खास बात
• जलवायु परिवर्तन के कारण सालाना वर्षा चक्र पर असर पड़ेगा और भारत के कई इलाके निरंतर बाढ़ और सूखे की चपेट में आएंगे*
• जलवायु परिवर्तन के कारण भारत के विभिन्न भागों में तापमान में बढ़ोतरी के साथ फसलों की उत्पादकता में कमी आई है। है।*
• भारत से मलेरिया-उन्मूलन करना अब असंभव बनता जा रहा है। देश के कई नये इलाके मलेरिया की चपेट में आएंगे, खासकर उत्तर और पश्चिम के राज्य।*
• जलवायु परिवर्तन से प्राकृतिक संसाधन-आधार घट रहा है।*
• जलवायु परिवर्तन के कारण सिंचाई के लिए वर्षा जल पर आधारित खेतिहर इलाकों में ऊपज साल २०२० तक ५० फीसदी घटने की आशंका है।**
• जलवायु परिवर्तन का एक महत्वपूर्ण कारण ग्रीन हाऊस गैसों का उत्सर्जन है और इन गैसों के उत्सर्जन में खेती की हिस्सेदारी ३० फीसदी है जिसमें खेती की जमीन के लिए वनों की कटाई भी शामिल है।***
•मध्य और दक्षिण एशिया में जलवायु परिवर्तन के कारण साल २०५० तक उपज में ३० फीसदी की कमी आएगी।**
*क्लाइमेट चेंज, सस्टेनेबल डेवलपमेंट एंड इंडिया-ग्लोबल एंड नेशनल कन्सर्न-जयंत साठे, पी आर शुक्ला और एनएच रबीन्द्रन,करेंट साइंस, खंड-९०,अंक-३ १० फरवरी २००६
** क्लाइमेट चेंज-बिल्डिंग द रेजिलेंस ऑव पुअर रुरल कम्युनिटीज, आईएफएडी।
*** अप्रैल २००८, रिपोर्ट ऑन द इंटरनेशनल असेसमेंट ऑव एग्रीकल्चरल नॉलेज, साईंस एंड टेक्नॉलॉजी फॉर डेवलपमेंट http://www.agassessment.org/index.cfm?Page=IAASTD%20Reports&ItemID=2713:
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एफएओ द्वारा प्रस्तुत अध्ययन स्मॉल होल्डर एंड सस्टेनेबल वेल्स- ए रेट्रोस्पेक्ट: पार्टिसिपेटरी ग्राऊंडवाटर मैनेजमेंट इन आंध्रप्रदेश(नवम्बर 2013) के अनुसार-
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-भारत के कुल गरीब आबादी की 69 फीसदी तदाद सिंचाई की सुविधा से वंचित इलाकों में रहती है जबकि सिंचाई की सुविधा से संपन्न इलाकों में गरीबों की संख्या महज 2 फीसदी है।
-साल 1965-66 अनाज का उत्पादन 19 फीसदी घटा जबकि साल 1987-88 में मात्र 2 फीसदी जबकि इन दोनों ही सालों में खेती सूखे की चपेट में आई।
-पुस्तक के अनुसार साल 1951-1990 के बीच भूमिगत जल के दोहन में इस्तेमाल होने वाले साधनों की संख्या में नाटकीय ढंग से इजाफा हुआ। खुदाई करके बनाये जाने वाले कुओं की संख्या 3 लाख 86 हजार से बढ़कर 90 लाख 49 हजार हो गई जबकि कम गहराई वाले ट्यूबवेल की संख्या 3 हजार से बढ़कर 40 लाख 75 हजार के पार चली गई।
-सार्वजनिक ट्यूबवेल(ज्यादा गहराई वाले) की संख्या 2400 से बढ़कर 63600 हो गई। ठीक इसी तरह इलेक्ट्रिक पंपसेट 21 हजार से बढ़कर 80 लाख 23 हजार हो गये और डीजल पंपसेटस् की संख्या 66 हजार से बढ़कर 40 लाख 35 हजार पर पहुंच गई।
