्यों की बनिस्बत
ज्यादा राशि दी जाने लगी और
१०८० तथा १९९० के दशक में खेती
से जुड़े शोध कार्य के लिए
मुहैया रकम में केंद्र और
राज्य सरकारों काहिस्सा
बराबरी का रहा।


· अगर
सरल शब्दों में कहें तो खेती
से जुड़े शोध कार्य के लिए
मुहैया करायी गई रकम का दो
तिहाई हिस्सा शिक्षा पर खर्च
होता है।


· साल
१९७० के दशक में शोध के मद में
दी जाने वाली राशि में सवा तीन
फीसदी की बढ़ोत्तरी हुई जबकि
साल १९८० के दशक में सात फीसदी
की जबकि १९९० के दशक में महज
साढ़े चार पीसदी की बढ़ोत्तरी
की बढ़ोत्तरी हुई।

**page**

योजना
आयोग द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट
ऑव [inside]द वर्किंग ग्रुप ऑन एग्रीकल्चरल
रिसर्च एंड एजुकेशन फॉर द
एलेवेंथ फाइव ईयर प्लान[/inside] के
अनुसार

http://planningcommission.nic.in/aboutus/committee/wrkgrp11/wg11_resrch.pdf:

 

· खेती
और उससे जुड़े क्षेत्रों में
सकल घरेलू उत्पाद की बढो़त्तरी
की दर दसवीं पंचवर्षीय योजना
के दौरान १ फीसदी की रही जबकि
लक्ष्य ४ फीसदी की बढ़ोत्तरी
का रखा गया था।

 

· फसली
और पशुधन उत्पाद में बढ़ोत्तरी
की दर १९९६
९७
के बाद सालाना १
.
फीसदी से लेकर ३
.
फीसदी के बीच रही।

 

· फसली
खेती के अन्तर्ग सिर्फ फल और
सब्जियों में ढाई फीसदी सालाना
की दर से बढ़ोत्तरी हुई।
.

 

· जनसंख्या
वृद्धि की दर के लिहाज से देखें
तो चावल और गेहूं का उत्पादन
दसवीं पंचवर्षीय योजना के
दौरान कम हुआ।
.

 

· हाल
के वर्षों में दाल और खाद्य
तेल
के आयात में बढ़ोत्तरी हुई
है।
.

 

· खेती
में इनपुट के इस्तेमाल की
बढ़ोत्तरी १९९६
९७
के बाद घटी है।साल १९८० से
१९९७ के बीच इसमें सालाना
बढोत्तरी ढाई फीसदी की हो रही
थी।

 

· खेतिहर
उत्पाद के दाम खेती में इस्तेमाल
किये जाने वाले उत्पादों के
दाम की चपलना में घटे हैं ।इससे
खेती में लाभदायकता कम हुई
है और खेती में लागत
सामग्री
(इनपुट)
का
इस्तेमाल कम हुआ है।
.

 

· पशुपालन
और मत्स्यपालन में अपेक्षाकृत
तेज बढ़ोत्तरी हुई है।
.

 

size="3">· जल
संसाधन में कमी
.भूमि
की उर्वरा शक्ति में आ रही
गिरावट
,पर्यावरण
के बिगड़ते मिजाज
,
खेती
की लागत सामग्री की आपूर्ति
में कमी और इसके साथ ही साथ
खेती में निवेश के घटने के
कारण अनाज उत्पादन की दर टिकाऊ
रुप से बढ़ा पाने में भारी
परेशानी आ रही है।

 

· ऊपर
के तथ्यों से संकेत मिलते हैं
कि हरित क्रांति के बाद खेती
को लेकर देश में जो उत्साह का
वातावरण बना था वह अब समाप्त
हो चला है।हाल के सालों में
विदेशों से गेहूं का आयात करना
पड़ा है और इससे इस आशंका को
बल मिला है कि देश को पहले की
तरह जनसंख्या का पेट पालने
के लिए बड़ी मात्रा में अनाज
का आयात करना पड़ेगा।

 

· ऊपर
के तथ्यों के आधार पर कहा जा
सकता है कि कृषि से जुड़े शोध
और शिक्षा के सामने ग्यारहवीं
योजना के दौरान भारी चुनौतियां
हैं।
.

