दक्षिणी राजस्थान का जिला चित्तौरगढ़ की एक तस्वीर बनती है उसके किलों से। कानों में कवि प्रदीप का गाना बजता है- ये है अपना राजपूताना नाज इसे तलवारों पर। राष्ट्रभक्ति से लबरेज इस तस्वीर का एक पहलू यह भी है कि जिला चित्तौरगढ़ मानव विकास के सूचकांकों के लिहाज से देश के सर्वाधिक पिछड़े 50 जिलों में एख है। और एक करिश्मा ही हुआ पिछले साल की जुलाई के बाद से चित्तौरगढ़ के गरीबों के हक में कि अचानक चित्तौरगढ़ में सैकड़ों(कुल 564) दवाइयां 40 से 90 फीसदी कम कीमतों पर मिलने लगीं। यह सब हुआ एक परियोजना के बदौलत सेंट्रल कॉपरेटिव बैक के सहयोग से चलायी जाने वाली 16 दुकानों के कारण। इन दुकानों में दवाइयों अपने ब्रांडनेम से नहीं बल्कि दवाइयों में मौजूद मूल रसायन के नाम से बिकती हैं और इस अनोखी परियोजना की शुरुआत हुई चित्तौरगढ़ के जिला कलेक्टर डाक्टर समित शर्मा की पहल से।
देश की चिकित्सा व्यवस्था का एक कड़वा सच यह है कि इसके बुनियादी ढांचे का 70 फीसदी हिस्सा निजी हाथो में है और किसी व्यक्ति को अपने उपचार पर होने वाले खर्चे का 80 पीसदी हिस्सा खुद की जेब से खर्चना पड़ता है। इसका एक बड़ा हिस्सा दवाइयों पर खर्च होता है। डाक्टर शर्मा ने अपनी पहल की शुरुआत इसी मोर्चे से की। पहले उन्होंने सरकारी अस्पतालों के डाक्टरों पर दबाव बनाया कि वे मरीज को दवाइयों का पुर्जा लिखते वक्त ध्यान रखें कि दवाइयों के नाम उनमें मौजूद मूल रसायनों के नाम से लिखें जायें ना कि उनके ब्रांडनाम के रुप में। यह मरीज की पसंद पर निर्भर है कि वह दवाइयां चाहे तो मूल रसायन के नाम से खरीदे या फिर ब्रांडनेम से. शर्मा की पहल पर सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों के माध्यम से जेनरिक दवाइयों की खरीद को बढ़ावा देने के लिए प्रचार अभियान भी चलाया गया।
डाक्टर शर्मा का प्रयास रंग लाया। चित्तौरगढ़ शहर में दो बड़े अस्पताल और 50 से अधिक निजी प्रैक्टिस वाले डाक्टर हैं। इनका कहना था कि दवाइयों को उनके मूल रसायन के नाम से लिखने से उपचार के लिए आने वाले रोगियों की संख्या में कम से कम 15 फीसदी का इजाफा हुआ है।
डाक्टर शर्मा जो आईएएस की परीक्षा में बैठने से पहले खुद कभी जयपुर बतौर चिकित्सक काम करते थे, आज चित्तौरगढ़ में गरीब लोगों के हमदर्द के नाम से शुमार किए जाते हैं। शहर की सड़कों पर चलने वाले किसी भी आदमी से पूछो वह डाक्टर शमित शर्मा का नाम अपने हमदर्द के रुप में बताएगा।
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