-अनुमान के मुताबिक भारत में सालाना 1086 क्यूबिक लीटर पानी इस्तेमाल किए जाने के लिए मौजूद होता है। इसमें भूगर्भी जल की मात्रा 396 क्यूबिक लीटर है जबकि भूसतह पर मौजूद जल की मात्रा 690 क्यूबिक लीटर मौजूदा स्थिति में 600 क्यूबिक लीटर पानी का इस्तेमाल होता है। जनसंख्या की बढ़ोत्तरी के कारण साल 2050 तक भारत में सालाना 900 क्यूबिक लीटर पानी के इस्तेमाल की जरुरत पड़ेगी ताकि खेती और नगरपालिका संबंधी जरुरतों के अतिरिक्त औद्योगिक जरुरतों की भरपाई हो सके।
-भारत फिलहाल पानी की उपलब्धता के मामले में संपन्न माने वाले शीर्ष के 9 देशों में एक हैI लेकिन उपर्युक्त आकलन को देखते हुए कहा जा सकताहै कि 2050 में भारत इस स्थिति में नहीं रहेगा इसलिए पानी के प्रबंधन की महती जरुरत है।
-राष्ट्रीय जन-जीवन में भूमिगत जल का महत्व असंदिग्ध है क्योंकि सिंचित कृषि का 60 फीसदी हिस्सा भूमिगत जल के दोहन पर निर्भर है साथ ही ग्रामीण इलाके में पेयजल की जरुरत का 85 प्रतिशत हिस्सा भूमिगत जल से पूरा होता है।
-यदि सभी बड़ी और छोटी सिंचाई परियोजनाओं(जिनका निर्माण पूरा हो गया है तथा जो अभी निर्माणाधीन हैं) का क्रियान्वयन हो जाय तो भी भूमिगत जल-स्रोत की महत्ता जरुरत को पूरा करने के लिहाज से बरकरार रहेगी, खासकर सुखाड़ के सालों में। इसलिए भूमिगत जल का टिकाऊ प्रबंधन भारतीय कृषि के लिए अनिवार्य है।
-भूमिगत जल के दोहन के साधनों के उत्तरोत्तर विकास के साथ भारत में सुखाड़ की विकरालता को कम करने में मदद मिली है। साल 1965-66 अनाज का उत्पादन 19 फीसदी घटा जबकि साल 1987-88 में मात्र 2 फीसदी जबकि इन दोनों ही सालों में खेती सूखे की चपेट में आई। इसमें भूमिगत जल के दोहन के साधनों की बढ़वार का बड़ा योगदान है।
-भूमिगत जल से सिंचित भारतीय कृषि-भूमि के परिमाण में बढ़ोत्तरी होने की वजह से कृषि की वर्षाजल पर निर्भरता कम हुई है, फसलों का उत्पादन बढ़ा है और ग्रामीण अर्थव्यवस्था पहले की तुलना में मजबूत हुई है।
–भूतल पर मौजूद जल से सिंचाई के विपरीत भूमिगत जल से सिंचाई का काम करना हो तो किसान को अपना पैसा खर्च करना पड़ता है। नियोजन, निर्माण, संचालन, रख-रखाव के लिहाज से देखें तो बड़ी बाँध परियोजनाओं तथा भूतल पर मौजूद जल-क्षेत्र के विकास के लिए सरकारी वित्तीय सहायता मौजूद होती है जबकि भूमिगत जल के दोहन के मामले में ऐसा नहीं है जबकि देश की सिंचाई सुविधा संपन्न खेती का तकरीबन आधा हिस्सा भूमिगत जल से सिंचित होता है।
-विश्व की सिंचाई सुविधा संपन्न खेतिहर भूमि का 20 फीसदी हिस्सा भारत में है। इसका 62 फीसदी यानि तकरीबन 6 करोड़ 20 लाख हेक्टेयर कृषि भूमि भूगर्भी जल से सिंचित है।
-भारत में 76 फीसदी जोतों का आकार 2 हैक्टेयर या उससे भी कम है। इसमें 38 फीसदी हिस्सा कुओं के जरिए सिंचित होता है जबकि 35 प्रतिशत हिस्सा ट्यूबवेल के जरिए। इस वजह से छोटे किसानों के लिहाज से भूमिगत जल-प्रबंधन के उपाय अत्यंत महत्वपूर्ण हैं।