 

· हरित
क्रांति की प्रौद्योगिकी
तुलनात्मक रुप से सरल थी।उसे
किसानों तक पहुंचाना आसान था
और किसानों के लिए उसका उपयोग
कर पाना भी सरल था।फिलहाल
उत्पादकता को टिकाऊ रुप से
बढ़ाने
,उत्पादन
खर्च को कम और किसानों की आमदनी
में तेज गति से इजाफा करने में
सहायक सिद्ध वाली प्रौद्योगिकी
उपलब्ध नहीं है।

 
**page**

[inside]योजना
आयोग द्वारा प्रस्तुत ग्यारहवीं
पंचवर्षीय योजना के दस्तावेज
के तीसरे खंड के अनुसार[/inside]

http://www.esocialsciences.com/data/articles/Document11882008110.2548944.pdf:

 

कृषि
से जुड़े शोध की मुख्य चुनौतियां
हैं

 

· तेलहन,
मक्का,पाम
ऑयल और दालों से संबद्ध तकनीकी
मिशन को चलते हुए दो दशक गुजर
चुके हैं।दाल
, पाम
ऑयल और मक्का को साल १९९०
९१,१९९२
और १९९५
९६
में इस सिशन के अंतर्गत लाया
गया।मिशन के अंतर्गत १९८६ से
तेलहन का उत्पादन विशेष रुप
से शुरु हुआ और उसमें बढ़ोत्तरी
हुई है फिर भी देश में खाद्य
तेल की जितनी मांग है उसकी
तुलना में देश में तेलहन का
उत्पादन कम हो रहा है।

 

· दालों
का उत्पादन दशकों से ठहराव
का शिकार है।इससे संकेत मिलते
हैं कि दालों के उत्पादन वृद्धि
का मिशन कारगर सिद्ध नहीं हो
रहा।

 

· नेशनल
प्रोजेक्ट ऑन कैटल एंड बफलो
ब्रीडिंग नाम की परियोजना
पशुपालन
,डेयरी/> और मत्स्य पालन विभाग का
फ्लैगशिप प्रोग्राम है।इसकी
शुरुआत साल २००० में दस सालों
के लिए की गई थी।इसके अंतर्गत
दुधारु पशुओं के प्रजाति सुधार
और उनकी देसी प्रजातियों के
संरक्षण को लक्ष्य बनाया गया
था।एक उद्देश्य इसके लिए
नीतिगत उपाय कपने का भी था।यह
परियोजना २६ राज्यों और एक
केंद्रशासित प्रदेश में शुरु
की गई लेकिन परियोजना शुरुआत
से ही खामियों का शिकार रही।चाहे
चारे की कमी हो या फिर संकरण
के लिए नर पशु की मौजूदगी का
मामला
सारा
कुछ इस परियोजना में अव्यवस्था
का शिकार हुआ।

 

 

कृषि
से जुड़े शोधों की असफलताएं
:

 

· परंपरागत
और आधुनिक जीवविज्ञान के तरीके
को मिलाकर ऊपज और उसकी गुणवत्ता
दोनों को एक साथ सुधारने की
जरुरत है।
.

 

· मटर,सोयाबीन
और सरसों के उत्पादन के मामले
में संकर बीजों को शोध के जरिए
इस भांति तैयार किया जाना
चाहिए कि वे व्यावसायिक रुप
से लाभदायक सिद्ध हों।

 

· फ़सलों
की कुछ देसी प्रजातियां ऐसी
हैं जिनके जीन उन्हें पोषक
तत्वों के लिहाज से काफी
फायदेमंद बनाते हैं।ऐसी
प्रजातियों की पहचान होनी
चाहिए और वर्षा पर आधारित खेती
वाले इलाके में इनके उपयोग
को बढ़ावा दिया जाना चाहिए।

 

· खेती
पर पर्यावरण के बदलाव का क्या
असर हो रहा है और नये ढंग की
खेती किस तरह पर्यावरण को
प्रभावित कर रही है
इसका
अध्ययन होना चाहिए और ग्लोबल
वार्मिग के मसले पर एक शोध
कार्यक्रम
की शुरूआत होनी चाहिए।

 

· किसी
खेतिहर इलाके में मिट्टी के
लिए किस किस्म के पोषक तत्वों
की जरुरत है और वहां सिंचाई
के लिए पानी का कैसा प्रबंधन
कारगर होगा
इस
मसले पर एक व्यापक शोध कार्यक्रम
चलाये जाने की जरुरत है।

 

· इंटीग्रेटेड
पेस्ट मैनेजमेंट यानी कीटों
से फ़सलों को बचाने के लिए
समेकित प्रबंधन पर विशेष जोर
देने की जरुरत है।फिलहाल इस
सिलसिले में जो शोध कार्य जल
रहे हैं उनमें फ़सलों की रक्षा
से जुड़े विभिन्न विज्ञानों
के बीच पूरा तालमेल नहीं है।इससे
एक ही निष्कर्ष अलग अलग फ़सलों
के मामले में दोहराने की घटनाएं
सामने आती हैं और कुछ ऐसे सुझाव
भी दिए जाते हैं जिनपर अमल
करना मुमकिन नहीं है। फ़सलों
को कीट से बचाने के लिए कई
अनुशासनों को एक साथ मिलाकर
शोध किया जाना चाहिए।