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दीप्ति शर्मा और शरदेन्दु शरदेन्दु द्वारा प्रस्तुत [inside]एसेसिंग एग्रीकल्चरल सस्टेनेबेलिटी ओवर अ 60 इयर पीरियड इन रुरल ईस्टर्न इंडिया[/inside]( द एन्वायरन्मेंटलिस्ट, खंड-31, संख्या-3 में प्रकाशित) शोध-अध्ययन का सारांश और प्रमुख निष्कर्ष-
http://www.springerlink.com/content/0051808851j537rq/
(यह अध्ययन गंगा के मैदानी इलाके में स्थित बिहार के समस्तीपुर जिले के गंगापुर गांव में किए गए सर्वेक्षण पर आधारित है। गांव 200 साल पुराना है और इतना ही पुराना है यहां जीविका के लिए खेती का चलन। तकरीबन 611.66 हेक्टेयर में फैले और लगभग 15,000 की आबादी वाले इस गांव के हर व्यस्क की जीविका खेती से चलती है, सालाना आमदनी का 70 फीसदी हिस्सा खेती से आताहै, सो इसगांव का हर बालिग व्यक्ति या तो खेतिहर मजदूर है या किसान। गांव के कुछ व्यक्ति सरकारी नौकरी, छोटे-मोटे कारोबार या निर्माण-कार्यों के लिए दिहाड़ी मजदूरी से भी जीविका चलाते हैं।)
टिकाऊ खेती की परिभाषा-
·इस परिभाषा से पता चलता है कि टिकाऊ खेती की अवधारणा खेती को एक बहुआयामी गतिविधि मानती है, खेती से पर्यावरण की सुरक्षा के सवाल जुड़े हैं, तो सामाजिक पायेदारी और आर्थिक टिकाऊपन के भी। खेती की अच्छी देखभाल और इससे जुड़ी नीतियों के निर्माण के लिए जरुरी है कि टिकाऊ खेती के लिहाज से जमीनी अनुभवों पर आधारित साक्ष्य आधारित निर्देशांक तैयार किया जाय।
टिकाऊ खेती के लिए निर्देशांक (एएसआई-एग्रीकल्चरल सस्टेनेबेलिटी इंडेक्स) की जरुरत
·आजादी से पहले भारत ने अकाल झेला तो खाद्यान्न की कमी भी। 1965 में बॉरलॉग किस्म(उच्च उत्पादकता) की फसलों के कारण ऊपज बढ़ी और देश 1970 के दशक में खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भरता की स्थिति में आ गया।
·लेकिन हरित-क्रांति के सकारात्मक प्रभाव अब मंद पड़ रहे हैं। साल 1965-1980 के बीच खेती में खाद-बीज-कीटनाशक-मशीन आदि के इस्तेमाल जिस गति से उत्पादकता बढ़ी उस गति से अब नहीं बढ़ रही जबकि इन मदों पर खर्चा बढ़ा है। इसके अतिरिक्त पंजाब, हरियाणा जैसे राज्यों में रासायनिक चीजों का इस्तेमाल खेती में बढ़ने से भूमि की उर्वरता कम हो रही है।
· खेती के टिकाऊपन का मापन राष्ट्रीय, प्रादेशिक, इलाकाई या स्थानीय स्तर पर हो सकता है लेकिन विद्वानों का मत है कि अध्ययन को सटीक बनाने के लिए जोत-आधारित सर्वेक्षण सबसे बेहतर है। भारत में दुर्भाग्यवश ग्रामीण-परिवेश के ऐसे अध्ययन बहुत कम हैं जबकि भारत की कुल आबादी का 70 फीसदी गांवों में ही रहता है।
अध्ययन की पद्धति
निर्देशांक तैयार करने के लिए कुल तीन श्रेणियों (सामाजिक, आर्थिक,पर्यावरणीय) के दस-दस प्रश्नों(संकेतकों) को आधार मानकर सर्वेक्षण किया गया –
आर्थिक- प्रति हेक्येयर ऊपज, प्रति हेक्टेयर उर्वरक का इस्तेमाल, सिंचिति खेतों का प्रतिशत,दो फसली जमीन का प्रतिशत,उच्च उत्पादकता वाले फसलों की खेती की प्रतिशत मात्रा,व्यावसायिक बैकों से कर्ज लेने वाले किसानों की संख्या,अनौपतारिक स्रोतों से कर्ज लेने वाले किसानों की प्रतिशत संख्या,बस्ती से पांच किलोमीटर के दायरे में बसे शहरों की संख्या, सबसे नजदीकी कोल्डस्टोर की दूरी, सूखे के कारण50 फीसदी ऊपज-हानि उठाने वाले किसानों की संख्या।
पर्यावरण- पर्यावरणीय सरोकारों के जानकार किसानों की संख्या, पर्यावरण के लिहाज से उचित माने जाने वाले कम से कम पांच खेतिहर-व्यवहार करने वाले किसानों की संख्या, स्थानीय स्तर की फसल प्रजाति के जीनपूल में आया क्षय, फसलों की कितनी प्रजातियों का इस्तेमाल खेती में कम हुआ है,कम से कम तीन प्रजाति के पशु कितने किसानों के पास हैं,मिट्टी के पीएच मान में बदलाव, हवा में सल्फर डायऑक्साईड और नाईट्रस ऑक्साईड की प्रतिशत मात्रा, भूमिगत पानी की कमी, स्थानीय सिंचाई साधनों में आ रही मात्रात्मक कमी।.
सर्वेक्षण के निषकर्ष-
· खेती के टिकाऊपन के लिए जिन जरुरी चीजों में सर्वेक्षण के दौरान कमी देखने को मिली उसमें शामिल है- किसानों की उम्र तथा जनसंख्या के घनत्व का बढ़ना और प्रति व्यक्ति खेतिहर जमीन जमीन की उपलब्धता का कम होना।(बढ़ती उम्र के साथ किसान में खेती की नई और टिकाऊपन के लिहाज से जरुरी तकनीक या अभ्यास को सीखने की क्षमता में कमी आती है)I पर्यावरणीय जागरुकता, कृषिगत जैव-विविधता तथा बिजली-आपूर्ति की कमी को भी इसी श्रेणी में रखा जा सकता है।
· सर्वेक्षण का एक निष्कर्ष यह भी है कि ज्यादा आमदनी वाले परिवारों की तुलना में कम आमदनी वाले परिवारों के बीच भू-मिल्कियत में सुधार हुआ है लेकिन इसे पर्याप्त नहीं कहा जा सकता। साथ ही प्रति हैक्टेयर खाद्यान्न के उत्पादन में बढ़ोतरी हुई है लेकिन इसे भी पर्याप्त नहीं कहा जा सकता।
· सर्वेक्षण के निष्कर्ष के अनुसार गुजरे साठ सालों में टिकाऊ खेती के लिए बाधक सामाजिक असमानता कम हुई है लेकिन अब भी उच्च आमदनी और कम आमदनी वाले परिवारों के बीच बहुत ज्यादा का फासला है। इस असमानता का किसान पर मनोबैज्ञानिक असर होता है जिसका एक दुष्प्रभाव टिकाऊ खेती के की आदतों के ना विकसित होने के रुप में होता है। जनसंख्या का घनत्व बढ़ने से संसाधनगत गरीबी बढ़ी है जिससे कृषिगत उपज से मिलने वाला फायदा कम हुआ है।
· इलाके में रासायिनिक उर्वरकों तथा कीटनाशकों का उपयोग कम होने से मिट्टी की उर्वराशक्ति का क्षरण कम हुआ है।