· face="Mangal">बागवानी
से जुड़े शोध में देसी जैव
विविधता पर जोर दिया जाना
चाहिए ताकि यह पता तल सके कि
कौन सी प्रजाति उत्पादकता और
गुणवत्ता के लिहाज से सबसे
बढ़िया और कारगर है।

 

· पशुपालन
से जुड़े शोध में देसी प्रजातियों
में मौदूद आनुवांशिक संभावनाओं
की पहचान करना जरूरी है।भारतीय
प्रजातियों में उत्पादकता
के लिहाज से कौन से जीनगत गुण
मोजूद हैं
इसके
बारे में शोध का होना बहुत
जरूरी है।

 

· पशुओं
के चारे की कमी लगातार महसूस
की जा रही है।पशुधन को प्रयाप्त
मात्रा में पोषक चारा उपलब्ध
करानेकी दृष्टि से शोध कार्य
होने चाहिए।

 

· हाल
के सालों में बड़े पैमाने पर
पशु
उत्पादों
का उत्पादन हो रहा है।पशु
उत्पादों को तैयार करने की
प्रक्रिया में कौन सी तकनीक
कारगर होगी
,पशुउत्पाद
की गुणवत्ता कैसे बढ़ायी
जाय
,उनका
भंडारण
,पैकेजिंग,परिवहन
और मार्केंटिंग कैसे हो
जैसे
सवालों को केंद्र में ऱखकर
शोध कार्य करना ज़रुरी हो गया
है। कई बार रोगों के फैलने से
पशुधन का बड़े पैमाने पर नुकसान
होता है।शोध में कारगर टीके
के विकास और रोग के रोकथाम पर
जोर दिया जाना चाहिए।इस बात
पर पर्याप्त नजर होनी चाहिए
कि मानव स्वास्थ्य का गहरा
ताल्लुक पशुओं के स्वास्थ्य
से है और इस दृष्टि से पशुओं
की स्वास्थ्य रक्षा के लिए
शोध कार्यों पर पर्याप्त महत्व
दिया जाना ज़रुरी है।

 

· यह
बात ठीक है कि खेती से जुड़े
शोध कार्य के लिए जरुरत के
मुताबिक धन नहीं मुहैया कराया
जाता लेकिन सवाल सिर्फ संसाधनों
की कमी ही का नहीं है।जो संसाधन
मौजूद हैं उनका पूरा इस्तेमाल
नहीं हो पाता क्योंकि उनके
इस्तेमाल के लिए जो रणनीति
तैयार की जाती है वह स्पष्ट
नहीं होती।रणनीति में
जिम्मेदारियों का साफ साफ
जिक्र नहीं होता और ना ही
प्राथमिकताएं तय होती
है।रणनीतिकारों को यह बात भी
ध्यान रखनी होगी कि किसी मसले
पर हुआ सफल शोध कार्य ज़रुरी
नहीं कि उत्पाद के विकास की
जरुरतों के माफिक बैठे।

 

· फिलहाल
शोध
कार्यों
में उत्पाद की अंतिम अवस्था
को महत्व देने का चलन है यानी
सारा जोर उत्पाद के उस रूप पर
है जो बाजार में ग्राहक के
हाथों बिकने के लिए मौजूद होता
है।इससे शोध
कार्य
में किसी उत्पाद से जुड़े
विभिन्न खेतिहर प्रयासों को
विशेष महत्व नहीं मिलता।
.

 

· शोध
और विकास से जुड़ी एजेंसियों
में आपसी लेन
देन
भी नहीं होता।दो एजेंसियों
के बीचसूचनाओं के लेन
देन
की बात तो छोड़ दें
,एक
ही एजेंसी के बीतर अलग
अलग
विभागों के बीच तालमेल का अभाव
होता है।संबव है कि किसी संस्था
का शोध वाला विभाग अपने शोध
कार्य को पूरा कर चुका हो लेकिन
उसके क्रियान्वयन से जुड़ा
विभाग हाथ पर हाथ धरकर बैठा
हो।

 

· शोध
के आधार पर जो निष्कर्ष या
उत्पाद हासिल होते हैं उनकी
व्यावहारिकता की जांच खेतों
में होनी चाहिए या फिर उन जगहों
पर जहां अमल में लाने के लिए
शोध कार्य हुआ है। इससे जाहिर
होगा कि शोधकार्य सचमुच
प्रयोगशाला से बाहर कारगर
सिद्ध हो रहा है या नहीं और
अगर नहीं हो रहा है तो उसमें
किस किस्म के सुधार किये जायें।
दुर्भाग्य से अपने देश में
ऐसा बहुत कम होता है।

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