· इलाके में फसलों तथा पशुधन के मामले में कृषिगत जैव-विविधता कम हुई है और इस कारण खेती के टिकाऊपन के लिए जरुरी पर्यावरणीय आधार कम हुआ है।
· शोध का निष्कर्ष है कि किसानों और कृषि-वैज्ञानिकों के बीच संवाद को बढ़ावा देना जरुरी है, साथ ही जरुरी है खेत और प्रयोगशाला के बीच की भौगोलिक और मानसिक दूरी को कम करना। जोतों का समाहारीकरण करके जोतों के आकार को बढ़ाया जा सकता है, इससे जोतों के विखंडन की समस्या से निबटा जा सकेगा।
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“[inside]वेज ऑर नॉन वेज:इंडिया ऐट क्रासरोड [/inside] ”, ब्राईटरग्रीन, नामक रिपोर्ट के मुख्य तथ्य-
http://www.brightergreen.org/files/india_bg_pp_2011.pdf:
* जलवायु के बदलाव में पशुधन की भूमिका
• ग्रीनहाऊस गैसों के सर्वाधिक उत्सर्जन के मामलेमें चीन, अमेरिका, यूरोपीय यूनियन और रुस के बाद भारत का स्थान(पांचवां) है, हालांकि प्रतिव्यक्ति ग्रीनहाऊस गैस उत्सर्जन की मात्रा अब भी भारत में बहुत कम(1.7 टन कार्बनडायआक्साईड-साल 2007) है।
• ग्रीनहाऊस गैसों में मीथेन का उत्सर्जन विश्व के बाकी देशों की तुलना में भारत में सबसे ज्यादा होता हैI इसका कारण है, भारत में मौजूद गाय-भैंसों की विशाल संख्या।
• साल 2007 में पशुधन सेक्टर ने 334 मिलियन टन CO2 eq. का उत्सर्जन किया।भारत में कृषिगत ग्रीनहाऊस गैस उत्सर्जन के मामले में चावल की खेती का योगदान कुल उत्सर्जन का 21 फीसदी यानी 70 मिलियन टन CO2 eq.
• साल 2009 में भारत के स्पेस अप्लीकेशन सेंटर ने पशुधन से होने वाले मीथेन उत्सर्जन के बारे में एक देशव्यापी अध्ययन किया। इस अध्ययन के अनुसार साल 1994 से 2003 के बीच मीथेन के उत्सर्जन में 20 फीसदी(11.75 मिलियन मीट्रिक टन सालाना) की बढोत्तरी हुई है। इस उत्सर्जन में आगे के सालों में भी इजाफा हुआ होगा क्योंकि साल 2003 से 2007 के बीच गाय-भैंसों की तादाद 21 मिलियन बढ़ी है।
• ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन को बढ़ाने वाली जीवनशैली के बारे में इंडियन एग्रीकल्चरल इंस्टीट्यूट में हुए शोध के मुताबित मांसाहारी आहार(इसमें बकरे आदि का मांस शामिल है) में ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन की ताकत शाकाहारी आहार की तुलना में 1.8 गुना ज्यादा होती है। अध्ययन का निष्कर्ष था कि खान-पान संबंधी आदतों को बदलने से ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन में कमी आ सकती है।
* जलवायु परिवर्तन के प्रभाव
• साल 2050 तक भारत में तापमान में 2.3 से 4.8 डग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी हो सकती है। इसका दुष्प्रभाव दूध देने वाले पशुओं पर पड़ेगा, उनकी दूध की मात्रा और प्रजनन-क्षमता घटेगी।
• संकर प्रजाति की गायों पर तापमान की बढोतरी का असर ज्यादा होगा। तापमान बढ़ने और समुद्रतल के ऊँचा उठने से कृषि और चारागाह योग्य जमीन घटेगी। पशुओं में बीमारियां बढ़ेंगी।
• इंडियन इंस्टीट्यूट ऑव मैनेजमेंट की शमा परवीन द्वारा किए गए एक शोध के मुताबिक शाकाहारी भोजन के लिए औसतन प्रति व्यक्ति प्रतिदिन 2.6 क्यूबिक मीटर पानी की जरुरत होती है। अमेरिका में रहने वाला एक व्यक्ति जिसके भोजन में मांस, अंडा और दूध से बने पदार्थ ज्यादा होते हैं प्रतिदिन 5.4 क्यूबिक मीटर पानी की खपत करता है।
• भारतीय भूभाग का तकरीबन 50 फीसदी हिस्सा सूखे की आशंका वाला है। खेती की सिंचाई और जलापूर्ति का 80 फीसदी मानसून पर निर्भर है।
• style="font-family:Mangal; font-size:10pt">साल 2030 तक भारत में पानी की जरुरत 1.5 ट्रिलियन क्यूबिक मीटर हो जाएगी। इसमें खेती के लिए 1.195 बिलियन क्यूबिक मीटर पानी की जरुरत होगी। भारत में मौजूदा जलापूर्ति 740 बिलियन क्यूबिक मीटर सालाना है। नतीजतन नदी-बेसिन(गंगा और कृष्णा) पर भारी दबाव पड़ेगा और वे छोटे होंगे।
• वन एवं पर्यावरण विभाग(भारत सरकार) के साल 2009 के एक रिपोर्ट में कहा गया है कि पशुधन और खेती के कारणों से होने वाले प्रदूषण( पशुजन्य अवशिष्ट, खाद, कीटनाशक) से भूमिगत जल और सतह पर मौजूद जल दूषित होते हैं। भारत के भूतल पर मौजूद जल का 70 फीसदी हिस्सा इन कारणों से प्रदूषित है।
• साल 2007 में मांस के उत्पादन के कारण 3.5 मिलियन टन पानी खराब हुआ। चीनी-उद्योग जितना पानी खराब करता है, यह मात्रा उससे 100 गुनी ज्यादा है जबकि रासायनिक खादों के उत्पादन के कारण खराब हुए पानी की मात्रा की तुलना में 150 गुना ज्यादा।
• मांसाहार तथा दुग्धजन्य उत्पादों को तैयार करने में बिजली की बड़ी खपत होती है। भारत में बिजली की कमी है। देश के 40 फीसदी घर बिना बिजली के हैं।
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[inside]जयंत साठे, पी आर शुक्ल, एन एच रवीन्द्रनाथ द्वारा प्रस्तुत अध्ययन – क्लाइमेट चेंज, सस्टेनेबल डेवलपमेंट एंड इंडिया- ग्लोबल एंड नेशनल कंसर्नस्[/inside], के अनुसार-
http://www.iisc.ernet.in/currsci/feb102006/314.pdf:
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[inside]द वर्ल्ड ऑव ऑर्गेनिक एग्रीक्लचर- स्टैटिक्स एंड इमर्जिंग ट्रेन्डस् 2009[/inside] नामक दस्तावेज के अनुसार- http://orgprints.org/15575/3/willer-kilcher-2009-1-26.pdf:
भारत में सूखा
(ख) सामान्य-मेट्रोलॉजिकल इलाके की सामान्य वर्षा से 19 फीसदी तक की अधिक वर्षा की स्थिति
(ग) कम- सामान्य से 20 फीसदी कम
(घ) अत्यअल्प-सामान्य से 60 फीसदी या उससे ज्यादा की कमी।
(ii) हाइड्रोलॉजिकल ड्राऊट- ऐसी स्थिति में भूमि के सतह पर मौजूद जल की मात्रा में कमी नजर आती है। नदियों में जलप्रवाह कम हो जाता है, झील और तलाब आदि जलाशय सूखने लगते हैं।